“सुना है तुम्हारी प्रथम त्रैमासिक परीक्षा का परिणाम आ गया है” रितिका की माँ ने उसे संदेहास्पद लहजे में डांटते हुए घुड़का  | 
“नहीं माँ अभी तो परीक्षा हुई ही नहीं तो परिणाम कैसे आयेगा भला” अचकचा कर रितिका ने प्रत्युत्तर में एक प्रश्न माँ के समक्ष रख दिया |
तुम सच कह रही हो परीक्षा नहीं हुई ?
हाँ माँ, मैं क्या तुम से झूठ बोलूंगी ?
गजब है सामने रहने वाली तुम्हारी सहपाठी संचिता की माँ तो कह रही थी कि उसकी बेटी के अंक परीक्षा में बहुत ही कम आये हैं | वह किस परीक्षा की बात कह रही थी फिर ?
“वह मैं क्या जानूँ भला ? संचिता की माँ तो वैसे भी उसकी सौतेली माँ है , हर वक़्त उस पर शक  रखती है | पढी-लिखी भी तो नहीं, कुछ जानती-समझती तो है नहीं, बस ऊल-जलूल तुम्हारे कान भारती रहती है |” 
“तुम ठीक कहती हो, क्या पता उसे ही भ्रम हो और मुझे फ़िक्र में डाल दिया हो” 
बातें बना कर रितिका ने आज फिर स्वयं को बचा लिया था और वह मन ही मन अपनी बहानेबाजी की कला पर बहुत प्रसन्न हो रही थी |  
अगले दिन विद्यालय की प्रार्थना सभा में वह कतार में सबसे आगे खड़ी थी | जैसे ही प्रार्थना समाप्त हुई खेल शिक्षिका का रौबदार  स्वर उसके कान में गूँजा “स्पोर्ट्स की सभी लड़कियाँ कक्षा में न जाएँ और यहीं से बस में जा कर बैठ जाएँ”
जो छात्राएं स्पोर्ट्स में नहीं थीं वे अपनी-अपनी कक्षाओं में चली गयीं और वह स्कूल बस की तरफ बढ़ गयी |
अपनी साथी खिलाड़ियों के उत्साह से मुस्कुराते चेहरे देख वह अपनी माँ की हिदायत को भूल गयी, जैसे ही बस स्टेडियम पहुँची वह खुशी-खुशी बस से उतरी और स्टेडियम के अंदर की और दौड़ती नजर आयी |
हैंड बाल और खो-खो की खिलाड़ी रितिका जब बॉल हाथ में लेकर दौड़ती तो मजाल है जो कोई उससे बॉल छुड़ा सके | सात-सात  खिलाड़ियों की दो टीम जब आमने सामने होती तो जिस फुर्ती  से वह बॉल अपनी साथी खिलाड़ी को पास करती और फिर विरोधी टीम की गोल पोस्ट तक पहुँचा देती वह मैच देखने लायक होता | आधे -आधे घंटे के दो मैच खेलते हुए पलक झपकते ही समय कहाँ बीत जाता मालूम ही न चलता | 
पूरी टीम को संचालित करती रितिका का अपनी टीम के साथ सामंजस्य भी बहुत अच्छा था आखिर मंजी हुई खिलाड़ी जो थी वह | 
खो-खो खेलती तो दौड़ लगाते हुए उसकी नजर जमीन पर बैठे हरेक खिलाड़ी पर होती | जैसे ही आगे दौड़ने वाली लड़की विपरीत दिशा में मुंह किये बैठी लड़की के सामने से गुजरती वह चीता की गति से वहाँ पहुँच कर झट से “खो” कह देती | कोच भी उसकी लगन एवं प्रतिभा को देख कर बहुत प्रसन्न होते | 
पाँच भाई-बहनों के परिवार में दूसरे नंबर की रितिका जिस तरह अपने भाई -बहनों से सामंजस्य बैठा लेती थी उसी प्रकार साथी खिलाड़ियों के साथ भी उसका अच्छा एवं परिपक्व व्यवहार देख खेल शिक्षिका भी टीम की श्रेष्ठ खिलाड़ियों में उसकी गिनती करती |
“दुपट्टा कहाँ है तुम्हारा” घर में घुसते ही माँ का स्वर जब कान में पड़ा तो उसकी एकाग्रता  टूटी और वह झट से बोली “बैग में है, जब पानी पीने गयी नल पर हाथ से ओक बनायी तो पानी कोहनी तक आ गया और दुपट्टा गीला हो गया | इसलिए बैग में रख लिया, वरना सारे कपड़े गीले हो जाते |” झेंपती सी बनावटी मुस्कान बनाते  हुए वह बाथरूम की तरफ बढ़ गयी और कपड़े बदल कर आ गयी |
