‘राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान’ के तहत पुरस्कृत विजयश्री तनवीर की कहानी ‘गाँठ’ पुरवाई के पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

“बन्सरीsss!.. बन्स–रीsssss !……ओ sss ब–न्-स-रीssss !
अरी संझा पड़े सो गई क्या ?”
अपने नाम की हाँक सुनते ही ढुलमुलाई बन्सरी ने एकदम से बाहरकत होकर हिसाब की किताब में सिर गड़ा लिया।भीतर के कमरे से पता नहीं कौन सी बार पुकार लगाई थी माँ ने जब वह चेती थी। माँ की नकीली आवाज़ ऊँघासे  दिमाग़ को कोंच रही थी। वह चिड़चिड़ाई हुई पूछ रही थीं-
“कानों में डाट लगा रक्खी है , कब से किकिया रइ हूँ  …कमीज़ के बटन कहाँ  रिला आई ?”
तंद्रिल आवाज़ की भर्राहट को लचीला करते हुए उसने माँ के मन में यह प्रतीति भरने की कोशिश की कि वह जाग रही है । लेकिन उसकी आवाज़ की बोझिलता  और मांदगी वैसी ही बनी रही।
“आधी छुट्टी में खेल रई थी …अलका के कंगन में उलझकर टूट गए ।”
झूठ बोलते हुए अपनी आवाज़ बन्सरी को बहुत नाचार लगी थी। लेकिन वह माँ की रग़बत जानती है। अभी उसकी बाँह पकड़कर खींचती, गुल मचाती ले जाएगी सुकलाइन के दरवाज़े पर । पल भर में सारा मोहल्ला जोड़ लेगी । आपा बिसराकर  कोसमकाटी  पर उतर आएगी । चौखूँट जुड़े लोग ठीं- ठीं कर हंसेंगे । ” घर चाहें बाहर इसका तो रोज़ का है …. .नीच जात की टेव ,उतपात बिगैर चैन कहाँ !” माँ की खूँखार अन्दोर से लरजती वह चुप्पाई खड़ी रहेगी। माँ फनफनाकर दो चार  धौल उसे भी धर देगी।
  “ख़बरदार जो  आइंदा इनके किसी काम को आई।  दो मन की देह मिंसवानी  हो तो बन्सरी की माँ , ना तो  नीच जात । कोठरे में छूत नाय ,चौबारे पे दुर -दुर । कैसे मट्टी में गेर- गेर के मारी है मेरी बन्सरी सुकलाइन के इस उतपाती लौंडे ने । जादा धींग हो रा है ….. अबके हाथ लगा के दिखा,  मार  इंटोरा सिर फोड़ दूंगी । “
 बन्सरी ने वक्र नज़र से देखा। माँ जंग लगे टीन के  डिब्बे में जतन से सहेजे पुराने बटनों में से कमीज़ से मेल खाते बटन ढूँढ रही थी।
“सुई में तग्गा डाल।”  माँ ने घुड़ककर कहा। वह चुपचाप बारीक़ सुई में धागा पिरोने लगी।
“घोड़ी हो रई है पर कुदक्कड़पना नहीं छूटता । सगले दिन छुछुआई फिरती है…. एक घड़ी निचली बैठे तो हिसाब मगज़ में भरे।  “
माँ  बटन टाँकते बर्राती रही। बन्सरी की दृश्यावली में दुपहरी की घटनाएं घूमने लगीं। कैसे लंगड़ी दौड़ में राघव उससे पिछड़ रहा था। वह जीतने को ही थी कि अड़ंगी लगा दी। उसके कील- गोड़ सब छिल गए थे। राघव ताली पीटकर हंसता रहा।
 “लीचड़ी ! कतवार डोमन ! बामनों से रीस करेगी….जा जाकर  गेंवड़े में डंगर चरा । “
खिजावट में रुआंसी होकर उसने कानों में उंगल ठूँस लीं थी। “भौंकता रै… मैं कौन सा सुन रई हूँ तेरी ।  कुत्ता- कुत्ता भूँसे रानी रानी चुप्प ।”
 इस ज़बानी चोट से तिलमिलाकर राघव उसे चोटी से घसीटने लगा । “कीच की सुअरी  !  गाली देती है  …बड़ी आई रानी । चल मास्टर जी के पास।”
 मास्टरजी ने उसका पक्ष बिना सुने कलाई मरोड़कर पीठ से चिपका दी। वह सुबकने लगी। ” मास्टरजी राघव हर घड़ी डोमन डोमन बुलाता है।”
“तो तू बामन बामन बुला लेती ….बदले में गाली गुफ़्तार करेगी ?  मिज़ाज देखो … कानी को कानी मत कओ । होड़ करनी है तो अकल में कर । तिमाई में सौ में सौ लाया हिसाब में , और तू  ज़ीरो अंडा । ” मास्टरजी ने तर्जनी और अँगूठे के मेल से शून्य बनाते हुए कहा।
बाँह की ऐंचातानी में  कमीज़ के बटन टूटकर कहीं रिल गए । खुली कमीज़ से उजला पेट झाँकने लगा।  वह दर्द से छिलमिलाकर रह गई थी। बाँह से अधिक ज़िल्लत
के दर्द से। आँख नीची किए  बटनों की जगह वह अपना हाथ चिपकाए खड़ी रही और मास्टरजी अपनी खुंदक में भन्नाते हुए हिसाब की किताब में भारी से भारी सवाल छाँटते गए । ” कोई बहाना ना सुन लूँ। कल ये सारे सवाल कापी में हल चईये मुझे। कतरनी सी ज़बान चलती है बस। भेजे में ढोरों का  गोबर भरा है । “
एक ….तीन …पाँच …आठ …..बारह…
बोझीली आँखों से हिसाब की किताब के पन्नों पर लाल रोशनाई से  चिन्हित सवालों को फिर गिना था बन्सरी ने। जैसे फिर -फिरकर गिनने से दो चार सवाल कम  हो जाएंगे। बीसियों सवाल थे। अटकावों से चुनन्दार ।  एक -एक सवाल  ईंटों के चट्टे के ढब  तले ऊपर उसकी कपाल पर चिनता जा रहा था। गणित जाने क्यों उसके ज़रा पल्ले नहीं पड़ता।
गणित से इतर भी इन दिनों रोज़ एक नए मुअम्में में उलझी रहती है बन्सरी। अभी चार माह कम बस तेरह की है लेकिन कच्चे मगज़ में प्रश्नों के गुंजान जंगल उगने लगे हैं।अपने सिर पर फँसाव और उलझनों की एक भारी अटाल रखे वह उन जंगलों में भौंचक भटकती फिरती है ।
उसके  कोमल मन की परतों पर संशयों की अनगिन गिल्टियां उभर आई हैं।  भीतर की उन दुखती गिल्टियों को लेकर वह किधर जाए , किसे दिखाए  ! घर ,स्कूल ,मंदिर ,खेल मैदान ,मोहल्ला, सारी जगहें उसे एक नटसार लगती हैं और अपने अगल -बगल सब लोग उस नटसार के भाण्ड और बहरूपिये ।  माँ ,पिता  , गणित के मास्टरजी , मास्टरजी का छँटुआ राघव , बड़ी कोठी वाले राम अवतार शास्त्री । सब के सब अपने चेहरों पर एक चेहरा ओढ़े हुए । लाचार होकर वह अपने ही खोल में बटुरती जाती है।
एक ठहरी हुई मौनी झील हो गई है बन्सरी। कोई कंकड़ फेंकता है तो ज़रा देर को हलचल होती है फिर वही तवील चुप्प।
एक बाज़ी खेलेगी बन्सरी?”  छोटी धन्सरी ने  खाट का पायां टकोरा।  ठहरी हुई चुप्पी झील में अचानक कंकड़ आन गिरा ।
“ना  मन नइ है  ।”
धन्सरी निकट ही  फ़र्श पर साँप -सीढ़ी की बिसात बिछाए  उकड़ूं बैठी थी। बहुत देर से आप ही आप नीली गोट वाले अदृश्य प्रतिद्वंद्वी के संग बाज़ी पर बाज़ी खेलते हुए जैसे वह किसी दूसरे जहान में गरक हुई जाती थी। बन्सरी ने सोचा कितना सीधा है ऐसा इकलन्त खेल । अपनी शह अपनी मात। कोई  खिजाने वाला नहीं। कोई गिराने वाला नहीं ।
 उसे सोच में देखकर एकतरफ़ा खेल से उकताई धन्सरी ने एक बार फिर मनुहार की । ” देख तो बार -बार  सांप  काट रा है । एक भी निसैनी ना चढ़ी। नीली गोट ले ले पक्का तू इ जीतेगी। बोल  खेलेगी एक बाज़ी?”
