• कैस जौनपुरी
  1. मैंने ख़ुदा को देखा है

मैंने ख़ुदा को देखा है

आप सोच रहे होंगे क़ुरआन में

या मस्जिद की अज़ान में

नहीं!

मैंने उसे कहीं और देखा है

वहाँ

जहाँ वो सबकी नज़रों से छुप के रहता है

जहाँ सबके कान नहीं पहुँचते

जहाँ सबकी आँखें नहीं पहुँचतीं

 

एक छोटी सी बच्ची की लम्बी जम्हाई में

बिस्मिल्लाह ख़ाँ की शहनाई में

उमर ख़य्याम की रुबाई में

मजनूँ की तन्हाई में

लैला की दुहाई में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

एक नन्हीं सी बच्ची की चमकीली चप्पल में

किसी के पैरों की खनकती पायल में

हुस्न के मारे किसी बेसुध घायल में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

मज़दूर की उम्मीद में

बच्चों की गहरी नींद में

छोटे बच्चों की ईद में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

ताज़ा-ताज़ा खिले फूल की मुस्कुराहट में

छोटे बच्चों की खिलखिलाहट में

नन्हें क़दमों की आहट में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

आरामदायक कपड़े में

छोटे बच्चों के झगड़े में

उछलते-कूदते गाय के बछड़े में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

हवा से उड़ते बालों में

नन्हें बच्चों के सवालों में

मुलायम मुलायम गालों में

किसान के हाथ के छालों में

मकड़ी के बनाए जालों में

कत्थक नृत्य की तालों में

मसूर की रंगीन दालों में

कश्मीर की नर्म शालों में

भूखे बच्चों के सामने

अचानक से आने वाली

खाने से भरी थालों में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

ओस से भीगी घासों में

हरे-हरे लम्बे-लम्बे बासों में

आशिक़ की चढ़ती साँसों में

मैंने ख़ुदा को देखा है

दीया रखे ताखों में

अमरूद की पतली शाखों में

महबूबा की झिझकती आँखों में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

आशिक़ की बहकती बातों में

किसी की याद में अकेले कटती

जुगनू वाली रातों में

बारिश से बचाते छातों में

दूध वाले दाँतों में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

भागते हुए ख़रगोश में

नन्हीं चींटी के जोश में

चाय के साथ खाने वाले तोश में

किसी हसीन बुर्क़ापोश में

महबूबा के चले जाने के बाद

आने वाले होश में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

इज़हारे-मुहब्बत की शरम में

“वो भी मुझे चाहती होगी” के भरम में

बारिश के साथ पकौड़े गरम-गरम में

दो गुलाबी होंठ नरम में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

सुबह से पहले भोर में

सूफ़ी गानों के शोर में

छायी घटा घनघोर में

थके हुए चोर में

दूर समन्दर के न दिखने वाले छोर में

मोटे पेड़ों को झुका देने वाली आँधी के झकझोर में

नाचते हुए मोर में

दो अजनबियों को पास लाने वाली डोर में

महबूबा के जिस्म पे टहलने वाली उँगलियों के पोर में

पहली बार महबूबा के होंट चूमने के लिए लगने वाले ज़ोर में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

कोयल के विलाप में

दो प्रेमियों के मिलाप में

नुसरत फतेह अली ख़ान के अलाप में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

सर्दी के लिहाफ़ में

नर्म तकिए के गिलाफ़ में

अचानक चूमे जाने पर महबूबा की नज़रे-ख़िलाफ़ में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

गेहूँ के दानों में

पंछियों के गानों में

बिना बाली के कानों में

 

मैंने ख़ुदा को देखा है

मुहब्बत के आग़ाज़ में

दो आँखों के बीच छुपे राज़ में

सारंगी के साज़ में

ए आर रहमान की आवाज़ में

बच्चों की तरक़्क़ी पे माँ को होने वाले नाज़ में

मैंने ख़ुदा को आजतक वहाँ नहीं पाया

जहाँ मुझे औरों ने बताया

ख़ुदा ने मुझे अपना चेहरा

न जाने क्यूँ इस तरह दिखाया

  1. क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

मैं अभी-अभी दुनिया में आया हूँ

अभी-अभी मेरा जनम हुआ है

अभी-अभी मैं पैदा हुआ हूँ

और मैं चाहता हूँ

कोई मेरे कानों में अज़ान न फूँके

और कोई संस्कृत के मन्त्र न पढ़े

 

