Friday, May 17, 2024
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शालू का शोध आलेख – ब्रिटेन में भारतीय संस्कृति के बदलते आयाम

शोध सार
वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति की संकल्पना एवं उसका गौरव अत्यंत व्यापक है। प्रत्येक देश की सांस्कृतिक विरासत में विविधता के भंडार विद्यमान होते हैं। भारत में पुरातन काल से ही बहुआयामी व बहुसांस्कृतिक प्रधान व्यवस्था रही है। जिसकी मजबूत आधारशिला से नए मूल्यों व नए तथ्यों का विकास निरंतर हो रहा है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप मानवीय, प्राकृतिक और साहित्यिक संबंधों पर आधारित होता है। यहाँ प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे का सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से हित चाहता है। इसलिए लोगों में परस्पर समानियोजन की सकरात्मक भावना प्रदर्शित होती है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति की विविधता व एकता अन्य संस्कृतियों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है।
बीज शब्द:- हर्षोल्लास, भौतिकवादी, विस्थापन, कर्मठता, रूढ़ियाँ, संस्कार
शोध आलेख
वर्तमान युग में समय परिवर्तित होने से युवा पीढ़ी भौतिकवादी संस्कृति की ओर पलायन हुई है, परंतु उन्होंने अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सदैव विदेशों में भी जिंदा रखा है। ऐसा कोई भी तीज-त्योहार नहीं, जिसे भारतीय हर्षोल्लास के साथ न मनाते हों। भले ही त्योहारों का संबंध विकसित देशों में परिवर्तित हुआ हो, लेकिन उनकी भावनात्मक संवेदना भारतीय ही रहती है। इस प्रकार प्रवासी भारतीयों द्वारा विदेशों में संस्कृति, साहित्य, भाषायी और आत्मानुभूति के बहुआयामी छवियाँ दिखाई पड़ती हैं।
नीना पॉल कृत ‘कुछ गांव गांव कुछ शहर शहर’ उपन्यास प्रवासी जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ को गहराई से चित्रित किया गया है। लेखिका ने सरलाबेन और उसके परिवार का ताना-बाना अपने निजी अनुभवों और गहन चिंतन-मनन करके सुव्यवस्थित किया है। इस उपन्यास में गुजरात के ‘नवसारी’ की सरलाबेन व अन्य प्रवासियों के संघर्ष, पीड़ा और विस्थापन की समस्याओं को उजागर किया गया है। उपन्यास में सरलाबेन का विवाह पंकजभाई से होता है। अतएव पंकजभाई के चाचा की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात उन्हें भारतीय समाज व संस्कृति को छोड़कर युगांडा (अफ्रीका) में जाकर अपने चाचा के जमे-जमाये व्यवसाय को संभालने के लिए जाना पड़ता है। इस प्रकार पंकज अपने और चाचा के परिवार के उत्तरदायित्व को कर्मठता से निर्वहन करता है। स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में परिवार सामाजिक संरचना का केंद्र बिंदु रहा है। जिसके आधार पर समाज के अन्य सामाजिक संबंधों का निर्माण होता है। यही कारण है कि पारिवारिक सदस्य एक-दूसरे के प्रति भावनात्मक संवेदना का भाव रखते हैं। 
