क्रिस्मस

  • राज हीरामन

क्रिस्मस के आने में अभी दो महीने बाकी थे, पर स्थानीय समाज कल्याण मंत्रालय के दफ्तर में सुबह से शाम तक पेंशन पाने वालों की भीड़ से उस बराम्दा खचाखच मांगताओं से भरा रहता था। कुर्सियों के लिए लोग लड़ भी जाते थे। दफ्तर सवेरे ८.०० बजे खुल जाता था पर अफ्सर-अधिकारी ९.०० बजे के बाद ही आते थे। कई तो १०.०० के आसपास ही आते।किसी  को च्यूँ तक बोलने की हिम्मत नहीं हीती थी क्योंकि वहां की महिला अधिकारी बहुत ही सख्त थी।चलती थी हिटलर की तरह और उस से एक पैसा पेंशन पा लेना भूत से कपूर पा लेने के बराबर था। बात-बात पर पेंशन-पात्र के घर स्थिति का जायज़ा लेने पहुँच जाती थी और आवश्यक्ता पड़ने पर या तो पेंशन कम कर देती या काट ही देती थी।

आज उस महिला अधिकारी का इंतजार किसी को हो या न हो पर एलीजाबेत को धी। ८० पार की वह विध्वा पहली कुर्सी पर आ बैठी थी। वह उत्सुक थी अधिकारी से मिलकर अपने बेटे पीटर की जेल से पूर्व रिहाई की सरकारी सहायता के लिए। एलीजाबेत की खुशी दोहरी थी क्यों कि बेटे पीटर को वह पांच साल के बाद देखेगी और साथ में क्रिस्मस मनाएगी। पीटर ने अपनी इस बार की जेल यात्रा में जरूर कुछ अच्छा ही किया होगा जो उसकी सज़ा में जेलर ने तीन महीने कम कर दिए थे। आज जैसे इस बात पर एलिजाबेत को अपने बेटे पीटर पर गर्व हो रहा था। नहीं तो जेल के अंदर मार-धाड़ करके वह अपनी सज़ा बढ़ा ही लेता था।

सरकारी जेल से जेलर ने पीटर के अच्छे बर्ताव के लिए  तीन महीने की सजा कम करने के सरकारी फैसले की बात तो लिखी ही थी पर साथ में यह भी लिखा था कि इस पूर्व रिहाई के लिए पीटर को कुछ पाँच साढ़े पाँच हजार रुपए भरने होंगे। एलिजाबेत पगलाई थी अपने बेटे को छुड़वाने के लिए। एक बार तो पीटर का पिता इसी चाह में चल बसा था जब पीटर ने अपनी बीवी को पीटकर घायल कर दिया था और क्रिस्मस की पूर्व संध्या में  पुलिस उसे उठा ले गया था। फिर तो वह एक साल बाद ही लौटा था।

एक साल बाद पीटर जेल से घर लौटा तो न जाने कहाँ से ढेड़ सारे खिलौने,सब के लिए नए कपड़े और अच्छी वाईन लेकर टैक्सी से उतरा था। पर अपनी बीवी फ्लोरिन को गर्भवती पाकर गुस्से से पागल हो गया था। उसे कूदा कर पटका था और लतियाया था।इतना मारा था कि पेट का बच्चा मर गया था। फिर तो पुलिस ले गयी थी और पीटर अब लगभग पांच वर्षों के बाद लौट रहा था।

प्यून कुछ फाइलें और खाने की टोकड़ी लेकर आया और महिला अधिकारी के आने की जानकारी सब को बिन बताए मिग गई थी। वह मेडम की चीजें उन के दफ्तर में खकर पानी लाने दौड़ा। तब तक मेडम ने प्रवेश किया और सब ने उन्हें “बों ज़ूर मादाम” कहा।यानि नमस्ते श्रीमती जी !