गरमा-गरम शाम की चाय और नाश्ता उसकी माँ ने  टेबल पर रखा तो ऐसे टूट कर पड़ी मानो जन्मों से भूखी हो | मन ही मन सोच रही थी “दुपट्टा तो स्टेडियम में खेलते वक़्त उतारा था उसके बाद पुनः पहनना तो याद ही नहीं रहा | शुक्र है आज तो माँ के समक्ष उचित बहाना सूझ गया वरना खैर न थी” 
खा-पी कर जब बैग से दुपट्टा निकालने लगी तभी सामने की संचिता की माँ का स्वर उसके कान में गूँजा “ओ भाभी जी ल्यो झांको, या री मारक सीट” अपने देसी स्वर में वह संचिता की परीक्षा की मार्कशीट लेकर उसकी माँ के सामने खड़ी थी |  
रितिका की घिग्घी बंध गयी थी सो वह चादर तान कर सोने का उपक्रम करने लगी | 
हे भगवान् ! यह तो सचमुच त्रैमासिक परीक्षा की मार्क शीट है, सचमुच आपकी बेटी के अंक तो बहुत कम आये हैं लेकिन रितिका से तो कल ही पूछा तो कहने लगी कि परीक्षा हुई ही नहीं,  कुछ तो दाल में काला है जरूर |  
संचिता की मार्कशीट हाथ में लिए माँ  रितिका के पास आयी ‘ये देखो घोड़े बेच कर सो रही है , अरी ! परीक्षा का क्या हुआ ?” माँ ने उसकी चादर खींच कर एक तरफ पटक दी थी | अपने कपड़े ठीक करती हुई रितिका उठ बैठी  | माँ का गुस्से से तमतमाया चेहरा देखा तो उनसे नजरें मिलाने की हिम्मत न हुई सो नीचे मुंह कर बैठ गयी |
“यह क्या है”  माँ ने चीखते हुए स्वर के साथ संचिता की परीक्षा की मार्कशीट रितिका के सामने पलंग पर पटक दी |
बोलती क्यों नहीं ? अब क्या साँप सूंघ गया तुझे ? या जबान को लकवा मार गया ? 
 माँ …क्या बताऊँ ? आगे कुछ बोल पाती उस से पहले माँ का झनझनाता  हुआ हाथ चटाक की आवाज के साथ उसके गाल पर अपनी उँगलियों के  निशान अंकित कर चुका था |  
सिसक -सिसक कर रोने लगी थी वह, थोड़ा चेहरा  ऊपर किया तो माँ का विकराल रूप नजर आया, पुनः नजरें पलंग  की चादर पर बने लाल-नीले गोलों की परिधि मापने लगी थीं |
“ल्याओ मारक सीट” संचिता की माँ मार्क शीट लेकर वहाँ से चली गयीं |
रितिका का जी चाहा यदि उसके हाथ में एक पत्थर होता तो वह खींच कर संचिता की माँ के सर में दे मारती | गुस्से में धड़कन बेकाबू होने लगी थी और मन ही मन न जाने कितनी गालियाँ उसने संचिता की माँ को दे डाली थीं “ सौतेली माँ है, संचिता पर पूरी नजर रखती ही है, उसके स्कूल बैग  की भी पूरी तहकीकात करती है, संचिता ने स्वयं ही तो आज कक्षा में बताया था कि उसकी माँ जब-तब उसका बैग चेक करती रहती है |
हे भगवान यह तो अनपढ़ है, पढी-लिखी होती तो न जाने क्या कहर ढाती संचिता पर | इतना क्या कम पड़ता है जो मेरी माँ को आ कर सारी खबरें भी देती हैं ” 
“बोल अब क्या होंठ सिल गए तेरे?”  माँ का कर्कश स्वर पुनः उसके कानों के डायाफ्राम पर कम्पन पैदा कर रहा था |  
“क्या बताऊँ माँ ….मेरी परीक्षा तो हुई ही नहीं”  आगे कुछ कह पाती इससे पहले ही माँ ने दूसरा सवाल दाग दिया था “कहाँ गयी थी परीक्षा के समय क्यों नहीं हुई तेरी परीक्षा ?” 