 ” तू  खेल ले धन्सी । मुझे सवाल निकालने हैं।”
 कहते हुए औचक उसका मन होता है नीली गोट की तरफ़ वाला मोर्चा संभाल ले । जीभ लपलपाते सारे  साँपों को कुचलकर सीढ़ियाँ चढ़ -चढ़ आसमान  छू ले । मगर वह निर्वाक बैठी खेल में तल्लीन धन्सरी को ताकने लगती है।
धन्सरी दोनों जानिब जुगत लगाकर बड़ी माहिरी से पासा फेंकती है , ईमान से खाने गिनकर चाल चलती है। जबकि निन्यानवें घर में बैठा काला भुजंग हर बार डसकर उसे नीचे की पंगत में पटक देता है। इस असालतन  खेल में वह नीली गोट वाले पोशीदा मक़ाबिल से बराबर बाज़ी हार रही है। धन्सरी की सूरत पर तारी होती मायूसी को देखकर बन्सरी सोच रही थी अगर सिर पर बवाल की तरह गणित के सवाल न रखे होते तो वह  एक बाज़ी खेल जान बूझकर धन्सरी से  हार जाती। वह जानती है चाहे आधी रात हो रहे जीत के दर्प के बाद ही वह यह बिसात समेटेगी।
बन्सरी को धन्सरी अच्छी लगती है। और सबों से जुदा। दस के पहाड़े सी सरल। कहीं कोई गाँठ नहीं। बेखटक और निसाँक ! उनके बीच  बस ढाई साल की छुटाई बड़ाई है । लेकिन  धन्सरी उसकी तरह  बातों  की फ़िकर नहीं लेती । उसकी उम्र में बिल्कुल ऐसी ही थी वह भी। ख़ूब खाती थी , खेलती थी , निफ़राम सोती थी। सब कुछ सहल लगता था। जोड़ -घटा , गुणा -भाग पक्की तरह साध लेती थी।  सुग्गे की तरह रटे थे पहाड़े ।चाहे कहीं से पूछ लो । स्कूल के आख़िरी घण्टे में जब सब बस्ते बांध लेते वह छुट्टी होने तक अगुआ होकर पहाड़े बाँचती थी। “तेरह एकम तेरह ….तेरह दूनी छब्बीस …तेरह तिया…” उसके पीछे सारे बच्चे भी एक सुर में अल्लाते।
सब कहते ” बड़ी हुसियार है बन्सरी । लौंडा होती तो सम्पूरन के सारे दरिद्दर मेट देती ।” लेकिन पिता ने जन्मते ही उसे बड़े भाग वाली मान लिया था।  दोएक महीने की थी  जब कचहरी में नाज़िर हुआ  था सम्पूरन डोमा।  ” हमें काए को लौंडा चईये था!    घर में लछमी आई है ।”
बन्सरी को देखकर उसका  ‘नीच जात’  होने का विषाद पिघलने लगता था । डोमों में बिल्कुल अलहदा जो  दिखती थी बन्सरी। घने- घने छल्लेदार ढक । अरक्ता अनारों से कपोल। एकदम गोरी चिट्टी ।  निपट बामनों के ढाल। छुटपन में  बन्सरी रोज़ नज़राती । माँ चट चट बलैया लेती। पीली सरसों और राई- मिर्च का उतारा करती । “अकड़ी मकड़ी दूधमधार , नज़र उतर गई पल्ले पार ”  लेकिन आते जाते किसी न किसी की टोक लग ही जाती। जब कोई कहता “करील का फूल है  सम्पूरन की लौंडिया।”
बड़े लाड़ से  अपनी जाति से इतर  कुलीन नाम रखा गया  ‘वनश्री’।  रामऔतार शास्त्री जी उपहास करते “नाईं, धीवरों को कहीं ऐसे  नाम जँचते हैं !” सुकलाइन खिल्ली उड़ाती ” नाम तो कुछियों धर लो ,धोव धोव के कोई कटिया बछिया होवे !”
कुछ ऊँची जात वालों की ढाँस और कुछ माँ का अपढ़पना कि मालूम ही न हुआ कब ‘वनश्री’  बन्सरी हो गई। घर से स्कूल तक । चौक से पैंठ तक । गाँव से गेंवड़े तक। कभी भूले भटके कोई वनश्री पुकारता  तो अपना ही नाम उसे अजाना जान पड़ता। वह बेसुनी सी यूँ  निकल जाती जैसे यह पुकार किसी और के लिए है।
ठीक इसी तर्ज़ पर ढाई बरस बाद  छोटी ‘धनश्री ‘ का नामकरण हुआ  धन्सरी।
कौन सी खुनस निकाली थी मास्टरजी ने ! दोपहर से किताब कापी पर गरदन निहुड़ाए गठरी बनी बैठी थी बन्सरी। सांझ घिर आई थी मगर अंजाम सिफ़र का सिफ़र। समीकरण बनने को न आते थे। बनते थे  तो हल न होते थे। हल भी होते थे तो उनके जवाब  किताब की उत्तरमाला से  मेल न खाते थे। वह बार- बार जाँचती थी मगर जान ही न पड़ता कि चूक आख़िर कहाँ हुई!
