अभी उर्मिला हाथ उठायी ही थी मारने के लिए यह बोलते हुए कि तुम्हारी इतनी हिम्मत कि मुझसे मुँह चलाओगे..तभी बेटे ने मजबूती से माँ का हाथ पकड़ लिया।
आखें तरेरते हुए बोला, “खुद कितनी संस्कारवान आप है यह बताने की जरुरत नही है माँ!! आइन्दा मुझे मारने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई ना होगा,” कहते हुए साहिल तेज कदमों से कमरे को लाघते हुए बालकनी में जाकर बेत के झूले पर बैठ गया ।
अवाक सी बनी पति का मुख निहारती रह गयी उर्मिला। अब यह कोई नयी बात नही रह गयी थी, आये दिन ऐसा होने लगा था। साहिल को घंंटो फोन पर बात करते देेेख वो मन ही मन कुुुढ़ती रहती थी। जिस बेेटे को वो अपनी अगुुँँली पर नचाने वाली थी, वो तो अब हाथ से ही छूूूटता जा रहा था।
मायके से ही मनबढ़ी और स्वच्छंद विचारो की उर्मिला किसी की भी बात को बिना काटे नही रह पाती थी। हर बात का पलट कर जबाब देना और तो और किसी को भी कड़वी बात बोल उसका कलेजा छलनी कर देना तो जैसे उसके बायें हाथ का खेल बन गया था।
शुरुआत से ही बददिमाग पत्नी के तेवर को देखकर पति की तो जैसे घिघ्घी ही बधीं रहती थी। एक सुई भी ऊर्मिला की मर्जी के बगैर उस घर में खरीद कर नही आता था। विवाह के मात्र चार साल के भीतर ही ऊर्मिला का अपनी सास, ननद और जिठानी से मनमुटाव इतना बढ़ गया कि नौबत बटवारे तक आ पहुचीं , ससुर, जेठ और उसके पति की मर्जी ना होते हुए भी घर के चूल्हे तीन हो गये। ऊर्मिला के दम्भी और जिद्दी स्वभाव के कारण ही उसका पति अपनी बुजुर्ग माँ को भी अपने साथ नही रख पाया।
साहिल ऊर्मिला का एकलौता बेटा है, जिसे वो बचपन से ही आत्यधिक प्यार दुलार मे पाल पोस रही थी । बचपन से ही वो माँ की करतूतों को देखते हुए बड़ा हो रहा था। बच्चे तो बच्चे होते है उनके मासूम और साफ स्लेट रूपी मस्तिष्क मे वही अंकित होते जाता है जो वो अपने आसपास देखते हुए बड़े होते है, यही हाल साहिल का भी हो रहा था। बचपन का मासूम, कुशाग्र और नाजुक सा साहिल अब माँ की सारी बददिमागी को खुद में आत्मसात करते जा रहा था।
मोहल्ले की ही सजातीय सुन्दर लड़की से साहिल की रोज रोज की मुलाक़ात प्रेम में बदल चुकी थी, जबकि उस लड़की की माँ ऊर्मिला की सहेली भी थी फिर भी ऊर्मिला को यह रिश्ता बिल्कुल पसंद नही था, जिसका सबसे मुख्य कारण लड़की के पिताजी का आर्थिक रूप से कमजोर होना था।
बारहवीं के बाद साहिल कानून की पंचवर्षीय पढ़ाई करने पूना चला गया । ऊर्मिला को लगा कि दूरियों की वजह से रिश्ते को विराम मिल चुका होगा, पर साहिल भी तो अपनी माँ की ही तरह सच्चा प्रेमी निकला, जिसे दिल दिया उसे आखिरी सांस तक निभाने का जज्बा भी बखूबी रखा था। इन पाचँ सालों में यह रिश्ता और निखर कर सामने आ गया।
जब भी साहिल घर आता तो छत पर या बालकनी में बैठकर अपनी प्रेयसी से घंटो बाते करता, नये जीवन का खाब बुनते रहता। ऊर्मिला को यह सब फूटी आखँ ना सुहाता, वो अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहती। उसे ऐसा प्रतीत होता कि कहां मेरे बेटे के लिए एक से एक रिश्ते तीस चालीस लाख की अटैची साथ मे लेकर आते , और कहां यह निरा गरीबगुरबा दो तीन कुन्तल चावल पर अपनी बेटी बाधं देगा और तो और सखी सहेली, नाते रिश्तेदारों में जो साख ऊर्मि की बनी है वो अलग ही खराब होगी।
खैर भोजपुरी की एक कहावत ” अपने से हारल, मेहरी के मारल केहू से कहल ना जाला” अब ऊर्मिला इस रिश्ते को मन मार कर स्वीकार करने को मजबूर हो गयी थी।
क्योंकि नही मानती तो बेटा खुद से विवाह कर लेता और रूढ़िवादी परिवार की होने के नाते जो थू थू होती वो अलग, और खुद को जो रोबीली बताती चलती उस पर अगुँली अलग से उठती।
अब वो नाते रिश्तेदारो में यही बताती चलती कि उसके पति के किसान मित्र है उनकी खूबसूरत बेटी को हमलोगों ने साहिल के लिए पसंद कर लिया है, वो यह बात बड़े जोरदार ढ़ग से बताती कि सबसे बड़ी बात है कि वो लोग सजातीय है ।
खैर!! अन्त भला तो सब भला, पर एक बात जो सबक लेने की है वो यह कि खुद को बहुत ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर पेश करने की आदत से हमेशा बचना चाहिए, ज्यादा आत्ममुग्धता भी कभी कभी भयानक सिद्ध होती है, और जगहँसाई अलग से। आजकल के बच्चो को अच्छा संस्कार और परवरिश दीजिए बाकि उनकी पसंद नापसंद में अपनी सकारात्मक सहभागिता दिखाईये, वो अपने लिए आपसे बेहतर ही चुनेंगे।
बिम्मी जी यह कथा नहीं सीख है यानी उपदेश ।
प्रभा