पुरवाई की विशेष प्रस्तुति : ब्रिटेन में हिंदी ग़ज़ल
समन्दर पार करके अब परिन्दे घर नहीं आते।
मिरी आँखों की दोनों खिड़कियाँ ख़ामोश रहती हैं
मिरी चाहत ख़लाओं में धुआँ बन बन के उड़ती है
सुनहरी धूप की चादर, वो पूरे चाँद की रातें
मिरे आँगन की छतरी के कबूतर ख़ूब हैं, लेकिन
तुम्हारे शहर के मौसम, हमारे शहर में ‘राही’
खु़शबुओं को मेरे घर में छोड़ जाना आपका।
जब से जाना काम है मुझको बनाना आपका।
आते भी हैं आप तो बस मुँह दिखाने के लिए
क्यों न भाये हर किसी को मुस्कराहट आपकी
क्यों न लाता महँगे-महँगे तोहफे मैं परदेस से
मान लेता हूँ चलो मैं बात हर एक आपकी
बरसों ही हमने बिताये हैं दो यारों की तरह
अँधेरे बहुत हैं तभी हैं उजाले
यहाँ कब अँधेरा मिटे कौन जाने
चमन आज़माइश करे मौसमों की
छिपाया जिसे आप दिल ने नज़र से
किसी के लिए फूल बन जाएँ कांटे
कहीं रेशमी ख्वाब सचमुच सजे हैं
कहो मत नहीं जायका ज़िन्दगी में
मुलाक़ात जब भी हुई यह हुआ है
सूना है कि ‘गौतम’ ने मुँह सी लिया है
सागर मेरे जज़्बात का छलका गया कोई।
जब उनसे किया जि़क्र उनकी जफ़ाओं का
ना रुक सकीं जो आँधियाँ ना बाज़ बिजलियाँ
आया था इक मुक़ाम यूँ उल्फ़त की राह में
जब जीस्त के अंधेरों से घबरा गई नीना
आबाद रहे चाहत वो काम किया मैंने
हर ओर मुहब्बत हो बस इश्क़ किया जाए
जब डूब के पैमाने में प्यास न बुझ पाई
यूँ था तो असर तेरी ही मस्त निगाहों का,
तैयार हारे को इक ताक में थी बैठी,
आसान नहीं पाना परवाज़ फ़कीरों सी,
RELATED ARTICLES