अपने मन की थकन में वह सोचने लगी , सच ही कहता  होगा राघव । ” हिसाब साधना ढोठियों के मूड़ की बात नहीं और नाईन ,डोमनियों के तो क़तई नहीं । “
राघव  ठहरा लड़का। वो भी ऊँच जात । ज़रूर इसी से वह  सट्ट -सट्ट सवाल निकालता जाता है।  ज़रूर इसलिए एक अकेला गणित ही है जो मास्टरजी पढ़ाते हैं और बाक़ी सब मैडम जी।
इस भेद को सोचते ही उसका चित्त  एकदम उचट गया । दिमाग़ में सोचों की भिड़ंत होने लगी। एक बार को ख़्याल हुआ अगर गणित न होता तो दुनिया का क्या बिगड़ जाता ? दूसरे पल सोचा अगर वह लड़की न होती तो सब उलझेड़े ही सुलझ जाते ।  तीसरी दफ़ा दोनों बातों पर क़ाबिज़ होता  विचार गेण्डली मारकर ज़ेहन में बैठ गया। असल में सारा क़ुसूर तो कुजात होने का है।
 बन्सरी की आँखों की नाज़ुक सीपियों में नींद भरने लगी थी । उसने किताब औंधी कर  एक तरफ़ सरका  दी। जब हिसाब ढोठियों के मूड़ की बात ही नहीं तो वह बरज़ोर  क्यों पढ़े ! और आख़िर तो वह  डोमनों की ढोठी है। एक बार को जी हुआ  हिसाब की किताब को रेज़ा रेज़ा कर गाँव के बाहर की गड़ही में फेंक दे । लेकिन सवाल हल न किए तो कल मास्टरजी को क्या कहेगी! अगले पाख छमाई शुरू हैं। वो तो बिना कोई वजह सुने हाथों की मुट्ठियाँ बँधवाकर गट्टों पर सटाक सटाक पैमाना बजाते जाएंगे।  और आज की तरह अगर उसकी बाँह मरोड़कर पीठ से लगा दी तो ! कल फिर बटन कहीं रिल जाएंगे। फिर माँ देर तक तन्नाई  रहेगी। फिर  माँ को आश्वस्त करने को वह कोई झूठा कारण ढूंढेगी।
 मास्टरजी की ग़ुस्सेवर सूरत याद आते ही  बन्सरी के अंदर  घबराहट का गोला सा उठने बैठने लगा।
उसके साथ यह हमेशा होता है। वह जब -जब गणित लेकर बैठती है आँखों में नींद और हलक में प्यास उकसने लगती है। कभी माथे की नाड़ियों में खिंचाव और कलेजे में  खुरचन होती है तो कभी पेट में मरोड़ और पाँव में भड़कन उठती है।
अपने हाल को पकड़ न पाने की बेकली में बन्सरी  नि-ज़ोर होकर पेशाब को चल दी। पेशाब के लिए बैठते हुए अकड़ाव से छिले  हुए घुटने टीसने लगे थे । इस टीस ने उसकी श्रान्ति और तलमलाहट  को और बढ़ा दिया । कुम्हलाए चेहरे पर ताज़े पानी के छींटे मारकर वह  बेज़रूरत ही गिलास भर पानी गटक गई।
माँ चौके में मंजे हुए बासन साज रही थी। धोती को कमर में  पिंडलियों तक उड़सकर अजहद बारीक़ आवाज़ में लांगुर गाती हुई। गाते वक़्त माँ की आवाज़ नक्की हो आती है । ऊँची आवाज़ में टेरते हुए भी । जैसे जब वो दरवाज़े- दरवाज़े सांकल खड़काकर  नकियाती आवाज़ में बुलावा देती है। “फ़लाने के घर तेल बान है,  बखत आ लियों।  या  “फ़लाने के यहाँ दो जन की  तेरमी की दावत है । “
माँ की नकियाई  लरजती आवाज़ में गीत के बोल घिचपिच हो रहे थे । उसका मन गीत के अस्फुट बोलों के पीछे भागने लगा।   दिमाग़ में आया अगर वह लिखी पढ़ी न भी रहे तो गा तो सकती ही है । माँ भी तो गाँव के घर- घर में सोहर -बन्ने , चक्की- चाँचर गाती है। गाने के  बदले  बखेर और निछावर में रुपए , धोती , मिठाई ,अनाज और जाने क्या क्या लाती है। और गाना हिसाब जैसा गाढ़ा काम नहीं। स्कूल के सालाना जलसे  में उसने स्वागत गीत गाया था । सब रीझ गए थे। सिक्सा दीदी बोली थीं “इत्ती सी उमर में कैसा मीठा गाती है । कन्ठ  में सरसती बैठी हैं।”  मगर पापा ! वे तो गाने बजाने से खीझ खाते हैं। चौथी में थी जब माँ नौचंदी के मेले से  ढोलकी लाई थी। पापा ने धाड़ से बाहर चौंतरे पर पटक के मारी थी। “नीच कौम सही पर अपनी लड़कियों को ये ओछे काम ना करन दूँ। पढ़ा लिखाकर अफ़सर बनाऊंगा। बामन बनिए सलाम ठोकेंगे “
पिता के आक्रोश को  सोचते ही गाने का ख़्याल दिमाग़ में जिस ढर्रे चढ़ा था उसी ढर्रे उतर गया ।
माँ बासन साजकर पलटी तो नज़र  चौके की चौखट से लगी बन्सरी पर पड़ी। “यहाँ क्यों खड़ी है , सवाल हो गए  ? “
” ना हुए । कल मास्टरजी मारेंगे ” कुरते की आस्तीन से अपना भीगा मुंह पौंछते हुए बन्सरी की आंखें डबडबा आईं।
माँ के चेहरे पर आकुली ठहर गई। ” तो कम्मअखत दुफैर से क्यूँ ना बोली, जो किसी से कहती , इस बखत कौन करवाएगा ? ”  बन्सरी ने प्रतिवाद किया । “दुफैर मेंइ कौन करवाता ?”