माँ क्या बताऊँ खेल शिक्षिका रोज स्टेडियम लेकर जाती हैं सभी खिलाड़ी लड़कियों को, अगले माह अंतर विद्यालय खेल प्रतियोगिताएं हैं | अध्यापिका बोलीं कि प्रतियोगिताओं के बाद सभी खिलाड़ी लड़कियों की परीक्षा अलग से होंगी | 
“कान खोल कर सुन ले किसी खेलकूद में भाग नहीं लेना है, तुझे पहले भी कितनी बार कहा, पर तू माने तब न”  माँ ने एक और तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया था |
अगले दिन प्रार्थना सभा के बाद रोजाना की तरह खेल शिक्षिका ने हुक्म दिया “ खेलकूद की सभी खिलाड़ी लड़कियाँ बस की तरफ प्रस्थान करें”
“मैडम आज मैं स्टेडियम नहीं जाऊँगी, मेरी तबियत ठीक नहीं”
“क्या हुआ तुम्हारी तबियत को, अच्छी खासी तंदुरुस्त तो दिख रही हो तुम ?”    
“मैडम खेल कर जब घर जाती हूँ, बहुत थकान हो जाती है | पैरों  और कमर में बहुत दर्द होता है, माँ ने कहा कि खेलकूद से नाम कटा दे” दबे स्वर में सिर्फ इतना ही कह पायी रितिका | 
“बादाम और चने भिगो कर खाओ, सब दर्द ठीक हो जाएगा”   खेल शिक्षिका के कड़क स्वर के साथ ही रितिका स्टेडियम जाने वाली बस की तरफ बढ़ गयी थी |
गणित की अध्यापिका भी अब उसे रोज हिदायत देने लगी थी “तुम मंगलवार और गुरूवार मेरे पीरियड में जिम्नास्टिक के लिए चली जाती हो | तुम्हें मालूम है गणित विषय के लिए अभ्यास बहुत आवश्यक है | गणित के पीरियड में जिम्नास्टिक अभ्यास करेगी तो परीक्षा में क्या वृत लायेगी ? “वृत”   शब्द सुनते ही पूरी कक्षा ठहाका लगा कर हँस पड़ी थी | गणित अध्यापिका ने बड़े ही सभ्य अंदाज में “गोल अंडा यानी कि शून्य अंक ” को वृत की परिभाषा दे डाली थी | 
विद्यालय से घर पहुँचती तो माँ का सामना करने से कतराती, माँ  कुछ पूछेगी तो कैसे बतायेगी  कि अभी भी वह स्टेडियम जाती है | चोर निगाहों से घर में घुसती, कपड़े बदलती, थोड़ा कुछ खाती-पीती  और झट से पढ़ने बैठ जाती |  
अंतर विद्यालय प्रतियोगिताएं  आरम्भ हो रही थीं और अब खेलकूद की छात्राओं को विभिन्न विद्यालयों में मैच खेलने जाना था | इसके लिए विद्यालय से बस सुविधा उपलब्ध नहीं थी | अभिभावकों को स्वयं ही अपने बच्चों को छोड़ने -लेने की व्यवस्था करनी थी | रितिका मन ही मन डर रही थी माँ को कैसे बताये कि अब उसे यह व्यवस्था भी करनी होगी | स्कूल से घर तक के रास्ते में बस में बैठे उसके माथे की लकीरें गहरी होने लगी थीं | घर पहुँची खाना खाया तभी पास ही की अन्य सहपाठी की माँ अपनी बेटी के साथ उनके घर आयी और बोली “ देखिये रितिका की माँ दोनों लड़कियों को एक ही जगह जाना है | डबल चक्कर कौन लगाए, आप लड़कियों को छोड़ कर आइये, लेने हम चले जायेंगे” 
