स्मृतियों में मॉरीशस (मधु अरोड़ा का यात्रा-संस्मरण)

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  • मधु अरोड़ा

जब कभी मैंने ख़ुद से पूछा है कि मुझे प्रकृति के भंडार में पहाड़ आकर्षित करते हैं या समुद्र? तो निश्चित रूप से मुझे समुद्र आकर्षित भी करता है और अच्‍छा भी लगता है। मेरी परवरिश मुंबई जैसे शहर में हुई जहां तीन तरफ अरब सागर हरहराता है और एक तट पर मुंबई शहर बसा है। सच कहूं तो समुद्र मुझे जीवन को चुनौती स्‍वीकार करते हुए जीना सिखाते हुए अध्‍यापक सा लगता है। समुद्र प्रतिदिन, प्रति पल अपने रंग और अपनी गति बदलता प्रतीत होता है। कभी ज्‍वार तो कभी भाटा, तो कभी सुनामी जैसी जानलेवा लहरें अपने तांडव नृत्‍य से कुछ ही घंटों में पूरे विश्‍व को हिलाकर रख देती हैं। बावज़ूद इसके मुझे समुद्र बहुत आकर्षित करता है। इसमें उंची-उंची लहरों का उठना, अपना पूरा ज़ोर लगाकर चट्टानों से टकराकर बिखर जाना और लौट जाना- मानो कह रही हों कि वे चट्टानों से टकराकर बिखरीं ज़रूर पर शनै: शनै: ज़मीन को काटने की भी कूवत रखती हैं। वहीं शान्‍त समुद्र मानो आमंत्रित करता सा लगता है, ‘मुझसे डरो मत। तुम मेरे अन्‍दर आओ। तुम्‍हारा स्‍पर्श मुझे गुदगुदाता है, तुमसे खेलने को दिल करता है’। समुद्र के इसी आमंत्रण ने समुद्र के देश मॉरीशस जाने की मेरी इच्‍छा को प्रबल कर दिया।

एक सप्‍ताह की छुट्टियों का इंतज़ाम करके मॉरीशस की यात्रा पर निकल पड़े। 15 अगस्‍त-2011 को सुबह 6.30 बजे की एयर मॉरीशस से हम मॉरीशस पहुंचे। वहां सेफिटेल रिसॉर्ट में हमारे रहने का इंतज़ाम था। कितना अच्‍छा लगता है जब विदेशी ज़मीन के एअरपोर्ट पर आप द्वारा बुक किये गये रिसॉर्ट का प्रतिनिधि आपका स्‍वागत करे। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ। जब हम एअरपोर्ट की सारी औपचारिकताएं पूरी करके मॉरीशस एअरपोर्ट से बाहर आये तो रिसॉर्ट की प्‍यारी-सी लड़की कु. नूर हमारे नाम का बोर्ड लिये हमारा इंतज़ार कर रही थी। उन्‍होंने पूरी ग़र्मजोशी से हमारा स्‍वागत किया और रिसॉर्ट तक पहुंचते-पहुंचते मॉरीशस के बारे में बहुत महत्‍वपूर्ण जानकारी दी। उन्‍होंने बताया कि मॉरीशस में नौ जिले हैं, दो सौ से अधिक गांव हैं, चार शहर हैं और मुख्‍य शहर पोर्तगीज़ है। मैंने पूछा कि यहां कौन सी भाषा बोली जाती है और कामकाज की भाषा कौन सी है। इस पर उन्‍होंने बताया कि कामकाज की भाषा अंग्रेज़ी है। स्‍थानीय भाषा के रूप में फ्रैंच भाषा का अपभ्रंश रूप क्रेयॉल बोली है जो यहां के निवासी बोलते हैं। भोजपुरी भाषा भी बहुतायत में बोली जाती है। परिवहन सुविधा के विषय में पूछने पर बताया कि यहां बस, टैक्‍सी चलती हैं और सबसे महत्‍वपूर्ण बात कि यहां के लोकल ट्रांसपोर्ट में कुछ खाना अनुमत्‍य नहीं है, यात्री अपने साथ सिर्फ़ पानी रख सकते हैं। सार्वजनिक