इस उपन्यास में जहाँ सरोज एक ओर पतिव्रता धर्म का पालन करती है वहीं दूसरी ओर पति के प्रति अपने उत्तरदायित्त्वों का पालन करते हुए उनके साथ अफ्रीका भी जाती है। इतना ही नहीं, सरला कभी गुजरात से अहमदाबाद में नहीं गई, आज वह भारतभूमि को छोड़कर यूरोपीय देश में बसने जा रही है। इस प्रकार उपन्यास का आरंभ सरला के जीवन संघर्ष से शुरू होता है। “पश्चिम में रहनेवाला प्रत्येक भारतीय अपने अंदर एक ‘लघु भारत’ बचाकर रखना चाहता है। इसका तात्पर्य यह है कि अपनी रूढ़ियों, संस्कारों, जीवन मूल्यों एवं धार्मिक चेतना को अपने अंदर बचाकर रखना। लेकिन इन भारतीयों के सामने असली संकट तब पैदा होता है जब इनके बच्चे बड़े होते हैं जो पाश्चात्य संस्कृति में ही पले-बढ़े हैं जिनके खून में भारत है पर परिवेश में पश्चिम। इस तरह घर-घर में ‘सांस्कृतिक द्वन्द्व’ का जन्म होता है।”1
अफ्रीका में पहुंचकर सरलाबेन कड़ी मेहनत कर आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करके अपनी नयी गृहस्थी की शुरूआत करती हैं। सरला ने अफ्रीका में बेटी सरोज को जन्म दिया तथा बड़े होने पर गुजराती परिवार के सुरेशभाई से विवाह करवा दिया। भारतीय संस्कृति से ओत-प्रोत सरला अफ्रीका की संस्कृति को अपनाने का प्रयास कर रही थी, लेकिन नियति को कुछ ओर ही मंजूर था। एक बार फिर भारतीय प्रवासियों को अफ्रीका से निष्कासित कर दिया गया। उसका कारण यह था कि एशियाई लोगों द्वारा कार्य करने से अफ्रीकावासी बेरोजगार होते जा रहे थे। लेखिका ने उपन्यास में स्पष्ट किया है कि जिस कर्मभूमि को अपना समझकर सरला जैसे अन्य प्रवासियों ने अपना विशिष्ट योगदान दिया। यह देश अब उनके लिए पराया हो गया था। सरला के परिवार ने दूसरी बार विस्थापन की पीड़ा को झेला। सरलाबेन का परिवार युगांडा की स्मृतियों को लेकर ‘ब्रिटेन’ के लेस्टर शहर में स्थित लॉबरो गाँव में रहने के लिए विवश हो जाता है। ब्रिटेन की संस्कृतियों को अपनाना सरला के परिवार के लिए काफी कठिन होता है। 
स्पष्ट है कि पश्चिमी देशों में जितनी शीघ्रता के साथ प्रवासियों को स्वीकार किया, उतनी ही शीघ्रता के साथ उनको बेघर भी कर दिया। भारतीय लोगों की एक प्रवृत्ति है कि ये विभिन्न समस्याओं का सामना दृढ़ता व साहसपूर्वक करते हैं।
ब्रिटेन के लेस्टर शहर की संस्कृति व समाज को भारतीयों ने बसाया है। यद्यपि भारतीयों की पहचान से ब्रिटेन के लेस्टर शहर की स्थापना हुई। “ब्रिटिश निवासी भी मानते हैं कि लेस्टर को असली पहचान भारतीयों ने ही दिलाई है। 19वीं सदी के आरम्भ में लेस्टर के विषय में कोई जानता भी नहीं था। मोटर-वे पर कहीं लेस्टर का साईन तक नहीं था। यहां तक कि ब्रिटेन के नक़्शे में छोटा सा लेस्टर का नाम कहीं लिखा मिलता था। यूं कहिये कि लेस्टर की पहचान भारतीयों से, और भारतीयों की पहचान लेस्टर से हुई।”