Thursday, May 16, 2024
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सूर्य कांत शर्मा की कलम से – ऐ वतन मेरे वतन : एक औसत सिनेमा

ओटीटी प्लेटफार्म ने देश के स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायकों को आम जन मानस से रू ब रू करने में काफी अहम रोल निभाया है।वर्तमान परिदृश्य जो आज़ादी के अमृत महोत्सव से आरंभ हुआ और अमृत काल में आ पहुंचा है,इस ओर बेहद जागरूक है कि अनजाने स्वतंत्रता सेनानियों को खोज खोज कर उनके योगदान का देश के लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाय।देश की आधी आबादी के महत्व को अब रियल और रील में सकारात्मक रूप से उकेरे जाने के रचनात्मक प्रयास अब अपने पूरे शबाब की ओर अग्रसर हैं। पिछले सप्ताह एमेजॉन प्राइम पर रिलीज फिल्म ‘अ वतन’ जो कि भारत की पहली रेडियो वूमेन उषा मेहता के जीवन पर आधारित है।सारा अली खान ने इस पूरी फिल्म में अपने अभिनय की छाप छोड़ी है।देश के दूसरे सर्वोच्च सम्मान पदमश्री से सम्मानित(सन 1998!)उषा मेहता को आज के युवा भारत से परिचित कराने की अच्छी कोशिश की है।उषा मेहता ने भूमिगत रेडियो का संचालन कर एक निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में देश के इतिहास में अमर हैं।
फिल्म की कहानी साइबेरियाई सारस की उड़ान देखती एक छोटी सी बच्ची और उसके जज पिता हरि प्रसाद मेहता(सचिन खेडेकर)के संवाद से होती है कि बालिका उषा मेहता का कथन’ वह भी उड़ना चाहती है’।इसके बाद की कहानी में युवा उषा मेहता को ही फोकस किया गया है और यही इस फिल्म का उद्देश्य भी है।
गांधीजी के सन 1942 में ‘करो या मरो’ के आवाहन के बाद गांधीजी समेत सभी बड़े नेताओं का ब्रिटिश सरकार द्वारा जेल में बंद कर दिया जाना और जूनियर तथा बचे हुए युवा नेताओं द्वारा आज़ादी की मुहिम को जारी रखने हेतु संवाद की भूमिका को समझ कर ऊषा मेहता जो कि उस समय बाईस साल की थीं और उनके दो और साथियों(कौशिक-अभय वर्मा, फहद-स्पर्श श्रीवास्तव) द्वारा कांग्रेस रेडियो चलाने और समूचे देश को एकजुट रखने को प्रदर्शित करती है।खादी वस्त्रों में फिल्म की नायिका विगत कालखंड को जीवंत रूप दे पाई हैं।डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की भूमिका में इमरान हाशमी बिल्कुल भी प्रभावी नहीं बन पड़े हैं यथा ना तो संवाद अदायगी और ना ही अभिनय के आईने में।गांधी जी की सभा में ब्रह्मचर्य स्वेच्छा से धारण करने के दृश्य बेहद स्वाभाविक बन पड़े हैं।रेडियो स्टेशन को चलाने,उसे बचाने और दो ट्रांसमीटर से ब्रिटिश सरकार को कड़ी चुनौती देने वाले प्रसंग प्रभावित करने में बहुत सक्षम साबित हुए है।पूरी फिल्म में कांग्रेस रेडियो को संचालित करने और उसे पकड़ने के लिए बरतानिया सरकार के अधिकारियों द्वारा  पीछा करना और उषा मेहता और साथियों द्वारा बचाना और फिर चलाना इस फिल्म का सबसे दिलचस्प हिस्सा है।
फिल्म की पटकथा अच्छी हो सकती थी और साथ ही साथ निर्देशन भी क्योंकि इस फिल्म के साथ बड़े नाम कन्नन अय्यर और करण जौहर जुड़े हैं। परंतु पटकथा और निर्देशन दोनों ही फिल्म को उत्तमत्ता की सीढ़ी नहीं चढ़ा सके।फिल्म में उषा मेहता के बचपन की घटनाएं यथा साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में बालिका रूप,या फिर  कांग्रेस रेडियो का बार बार स्थान बदलना और सबसे बड़ी सत्य घटना यथा  हार्डवेयर रेडियो,रेडियो इंजीनियर (आनंद तिवारी) के साथ साथ उषा मेहता और उसके साथियों में एक तकनीशियन की गद्दारी के कारण रेडियो स्टेशन और उषा मेहता पकड़ी गई थी!  का ना दिखाया जाना,फिल्म की संपूर्णता पर गंभीर सवाल करते हैं।फिल्म में यदि और स्वतंत्रता सेनानी या बड़े नेताओं के नाम पर भी यदि सूक्ष्म टिप्पणियां होती तो बेहतर होता और डॉक्टर राम मनोहर लोहिया की लंबी स्पीच और नायिका का बात बार कहना कि लोहिया जी घोषणा, कीजिए,और फिर पकड़ लिया जाना,,,क्या लोहिया जी को समय और स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा नहीं था!???!