स्‍थानों पर शराब और सिगरेट पीने की अनुमति नहीं है। मैंने पूछा कि मॉरीशस का आज़ादी का दिवस कब है और गणतंत्र दिवस कब है। नूर की आंखों में खुशी की एक चमक दिखी मानो उन्‍हें इस सवाल का इंतज़ार था। उन्‍होंने बताया कि 1962 में मॉरीशस आज़ाद हुआ और 1992 में गणतंत्र दिवस घोषित किया गया। आगे उन्‍होंने बताया कि यहां वरिष्‍ठ नागरिकों के लिये चिकित्‍सा सुविधा तथा ट्रांसपोर्ट फ्री है। उनके अनुसार अपोलो अस्‍पताल फाइव स्‍टार अस्‍पताल है लेकिन सरकारी अस्‍पताल भी अच्‍छे हैं। मॉरीशस में बाज़ार में पीने के लिये चाय नहीं मिलती। यहां का कैटर्नबोर्न शहर आवासीय इलाका है। खेलकूद के विषय में उन्‍होंने बताया कि मॉरीशस का मुख्‍य खेल फुटबॉल है। भारतीयों के यहां आने से क्रिकेट शुरू हुआ। जनसंख्‍या के बारे में उन्‍होंने कहा कि हिंदू 52 प्रतिशत, क्रिश्चियन 7 प्रतिशत, मुस्लिम 17 प्रतिशत और चायनीज़ 3 प्रतिशत हैं। तो एअरपोर्ट से रिसॉर्ट तक की यात्रा में नूर ने अपने देश की पूरी जानकारी दे दी थी।

समुद्र के किनारे बसा यह रिसॉर्ट अपनी भव्‍यता का परिचय दे रहा था। खूबसूरत लॉबी, सामने स्‍वीमिंग पूल, समुद्र के किनारे ईजी चेयर्स। जब पानी से आपका दिल भर जाये तो इन चेयर्स पर लेटकर सुस्‍ताया जा सकता है। पूरे बीच पर विदेशी पर्यटकों का एकछत्र राज्‍य था। सभी सनबाथ ले रहे थे मानो आगामी महीनों में अपनेवाली हाड़तोड़ सर्दी का सामना करने के लिये अपने अन्‍दर गर्मी का भंडार जमा कर रहे हों। 15 अगस्‍त को तो हमने आराम किया। फ्लाइट में चढ़ने से पहले सामान की पैकिंग और रातभर की की जगार और फ्लाइट में छ: घटे लगातार बैठने की थकावट ने कब नींद के आगोश में में पहुंचा दिया, पता ही नहीं चला। 16 अगस्‍त की सुबह ठीक 9;30 बजे हमारी गाइड क्रिस्‍टाबेल ने फोन किया कि वे हमारा इंतज़ार कर रही हैं। झटपट नाश्‍ता करके हम कार तक पहुचे तो कार के कैप्‍टन सचिन ने हमारा स्‍वागत किया (मॉरीशस में कार चालक को कैप्‍टन कहा जाता है)। क्रिस्‍टाबेल बिल्‍कुल प्रोफेशनल गाइड की तरह हमें मॉरीशस की जानकारी दे रही थीं। औपचारिक होते हुए भी क्रिस्‍टाबेल की आवाज़ में एक अपनापन, एक मिठास थी जो उनके व्‍यवहार कुशल होने का परिचय दे रही थी।

उस दिन हमें मॉरीशस के बाज़ार दिखाये गये। पूरा बाज़ार तरह-तरह की चीज़ों से अटा पड़ा था। विश्‍वास ही नहीं हो रहा था कि चारों ओर से समुद्र से घिरे हुए इस टापू पर सुख- सुविधाओं का पूरा सामान उपलब्‍ध है। शिप मॉडल फैक्‍टरी में शिप मॉडल बन रहे थे। मज़दूर जिस कुशलता से अपने काम को अंजाम दे रहे थे वह देखने लायक था। इस कठिन कार्य को करते समय उनके चेहरों पर कोई शिकन नहीं, टेंशन नहीं, काम पूरा करने की हड़बड़ी नहीं, कोई भागमभाग नहीं, बल्कि होठों पर एक सहज मुस्‍कान थी। उन्‍हें देखकर लगा कि काश! यह सहज मुस्‍कान हम अपने