2 अभिप्राय यह है कि भारतीय लोग विश्व के किसी भी कोने में चले जाए, वहीं पर किसी न किसी रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। सामान्यतः मनुष्य अपनी परंपरा और मूल्य को स्थापित करने के लिए दूसरे देशों में जाकर वहाँ के मूल निवासियों से अधिक परिश्रम करते हैं क्योंकि उनका उद्देश्य पश्चिमी देशों में कम समय में अधिक उपलब्धियों को प्राप्त करना होता है। विकसित देशों में पुरुषों के साथ स्त्रियां भी सहयोग करती हैं। जिससे ब्रिटेन की संस्कृति में उनका पारिवारिक जीवन आर्थिक रूप से सक्षम हो सके। “सरोज जैसी और भी बहुत सी महिलाएं हैं जिन्होंने अफ्रीका में कभी नौकरी नहीं की थी। यहाँ आने पर घर चलाने के लिए सब को कड़ी मेहनत का सामना करना पड़ा। कारखानों में पीस-वर्क के हिसाब से वेतन मिलता है यानी जितना काम उतने पैसे। हर काम गिनती के साथ होता है। सबकी यही कोशिश रहती है कि बिना किसी से बात किए बस अधिक से अधिक काम किया जाए।”3  वैश्विक स्तर पर स्त्रियाँ अपने अस्तित्व को पाने में समक्ष हुई हैं।
लेखिका ने उपन्यास में तीन पीढ़ियों की संघर्षगाथा का सुव्यवस्थित चित्रण किया है। सरलाबेन की नातिन तथा सरोजबेन की बेटी निशा प्रवासी भारतीयों की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं। निशा के माध्यम से लेखिका ने प्रवासियों की युवा पीढ़ी की मानसिकता को स्पष्ट करने का सफल प्रयास किया है। निशा के माता-पिता के लिए ब्रिटेन कर्मभूमि था, लेकिन निशा के लिए ब्रिटेन मातृभूमि है। यही कारण है कि उसे अपने जीवन में मानसिक और शारीरिक द्वंद्व को झेलना पड़ता है। निशा को बचपन से ही रंगभेद व नस्लवाद जैसे समस्याओं का सामना करना पड़ता है। “न जाने यह लड़की किन एलियंस को ले कर घर आ जाती है। उफ…सारा घर बदबू से भर गया है। क्या किसी अपने जैसे से दोस्ती नहीं कर सकती। न जाने कितने किटाणु छोड़ गई होगी वो ब्लैकी।”4  तात्पर्य यह है कि निशा के माता-पिता ने उसे दोनों देशों की संस्कृतियों के संस्कार प्रदान किए हैं। इस प्रकार वह बचपन से ही इन समस्याओं से जूझती रही है। 
लेखिका ने स्पष्ट रूप में वर्णित किया है कि प्रवासी माता-पिता के बच्चे होने के कारण निशा व अन्य भारतीय लोगों को अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का समाना करना पड़ता है। भले ही निशा प्रवासियों की तीसरी पीढ़ी नेतृत्व कर रही हो, उपन्यास में निशा को रूममेट एंजी ‘ब्लैक बास्टर्ड’ के ताने सुनाकर हाथ उठाती है, तो वहीं एंडरिया कारखाने में सरोज का हाथ जला कर अपने अपमान का बदला लेती है। इतना ही नहीं, ब्रिटिश लोगों के मन में प्रवासी भारतीयों के प्रति केवल घृणा का भाव ही नहीं है अपितु भय भी है। ब्रिटेन की मूल निवासी बलिंडा को भारतीयों से इसलिए डर लग रहा है कि भारतवंशी लोग अंग्रेजों से अपनी पराधीनता का बदला लेने आ रहे हैं। “देखो तो…लगता है इतने सारे एलियंस हमारे देश पर हल्ला बोलने आ रहे हैं…नहीं बलिंडा ये एलियंस नहीं अफ्रीका से आने वाले कुछ और भारतीय हैं।”5