रितिका की माँ कुछ कहती इस से पहले ही रीतिका किसी अपराधी की भांति नजरें जमीन में गड़ाए वहाँ आ खड़ी हुई | “क्या करूँ माँ खेल शिक्षिका के समक्ष बहुत बहाने बनाए पर वे सुनती ही नहीं | रोज स्टेडियम जाती हूँ अभ्यास के लिए | बस यह प्रतियोगिता खेल लूँ फिर नाम कटा देना भले ही खेल से | माँ इधर तुम डांटती हो, उधर खेल शिक्षिका  मेरी एक नहीं सुनती, खेलने पर जोर देती है | जिम्नास्टिक की ट्रेनर कहती हैं कि तुम्हारी हड्डियाँ बहुत लचीली हैं, तुम बहुत अच्छी जिमनास्ट बनोगी, देश का नाम रौशन करोगी |”
अगले ही पल रितिका की माँ आग बबूला  हो उठी थी “बेशर्म, जिद्दी कितनी बार तुझे कहा कि तुझे इंजीनियर बनना है कोई खेलकूद में भाग नहीं लेना | पर तू समझे  तब न , मेरी ही गलती है कि मैं ने तेरा भरोसा किया”  पिताजी के सामने  माँ ने खूब हंगामा किया | बिगाड़ कर रखा है अपनी लाडली को | कल मैं ही तेरी स्कूल आती हूँ देखती हूँ कौनसी खेल शिक्षिका है तेरी |
अगले दिन रितिका की माँ प्रधानाचार्य के दफ्तर में थी “ देखिये मैडम हम अपनी बेटी को स्कूल पढ़ने के लिए भेजते हैं | हमारी बेटी किसी खेलकूद में भाग नहीं लेगी  | इतना कह माँ ने एक लिखित अर्जी प्रधानाध्यापिका के समक्ष रख दी थी | रितिका का नाम सदा के लिए खेलकूद से काट दिया गया था |
रात -दिन की कड़ी मेहनत और पी. ई. टी. की परीक्षा में उसकी अच्छी मेरिट बनते ही इंजीनियरिंग में दाखिला मिल गया  | समय पंख लगा कर उड़ गया और सौलह वर्ष पश्चात इंजीनियर रितिका अपनी बेटी को नर्सरी कक्षा में दाखिले के लिए अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त अन्तराष्ट्रीय विद्यालय में लेकर गयी | पहले ही दिन ओरियंटेशन के बाद सभी अभिभावकों को विद्यालय का दौरा करवाया गया | छोटे बच्चों के लिए रंग-बिरंगे फोम से युक्त जिम्नेशियम बनाया हुआ था | सभी बच्चे जिम ट्रेनर की उंगली पकड़ वहाँ लगी बार पर चढ़ कर  अपने आप को संतुलित करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे | जबकि रितिका की बेटी सारा फुर्ती के साथ बगैर किसी की मदद के बार पर चढी और उसे पार कर लिया | 
“हमारी बेटी में मेरे ही जींस आये हैं, देखो न क्या खटाखट इस ने बार क्रॉस कर लिया” रितिका का स्वर सभी अभिभावकों के बीच गूँज उठा था | इतने बरसों बाद आज वह पूरे दिन बहुत प्रसन्नचित्त रही | अपनी बेटी सारा  को वह खिलाड़ियों की जीवनी  पढ़ कर सुनाती और साथ में स्वयं भी उनमें खो जाती | यू ट्यूब पर जिम्नास्टिक के वीडिओ दिखाया करती और स्वयं के स्कूल के किस्से भी खूब सुनाया करती | एक बार जब सीलिंग से  लोहे की चेन के साथ  बंधे गोलों पर स्वयं के लटकने का किस्सा सारा को सुनाया तो वह खूब ठहाके लगा कर हँसी | जब -तब वह रितिका से कहती “मॉम  तुम मुझे वही किस्सा