चेहरे पर भी ला पाते। वहां से हम क्रेटर पॉइंट गये जहां 250 फीट की गहराई में जमा हुआ लावा दिखाई दे रहा था। हमें बताया गया था कि मॉरीशस की एक लोकल डिश है ढोलपूरी। सुनकर अजीब लगा कि ये कौन सी डिश है। यह डिश यहां क्रेटर पॉइंट पर मिल गई। एक आदमी सायकिल पर बेच रहा था। उत्‍सुकतावश इसको लिया। यह तो चने की दाल और रोटी थी। पतली चने की दाल को रोटी पर डालकर और धनिये की हरी चटनी डाल कर और रोल बनाकर दे दिया। हमने खाना ही शुरू किया था कि  वहां अचानक बारिश शुरू हो गई। सो वहां से हम गंगा तलाव नामक स्‍थान पर गये जहां शिवजी की भव्‍य प्रतिमा स्‍थापित की गई है जो बहुत ही दूर से दिखाई देती है। उस प्रतिमा को देखकर मॉरीशस में बसे उन भारतीयों के प्रति अनायास ही आदर भाव जाग उठता है कि वे आधुनिक बने ज़रूर हैं पर यहां भी उन्‍होंने स्‍वयं को अपनी भारत-भूमि से जोड़े रखा है। तो इस खूबसूरत प्रतिमा के चारों ओर बने मंदिरों में सभी देवी-देवता विराजमान थे और पुजारियों द्वारा पूजा-अर्चना करवाई जा रही थी। सो शिवजी को शत-शत नमन करते हुए  वहां से हम कैरमल झरना देखने गये। झरना दो भागों में बंटा हुआ था और ख़ासी उंचाई से गिरता हुआ नीचे की ओर आ रहा था जो बहुत ही आकर्षित लग रहा था। झरना देखने के बाद हम वापिस अपने रिसॉर्ट आ गये और रात को अपने सपनों की दुनियां में खो गये।

17 अगस्‍त हमारे आराम का दिन था। मॉरीशस में हिंदी के प्रख्‍यात लेखक अभिमन्‍यु अनत रहते हैं। उनसे मिले बिना हमारे लिये मॉरीशस का टूर अधूरा ही रहता। मैंने उन्‍हें फोन किया और अपना परिचय देते हुए उनसे मिलने की इच्‍छा प्रकट की और वे इसके लिये सहर्ष तैयार हो गये। समस्‍या यह थी कि वहां जाया कैसे जाये। हमारे रिसॉर्ट के पास ही बस डेपो था सो वहां से पता चला कि डेपो से बस पोर्ट लुईस छोड़ेगी और वहां से 20 नं. की बस ट्रियोले छोड़ेगी जहां अभिमन्‍यु अनत रहते हैं1 मज़ेदार बात कि हमारे इन लेखक को बस के ड्राइवर, कंडक्‍टर सभी जानते हैं और पूरे सम्‍मान से उनके घर पहुंचने का रास्‍ता बताते हैं। सो हम दो बसें बदलकर अभिमन्‍युजी के घर पहुंचे। अभिमन्‍युजी ने बहुत स्‍नेह से हमसे बात की और बताया कि मॉरीशस में हिंदी को प्रचलित करने में उन्‍होंने बहुत पापड़ बेले हैं। वे मॉरीशस के विषय में, वहां की स्थिति के बारे में जानकारी देते रहे। उन्‍होंने उन दिनों को याद किया जब भारत से लोगों को यहां मज़दूरी करने के लिये जहाजों पर लादकर लाया गया और उनसे गधों की तरह काम लिया जाता था। तब मज़दूरों को उनके नाम से नहीं बल्कि उनको दिये गये नंबर से पहचाना और बुलाया जाता था। बहुत जिल्‍लत सही थी उस समय यहां भारत के लोगों ने। उसके बावज़ूद उन मज़दूरों ने अपनी हिम्‍मत नहीं हारी और उन उन सब तक़लीफों को सामना करते हुए यहां बसे। उन्‍होंने बताया कि उन्‍होंने बहुत