रख दो मुझे खुली हवा में

सुनने दो बहती हवा

चिड़ियों की चहचहाहट

मेरे माथे से मत छुआओ

गीता, रामायण, क़ुरआन

सबसे पहले देख लेने दो मुझे

खुला आसमान

क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

 

मैं चाहता हूँ

तुम मेरा कोई नाम भी न रखना

नाम रखते ही

मैं तुम्हारी जागीर हो जाऊँगा

नाम रखते ही

मैं मिट जाऊँगा

बँट जाऊँगा

कट जाऊँगा

 

मैं पूरा का पूरा जैसा आया था

वैसा ही रहना चाहता हूँ

मैं जो हूँ

मुझे वही रहने देना

तुम मुझे झूठ-मूठ की

कोई पहचान न देना

क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

 

मैं ये भी चाहता हूँ

मुझे कोई किताब न दी जाए

पढ़ने के लिए

तुम मेरा किसी स्कूल में

नाम भी न लिखवाओ

 

मैं दुनिया को

अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ

अपने क़दमों से चलना चाहता हूँ

थक जाऊँ तो बैठना चाहता हूँ

क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

 

तुम मुझे कोई तरीक़े न बताओ

तुम मुझे कोई सलीक़े न सिखाओ

मैं अपने हाथ-पैर

अपनी समझ से हिलाना चाहता हूँ

मैं पंख लगाकर

परिन्दों की तरह उड़ जाना चाहता हूँ

क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

 

मुझे ज़िन्दा रहने के लिए

मशीनों के सहारे मत छोड़ना

मेरे हाथों-पैरों में बड़ी ताक़त है

इन्हें मत तोड़ना

 

मैं जी लूँगा

उसी क़ुदरत के भरोसे

जिसने मुझे, पेड़-पौधों

और हवा को बनाया है

जिसने बिना किसी किताब के

सबको जीना सिखाया है

 

मैं खा लूँगा

हरी घास में मौजूद जड़ी-बूटियाँ

और ज़िन्दा रहूँगा

तुम मेरी फ़िक्र मत करना

क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

 

तुम मुझे अपने बने-बनाए साँचे में मत ढ़ालना

तुम मुझे रिश्तेदारों की उलझन में मत डालना

तुम मुझे जीने देना अपनी साँस के भरोसे

साँस लेना मैं सीख के आया हूँ

 

तुम्हारी दुनिया से जो लौट चुके हैं

उन्होंने मुझे सब बताया है

तुमने परिन्दों के पैर ज़मीन में गाड़ रखे हैं

परिन्दे

जो उड़ने के लिए बने हैं

उनको पंख इसीलिए मिले हैं

क्या मुझे इसकी आज़ादी मिलेगी?

 

  1. मैं नमाज़ नहीं पढ़ूँगा

ईद का दिन था

सुबह सुबह किसी ने टोका

“ईद मुबारक हो!”

मैंने कहा

“आपको भी ईद मुबारक हो!”

सवाल हुआ

“नमाज़ पढ़ने नहीं गए, लेकिन स्वीमिंग करने जा रहे हो!”

मैंने कहा

“हाँ, मैं नहीं गया

क्यूँकि मैं नाराज़ हूँ उस ख़ुदा से

जो ये दुनिया बना के भूल गया है

जो कहीं खो गया है

या शायद सो गया है

या जिसकी आँखें फूट गई हैं

जिसे कुछ दिखाई नहीं देता

कि उसकी बनायी हुई इस दुनिया में क्या क्या हो रहा है!”

 

“हाँ, मैं नाराज़ हूँ

और तब तक मस्जिद में क़दम नहीं रखूँगा

जब तक आयलन कुर्दी फिर से ज़िन्दा नहीं होता

जब तक दिल्ली की वो दो लड़कियाँ

सही सलामत वापस नहीं आतीं

जिन्हें जलते हुए तारकोल के ड्रम में

सिर्फ़ इसलिए डाला गया था

क्यूँकि वो मुसलमान थीं

और हाँ, मुझे उनके चेहरे पे कोई दाग़ नहीं चाहिए”

 

“मैं नाराज़ हूँ

और तब तक मस्जिद में क़दम न रखूँगा

जब तक हरप्रीत कौर और हर पंजाबन औरत और बच्ची

बिना ख़ंजर लिए सुकून से नहीं सोती

जब तक दंगों में गुम मंटो की शरीफ़न

अपने बाप क़ासिम को मिल नहीं जाती

तब तक मैं नमाज़ नहीं पढ़ूँगा”

 

“मुझे तुम्हारे क़ुरआन पे पूरा भरोसा है

बस उसमें से ये जहन्नुम का डर निकाल दो

ये डर की इबादत भी भला कोई इबादत है?

