रोहित की मृत्यु पर सवालिया निशान भी लगाए जा रहे हैं और माँग की जा रही है कि उसकी मृत्यु की पूरी तरह जाँच करवाई जाए। क्योंकि रोहित कोरोना से पूरी तरह ठीक हो चुके थे और दूसरे लोगों की लगातार सहायता कर रहे थे, सवाल उठाए जा रहे हैं कि आख़िर उनकी मृत्यु के कारण क्या हो सकते हैं। जिस प्रकार रोहित की आलोचना हो रही है इस कारण शक की सुई भी पेण्डुलम की तरह घूम रही है।
पिछले दो सप्ताहों से सोशल मीडिया पर मृत्यु के इतने समाचार पोस्ट हुए हैं कि यदि कोई व्यक्ति किसी ख़ुशी की ख़बर के साथ भी अपनी फ़ोटो पोस्ट करता है तो डर लगने लगता है कि लो एक और चला गया।
कोरोना का ग्रास बनने वालों में 92 वर्ष के श्री अरविंद कुमार से लेकर 41 वर्षीय मीडियाकर्मी रोहित सरदाना तक शामिल हैं।
पाठकों, विद्यार्थियों, शोधार्थियों एवं प्रकाशकों के सबसे अधिक लोकप्रिय हिन्दी लेखक पद्मश्री ड़ॉ. नरेन्द्र कोहली भी 81 वर्ष की आयु में अपने रामजी के पास पहुंच गये। मैं आदरणीय कोहली जी के बारे में हमेशा बहुत गर्व से कहता रहा हूं कि हिन्दी साहित्य का एकमात्र लेखक नरेन्द्र कोहली हैं जो लिख कर खाते हैं, वरना बाकी लेखक तो खा कर लिखते हैं।
समांतर कोश और थिसॉरस के लिए प्रसिद्ध एवं माधुरी व रीडर्स डाइजेस्ट हिन्दी के पूर्व संपादक श्री अरविंद कुमार जी भी कोरोना की भेंट चढ़ गये।
बाबा नागार्जुन के सुपुत्र एवं अपने कविता संग्रह सुकान्त सोम के लिये प्रसिद्ध सुकान्त नागार्जुन का भी निधन कोरोना के कारण ही हुआ।
ओड़िया और अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध लेखक पद्मश्री, पद्मभूषण, मनोज दास जो कि साहित्य अकादमी फेलोशिप, सरस्वती सम्मान आदि पुरस्कारों से सम्मानित थे, उनकी रवानगी का कारण भी कोरोना बना।
वरिष्ठ उपन्यासकार पद्मश्री मंज़ूर एहतेशाम जिनका उपन्यास “कुछ दिन और” तथा कहानी “रमज़ान की मौत” विशेष चर्चित रही वे भी जन्नतनशीन हो गये।
हरिवंश राय बच्चन एवं नीरज के बाद हिन्दी के सबसे अधिक लोकप्रिय गीतकार एवं ग़ज़लकार कुंवर बेचैन भी हम सबको छोड़ कर चल बसे। उन्होंने ग़ज़लों का व्याकरण जैसी पुस्तक भी लिखी। उनकी एक आदत थी कि वे जिस कवि की पुस्तक का लोकार्पण अपने हाथों करते थे, उसे पांच सौ रुपये का शगुन अवश्य देते थे।
रमेश उपाध्यायएक बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यासकार, कहानीकार, नाटककार, आलोचक और निबंधकार थे। उनका उपन्यास “स्वप्नजीवी” और कहानी “जमी हुई झील” विशेष रूप से चर्चित रहे। वे कथन पत्रिका के संपादक थे और उनकी पुत्रियां संज्ञा और प्रज्ञा हिन्दी साहित्य में जाना पहचाना नाम हैं।
हिन्दी जगत में सबसे अधिक हलचल हुई कल जब आजतक टीवी चैनल के लोकप्रिय एंकर रोहित सरदाना चल बसे। वे केवल 41 वर्ष के थे। उन्हें कोरोना का अटैक हुआ था किन्तु वे उससे बाहर आ चुके थे और अब तो अन्य लोगों की सहायता भी करने लगे थे।
यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधान मन्त्री, गृहमन्त्री एवं शिक्षा मन्त्री ने आदरणीय नरेन्द्र कोहली एवं रोहित सरदाना की मृत्यु पर शोक संदेश भेजे। हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के लिये ये गौरव के पल हैं कि देश के सर्वोच्च पद पर बैठी हस्तियां भी उन पर ध्यान दे रही हैं।
मगर रोहित सरदाना की अकाल-मृत्यु के बाद अचानक सोशल मीडिया – ट्विटर, फ़ेसबुक, वह्टस्एप पर उनके विरुद्ध विष-वमन शुरू हो गया। रोहित को मुसलिम विरोधी इन्सान के तौर पर लताड़ा जाने लगा और उनकी पुत्रियों की मौत की भी कामना की जाने लगी। राजनीतिक पत्रकार, राजनीतिक साहित्यकार एवं मुस्लिम नेता खुले रूप से रोहित की बुराइयां करने लगे और उसकी मृत्यु का जशन मनाने लगे। यह मानसिकता समझ पाना काफ़ी कठिन है। यहां तक कि उनके साथी पत्रकार भी उन्हें श्रद्धांजलि देते समय किन्तु परन्तु का उपयोग करने लगे।
रोहित की मृत्यु पर सवालिया निशान भी लगाए जा रहे हैं और माँग की जा रही है कि उसकी मृत्यु की पूरी तरह जाँच करवाई जाए। क्योंकि रोहित कोरोना से पूरी तरह ठीक हो चुके थे और दूसरे लोगों की लगातार सहायता कर रहे थे, सवाल उठाए जा रहे हैं कि आख़िर उनकी मृत्यु के कारण क्या हो सकते हैं। जिस प्रकार रोहित की आलोचना हो रही है इस कारण शक की सुई भी पेण्डुलम की तरह घूम रही है।
रोहित सरदाना की मृत्यु ने यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या हमें किसी पत्रकार की मौत के साथ राजनीति करनी चाहिये। आज राजनेता तो हर विषय के साथ राजनीति करते ही हैं, राजनीतिक लेखक, पत्रकार एवं शिक्षाविद भी इससे बाज़ नहीं आते। हम सबको लोकतन्त्र के मायने समझने होंगे। इसमें सबको अपनी अपनी सोच रखने का हक़ मिलता है। कोई एक विचारधारा पूरी तरह से सब पर नहीं थोपी जा सकती। परिपक्व बहस न तो भारत की संसद में हो पाती है और न ही सोशल मीडिया पर।