पुस्तक समीक्षा – डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई

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शाम भर बातें , लेखिका दिव्या माथुर , वाणी प्रकाशन, 4695, 21ए, दरियागंज, नयी दिल्ली 110002

प्रतिष्ठित कथाकार दिव्या माथुर का उपन्यास, ‘शाम भर बातें’ विदेश में रहने वाले उच्च मध्यवर्गीय दम्पति के विवाह की बीसवीं वर्षगाँठ पर आमंत्रित अतिथियों के आपसी व्यवहार और बातचीत के माध्यम से वर्तमान समाज के खोखलेपन और बनावटीपन को उजागर करता है। स्वयं को अपनी औकात से बेहतर दर्शाने की मनोवृत्ति का वर्णन उपन्यास में मीता के माध्यम से किया गया है। मीता और मैक (मकरंद) के विवाह की सालगिरह मनाने आये लोगों के अलग-अलग मकसद हैं। हसन सायरा  से शादी करना चाहता है, और पार्टी के बहाने रंजीत से मिलकर अपने लिए नौकरी पक्की करना चाहता है। भारतीय समाज का एक वर्ग ऐसा है जो वर्षों से इंग्लैण्ड में बसा हुआ है – अच्छी नौकरी बड़े मकान बच्चों की शिक्षा की उपलब्धि की दृष्टि से यह वर्ग ऊपर से जितना सम्पन्न दिखता है, भीतर से उतना ही विपन्न, खोखला और छोटी सोच हैरखने वाला है। यह  उपन्यास उनके दोहरे जीवन की असलियत उजागर करने का प्रयास है। विवाह की सालगिरह के बहाने से अपने मिलने वालों को अपनी हैसियत दिखाने के लिए मीता का कुछ ‘गोरों’ को आमंत्रित करना, हिंदुस्तानी कामवाली को रसोई में छोड़कर ‘गोरी’ कामवाली लूसी को मेहमानों की देखभाल के लिए रखना, ‘लूसी यू स्टे विथ मी, प्रिया विल मैनेज द किचन’, ‘कोई मीता से पूछे, गोरी चमड़ी से चाकरी करवाने में जो इज़्ज़त है, उसका मज़ा ही कुछ और है’, ‘एशियन नौकरों से आधे पैसों में दुगुना काम करवाने की नीयत’ आदि बारबार दिव्या के इस मंतव्य की पुष्टि करते हैं। मीता का हर एक मेहमान के उपहार को स्वीकार करते समय मन ही मन उसका मूल्य आंकना, ‘वह जान गई कि उस गुदगुदे पुलिंदे में क्या होगा। दस-दस पाउन्ड वाले कम्बल, जिनसे ईलिंग रोड भरा पड़ा था’, में उसके मन की क्षुद्रता जाहिर है।

पार्टी में आये मेहमानों की तीन श्रेणियाँ हैं – प्रथम श्रेणी में वे लोग हैं जिन्हें खानापूर्ति के लिए बुलाने के बाद मीता को लगता है कि उसने ग़लती की , गिरगिट और सायरा और कुछ पड़ौसी इस श्रेणी में आते हैं। इनके लिए अंदर वाली बैठक, ‘जिसकी हर चीज पुरानी थी’, में बैठने की व्यवस्था है, । मोहिनी और मोहन के आगमन पर मीता उन्हें ‘ गलियारे से अंदर धकेल देती है ताकि वे अंदर वाली बैठक में चले जाएं। दूसरी श्रेणी में ‘साड़ी और सुनहरी तनियों पर टिके आधे बालिश्त भर ब्लाउज़ में लज़ीज़ लग रही मंजूषा जैसी अतिथि है जिसे ‘बार’ की शोभा बढ़ाने के लिए आमंत्रित किया गया है। और तीसरी श्रेणी उन खास मेहमानों की है जिनके लिए सारा आयोजन किया गया है। वे हैं भारतीय उच्चायोग के तीन अधिकारी ‘जिनके आने से मीता और मकरंद की बाँछें खिल गईं।’