माँ और भी उखड़ गई।
” तेरे से बस मुँहजोरी करवा लो। दरसन पंसारी से पूछ लेती भलमानस हैं। पैले बी तो करवावै थे।
“दरसन ताऊ की आँखों में मोतिया पड़ गया है। जाड़ों बाद आँख बनेगी ।”
 “ताऊ की आँख में जाला पड़ गया और तेरे दीदों में सरसों फूल रई है।  गरज का बावला  बहत्तर दुआर छानता है ।  घण्टे आध घण्टे  को तो सास्तरी जी का अखलेस ही देख लेता। वहाँ क्यों न गई ?”  माँ के  स्वर में कोप की टकोर थी।
बन्सरी का चेहरा एकाएक म्लान पड़ गया । “सास्तरी जी के घर मैं ना जाऊँ ।”
“क्यूँ , तुझसे कुछ कही उन्होंने ?” पैनी आँखें उसकी सूरत पर नकार का  सबब ढूँढने लगीं।
“ना । कुछ ना कही। ”  वह मुँह चुराकर अपनी गुहा में सिमट गई।
“अखलेस भैया के पास टैम नाय।”
बन्सरी अव्यवस्थित और अवसन्न होकर खाट पर लेट गई।   कितना ही झटकना चाहा मगर  उसकी  खुली आँखों में राम औतार  शास्त्री जी का दुमहला एक भुतहा क़िले के सदृश डोलने लगा। जहाँ वह किसी अंदेशे से थरथराई अपनी पूरी ताक़त से चीख़ रही थी।  पुरानी घटना हालिया मंज़र की तरह  सामने थी। उस तल्ख़ मंज़र में भाँय- भाँय करती एक बज्जर दुपहरी है । लू के झोंके मुँह पर थप्पड़ से पड़ रहे हैं।  वह  सिकुड़ी सी शास्त्री जी के दालान में खड़ी है।  शास्त्री जी कहीं बाहर जाने को धोती की लांग बांध रहे हैं। हवा से फरफराकर धोती गुब्बारे सी फूली जाती है। फूली हुई धोती को देखकर उसकी हंसी छूटने को है। लेकिन आरसी में झांककर बाल काढ़ती पंडिताइन की  हिक़ारत भरी  नज़र को पकड़कर वह कातर होने लगी है। उसकी आवाज़ गले में ही फंस रही है।
“ताई अखलेस भैया थोड़े से सवाल करवा देंगे ?”
 अखिलेश भैया रेडियो से कान लगाए दोपहर की ख़बर सुन रहे हैं । उसे देखते  ही उनकी  भौंहों के बीच अनचाहेपन की गुलझटें पड़ गई  हैं ।
“किसी बखत भी मुँह उठाए चली आती है। कौन सा अभ्यास है?”
” चार सवाल क्षेत्रफल के हैं , दो क्षेत्रमिति के ।” वह किताब के पन्ने पलटकर सवाल ढूँढते तनिक क़रीब चली आई है।
 “अरे वहीं बैठ । जादा छूअमछाई मत कर । हाँ  बस दूर से ही ।”अखिलेश भैया की रूखी  ताक़ीद सुनकर  वह ख़ामोशी से दालान में बिछे बोरे पर फसकड़ा मारकर बैठ गई है।  रंगीन फुंदनों वाले  चुटिल्ले में बाल गूँथती  पंडिताइन की  बड़बड़ाहट  कलेजे में  ज़हरीली डाँस के डंक की तरह गड़ रही है।
” चमरिया को चाची कह दो बस्स , सीधे चौके में ढुकती है। तनक सऊर न सिखाया महतारी ने। कल से बैठने को अपना आसन , बोरी संग लाए कर। “
उसका मन बिंधता जा रहा है।
अखिलेश भैया उखड़े सुर में सवाल समझा रहे हैं  “अरी बुधंगड़ यहाँ दो की घात लगा। क़तई घोंघा है क्या ? “
उसकी प्रतिकुंचित दृष्टि पंडिताइन को माथे पर सिंदूर की टिकुली धरते देख रही है। इस भीति  में भरी कि टिकुली की गोलाई ज़रा सी बिगड़ी नहीं कि पंडिताइन का मिज़ाज और बिगड़ जाएगा।
चुटिया- बिंदी कर पंडिताइन ने फ़रमान सुनाए ।
” अखलेस  दरवज्जा भेड़ ले कुत्ता वुत्ता आ जावैगा…. मैं ज़रा साग- सब्जी लियाऊं।  अरी बन्सरी देखियो  जाते -जाते  तनक थोड़े से उपले पाथ जइयो ।” “
दो फ़रमानों के बीच महज़ आवाज़ की नरमाई और गरमाई का अंतर है।   झोला उठाकर  पंडिताइन बाहर निकल गईं। अखिलेश भैया ने पट भिड़ा दिए।
” गरमी पड़ रइ है वहाँ क्यों बैठी है चल अंदर आ जा।पंखा चल रा है।” अखिलेश ने कोठरे में  तखत पर बैठने का इशारा किया तो वह हिचकती हुई भीतर आ गई ।
“आराम से बैठ।”
” ना ताई बिगड़ेंगी।”
“तू फिकर मत कर । वो तो घण्टे भर को गईं।”
”  पानी पी लूँ।” वह दालान में  लगे हैंडपम्प की ओर चल दी।
“बैठी रै । मैं लाता हूँ। ” वह इस बदले हुए  बर्ताव से अचरज में पड़ी है।
“ले पी ले पानी । “
वह गिलास भर पानी गट- गट  पी गई।
“कित्ती पियासी है  ! ” कूट मुस्कराहट के साथ अखिलेश ने उसके हाथ से गिलास थाम लिया है।
” तिलपापड़ी खाएगी  ख़ास मेरठ की हैं ?”
” ना भैया । देर हो रइ है, बस सवाल करवा दो। “
अखिलेश भैया सरककर क़रीब आ गए  हैं ।  “वृत को मापना जानती है?”
“हाँ ।” मास्टरजी ने सिखाया था. …बताऊँ ?  ” उसने ललककर कहा ।
“अरे उसे छोड़ ।  एक तरीक़ा और है गोले को मापने का । भौत आसान।”
“क्या ? ”  वह हिसाब का हर आसान तरीक़ा जानने को उतावली है।
” पता है गोलों को उँगलियों से भी मापते हैं ? ” ईमानफ़रोश कहकहे के क़तरे नीरव कोठरी में बिखरकर भिनभिना रहे हैं।
 वह विस्मित हो रही है।  ” वो कैसे ! “
“अब्भी समझ जाएगी।बड़े मज़े का खेल है। बिल्कुल आसान ।”
अखिलेश की उंगलियां उसकी कच्ची देह पर कमीज़ के भीतर सरकने लगीं।
“समझी कि नहीं?”