सुनाओ, वह बहुत फनी है” हुआ यूँ था कि रितिका चेन से बंधे गोलों के बीच अपनी लम्बी टांगें डाल संतुलन बना कर ऊपर बैठ गयी | उसने अपने दोनों हाथों से चेन पकड़ी हुई थी और पैर गोलों से बाहर नीचे लटक रहे थे | उसकी अन्य जिमनास्ट सहेलियाँ पैर पकड़ कर उसे झूला दे रही थी कि तभी ट्रेनर वहाँ आ पहुँची | उनकी शरारत देख वह बहुत नाराज हुईं और बोली “नीचे उतरो रितिका” डर कर सभी सहेलियाँ एक कोने में खड़ी हो गयी थीं | अब रितिका नीचे उतरे तो भला कैसे ? लेकिन उसने अपने पैर गोलों से बाहर निकाले और चेन के सहारे से नीचे सरकी | यूँ तो जमीन से काफी ऊँचाई थी फिर भी कूद कर वह सुरक्षित ट्रेनर के सामने खड़ी थी | ट्रेनर का गुस्सा मानो छू हो गया था | उसने रितिका के लिए सभी दूसरी जिमनास्ट से तालियाँ बजवाईं | फनी किस्सा सुन कर सारा तो बहुत ठहाके लगाती किन्तु रितिका की आँखें कभी-कभार पनीली सी हो जातीं |
टी . वी. पर स्पोर्ट्स चैनल और ओलम्पिक गेम्स माँ-बेटी एक साथ बैठ कर देखा करतीं | उनके लिए  यही पल सबसे सुखद होते | सारा धीरे -धीरे बड़ी हो रही थी और अब वह लॉन टेनिस खेलने लगी थी | जब रितिका सायना  नहवाल, सानिया मिर्जा , कर्णम मल्लेश्वरी, मेरी कॉम आदि को खेलते देखती तो उसे स्टेडियम में हैंड बॉल खेलती स्वयं की धुंधली सी छवि दिखाई पड़ती | उसकी आँखें कभी खुशी से भर आतीं तो कभी नम हो जातीं | बीते बरसों की यादें उसे शूल  सी चुभतीं  | स्वयं को उनके साथ देखने की कोशिश करती और रुलाई फूट पड़ती |
सारा को लॉन टेनिस खेलते देखती तो मुस्कुरा उठती | अगले ही पल अपनी माँ की बात कानों में गूंजती “कान खोल कर सुन लो तुम्हें इंजीनियर बनना है” |  “हाँ माँ बन गयी इंजीनियर अब तो तुम खुश होंगी न” | जब कभी सारा कहीं किसी स्टेडियम में मैच खेलने जाती, रितिका दफ्तर से छुट्टी लेकर दर्शक दीर्घा में बैठ कर उसका मैच देखा किया करती |  उसने स्वयं को मानसिक रूप से मजबूत किया और अपनी बेटी सारा को उन्मुक्त उड़ान भरने की आज़ादी दे दी  |             
कविताएँ, आलेख, कहानी, दोहे, बाल कविताएँ एवं कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित | 'जो रंग दे वो रंगरेज' कहानी-संग्रह प्रकाशित | चार साझा कहानी-संग्रहों में भी कहानियाँ शामिल | गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा एवं विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान, दिल्ली द्वारा “काका कालेलकर सम्मान वर्ष २०१६ सहित अनेक सम्मान प्राप्त । सम्प्रति - डाइरेक्टर सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी प्राइवेट लिमिटेड | संपर्क - sgtarochika@gmail.com

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