उपन्यास का प्लॉट पात्रों के कथोपकथन और उनके दाँवपेच के विवरण के सहारे आगे बढ़ता है, पर उनका अतीत कहानी को आगे बढ़ाने की बजाए पीछे की ओर ले जाता है। परिणाम स्वरूप कथा एक ही जगह अटक कर जहाँ थी वहीं रह जाती है और शाम बहुत लम्बी खिचती चली जाती है। बौद्धिक स्तर पर  दिव्या जी ने समाज के कई ज्वलंत मसलों को उभारने की चेष्टा की है। मकरंद की बहत्तर वर्षीय माँ उर्फ जिया अपनी सहेलियों के साथ अंदर वाली बैठक के एक कोने में बैठ कर अपनी पैनी दृष्टि से सबका निरीक्षण कर रही है। एक शाम के दौरान दिव्या के पात्र राजनीति, सामाजिक व्यवस्था के दोष, दहेज प्रथा, वीज़ा मिलने की समस्या, ब्रिटिश सरकार की दोहरी चाल, डेनिश फिल्म के ख़िलाफ़ शेख और इमाम की प्रतिक्रिया, सीरिया का मसला, मलाला युसूफ, हिंदी भाषा के प्रति उपेक्षा भाव से लेकर ब्लू बैज और डिसेबिलिटी ऐलाउंस के दुरुपयोग जैसे विषयों पर चर्चा कर लेते हैं। किंतु यह उपन्यास की सीमा है कि लेखिका समस्याओं का ज़िक्र भर करके उसका एक स्नैपशॉट लेकर अगले प्रसंग या अगले मेहमान को सामने ले आती हैं। इनमें से कुछ प्रसंग इतने विचारोत्तेजक हैं कि उनके साथ एक शाम की कहानी में न्याय करना संभव नहीं था। कथा का समापन प्रिया के रेप और जिया की अप्रत्याशित मौत से होता है।

‘शाम भर बातें’ की भाषा में हिंदी, उर्दू अंग्रेज़ी, पंजाबी, अवधी आदि का मिश्रण, उपन्यास के पात्रों को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए किया गया है। आधुनिक सामाजिक परिदृश्य में इस तरह की मिलीजुली भाषाओं का प्रयोग स्वाभाविक लगता है। किंतु इसका अतिरेक  रंजीत के प्रत्येक कथन के प्रारम्भ, मध्य और अंत में बोली गई गालियों की बौछार में हुआ है। उपन्यास में मिश्रा जी का कथन, ‘टीवी के अधिकतर कार्यक्रमों के प्रस्तुतकर्ता मोटी-मोटी गालियाँ देना शान समझते हैं और उनकी गालियाँ सुनकर यहाँ के लोग भी खूब तालियाँ पीटते हैं,’ रंजीत की भाषा पर भी पूरी तरह से लागू होता है। मेरे विचार से गालियों की भरमार के बिना भी उपन्यास के कथ्य को प्रभावशाली रूप से सम्प्रेषित किया जा सकता था।

 

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सुषम बेदी की यादगारी कहानियाँ, लेखिका सुषम बेदी, प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड

.जे-40, जोरबाग़ लेन, नई दिल्ली -110003

 

’सुषम बेदी की यादगारी कहानियाँ’ उनकी बारह कहानियों का संग्रह है। इन कहानियों की विशेषता रोज़मर्रा में घटने वाली साधारण घटनाओं के माध्यम से गंभीर और मर्मभेदी संवेदना को अभिव्यक्त करने की कुशलता है। वर्षों से विदेश में रहने के अनुभव और भारतीय संस्कारों की गहराई से जमी जड़ों के मिश्रण

 