कोशिश की कि यहां टी वी पर हिंदी के ज्‍य़ादा चैनल शुरू किये जायें पर इस प्रयास में ज्‍य़ादा सफल नहीं हो पाये हैं। स्‍थानीय लोगों का वर्चस्‍व है और वे ख़ुद पर ज़रूरत से ज्‍य़ादा किसी की नहीं चलने देते। आप देखेंगे कि यहां दूकानों के साइनबोर्ड अंग्रेज़ी और फ्रेंच में हैं। क़रीब एक घंटे बाद जब हमने उनसे विदा लेने चाही तो वे बोले, ‘आप लोग चले जायेंगे तो हम फिर उदास हो जायेंगे’। उनका यह वाक्‍य मेरी आंखों को नम करने के लिये काफी था। हम आधा घंटा और उनके साथ बैठे और इस प्रकार उनकी बातों को, उनके अपनत्‍व को अपने मन में संजोये हुए शाम को पांच बजे वापिस रिसॉर्ट आ गये।

अगले दिन फिर हमारे साथ थे-हमारी गाइड क्रिस्‍टाबेल और कैप्‍टन सचिन। आज वे हमें बॉनेटिकल गार्डन, मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुईस, फोर्ट और अत्‍याधुनिक मॉल दिखानेवाले थे। वहां मेतज पैवलिक एक जगह है जहां मरियम की प्रतिमा ओपन प्‍लेस में है। यह विश्‍व की पहली प्रतिमा है जो खुले मैदान में है। सामान्‍यत: मरियम और जीसस क्राइस्‍ट की प्रतिमाएं चर्च में होती हैं। अत: हम इस प्रतिमा को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाये और बॉनेटिकल गार्डन को देखने के बजाय इस दुर्लभ स्‍थान को देखने का निश्‍चय किया। जब हम इस पॉइन्‍ट पर पहुंचे तो सचमुच यह दृश्‍य रम्‍य था। विशालकाय मैदान में स्‍थापित की गई शान्‍त और सौम्‍य यह प्रतिमा मानो शान्ति का पैगाम दे रही थी। इसी पॉइन्‍ट के पीछे पहाड़ों की श्रंखला जहां विभिन्‍न प्रकार के एंटीना लगे थे और सामने राजधानी पोर्ट लुईस की ग़हमाग़हमी और नज़ारा साफ दिखाई दे रहा था। दोनों ही दृश्‍य अभिभूत कर देनेवाले थे। हम लोग पोर्ट लुईस के बाज़ार में घूम रहे थे कि अचानक फुटपाथ पर भगदड़ मच गई। पूछने पर पता चला कि शाम के साढ़े चार बज रहे हैं। पांच बजे तक सारा मार्केट बन्‍द हो जायेगा। पांच बजे के बाद बाज़ार खुला नहीं रहेगा। यह देखकर हैरानी हुई कि जो समय बिजनेस करने का है उस समय ये लोग अपना धंधा बन्‍द करके घर की ओर जा रहे हैं।  यहां से हम फोर्ट देखने गये। काले पत्‍थर से बना यह किला, उंची-उंची सीढि़यां, जिनके जरिये किले की छत पर पहुंचे। खुला-खुला नज़ारा, खिली-खिली धूप और वहां से दूरबीन के जरिये मॉरीशस की सुन्‍दरता को निहारा। वहां से हम यहां के प्रसिद्ध शॉपिंग मॉल पर पहुंचे। यहां मॉल के मुख्‍य दरवाजे पर गन्‍ने के रस की दूकान थी। यह शायद पहली दूकान थी जहां हिन्‍दी में लिखा बोर्ड था। इस दूकान पर एक स्‍थानीय लड़की थी जिसने बढि़या जीन्‍स और टॉप पहन रखा था। मुस्‍कुराते चेहरे से वह गन्‍ने का रस बेच रही थी। उससे बात करने पर पता चला कि वह एम ए पास है। आश्‍चर्य हुआ कि इतनी सुशिक्षित होने के बावज़ूद वह गन्‍ने का रस बेच रही थी। उसे इस काम में बिल्‍कुल हिचक