Saturday, October 12, 2024
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मंजीत सिंह की कविता – द्यूतशाला में नारी

अधरों के ताले तोड़ोगी, मुस्का के तब गा पाओगी,
हाथों को बांधे रखोगी, केवल अबला कहलाओगी।
उस धर्मराज ने ही तुमको जुए पर दांव लगाया था,
दुःशासन ने पल्लू खींचा, पतियों ने शीश झुकाया था,
युधिष्ठिर को ग़र उसी रोज़, तुम मौत की नींद सुला देती ,
औरत सौदे की चीज़ नहीं, संसार को सबक सिखा देती,
अब वस्त्र-विहीना हो कर भी, तुम कृष्ण बुला न पाओगी
नन्हीं कलियों के खिलने पर, कीकर हिल-हिल हर्षाता है,
कन्या के पैदा होने पर क्यों मुख मां का मुरझाता है,
नन्ही कलिका के खिलने पर टहनी जो अश्रु बहायेगी,
पतझर उपवन को डस लेगा, पत्ती-पत्ती जल जाएगी,
मौसम से भीख भले मांगो, ऋतू राज को ला न पाओगी।
कुछ लोग परेशां होते हैं, क्यों कोयल कू-कू गाती है,
मुस्लिम महिला तो पर्दे में, हर रोज़ सिमटती जाती है,
है शौहर को अधिकार यहां, नित नया निक़ाह रचाने का,
कलियों को रोज़ मसलने का, हर रोज़ तलाक़ सुनाने का,
इस चक्रव्यूह में पड़ी रही, पग-पग पर ठोकर खाओगी।
भटके क्या राह दिखाएंगे, खुद अपनी राह बनाओ तुम
सीता-सावित्री की छोड़ो, अब रणचण्डी बन जाओ तुम,
नागिन जैसा फुफकरोगी, न पास नेवला आएगा,
ग़र डंक मारना भूल गयी, चूहा तुमको खा जायेगा,
गल माल में होंगे असुर मुंड, माँ काली सी पुज जाओगी।
मंजीत सिंह
मंजीत सिंह
संपर्क - 9811384966
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