से विकसित जीवन दृष्टि की अलग-अलग परतें इन कहानियों में देखने को मिलती हैं। सच तो यह है के वर्तमान युग में सम्पूर्ण संसार की सीमाएँ आपस में इतनी घुलमिल गई हैं कि इन कहानियों को केवल अमेरिका के भारतीय समाज की कहानियाँ कहना उनके साथ अन्याय करना होगा। कहानियों के पात्रों की सोच और उनकी समस्याएँ सर्वदेशीय हैं। ‘चिड़िया’ कहानी की चिड़िया पिंजरे से मुक्त होने को बेचैन है। उसके कार्डियोलॉजिस्ट डैडी और रेडियोलॉजिस्ट मम्मी ने उसके भविष्य में डॉक्टर या वकील बनने  के जो सपने संजोये थे, उन सपनों का उसके अपने सपनों से कोई तालमेल नहीं है। उसकी कहानी पाठक को अपनी कहानी लगने लगती है – मम्मी, डैडी की निराशा और चिड़िया के अपने सपने दोनों के साथ सहज में तादात्म्य हो जाता है और उनकी पीड़ा पाठक की अपनी पीड़ा हो जाती है। सुख-सुविधा से भरपूर मम्मी- डैडी का घर छोड़कर बॉयफ्रेंड के साथ तंगी में गुजारा करने का उसका निर्णय अपने को पिंजड़े से स्वतंत्र करने की छटपटाहट का द्योतक है जिसके लिए चिड़िया का रूपक अत्यंत सटीक लगता है। सुषम बेदी इसे एक अमरीकी सोच के रूप में प्रस्तुत करती हैं। मम्मी की बीमारी में उनकी देखभाल करने आई उनकी बहन को चिड़िया की बिना मकसद की आज़ादी नागवार लगती है। मौसी को लगता है कि अमरीकी समाज में पले बच्चे न तो हिंदुस्तानी रह पाते हैं और न पूरी तरह से अमरीकी बन पाते हैं। आर्थिक रूप से मम्मी-डैडी पर निर्भर होने के बावज़ूद वह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर कोई हस्तक्षेप नहीं सह सकती और अमरीकी संविधान की दुहाई देने लगती है। अंत में चिड़िया का पिंजरे में ना लौटना और मम्मी की आशंका कि कहीं कोई चील उसे दबोच न ले, घर छोड़कर गई बेटी की सुरक्षा के प्रति एक माँ की आशंका को व्यक्त करती है। इसके साथ देश-काल की सीमा के परे किसी भी माँ को समानुभूति होगी।

‘ब्रॉडवे’ कहानी दो तरह के लोगों का आख्यान है – भागते हुए लोग और रुके हुए लोग। ‘रुके हुए आदमी के पास खासा वक़्त रहता है, कहानियाँ गढ़ने का। सिर्फ़ भागते आदमी के पास सुनने का वक़्त नहीं होता।‘ आँखों में अमीर बनने के सपने संजोए अमरीका पँहुचने वाले नौजवान का स्वप्नभंग अपने ही बनाए ताबूत में भारत लौटने में होता है। कहानी का यह अंत जितना यथार्थ है उतना ही दर्दनाक भी! सुषम बेदी की यह विशेषता है कि वे यथार्थ को एक तटस्थ दर्शक की तरह लिख देती हैं: ‘आज शाम के हवाई जहाज़ से मृत नौजवान की बीबी और बच्चे ताबूत समेत अपने मुल्क वापिस जा रहे हैं।‘ पाठक की संवेदना स्वयं ही इस खौफ़नाक त्रासदी से तादात्म्य कर लेती है।

संस्कारों की गहराई को ‘अवसान’ कहानी के दिवाकर की अंत्येष्टि के प्रसंग में अत्यंत सांकेतिक रूप से चित्रित किया गया है। अमरीकी महिला से विवाह करके अमेरिका में बसे दिवाकर की अंत्येष्टि उसकी पत्नी ईसाई पद्धति से करवाती है। उस एकमात्र हिंदुस्तानी मित्र शंकर को गिरिजाघर के हॉल में गूंजती पादरी की आवाज़ से लगा ‘जैसे कोई साँप सा सरक गया शंकर की रीढ़ पर से… अजीब सी घुटन सी हुई उसे।’ अंत में पादरी के डायस से उतरने के बाद अपने दोस्त के लिए गीता के श्लोक उच्चारित करने पर उसे लगा कि ताबूत में खामोश लेटे दिवाकर का चेहरा उसकी ओर देख कर मुस्कुराया है।

कहानी कहने का सुषम बेदी का तरीका अत्यंत सहज और भाषा प्रवाह्मयी है। ये कहानियाँ दो संस्कृतियों के बीच झूलती स्त्रियों की कहानियाँ है, उनके नाम चाहे अलग हों संघर्ष एक समान है। सच तो यह है कि यह संघर्ष आज भारत के बड़े शहरों में रहने वाली स्त्रियों का भी उतना ही अपना है जितना अमरीका में रहने वाली भारतीय स्त्री पात्रों का है। उनकी कहानियों का यथार्थ पारम्परिक मान्यताओं के विघटन का सार्वजनीन, कटु यथार्थ है जो टुकड़ों-टुकड़ों में इस संग्रह की कहानियों में चित्रित हुआ है। कहानीकार की यह सफलता इस संग्रह को विशिष्ट और पठनीय बनाती है।

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