उस इंसान का मुँह कुछ ज्यादा ही लटका हुआ था ..चेहरे पर मुस्कान कभी आई होगी इसके कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहे थे . जच्चा वाली बताशा फोड़ चाल से चलता हुआ वो बराबर की सीट पर विराजमान हो गया .हमारी नजर किताब से उठ कर उन पर जा टिकी और उन्होंने हमें नहीं पर उस किताब को बड़े अजीब से भाव से देखा और बैठ गए..अब हमारे मन में अनेक प्रश्न कुलांचे मारने लगे.
वे अपनी मनहूसियत ओढ़ कर सोने के लिए तैयार दिखे .हमने भी हार मानना सीखा नहीं “हमारे सामने तो पत्थर भी बोल उठें ये तो फिर भी इंसान है” हमने मन ही मन अपनी पीठ थपथपाई… “नमस्कार जी ..किस स्टेशन पर उतरेंगे आप ?” हमने उनकी तरफ प्रश्न उछाला..
दिल्ली ..उन्होंने बड़े मरे मन से जवाब दिया ..”अरे वाह हम भी वहीं जा रहे हैं” हम ने प्रसन्न भाव से कहा …
“लगता है आपको किताबें पढ़ने का शौक है ?” अबके प्रश्न उस तरफ से आया..
“जी हाँ मेरी सबसे अच्छी मित्र हैं किताबें ..क्या आप नहीं पढ़ते” हम चहक कर बोले हमें अब वे साहित्यप्रेमी लगे…
“हमारी तो मज़बूरी है पढ़ना” उनकी आवाज में अब गहरा दर्द उतर आया और हमारी ख़ुशी फुस्स हो गयी..
“मतलब ?” हमने पूछा.. हमारी समझ में सच में कुछ नहीं आया था.
“हमारा प्रेम हमें इतना दर्द देगा नहीं पता था“ गहरी उदास आवाज में जवाब आया..
“अरे, भाई साहब क्या हुआ.. लगता है.. आप तो प्रेम में धोखा खाए हैं ..लड़की ने किसी और से ब्याह कर लिया क्या ?”
“अजी कहाँ.. लड़की से मुहब्बत का वक्त ही कहाँ है ..हम तो लेखकों की अपठनीय ..अझेल ..पकाऊ रचनाओं में ही उलझ कर रह गए हैं ..कभी पढ़ने-लिखने से मुहब्बत थी ..आज यही हमारे दुःख का कारण बन गया है..” उनकी आवाज में उनकी मजबूरी साफ़ पढ़ी जा सकती थी.
“अरे ऐसा क्या ? क्या आप किसी पत्रिका के संपादक हैं ?”
“बहनजी आपने अब हमारे दर्द को सही पकड़ा..” उनके स्वर में पहली बार कुछ जान आयी.
“अरे भाई साहब इतना बढ़िया काम है ये ..हर लेखक आपके आगे-पीछे नाचता होगा और आप हैं कि उदासी ओढ़े बैठे हैं” हमने अपने ज्ञान पेला.
“अजी छोड़िये बहन जी ..सब मतलब के यार हैं ..सबको लगता है उनकी रचना छाप दें ..एक सच्चा दोस्त नहीं मिलता हमें. उलटा जिसकी रचना ना छापो वही दुश्मन बन जाता है .काहे का बढ़िया काम . रचनाओं का अम्बार लगा रहता है ..बिना पढ़े रिजेक्ट करना हमारे उसूलों के खिलाफ है ..सो सबको पढ़ते हैं . दिन भर उन रचनाओं को झेलने के बाद कुछ अपनी पसंद का पढ़ने की तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाते.” उनका दर्द जो अब तक टपक रहा था अब बहना शुरू हो गया..
“पर भाई साहब आजकल तो सब कम्प्यूटर से होता है और मेल पर आने से आप लोगों को आराम हो गया होगा, समय भी तो बचता होगा ? पहले तो टाइप का काम भी करना पड़ता था.” इस बार हमने फिर खुद को इंटेलिजेंट साबित करने का प्रयास किया.
“काहे का आराम जी ..लोगों को ढंग से मेल तक भेजना नहीं आता ..पता नहीं किस किस फॉण्ट में लिखेंगे रचना खोलो तो कुछ आकृतियाँ ही दिखती हैं. ज्यादातर लोग इन्बोक्स में ही रचना चेप देते हैं, अब करो कॉपी पेस्ट.. इन्हें तो वर्ड फ़ाइल भी समझ नहीं आता. यदि किसी ने समझ भी लिया तो रचना पर नाम नदारद होता है… अब एक बार डाउनलोड करने के बाद समझ ही नहीं आता कि किसकी रचना थी.. फिर से सारे मेल देखो… रचना के साथ शैतान की आंत जैसा परिचय चिपका देंगे…यदि गलती से फोटो मांग लो तब तो और मुसीबत..” वे ब्रेथलेस से बोलते जा रहे थे. हम मुहँ लटकाए उन्हें सुन रहे थे और समझने की कोशश कर रहे थे उस दर्द को जिसकी वजह से एक इंसान मुस्कुराना भूल चुका था.
“क्या फोटो भी नहीं भेज पाते ?” हमने हिम्मत करके पूछा.
“अजी फोटो… कुछ लोग तो चार पांच फोटो भेज मारते हैं.. आप ही पसंद कर लो ऐसा लिख भी देते हैं ..अब हम क्या सगाई के लिए लड़की पसंद कर रहे हैं जो फोटो चुनें ..और चुन भी लें पर ढंग का फोटो भेजो तो सही ..लेट कर ..खड़े होकर ..बगीचे में ..झरने के सामने .ऐसे पोज को पत्रिका में कोई कैसे छापे ?” उनके स्वर में गुस्सा था ..अजी कुछ तो रचनाओं से बड़े फोटो भेजते हैं ..अब आप ही बताइए हम रचनाएँ एडिट करें या फोटो?”
उनका दर्द सुनते सुनते हमारी हिम्मत टूट रही थी …हे भगवान संपादक की इतनी मुसीबत है..हमारी तो मानो रूह ही कांप गयी थी ..और हमने हाल में एक पत्रिका में निकली सह संपादक की पोस्ट के लिए अप्लाई करने का ख्याल मन से तुरंत निकाल फैंका और आगे की दास्तान सुनने बैठ गए…!