अधिकारी ने बिना किसी की ओर व्यक्तिगत ध्यान दिए सब की ओर अपनी नज़रें फेंकीं और बों जूर का जवाब बों जूर में देती हुई अपने दफ्तर में चली गई।दफ्तर में जाते ही एक ल॔बी सांस ली और कुछ घड़ी तक ए सी का आन॓द लिया।टेबल पर पड़े टिश्यू बाॅक्स से टिश्यू निकालकर मुँह के मोटे पसीने पोंछे। पानी आया तो एक ही सांस में घट-घट पी गई।गिलास रखकर साड़ी कमर में खौंसती हुई प्यून से  बोली –

” अरमुगम ! कार की चाभी ले और भागकर मेरा चश्मा ले आ और पहली कुर्सी वाले को अंदर भेज।”

कुछ दिनों से यही गहमागहमी चल रही थी।क्रिस्मस के लिए पैसे पाने हेतु न जाने कितने पैंतरेबाजी करते और झूठ बोलते तथा बच्चों की कस्में खाते हैं।

अरमुगम ने पहले व्यक्ति को अधिकारी के दफ्तर में भेजा।वह एलिजाबेत थी –

“बों जूर मादाम जी।”

“बों जूर ! बैठिए ! क्या बात है ? पेंशन सुचारु मिल रहा है न ! दवा-दारू ठीक है और डाॅक्टर पाक्षिक आप के घर देखने आ जाते हैं न ? ”

“हाँ बेटी, ठीक है। कल ही डाॅक्टर आए थे।दवा लिख गए हैं।आप से मिलने के बाद डिस्पेंसेरी जाऊंगी दवा लेने।”

“तो …. !”

” बेटी मेरे बेटे पीटर की रिहाई अगले वर्ष मार्च की थी ….”

एलिजाबेथ की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि अधिकारी ने बात काटते हुए कहा –

” …जेल से पीटर की पूर्व रिहाई का नोटिस इस दफ्तर को मिल चुका है ! वह जैसे छूटेगा उस की पत्नी और बच्चों को मिल रहे पेंशन और सारी सरकारी सहायता-सुविधाएँ बंद कर दी जाएंगी। ”

“यह तो ठीक है बेटी ! पर जेलर ने लिखा है कि पीटर की पूर्व रिसाई तभी हो सकेगी जब तक हम साढ़े पाँच हजार रुपए जेल विभाग को चुका नहीं देते !”

“यह उन का नियम-कानून है एलिजाबेत। इस मामले में यह दफ्तर कुछ नहीं कर पाएगा। ना मैं !”

” मेरे पास एक पाई भी नहीं बेटी … !”
“एलिजाबेत ! साठ वर्ष वालों को ६,२१० रुपए पेंशन सरकार दे रही है।आप अस्सी के ऊपर वालों को १०,००० रुपए,दवा – दारू मुफ्त,बस का किराया भी नि:शुल्क और डाॅक्टर घर आ जाता है।तुम अकेली ! फिर भी पैसा नहीं ?”
“तुम्हारा कहना सही है बेटी।पीटर की पत्नी,कारोलिन  मेरे हाथ में एक पैसा रहने दे तो रहे न !!”

अधिकारी को एलिजाबेत से हमदर्दी तो थी मगर वह कुछ कर नहीं सकती थी। वह अपने परिवेश से बाहर नहीं जा सकती थी। उसके भी ऊपर महाधिकारी थे,जिन्हें जवाब देना होता था। और यह समाज कल्याण मंत्रालय दफ्तर है,यहाँ सब पैसे के लिए ही आते हैं। एलिजाबेत आज की पहली मांगता थी अभी दिन भर ऐसे ही चलने वाला था।

मगर अधिकारी को फ्लोरिन का नाम चुभ सा गया था।आए दिनों अपने कैदी पति को लेकर वह दफ्तर में कांड करती आ रही थी।गाली-गलौच फजीहत,यह पैसा चाहिए, वह पैसा चाहिए ! एक मुंह और आ गया है।यह क्या खाएगा? साली कहीं की,पति जेल में है और यह हर साल बच्चे जन रही है ! हर एक डेेेढ़ सााल में पेंशन बढ़ाओ।

अधिकारी दिन भर इस से भी कठिन समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त रही थी पर एलिजाबेत – पीटर – फ्लोरिन तिकोणी केस वह भूल नहीं पा रही थी।लो दुश्मन का नाम लिया और वह हाजिर। आज की अंतिम मांगता फ्लोरिन थी। अधिकारी के सामने पसर कर बैठ गई थी। उसका आधा ब्लावज खुला था।कमर के टंगे दोनों बच्चों को बगल में खड़े कर दिया था।

अधिकारी चूर-चूर हो गई थी। प्यून से कहकर अपनी एक-दो फाइलें कार में रखवाईं और उससे कहा –