कैसा होता कि मैं अपनी ख़ुशी से

जब चाहे मस्जिद में आता

और एक रकअत में ही गहरी नींद

और तेरी गोद में सो जाता!”

 

“मुझे तुमसे शिकायत है

एक सेब खाने की आदम को इतनी बड़ी सज़ा?

तुम्हें शरम नहीं आती?

तुम्हारा कलेजा नहीं पसीजता?”

 

“यहाँ तुम्हारे मौलवी

मस्जिद की तामीर के लिए

कमीशन पे चन्दा इकट्ठा कर रहे हैं

जहाँ ग़रीबों को दो रोटी नसीब नहीं

वहाँ मूर्तियों पे करोड़ों रुपए पानी की तरह बह रहे हैं

तुम्हारे नाम पे यहाँ रोज़

जाने कितने मर रहे हैं”

 

“तुम्हें पता भी है कुछ?

लोग पाकिस्तान को इस्लामिक देश कहते हैं

तुम्हें हँसी नहीं आती?

और तुम्हें शरम भी नहीं आती?

तुम्हारी मासूम बच्चियों को पढ़ने से रोका जाता है

कोई सर उठाए तो उन्हें गोली भी मार देते हैं

तुमने एक मलाला को बचा लिया तो ज़्यादा ख़ुश न होओ”

 

“तुम्हारे आँसू नहीं बहते?

जब किसी बोहरी लड़की का

ज़बर्दस्ती ख़तना किया जाता है!

क्या तुम्हें उन मासूम लड़कियों की चीख़ सुनाई नहीं देती?”

 

“या तो तुम बहरे हो गए हो

या तुम्हारे कान ही नहीं हैं

या फिर तुम ही नहीं हो”

 

“तुम तो कहते हो तुम ज़र्रे-ज़र्रे में हो!

फिर जब कोई मंसूर अनल-हक़ कहता है

तब उसकी ज़बान काट क्यूँ ली जाती है?”

 

“क्या उस कटी ज़बान से टपके ख़ून में तुम नहीं थे?

क्या मंसूर की उन चमकती आँखों में

तुम उस वक़्त मौजूद नहीं थे?

जो तुम्हारी आँखों के सामने फोड़ दी गईं?”

 

“क्या मंसूर के उन हाथों में तुम नहीं थे, जो काट दिए गए?

क्या मंसूर के पैर कटते ही

तुम भी अपाहिज हो गए?”

 

“आओ, आके देखो अपनी दुनिया का हाल

आबादी बहुत बढ़ चुकी है

अब सिर्फ़ एक मुहम्मद से काम नहीं चलेगा

तुम्हें पैग़म्बरों की पूरी फ़ौज भेजनी होगी

क्यूँकि मूसा तो यहूदियों के हो गए

और ईसा को ईसाइयों ने हथिया लिया

दाऊद बोहरी हो गए

बुद्ध का अपना ही एक संघ है

महावीर, जो एक चींटी भी मारने से डरते थे

उस देश में इन्सान की लाश के टुकड़े

काग़ज़ की तरह बिखरे मिलते हैं”

“जाने कितने दीन धरम मनगढ़ंत हैं

श्‍वेताम्बर, दिगम्बर, जाने कितने पंथ हैं

आदम की औलाद सब, जाने कैसे बिखर गए

तुम्हारे सब पैग़म्बरों के टुकड़े-टुकड़े हो गए”

“तुम तो मुहम्मद की

इबादत में बहे आँसुओं से ख़ुश हो लिए

मगर क्या तुम्हें ये सूखी धरती दिखाई नहीं देती?

ये किसान दिखाई नहीं देते?”