बंसरी नहीं समझी । मिनट भर पहले छूत -अछूत के घोर परहेज़ी अखिलेश भैया  उसे  बेबात क्यों छू रहे हैं। समझी तो इतना कि  अपने बदन  पर उसकी उंगलियों की छुअन से उसे एक गिरगिट के रेंगने जैसी सिहरन और लिजलिजाहट महसूस हो रही है। वह अचकचाकर उठ गई है।
“मैं घर जाकर कर लुंगी ।”
“कहीं की भग्गी मची है , यहीं कर ले।”
अखिलेश भैया ने उक़ाब की तरह झपटकर उसे दबोच लिया है । वह आक्रांत होकर ज़ोरों से चीख रही है।
“रौला मचाया तो यहीं टेंटुआ दाब दूंगा।”
उस हिंसक पकड़ से छूटने में  उसने अपने को अबल पाया तो कड़क रोओं वाले बाज़ुओं में अपने दाँत गड़ा दिए।
“कटखनी कुतिया ….जादा तैश में आ रइ है ? ” उसके प्रतिरोध पर  और अधिक बर्बर  होकर अखिलेश ने उसे  तखत पर पटक दिया है । ” कुजातनी खूँदने को इ जनमी है तू ।”  घृणा से अखिलेश की सूरत विद्रूप हो गई है।  दो मन बोझ तले दबी वह छूटने को छटपटा रही है। ऐन  उसी पल  भिड़े हुए कपाटों पर एक ज़ोर की थाप पड़ती है। सामने तमतमाया चेहरा लिए शास्त्री जी खड़े हैं। वह तखत पर पड़ी थर थर काँप रही है। शास्त्री जी बलबलाकर अपने पाँव की जूती से अखिलेश की पीठ पर पट्ट -पट्ट चोट मारने लगे हैं।
” हरामख़ोर  एकाध महीने का  सबर रख ले । हो तो रया है तेरा धरेजा ।  जात भी ना देखी । डोमन चमारन सेइ चिपट लिया । “
फिर जैसे शास्त्री जी को सहसा उसका ख़्याल आया है। वे गिलगिली सहानुभूति से उसका कन्धा थपथपाने लगे हैं। उनकी आवाज़ में शीर टपक रही है।” बन्सरी तू तो मेरी सयानी गुड्डो है देख किसी से कहियो मत ।सारे गाम में हल्ला हो जावेगा।  लौंडे तो मरे ऐसे ही नीच होंवे। नामधराई तो बिचारी लौंडियों की है। “
वह सुन्न दिमाग़ से उनकी बात का अर्थ निकाल रही है।
हाथ में खाने की थाली लिए माँ ने  औंधी पड़ी बन्सरी को झकझोरा तो बन्सरी शास्त्री जी के तखत से अपनी खाट पर लौट आई।
 ” चल उठ।  रोटी खा ले। “
अपने ही क्षोभ और संताप में वह आँखें मूँदे चुप्पाई पड़ी रही।
“रूस गई मेरी लाड़ो ? “
 माँ ने चुमकारकर उसे अपने नज़दीक खींच लिया
“ना । भूक ना है।”
“भूक क्या आन गाँव को चली गई ! ” पेट में माँ की उंगलियों की गुलगुलिया से दुहरी  हुई बन्सरी के चेहरे पर एक पल को हुलास आ गया।  चौतरफ़  घुमड़ती आशंकाओं की घुटन में  माँ का दुलार उसे प्राण वायु की तरह लगा था। वह माँ से अंकवार होकर  तेल मसालों की कचायंध भरे पल्लू में दुबक गई।
” सिर दुख रा है।”
“काइ की दीठ लग गई दीखे ! “माँ  रूखे उलझे बालों में पड़ी गुत्थियों  में उंगलियों से फांके बनाने लगी। अपने बालों की तरह बेतरतीब उलझी हुई  बन्सरी गोद में पड़ी  सोच रही थी गाँव भर का वारा- उतारा खाने पहनने वालों को भी भला किसी की दीठ लगती होगी !
लाड़ पुचकारकर माँ बैंगन आलू की तरकारी में सानकर छोटे छोटे गस्से उसके  मुँह में डालने लगी।
“जरा मरा खा ले। भूके पेट सोते आत्मा कुढ़ती हैं।”
बन्सरी बेमन से रोटी निगलती हुई माँ की झांवली कलाइयों में फंसी झनक मनक करती धूपछाहीं चूड़ियों को ताकने लगी। असल में वह चूड़ियों के नीचे छिपी खरोंचों को ताक रही थी। माँ के बदन पर अक्सर ऐसे निशान खिंचे रहते हैं।
” नई लीं ?”
” हाँ इतवार की पैंठ से लाई । पर ये भी  कै दिन टिकेंगी?” इस अंदेशे पर माँ की आँखों में तरलता और ज़बान में तिक्तता छलक आई।
“जब रोज़ मोलती हैं तो क्यूँ पैनती हो चूड़ियाँ … बेकार ही रुपए जाते हैं ।”
” सुहाग है । नंगे हाथ रहते कम्बख़्ती होवे। कोइयों टोक देगा।”
बन्सरी फिर उलझ गई थी। जिसके नाम की चूड़ी पहनो वही आए दिन  फोड़ता रहे तो भी कम्बख़्ती !
अपने फँसावों में घिरी वह कभी नारंगी , कभी हरियल और कभी सुनहली भ्रांति देती चूड़ियों को गिनते हुए आगे पीछे सरकाने लगी।
एक …तीन ….पाँच….आठ…….
चूड़ियों की गिनती के साथ गणित के अनसुलझे सवाल फिर डराने लगे थे। अभी आख़िरी उम्मीद बाक़ी थी।
“पापा कब आएंगे?”