स्पष्ट है कि भारतीय लोगों की प्रवृत्ति मिलनसार होती है। चूँकि ब्रिटेन की भूमि को भारतीयों ने अपने खून-पसीने के द्वारा सींचा है, भला उसका बुरा कैसे कर सकते हैं? यूरोपीय देशों में रहकर भारतीयों ने प्रत्येक धर्म और संस्कृति को हृदय से अपनाकर उसका सम्मान और स्वागत किया जाता है। यह स्वाभाविक सत्य है कि भारतीयों ने जन्मभूमि से लेकर कर्मभूमि तक अपने परिश्रम व पुरुषार्थ द्वारा सुनहरे भविष्य के लिए सार्थक प्रयास किए हैं। जिस प्रकार सरलाबेन और अन्य प्रवासियों ने दो या अधिक बार विस्थापन की पीड़ा, रंगभेद की त्रादसी, असभ्य व अशिष्ट शब्दों का सामना करके भी लिस्टर शहर का नवनिर्माण किया। लेखिका ने उपन्यास में एक ओर यह भी उल्लेख किया है कि यूरोपीय देशों के लोग जहाँ एक ओर भारतीयों से घृणा करते हैं तो दूसरी ओर लाखों रूपये खर्च करके भूरी रंग वाली चमड़ी को पसंद भी करते हैं। इस प्रकार देख सकते हैं कि ब्रिटिश लोगों को भारतीय संस्कृति और परंपराओं के प्रति आकर्षण व लगाव की भावना है।
प्रवासियों की युवा पीढ़ियों ने पश्चिमी देशों के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश को आत्मसात कर लिया है। परिवेशगत आधार पर अंग्रेजी इनकी मातृभाषा के रूप विकसित हो गयी है। इन्होंने अपने बचपन में माता-पिता को भाषायी, खान-पान, रहन-सहन के अंतर्गत काफी परिश्रम करते हुए देखा था। इस दृष्टि से वर्तमान में युवा पीढ़ी इस तरह से आपस में घुल-मिल गयी है कि अब ब्रिटेन की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक विरासत को सहजता व सुगमतापूर्वक समझ सकती है। इसके अतिरिक्त माता-पिता अपने बच्चों को भारतीय संस्कृति व परंपराओं के अंतर्गत संस्कार देते हैं। जिसके परिणामस्वरूप बच्चों को द्वंद्वात्मक स्थितियों से गुजरना पड़ता है। “जैसे क्रिश्चियन लोगों के लिए क्रिसमस बहुत बड़ा त्योहार है वैसे ही भारतीयों के लिए दीवाली है। क्योंकि लेस्टर में बहुत भारतीय रहते हैं। वह भी इस देश के नागरिक हैं। यहां की इकोनोमी को बढ़ाने में उनका भी पूरा सहयोग है तो अपना त्यौहार भी तो यह यहीं मनाएंगे।”6
स्पष्ट है कि प्रवासी भारतीयों ने ब्रिटेन को आर्थिक रूप से विकसित बनाने के लिए कठिन परिश्रम किया है। उन्होंने ब्रिटिश लोगों के बीच अपने अस्तित्व व अस्मिता के लिए दोनों देशों की संस्कृतियों को आत्मसात किया है। इसलिए प्रवासी भारतीय दृढ़तापूर्वक ब्रिटेन के नागरिक होने का अधिकार रखते हैं। प्रवासियों की तीसरी पीढ़ी को यूरोपीय देशों की सभ्यता, संस्कृति व इतिहास के प्रति गर्व का अनुभव होता है। अतएव ब्रिटिश नागरिक होने के कारण उनकी यूरोपीय देशों की संस्कृति में रुचि व ज्ञान बढ़ने लगा है। इसलिए वह प्रत्येक त्योहार को बड़े ही उत्साहपूर्वक मनाते हैं क्योंकि भारतीय परंपरा में रचे-बसे अभिभावकों के सपने भी परंपरावादी और रूढ़िगत होते हैं। यही कारण है कि युवा पीढ़ी का घर के बाहर पश्चिमी संस्कृति के अनुरूप आचरण ढलने लगता है, तो वहीं घर के भीतर आते ही अपने अभिभावकों के साथ भारतीय संस्कृति में घुल-मिल जाते हैं। 