“तेरी दुनिया में आज

अनाज पैदा करने वाले ही भूखे मरते हैं

मुझे हँसी आती है तेरे निज़ाम पर

और तू मुझे जहन्नुम का डर दिखाता है?”

 

“जा, मैं नहीं डरता तेरी दोज़ख़ की आग से

यहाँ ज़िन्दगी कौन सी जहन्नुम से कम है!

पीने का पानी तक तो पैसे में बिकता है!”

“तू पहले हिन्दुस्तान की औरतों को

मस्जिद में जाने की इजाज़त दिला

तू पहले अपने मुल्ला-मौलवियों को समझा

कि लोगों को इस तरह गुमराह न करें

तीन बार तलाक़ कह देने से ही तलाक़ नहीं होता!”

“तू आके देख

मदरसों में मासूम बच्चों को क़ुरआन

पढ़ाया नहीं, रटाया जाता है

फिर इन्हीं रटंतु तोतों को हाफ़िज़ बनाया जाता है

जो तेरी बा-कमाल आयतों को तोड़-मरोड़ कर

अपने फ़ाएदे के लिए इस्तेमाल करते हैं”

“मैं किस मस्जिद में जाऊँ?

तू तो मुझे वहाँ मिलता नहीं!

और तेरे दर, काबा आने के इतने पैसे लगते हैं!

जहाँ हर साल भगदड़ होती है

और न जाने कितने ही बेवक़ूफ़ मरते हैं!”

“मैं कहता हूँ

इतनी भीड़ में जाने की ज़रूरत क्या है?

कितना अच्छा होता कि मैं मक्का पैदल आता!

और तू मुझे वहाँ अकेला मिलता!”

“तू पहले ये सरहदें हटा दे

ये क्या बात हुई

कि तेरे काबा पे अब सिर्फ़ कुछ शेख़ों का हक़ है?”

“तू पहले समझा उन पागलों को

कि तुझे सोने के तारों से बुनी चादर नहीं चाहिए!

मैं तब आऊँगा वहाँ

अभी तेरी मस्जिद में आने का दिल नहीं करता!

जानता है क्यूँ?”

“अँधेरी ईस्ट की साईं गली वाली मस्जिद के बाहर

एक मासूम सी लड़की

आँखों में उम्मीद लिए और हाथ फैलाए हुए

भीख माँगती है

मैं उसे पाँच रुपये देने से पहले सोचता हूँ

कि इसकी आदत ख़राब हो जाएगी!

फिर ये इसी तरह भीख माँगती रह जाएगी

अगर मैं उससे थोड़ी हमदर्दी दिखाऊँ

तो लोगों की नज़र में, मेरी नज़र ख़राब है

मैं उसे अपने घर भी ला नहीं सकता

कुछ तो घर वाले लाने नहीं देंगे

और कुछ तो उसके मालिक भी”

“हाँ, शायद तुम्हें किसी ने बताया नहीं होगा

हिन्दुस्तान में बच्चों से भीख मँगवाने का

बा-क़ाएदा कारोबार चलता है

मासूम बच्चों को पहले अगवा किया जाता है

फिर कुछ की आँखें फोड़ दी जाती हैं

कुछ के हाथ काट दिए जाते हैं, कुछ के पैर!

और फिर तेरी ही बनायी हुई क़ुदरत

रहम का सहारा लेकर

तेरे ही नाम पे

उनसे भीख मँगवाया जाता है”

“अब मैंने तुझे सब बता दिया

अब तू कुछ कर!

तू इन मासूम बच्चों को पहले इस क़ैद से रिहा कर!

तब मैं तेरी मस्जिद में आऊँगा

तेरे आगे सिर भी झुकाऊँगा

अभी मुझे लगता है

तू इबादत के क़ाबिल नहीं!

अभी तुझको बहुत से इम्तिहान पास करने होंगे!”

“हाँ, इम्तिहान से याद आया

ये तूने कैसी बकवास दुनिया बनायी है?

जो सिर्फ़ पैसे से चलती है?”

“मुझे इस पैसे से नफ़रत है

ये निज़ाम बदलने की ज़रूरत है”

“तुम पहले कोई ढँग की रहने लायक़ दुनिया बनाओ

फिर मुझे नमाज़ के लिए बुलाओ”

“और तब तक

तुम यहाँ से दफ़ा हो जाओ!!!”

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