“अरमुगम ! एक काॅफी बना दे और  मेरी टोकरी का खाना तू रख ले। अभी तूझे और एक घंटा रहना है,तू खा लेना।”

“जी मेडम जी ” कहकर अरमुगम चला गया।काॅफी देकर सभी अफ्सरों के दफ्तर बुहारने और बंद करने में लग गया था।आज अधिकारी इस फ्लोरिन नाम की चीज से निपटना चाहती थी। परास्त कर उसे खत्म कर देना चाहती थी। न रहेगा बांस न बाजेगी बांसुरी। आज कुछ समय देेेर ही सही। उसने पहला वार कर ही दिया –

” क्रिस्मस आ रहा है,उससे पहले तुम्हारा पति जेल से बाहर आ जाएगा। खुशियाँ मनाने की तैयारी करो।”

गोली निशाने पर लगी थी। फ्लोरिन तिलमिला गई । क्षण मात्र में  फूट-फूट कर रोने लगी थी। इस दफ्तर के काम करनेवालों को परेशान करने तथा रुलाने वाली आज खुद रो रही थी।अधिकारी जीत का अहसास करने लगी थी।

“तुम्हारी सास आई थी।पीटर को …. ”

अधिकारी ने अभी दूसरी गोली दागी नहीं थी कि वह बौखला गई –

“उस कुतिया की तो आप सुनो ही नहीं !”

हमेशा तू से संबोधित करने वाली फ्लोरीन आज आप पर उतर आई थी।अधिकारी फ्लोरिन को ध्वस्त करती जा रही थी और आगे भी उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का अपना इरादा मजबूत कर रही थी –

” क्यों ! वह उसकी माँ हैं।”

” और मैं पीटर की पत्नी !” फ्लोरिन झट से बोली थी।

दफ्तर के सारे लोग जा चुके थे। अरमुगम भी अपना काम पूरा करता ही होगा।अधिकारी और लंबा खींचना नहीं चाहती थी।उसकी भी तो अपनी जिम्मेदारी है।पति है।बाल-बच्चे हैं ।

“तुम क्या उम्मीद लेकर यहाँ आई हो और यह दफ्तर तुम्हारी मदद् कैसे कर सकता ?”

हौसला मिला तो तुरंत उसने अपने मगरमच्छ के आँसू पोंछतें हुए कहा –

” उस कुतिया … ”

“ठीक से बात करो ! यह दफ्तर है।” अधिकारी ने फ्लोरिन को ऐंठ कर कस दिया था। वह बिना विलंब किए अपनी जीभ संभाली थी –

“मेरी सास की तो आप अनसुना ही कर दो।”

“क्यों ? पीटर उसका बेटा है।वह चाहती है कि हर्जाना देकर क्रिस्मस से पहले पीटर को छुड़वाए और क्रिस्मस तथा साल खुशी-खुशी मनाए।”

अधिकारी को पता था कि पीटर की गैरहाजिरी में  फ्लोरिन ने जो दो अवैद्य बच्चे पैदा किए हैं,इसके लिए तो वह खूब कूटी जाएगी।

“नहीं मादाम जी ! आप ऐसा न होने दो।”

“क्यों  नहीं?”

“मादाम जी,पेंशन का बोनस मेरी सास पीटर की रिहाई में  लगा देगी तो…”

वह फिर रो पड़ी थी।

“अच्छा ही तो है।”

” बोनस के पैसों से वह मेरे बच्चों के लिए नए साल के कपड़े खरीदती है मादाम जी।”

अधिकारी झल्लाकर पूछी थी –

” तो तुम चाहती हो पीटर क्रिस्मस से पहले नहीं छूटे ?”