नहीं थी। अपनी पढ़ाई का फायदा वह ग्राहकों से विनम्रतापूर्वक बात करके उठा रही थी। मेरे पति ने तो उसकी विनम्रता से प्रभावित होकर दो बार गन्‍ने का रस पिया। आप जानकर आश्‍चर्य करेंगे कि भारत में गन्‍ने का रस महज़ पांच रूपये का फुल गिलास है पर वहां वही गन्‍ने के रस का गिलास दो सौ रूपये का है। इस मॉल पर विभिन्‍न सामानों की करीब 170 दुकानें थीं। आलीशान मॉल था वह और बाहर की ओर पूल था जिसके किनारे-किनारे हर तरह की खाने की चीज़ों के रेस्‍तरां थे। शॉपिंग के बाद वहां खाने का मज़ा लिया। रेस्‍तरां में सर्विस देनेवाली लड़कियां अधिकतर भारतीय मूल की थीं। माथे पर छोटी सी बिंदी, नाक में चमकती सोने की लौंग यह आभास करवा रही थी वे भले ही मॉरीशस में जन्‍मी हैं पर उन्‍हें अपने पूर्वजों के भारत देश की संस्‍कृति आज भी उतनी ही प्‍यारी है1 शाम के पांच बजे फिर बैक टू पवेलियन।

हम लोग अगले दिन सुबह साढ़े सात बजे इलओसिल आईलैंड के लिये निकल पड़े। क़रीब एक घंटे पैंतालीस मिनट की ड्राइविंग। आज मौसम ठंडा था, बादल छाये थे और लग रहा था कि यदि मौसम ने साथ नहीं दिया तो पता नहीं इस आईलैंड को देख पायेंगे या नहीं। परन्‍तु मॉरीशस शायद अपने पर्यटकों को निराश नहीं करना चाहता था सो करीब सवा ग्‍यारह बजे बादल छंट गये और मौसम खुल गया। इसके साथ ही हमने चैन और राहत की सांस ली। उस आईलैंड पर पहुंचकर हमें पता चला कि हम समुद्र की किन गतिविधियों को कर सकते हैं और उनकी दरें क्‍या हैं। सभीने अपनी-अपनी जेब के हिसाब से अपने लिये गतिविधियां चुनीं। जब मेरे पति सूरज प्रकाश ने मुझसे पूछा कि मैं किस खेल के जरिये समुद्र से खिलवाड़ करना चाहूंगी। तो मैंने कहा, ‘अपने राम तो समुद्र के किनारे बैठकर समुद्र को निहारेंगे1 मॉरीशस पर लेख लिखेंगे। उसके बाद सिर्फ़ आईलैंड पर कंपनी दे पायेंगे। आप अकेले मज़े करिये’। सो मेरा बेटा अभिज्ञान अपने पिता के साथ तौलिया लेकर समुद्र के साथ खेलने चला गया। मैंने अपने लिये समुद्र के किनारे एक बढि़या जगह खोजी और पेपर पैन लेकर बैठ गई1 क़रीब एक घंटे बाद मेरे साथ के पर्यटक ठंडे पानी की सिहरन से ठिठुरते चले आ रहे थे। मैंने ईश्‍वर का शुक्रिया अदा किया कि मैं इस ठिठुरन से बच गई1 यहां से हम सब एक गांव की ओर गये जहां से हम नाव से उस आईलैंड पर जानेवाले थे1 दोपहर को एक बजे की नाव से इलओसिल आईलैंड के लिये रवाना हुए। यह स्‍पीडबोट थी जिसका चालक समुद्र के सीने पर लहरों को चीरते हुए बोट चला रहा था और आनंदित हो रहा था। लहरों पर नाव डगमग हो रही थी। मैं मन ही मन भयभीत थी कि इस बोट के चालक का उत्‍साह हम पर्यटकों पर कहीं भारी न पड़ जाये और नाव पलट न जाये। मुझ अनाड़ी को तो तैरना भी नहीं आता। जि़न्‍दगी की नैया वैसे ही पार हो जायेगी। लेकिन हम सकुशल आईलैंड पहुंचे। पहुंचते ही सब लंच करने चले गये। बहुत