माँ ने अचकचाकर देखा। “कोई ठाँव है तेरे बाप का जो बता दूँ  कि कब आवैगा ! और आवैगा बी तो गिरता झूमता। तुजे क्या करना है? “
” सवाल निकलवा देते।”
“उसके फेर में मत ना रै। नौ बज गए , आवै ना आवै…..हराम का जना उसी रंडी रांड की करवट में डकोचे पड़ा होगा।” तीखे  ,खुरखुरे शब्दों के साथ एक भारी उच्छवास बाहर आ गिरी।
शब्दों की तिताई से घबराकर बन्सरी ने आँखें मूँद लीं। मुँदी हुई आँखों में एक बेचेहरा औरत बनने बिगड़ने लगी। जिसकी करवट में नशे में धुत्त पिता गड्ड -मड्ड पड़े थे। अब उसे बंद आँखों में भी छटपटी होने लगी थी।  उसने अपने को इस अनचाहे ख़्याल से परे करने को  आँखें खोल दीं। उसे हमेशा लगता है माँ की झांवली देह और पापा के मुँह से उठती देसी ठर्रे  की बू उनके मध्य एक दुर्भेद्य दीवार की तरह खड़े रहते हैं। कितना अच्छा होता अगर माँ तनिक उजली होती और पापा सांझ ढले ही नशे की बोतल में न डूबे रहते ।
माँ अब भी अपने कोह में इकसूत उस अनदेखी अजानी औरत को कोसकर जी का बुखार निकाले जा रही थी।
“मरदखोर कंजड़ी कहीं की….काए की बामनी रइ जब डोम के तले बिछ गई ! …पर उस छिनाल का क्या दोस , मेरेई  भाग फूटे के ऐसे रंडीबाज नसेड़ी के संग ब्याह गई … गुड़ दिखाके ढेले मारे । छाती का जम खत्ते में पड़े । “
 हर कोसने के संग रोटी के ग्रास बड़े हो रहे थे। फिर यह हुआ कि माँ उसके भरे मुँह में भी गस्से ठूँसती गई। कुछ देर पहले उमड़ा लाड़ कोसाकासी में गरक हो गया । माँ चपल्ल पटकाते दूध औटाने को चौके में जा घुसी और चिपचिपाई  आँखों को मुंदने से  रोकते- रोकते भी  बन्सरी नींद के झोंके में बह गई।
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पता नहीं किस घड़ी आँख खुली थीं !  कच्ची नींद में पिता की भड़कदार आवाज़ कान में पड़ी। स्तम्भित होकर बन्सरी बेदार बैठ गई।
 ” भुच्चड़ गँवारन ! पन्दरै साल में रोटी पोनी ना आई तुजै ?” फिर टन्न से थाल गिरने जैसा नाद हुआ था। सामने की बदरंग दीवार और बदरंग हो गई थी। दीवार पर जगह- जगह  सब्ज़ी के क़तरे छिछके हुए थे।  ज़मीन पर पड़ी रोटियों को उठाती माँ का सुर बावलिया ढंग से नक्की हो आया । ” आवारा सांड को घर की रोटी काए को भावै है । उसी रांड की पोई रोटी खा लेता । “
 पापा  ने माँ को कोई भद्दी सी गाली दी थी। फिर हिलते डुलते दीवार थामकर पेशाब के निमित्त ओसारे की मोरी पर खड़े हो गए । इतनी देर में माँ खूँटी पर टँगी कमीज़ पतलून की जेबों का  झाड़ा लेकर मुड़े कुचे रुपए अपने ब्लाउज़ में खोंस चुकी थी। माँ अक़्सर ऐसा करती है । सुबह होश आने पर पापा जेबें खंगालते  हैं और हाथ में बस रेज़गारी आती है । पूछने पर माँ बमक उठती है ।
” बेबात नाम मत ना धरियो…. नंगा झाड़ा ले ले । कए तो अबी गंगाजली उठाऊँ  तेरी एक रुपल्ली की हक़दार ना हूँ।  सगली ख़बर रक्खूँ  हूँ  मैं अपनी कमाई  जहाँ लुटाता फिरै तू ।”
किंतु कैसी हतभागी घड़ी थी ! आज पापा ने माँ  को जेब साफ़ करते पकड़ लिया।
” गद्दार चोट्टी ! तो रोज़ मेरे रुपैय्ये तू उड़ावै और सक डाले है उस बिचारी पे । मेरी लौंडियों को भी येई कूट करम सिखावैगी। इसी बखत मेरे घर सै निकल जा। “
पकड़े जाने पर माँ ने बिना किसी अनुताप और अलज्जता से कहा -“रखेली धरेली हूँ जो चली जाऊँ … तुजै उस इन्दर की परी के संग मौज करन दूँ  ऐसी बावली ना हूँ … चौड़ी होके यंईं  रउंगी तेरी छाती पै ।”
” मत जा तू । रै यंईं । मैंइ अपने बालकों को लेके जा रा हूँ। ” पापा ने एक झटके में निबटारा कर दिया।
”  ख़ूब जान रइ हूँ  तुजै  कहाँ जाके मरेगा। उसी  रांड की गोरी चाम की बतास लगी है। जाता हो जा । मेरी लड़कियां कहीं ना जान्गी ।”
अचानक हुए इस कोलाहल से धन्सरी भी हड़बड़ाकर उठ गई थी। वह आँखें मलते हुए मामले को समझने की कोशिश में थी।
जो कुछ भी समझ आया था उससे घबराकर  वह माँ की टांगो से चिपट गई थी ।
“लौंडियों को तू दाज में लाई थी?” पापा ने बाँह पकड़कर माँ की ओट में दुबकी धन्सरी को अपनी तरफ़ खींच लिया।
”  मैं तो ना लाई,  तेरी महतारी तुजै दाज में लाई होएगी । क्यूँ दो कैवे और चार कैवावे  …… जो मैं  दाज में लाई वोई दे दे। कुछ छोड़ा है ,सब तो गिरोंगट्ठा रख दिया। “
माँ की कल्लादराज़ी से खौलते पापा का हाथ घूम गया। बन्सरी सोच रही थी रोज़ आते जाते कितने ही उलाहने सुनते हैं पर पिता माँ के आगे जैसे बरबंड होते हैं ऐसे किसी और के आगे क्यों नहीं होते !  थप्पड़ के ज़ोर से माँ सीधी छिछकी हुई दीवार से जाकर टकराई  । झनक मनक  करती धूपछाहीं चूड़ियां टूटकर कलाई में  गड़ गईं। जहाँ- जहाँ  गड़ी थीं वहीं से ख़ून की धार फूट आई थी । माँ को अपने छलकते ख़ून का इतना मलाल न था जितना टूटी हुई चूड़ियों का। चूड़ियों के टूटने से चोटिल माँ दुर्दम हो उठी थी।
“फोड़ दे। सगली  फोड़ दे ! तू ना फोड़े तो ले मैं फोड़ू।” माँ ने दोनों कलाइयां दीवार पर दे मारीं।
“मैंइ क्यों पहरूँ तेरे नाम के चुड़ले जब दूसरी कर रक्खी है। रख ले अपने लहड़े को… तड़के ही पीहर जाऊंगी ।माई बाप ही तो ना रए ,भैया भतीजों वाली हूँ ….चौबारे पै ना बैठी । मैं भी देखूँ चार दिन में जो गू ना ब्या जावैं तेरे घर में। “
माँ की चिल्लाहट में रुलाई भर गई थी। वह कुछ देर गुठला बनी सोगवार बैठी रही। फिर अटूट चाह से खरीदी चूड़ियों के तोद में बिलखती हुई  बुहारन से समेटकर  फूटी चूड़ियों और अपने फूटे भाग  की किरचें बीनने लगी।
माँ के अरण्य रोदन से बेपरवा पिता बरहमी से बकस में तहाए कपड़े  झोले में खोंस रहे थे।
“बन्सी ! धन्सी ! चलो खड़ी हो जाओ। अब यहाँ ना रहना।”
बन्सरी इस असमंजस में  निर्वाक बैठी रही कि यहाँ नहीं तो फिर कहाँ रहना है!