” नहीं  मादाम जी।”

“क्यों ? ”

पीटर छूट कर आ गया तो पेंशन तो कटेगा ही।बोनस और  बच्चों को खिलौने भी नहीं मिलेंगे।”

यह सुनते ही अधिकारी के ज़ेहन में आग लग गई थी।वह फ्लोरिन की बेरहमियत से पहले ही अचछी तरह से तो वाकिफ थी पर वह इतने हद तक गिर सकती थी यह अधिकारी के अनुमान से बाहर था। एक नफरत की नजर से घूरी और अपना बैग उठाकर प्यून को पुकारा –

” अरमुगम ! मैं निकल रही हूँ। मेरा दफ्तर बंद कर दो।कल दफ्तर आने से पहले कुछ लोगों के घर विज़ीट पर जाऊंगी। बैंक से होती हुई कुछ देर से दफ्तर पहुँचूंगी।”

एक ही सांस में यह बोलकर अधिकारी दरवाज़े तक पहुँची और फ्लोरिन के बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगी। जैसे ही वह अपने दोनों बच्चों को लेकर निकली अधिकारी ने दफ्तर का  दरवाज़ा ढकेला और बिन पीछे मुड़े वह सीधे अपनी कार की ओर लपकी।

घर पहुँचकर अधिकारी नमिता में  तब्दील हो गई थी।यानि वह एक पत्नी और दो बच्चों की माँ बन गई थी।साड़ी बदलकर वह घरेलू  कामकाज में व्यस्त हो गई थी।

वह घर पर जरूर थी पर सिर्फ देह से वरना मन दफ्तर में  ही छूट गया था। अपने पति को वह लाख समझाती रही थी कि घर आओ तो दफ्तर छोड़ कर आओ ! दफतर में  रहो तो घर पीछे  छोड़ ही जाना।मगर नमिता आज स्वयं ऐसा कर नहीँ पाई थी। दफ्तर में  एक पीटर के लिए  दो औरतें लड़ रही थीं,एक माँ तो दूसरी पत्नी ! मगर यहाँ एक स्त्री के अंदर दो-दो महिलाएं संघर्ष कर रही थीं – एक नमिता तो दूसरी अधिकारी।

शाम में खाने की टेबल पर जैसे नमिता अपने तीनों प्रिय जनों से मिली ही नहीं थी।रात में बच्चे कब अपने कमरे में गए इस का भी भान उसे नहीं रहा था।पति कब टीवी ऑफ कर सोने आ गया था इस की भी उस को खबर नहीँ थी। वह पलंग पर ओंधे पड़ी गहरी सोच के सागर में गोते लगा रही थी।

अब तक तो दफ्तर के केसज़ से उसे यही पता था कि एक जाति विशेष है,जिस के पुरुष आलसी होते हैं और अपनी जिम्मेदारियों से भागने के लिए बार-बार अपराध करते हैं और जेल जाकर बैठ जाते हैं। देश के कारागार  फाइव स्टार हैं। वहां का खाना ऐसा जो सपने में उन्हें नसीब न हुआ हो।रेडियो सुनो,अखबार पढ़ो,दिन भर टीवी देखो। कैरम और डोमिनो खेलो।बाढ़ आए,तूफान आए या सूखाड़ हो पर न महंगाई की चिंता न टोकरी भर पैसा लेकर सब्जी खोजने की मुसीबत।पेट और सुरक्षा की चिंता सरकार की थी।हर महीने में कैदियों के परिवार को पेंशन देना सरकार की ही जिम्मेदारी थी।

पीटर को लेकर नमिता और  अधिकारी दोनों के मन में  एक अलग भावना जन्म ले रही थी और दोनों को कचोट रही थी।

पीटर क्रिस्मस से पहले बाहर आ भी गया तो क्या होगा ? फिर से क्रिस्मस के ढेर खिलौने लेकर आएगा  और परिवार में अधिक सदस्य देख कर फिर एक अपराधी बन जाएगा और वापस जेल चला जाएग !

वह रात में जब भी करवट बदली तब भी एक नए विचार ने मन को टटोला। पर सुबह होते-होते नमिता ने ठान लिया था कि वह एलिजाबेत को ६,००० रुपए अपनी जेब से दे देगी। किस का क्रिस्मस अच्छा  हो और किस का खराब,इस बारे में सोचकर वह अपना ध्यान बाँटना नहीँ  चाहती थी क्यों कि यह न इसके वश में था न यह खुद जिम्मेदार थी ! और … क्रिस्मस तो सब के लिए बस्ते में तोहफे तथा खुशी भर लाता है।वह रोकने वाली कौन थी !

सुबह दफतर के लिए निकलने से पहले नमिता ने अरमुगम को फोन कर दिया था कि वह एलिजाबेत को बुला लाए।

¤ राज हीरामन.
मारीशस.
rajheeramun7727@gmail.com

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