ज़बर्दस्‍त भूख़ लगी थी। सो खाना खाकर और छोटी-मोटी शॉपिंग करके तीन बजे पुन: अपनी नाव पर जा पहुंचे और फिर वही बोट चालक, वही समुद्र की लहरों से खिलवाड़। हम 15 मिनट में फिर मॉरीशस के तट पर थे और वहां से फिर एक घंटे पैंतालीस मिनट की ड्राइव। शाम को छ: बजे हम अपने रिसॉर्ट में आ गये। मैंने मॉरीशस के समुद्र में एक बात नोट की कि पूरे समुद्र में लहरें तो आ रही थीं पर वे किनारे तक अपनी तेजी से नहीं आती थीं बल्कि किनारे से डेढ़ किलोमीटर पहले ही ख़त्‍म हो जाती थीं। मुझे लगा कि लोगों और पर्यटकों की सुरक्षा के लिये समुद्र को बांध दिया गया है परन्‍तु लोगों से पता चला कि समुद्र का यह बैरियर प्राकृतिक है। यहां सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदा के समय भी समुद्र की उत्‍ताल लहरें किनारे पर नहीं आ पातीं बल्कि डेढ़ किलोमीटर पहले ही ख़त्‍म हो जाती हैं। मैं प्रकृति के इस चमत्‍कार के आगे दांतों तले उंबली ही दबा सकती थी।

शनिवार, 20 अगस्‍त यानी विश्राम का दिन। सबेरे से अपने कमरे के बाहर बैठी चिडि़यों का उड़ना, उनका चहचहाना सुन रही हूं। भूरे-सफेद बादल पकड़ा-पकड़ी खेल रहे हैं, इधर-उधर भाग रहे हैं। सामने ही मानव निर्मित झरने की आवाज़ सुनाई दे रही है। मैं इस सारे दृश्‍य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहती हूं। पता नहीं, मॉरीशस फिर आना हो, न हो। एक बात तो जो मैंने यहां देखी कि मॉरीशस में कोई भिखारी नहीं दिखाई दिया। वहां के मुख्‍य बाज़ार में स्‍थानीय लोगो की छोटी छोटी दूकानें थीं जो उनकी आजीविका का साधन थीं। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यहां बहुतायत में रिसॉर्ट हैं जहां स्‍थानीय लोगों को रोज़गार मिला हुआ है। (भिखारी तो अंडमान निकोबार में भी नहीं दिखे थे। वह भी तो समुद्र से घिरा एक टापू है। इन टापुओं के लोग कम कमाकर भी खुश रहते हैं)। मॉरीशस के इंटीरियर में जाने का मौका नहीं मिल पाया क्‍योंकि पैकेज टूर में दर्शनीय स्‍थलों का पहले से ही निर्धारण रहता है। वहां के स्‍थानीय लोग शान्‍त प्रकृति के दिखे। मिलनसार और हंसमुख। उन्‍होंने बताया कि शादी वगैरह की शॉपिंग के लिये वे भारत आते हैं क्‍योंकि वहां विविधता और मॉरीशस के मुकाबले चीज़ें सस्‍ती मिलती हैं। हां, तो मैं बता रही थी कि मॉरीशस  के लोगों ने बहुत प्‍यार दिया, अपनापन दिया। रास्‍तों पर मैप लेकर नहीं चलना पड़ा बल्कि लोगों ने हमें उन रास्‍तों को, उन बसों के नंबर को बताया जो हम नहीं जानते थे। इसीलिये यहां कोई दोस्‍त न होते हुए भी सारा देश अपना-सा लगा। यह देश हमेशा मेरी यादों में, मेरे मानस में रहेगा। इस देश को इतनी ज़ल्‍दी छोड़ना तो नहीं चाहती पर मुझे अपने देश भारत जाना होगा जहां मेरी नौकरी, मेरे बच्‍चे हैं।

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