 गोरी चाम की उसी घरफोड़नी बामनी के संग ! !
 तो क्या  पिता दूजा ब्याह करके अब उसी औरत के साथ रहेंगे !!!
बन्सरी का चेहरा भय से किसट पड़ गया।
“ऐसे औंगा बनी मत बैठी रै। बोल किसके संग रहवैगी ?”
 यह गणित के सवालों से कहीं भारी सवाल था। किससे अलहदा हो ! उसे माँ और पिता दोनों ही अत्याज्य थे । वह तिर्यक दृष्टि से कभी  बिसूरती हुई माँ को देखती कभी अमर्ष से भभकते पिता को।
” तू बोल धन्सी । ” पिता की कड़क से नन्हीं धन्सरी का रोआँ- रोआँ सिहर उठा। उसकी आस भरी आँखें  बड़ी बहन के चेहरे पर टिक गईं।
“तू जाएगी बन्सरी ? माँ  इकली कैसे रैएगी ! ” बोलते हुए उसका गला रुँध गया था।
बन्सरी को लगा अब एक वही है जो घर को बिगाड़ से बचा सकती है। चाहे जो हो जाए  मगर यह बिलगाव न होने देगी । पल भर में उसने कोई इरादा किया और बिना चप्पलों के ही सत्वर वेग से सीधी दरवाज़े की तरफ़ दौड़ गई। इस उजलतबाज़ी में उसके नंगे पाँव में टूटी हुई चूड़ी का टुकड़ा धँस गया सो उसके साथ रक्त की एक बारीक़ लक़ीर भी दौड़ती चली गई थी।
 बाहर निकलते ही उसने शीघ्रता से किवाड़ों पर साँकल चढ़ा दी और दीवाल से  टिककर बैठ गई। थोड़ी देर  चिल्लमचिल्ली और रोवाराहट मची रही। भीतर से काठ की किवाड़ों पर गुस्साई दमदार थापें पड़ती रहीं फिर गहरा सन्नाटा छा गया।
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धंधार कलूटी रात । चारों ओर खिंची हुई निस्तब्धता ।
दूर क़रीब की हर चीज़ अंधेरे में डूब चुकी थी। चौथ के चाँद  की देहल्की चाँदनी  पेड़ों पर  गिर रही थी।  खपरैली ओलती के तले खड़ी बन्सरी ने दम साधे भीतर की टोह ली।  मन में अंदेशे रोपती एक स्तब्ध चुप्प। वह  गुड़मुड़िया होकर चबूतरे पर बैठ गई। उसने अंदाज़ा लगाया अब तक माँ अनैसकर चटाई बिछा भंडार में पड़ गई होगी ! दिन भर खेलकर थकी धन्सरी भी  शायद सो गई हो ! हो सकता है नशे की दाब में पापा भी अपनी खाट पर लुढ़क गए हों ! लेकिन यह सब उसकी अटकलें भर हुईं तो !  फिर वही  बखेड़ा शुरू हो गया तो ! झगड़े के अंजाम को सोचकर वह कल्पना में ही सिहर उठी।  सवेरे तक पापा का नशा उतर जाएगा। माँ भी हमेशा की तरह दोएक घण्टे को अबोली होकर रोज़ के कामों में जुट जाएगी। उसे किसी भी सूरत भोर होने तक हौंसला धरना होगा। पता नहीं अभी रात कितनी और बाक़ी थी ! बन्सरी को हरारत सी महसूस हो रही थी।  इस समय उसके छिले हुए गोड़ पीर रहे थे , मरोड़ी हुई बाँह दुख रही थी और जाने क्यों तलुवे में गड़ी हुई चूड़ी की कोंच पाँव की जगह कलेजे में हो रही थी। उसी कोंच से  अचैन  होकर वह  लंगड़ाती हुई आँगन में टहलने लगी।
माहौल में पछुवा हवा की खुनकी भरी हुई थी। बाहरी आँगन में  झोटे पिलखन के पत्तों पर ओस आ बैठी थी। बन्सरी आँखों की ज़द में मौजूद चीज़ों को अचरजित होकर देख रही थी। अँधेरी रैन में रस्सी भी साँप । आधी रात की स्याही में सब कुछ कितना विद्रूप और डरावना लग रहा था। अग़ल -बग़ल अंधियारे घरों की लम्बी ठिगनी आकृतियां और ज़मीन पर लोटती पेड़ों की अतिकाय परछाइयां मन में शकना पैदा कर रही थीं कि अचानक ही वह  किसी डराक भुतैले जहान में कूद पड़ी है।  कच्ची उभड़ -खबड़  सड़क पर  गीध -उक़ाबों के डैनों  जैसी बंकट शाख़ों के डरावने साए । जाने क्यों उसे अखिलेश भैया की रोएंदार नृशंस बाँहें  याद आ गई। हवा के ज़ोर से टहनियां हिलतीं तो  शुबहा होता जैसे बीहड़ रास्ते पर धींगर दौड़ रहे हैं।   मारे दहशत के बन्सरी का ख़ून ख़ुश्क होने लगा । उसका मन यूँ डगमग हो रहा था कि अभी के अभी  घर के भीतर  माँ के पहलू में जा घुसे। लेकिन एक बार अगर पापा घर छोड़कर उस गोरी चाम की बामनी के खूँट में बंध गए तो  फिर लौट न होगी। उसने किसी के होने की आस में   सूनी गली में झाँका । शायद भूले भटके कोई जाग रहा हो !  किंतु  गली की सरहद पर नीम  के हमसाए में खड़े खोखों और टपरियों को भी चुप्पा मार गया था। और तो और रातों को रोज़ हूकता कालू कुत्ता भी इस घड़ी जाने किस कूचे में पड़ा ऊँघ रहा था !  बन्सरी पलटकर दोबारा अपने दरवाज़े पर बैठ सवेरे की राह तकने लगी।
कल शनिच्चर है। यानी स्कूल में खेल का घण्टा। कविता ,कहानी ,बुझौवल और अंत्याक्षरी का दिन। उसे सब दिनों में शनिच्चर अच्छा लगता है। अंत्याक्षरी में जब- जब उसकी बारी आती है वह झूमकर गाती है। कभी सिक्सा दीदी क़िस्से सुनाती है। राजा- रानी , जिन्न -जिन्नात और भूत- परेतों के क़िस्से। कभी घण्टे भर अजीर वजीर, पिट्ठू पोसम्पा और लब्बा डंगरिया का खेल चलता है। आजकल सारे खेल बोतल के जिन्न की तरह उसके बस्ते में बंद हैं। वह बस्ता जिसमें हिसाब की अनसुलझी किताब रखी है। उसे ख़्याल आता है हिसाब की  कापी कोरी पड़ी है। कल कुपित होकर मास्टरजी दूर से ही कापी खींचकर उसके  मुँह पर दे मारेंगे।  “सवाल ना करे ! …..ढीठनी ! तिमाई की तरह छमाई में भी  ज़ीरो अंडा इ लाएगी? ” ख़्यालों  में ही दफ़्ती से अलग होकर कापी के पन्ने इधर उधर उड़ने लगे । मालूम हुआ अपने घुटे हुए सिर पर हथेली फिराते और चिकनी खोपड़ी के बीचोंबीच बलखाई चोटी में गिरह लगाए मास्टरजी उसके सामने चहलकदमी कर रहे हैं।