आज का भारत तकनीक और विज्ञान का देश है।अंधेरे की बैकग्राउंड और धुंधले दृश्य ! कहीं ना कहीं कैमरे और संपादन की गुणवत्ता पर भी उंगली उठाते हैं और आज का युवा जो एचडी डिस्प्ले का आदी है वह शायद इसे उतनी रुचि से न देख पाए।बरतानिया सरकार ने हमारे सेनानियों को असहनीय और अमानवीय यातनाएं दी हैं।उषा मेहता को भी टॉर्चर किया गया था और विदेश में पढ़ने का लालच भी,,, उषा मेहता को चार वर्ष की जेल हुई थी और उन्हें उनके जेल से रिहा होने पर ,उपलब्ध अभिलेखों के अनुसार बीस हजार लोगों का बड़ा समुदाय उन्हें देखने को बैचेन था परंतु फिल्म में यह दृश्य बस एक झलक से कुछ अधिक नहीं रहा है।यही कुछ दृश्य दर्शकों की आत्मा का झकझोर सकते थे और यह बताने को कि गुलामी की जंजीरें यूं ही नहीं टूटी!
और आज के आवाम को इसकी खास जरूरत है।फिल्म का संगीत आवश्यकता अनुसार ठीक ठाक है।ब्रिटिश सरकारी किरदारों को निभाने वाले किरदारों में यथा जॉन लियर के रूप में एलेक्स ओ’नेल,कोरिगन के रूप में बेनेडिक्ट गैरेट रिचर्ड भक्ति क्लेन वायसराय लिनलिथगो के रूप में कैमरून के रूप में एश्टन बेसेट ग्रांट के रूप में रिक मैकलेन,कैप्टन विली के रूप में एड रॉबिन्सन पर न  तो कैमरा ही फोकस हुआ है और ना ही संवाद और परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार का उस वक्त की अमानवीय नीतियां और दमनकारी चेहरा नक़ाब में रह गया।
उषा मेहता के मुकद्दमें और कोर्ट रूम के प्रसंग दिखाए जा सकते थे इस से अहिंसा और सत्य को कहने के तथ्य और निखर और मुखर हो कर दर्शकों के मन मस्तिष्क को आंदोलित करते तथा राष्ट्र के प्रेम को युवा और आम जन में पैठाने का पुनीत कर्तव्य निभाते। याद रहे कि  यह फिल्म यानी इसकी  अवधि पूरे एक सौ तैंतीस मिनट की रही है।फिल्म का संगीत काफी बेहतर स्टार का है।
फिल्म का अंत यदि आजाद भारत में सांस लेती और सोशल कार्यों में कर्म रत ऊषा मेहता को दिखाया जाता तो आज के दर्शकों को एक औचित्य पूर्ण  बायोपिक के दर्शन होते।इन सभी खामियों के बावजूद यह फिल्म देखे जाने की श्रेणी में आती है क्योंकि यह आधी आबादी के सशक्त और बहादुर पहलू को मजबूती से खड़ा करती है।
सूर्य कांत शर्मा
फ्लैट नंबर बी वन
मानसरोवर अपार्टमेंट प्लॉट नंबर तीन सेक्टर पांच
द्वारका, नई दिल्ली
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1 टिप्पणी

  1. आजादी में भाग लेने वाले कितने ही अनाम लोग ऐसे हैं जिन्होंने बहुत कुछ किया, लेकिन उनके बारे में अपन नहीं जानते हैं। आप लोगों की समीक्षाएं उन लोगों से भी परिचय करवा रही हैं भले ही माध्यम फिल्म की समीक्षा ही क्यों न हो।
    बहुत अच्छी समीक्षा की है आपने।बहुत कुछ जाना इसको पढ़कर। इसकी खासियत यह भी है कि आपने उसकी कमियों को भी उतना ही उजागर किया है जितना खूबियों को।
    बहुत-बहुत बधाइयां आपको।
    पुरवाई का आभार आपको पढ़वाने के लिए।

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