वास्तव में त्योहार किसी भी देश व संस्कृति से संबंधित हो, परंतु वह जीवन में कोई-न-कोई संदेश तथा प्रेम व सद्भावना के उद्देश्य में वृद्धि करके नकारात्मकता को दूर करते हैं। विभिन्न धर्मों के पर्व उस देश की शांति और समृद्धि के प्रतीक होते हैं। उपन्यास में लेखिका ने निशा और उसके मित्रों द्वारा भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के अंतर्गत त्योहारों के साम्य व विषम्य को सरल और रोचक रूप में प्रस्तुत करते हुए दिखाया है। उपन्यास में स्पष्ट रूप से अंकित किया गया है कि वैश्विक स्तर पर लोगों के त्यौहार मनाने के सौहार्द एक समान होते हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति के विदेशों में रूप परिवर्तित हो जाते हैं। यद्यपि यूरोपीय देशों में हैलोवीन पर्व अत्यंत प्रसिद्ध है। यह पर्व भारतीय संस्कृति के दीवाली और लोड़ी के त्योहारों से मिलता-जुलता है। लेखिका लिखती है कि “हैलोवीन तो बहुत कुछ हमारे पंजाब के त्योहार लोड़ी से मिलता है।…हैलोवीन दीवाली से भी तो मिलता है जो भारत का अहं त्योहार है। दिवाली से पहले नर्क-चौदस आता है जिसमें घर की साज-सज्जा करके एक जलता दीपक घर के बाहर रखते हैं। जो कि अंधकार पर उजाले का प्रतीक है।”7 इसी तरह से ब्रिटेन में ‘ट्रिक एंड ट्रीट’ और ‘गाय फोक्स नाइट’ क्रमशः हमारे भारतीय त्यौहार लोड़ी और दशहरे के उत्सव की तरह मनाया जाता है। प्रवासी भारतीय विभिन्न त्योहारों को चाहे हिंदी में मनाएं या अंग्रेजी में इसके आनंद की अनुभूति दिनों दिन बढ़ती जाती है। 
जिस प्रकार यूरोपीय लोगों ने भारतीय लोगों और भारतीय संस्कृति त्योहारों को आत्मसात किया है, उसी प्रकार भारत में भी विदेशों के ‘क्रिसमस’ पर्व को बड़े ही आनंद व हर्षोल्लास से मनाकर उनका हदय से स्वागत किया है। उपन्यास में विदेशी पर्व की धूम को इस प्रकार से रेखाकिंत किया गया है कि “क्रिसमस क्रिशचियंस का सबसे अहं त्योहार है जिसकी पूरे साल प्रतीक्षा की जाती है। सैकड़ों पाउंड घर को सजाने में, क्रिसमस ट्री, उस पर रंग बिरंगी बत्तियां लगाने में और तोहफे खरीदने में खर्च किए जाते हैं।”8
उपयुक्त विवेचन व विश्लेषण के उपरांत कहा जा सकता है कि भारतीय और पाश्चात्य दोनों देशों में सांझी संस्कृति का समन्वय है। अतएव इससे प्रवासियों द्वारा अपने देश की संस्कति का प्रचार-प्रसार निरंतर बढ़ रहा है। दोनों संस्कृतियों की युवा पीढ़ी वैवाहिक बंधनों में बंधकर आपसी टकराव को समाप्त करने का प्रयास कर रही है। जिसके परिणामस्वरूप नए देश में प्रवासियों का सह-अस्तित्व और आत्मसातीकरण के उदात्त तत्वों का रूप पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं।
लेखक परिचय
शालू 
शोधार्थी, हिंदी विभाग
हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय, धर्मशाला, 
जिला-काँगड़ा, हिमाचल प्रदेश- 176215
ई-मेल- shalubabbar0@gmail.com

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संदर्भ ग्रंथ सूची
  1. एन. मोहनन, समकालीन हिन्दी उपन्यास, दिल्ली:वाणी प्रकाशन, संस्करण 2013, पृष्ठ 81
  2. पॉल, नीना, कुछ गांव गांव कुछ शहर शहर, दिल्ली:यश प्रकाशक, संस्करण 2014, पृष्ठ 13
  3. वही, पृष्ठ 34
  4. वही, पृष्ठ 53
  5. वही, पृष्ठ 13
  6. वही, पृष्ठ 60
  7. वही, पृष्ठ 58
  8. वही, पृष्ठ 102
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