मास्टरजी की सूरत ही उसे असहन लगती है। पुए सी नाक के तले बेरंग होठों के ऊपर लेटी कनगोजरे सी मूँछे।
वह मास्टरजी की नागवार सूरत को ख़्यालों से झटककर दीवार को ताकने लगी।  दीवारों पर  गए चौमासों की भोथरी पपडियां जमी थीं। बन्सरी फ़ालतू बैठी भुरभरी नाज़ुक पपड़ियों को खुरचने लगी। जगह जगह सूख चुकी काई के  चकत्ते अजीब शक़्लें लेकर उसे डरा रहे थे। अचानक वो चकत्ते ज़ीरो की मानिंद गोल होते गए।  उसे लगा जैसे ज़ीरो बने चकत्ते एक फंद की तरह उसके गले में कस रहे है।  उसने  दीवार की तरफ़ पीठ कर ली और आँखें मूँदकर बैठ गई।  ठंडी दीवार से सटी पीठ में मज्जा तक सिहरन दौड़ गई ।
शंकाओं , दुविधाओं और ख़्याली  धींगरो से लड़ते -भिड़ते जाने कब अचाहे ही उसकी आँख लग गई थी।
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रात के पिछले पहर अचांचक नींद टूटी तो बन्सरी की कंपकपी बंधी हुई थी। बेतरह दाँत बज रहे थे।  बड़ा हुलहुलाकर बुख़ार चढ़ा था। समूची  देह अंगार सी दहक रही थी।  उसने अपने जबड़े  और मुट्ठियों को भींचकर दांतों की किटकिटाहट को रोकने की नकारा कोशिश की मगर थरथराहट किसी तरह न थमी।  दाँत बदस्तूर बजते ही रहे।
 घर की सलामती के लिए उसने तमाम रात एक बहादुर लड़ाके की तरह पूरी शहज़ोरी से जंग लड़ी थी। अब उसका सब्र टूटने लगा था। बुख़ार की तेज़ी से  बदन ढिलमिला रहा था। आँखें और सिर यूँ भारी हो रहे थे जैसे कई किलो वज़न कपाल पर धरा हो।
दूर कहीं मस्जिद में फ़ज़्र की अज़ान सुनाई दी । मनहूस काली रात बीतने को थी । माँ जाग गई होगी।  वह दीवार का अवलम्ब लेकर उठ गई। इस वक़्त वह अपनी चतुराई पर इतरा रही थी कि आज अगर वह सबको घर में न मूँद देती तो माँ -,पापा का  न्यारा होना पक्का था।  इसका अलग  तोष था कि बुख़ार में उसे अब कई दिन  स्कूल न जाना होगा और वह मास्टरजी की दूभर सूरत देखने से बची रहेगी।
उसने चुप्पे -चुप्पे कुंडे से साँकल उतारी । दरवाज़ा खुलते ही फ़र्श पर बिखरी शराब की सघन दुर्गंध  उसके नथुनों में आ घुसी थी। उसने सख़्ती से उदर  में मचलती मितली पर क़ाबू पाया। कमरों की बत्तियां बुझी हुई थीं  । दोएक पल रुककर आधे अंधेर में आँखें गड़ाकर देखा  तो दुनिया जहान से ग़ाफ़िल  धन्सरी अपनी खाट पर सोई हुई थी। पिता अपनी जगह पर नहीं थे।  सम्भवतः शौच पेशाब के लिए उठे होंगे। माँ के जगा होने का भी कहीं कोई संकेत नहीं था।  पिता से अनखाई  शायद वह कोठार में लेटी होगी।  बुख़ार से जलती हुई बन्सरी का मन किया  माँ की छाती से लगकर कई घण्टों को बेसुध पड़ जाए। कोठारे की किवाड़  बेफ़िक्री से उढ़की हुई थीं। वहीं से भिंची हुई हंसी और कनफुसकियाँ बाहर आ रही थीं। बन्सरी वहीं ठिठक गई।
“कलेस में सगली चूड़ी मोल गईं  ।”माँ की दबी हुई रसीली झिड़की उसके कानों से टकराई ।
“चूड़ियों का दुहेला मत कर …. अबकी पैंठ से फिर ले लियो।पिता के सुर में मान मनौवल थी।
बन्सरी ने किवाड़ों के बीच की सँकरी दरार से देखा । रात के अंधतमस को तोड़ती मोखलों से आती भोर की उजलाई
में माँ की धुमैली साड़ी उसके बेडौल झांवले बदन से विलग होकर बिछौने पर पड़ी थी। अधनंगे अंगों पर पिता के हाथों के शिकंजे कसे थे।
” चल हट्ट ऐबदार । मैं ठैरी भुच्चड़ गँवारन । यहाँ क्या लेवे  ……उसी डाकनी के नेड़े जा जिस्से तेरी लाग लगी है। ” नकियाई ज़बान में दिखावटी रोष और उलाहना भर आया था।
 ” बावली हो रइ  है। मेरी कोई लाग ना लगी उस रांड से। “
 हाँफते हुए पिता के जबड़े  भिंच गए थे।
“बस्स जब -जब अपने तले दबाकर उस भूरी बामनी को दोंचता  हूँ  ना …तो कलेजे को ठंड सी पड़ती है।”  पिता का चेहरा अचानक ऐसा वीभत्स हो गया था  जैसे अरसे से दबी कोई भड़ास अपना कोआ फाड़कर उस चेहरे पर आ बैठी हो। बन्सरी ठक खड़ी थी। इस दम बन्सरी को  यह चेहरा इतना ही घिनावना  लगा था जितना उस  बियावान दोपहर में अखिलेश भैया का।
कोठारे में एक दूजे को पराजित करने की होड़ में दो उतावली देह गुत्थमगुत्था हो रही थीं।
और बन्सरी एक अतिरिक्त गाँठ  में उलझती जा रही थी।

1 टिप्पणी

  1. क्या कहूं क्या न कहूं कहानी ने अंतर्मन को झिंझोड़कर रख दिया।
    लेखिका साधुवाद की पात्र हैं।
    आंचलिक शब्दों का प्रयोग कहानी में एक अनूठा पन भरता दीखता है ।
    शिल्प की उत्कृष्टता मनमोहक।

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