काव्य संकलन: असम्भव के विरुद्ध; रचनाकार: प्रकाश देवकुलिश
प्रकाशक: भारतीय ज्ञानपीठ; पृष्ठ: 128, मूल्य : 260 रुपये
समीक्षक – डॉ कुमारी उर्वशी
प्रकाश देवकुलिश जी के काव्य संग्रह ‘असंभव के विरुद्ध’ कि दूसरी ही कविता है ‘दूसरा राजा’। इसे पढ़ते वक्त मुझे मुक्तिबोध याद आ गए । गजानन माधव मुक्तिबोध मेरे प्रिय कवि हैं और इनकी कविताओं पर मेरा शोध कार्य भी है। ‘दूसरा राजा’ कविता की पंक्तियां इस बात का आभास देती हैं कि हमारा समाज उस वक्त से काफी कुछ नहीं बदला है जो मुक्तिबोध के समय थी। ‘दूसरा राजा’ कविता में जिस राजा की बात की गई है वह राजा अपनी प्रजा को धड़ल्ले से सजा देता है। उनकी हत्याएं कर देता है। प्रजा उससे डरती है। इसे अन्याय कहती है ।और इस बात का इंतजार करती है कि जब राजा बदल जाएगा तो जीवन बच जाएगा ।राजा के बदलने से सब कुछ बदल जाएगा।  जब राजा बदल जाता है तब जो दूसरा राजा सामने है वह दूरदर्शी है। प्रजा को मारता नहीं, उनकी किताबें जला डालता है ।जला नहीं पाता तो पन्ने फड़वा दिया करता है। इसके पीछे तर्क देता है कि प्रजा उन लोगों से जुड़ जाएगी जो मर चुके हैं । मरने वाले अच्छे तो थे लेकिन राजा को दुश्मन लगते थे। उनकी बातें अच्छी तो थी पर राजा को देशद्रोह लगती थी ।इसी वजह से राजा कहता है प्रजा को कि पन्ने हटा दिए जाएंगे, बदल दिए जाएंगे ताकि वो उन लोगों को ना जान पाएं। उन्हें अपने भीतर ना बैठा पाएं और उनकी तरह न बोलने लगें जो लोग पन्नों से निकलकर प्रजा के अंदर बैठ जाते हैं। राजा को तो चाहिए की प्रजा में भूख और प्यास बनी रहे ,अक्षर की गरीबी बनी रहे। ऐसी गरीबी जो राजा के ना रहने पर भी बनी रहे।
कुछ ऐसी ही परिस्थिति राजा के द्वारा दी गई थी मुक्तिबोध को। उन दिनों मुक्तिबोध की पुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ पर प्रतिबंध लग चुका था। वह पुस्तक कोर्स में लग चुकी थी। उसके ख़िलाफ़ आंदोलन कराने वालों में जनसंघ प्रमुख था। राजनांदगांव में उसके स्वयंसेवक उन्हें परेशान करते थे। हरिशंकर परसाई लिखते हैं उस वक्त विद्वान लेकिन अधिकारहीन राज्यपाल था और भ्रष्ट तथा मूर्ख मुख्यमंत्री। राज्यपाल ने डेढ़ घण्टे बात की, बात मानी भी पर कहा- मैं क्या कर सकता हूं।मुख्यमंत्री के पोर्टिको के पास मुक्तिबोध घण्टे-भर खड़े रहे। वह बंगले से निकला तो ये बात करने बढ़े। बात शुरू ही की थी कि बोला- उसमें अब कुछ नहीं हो सकता। इन्होंने कहा- पर आप मेरी बात को सुन लीजिए। वह बोला- मेरे पास इतना वक्त नहीं है। मुझे जरूरी काम है। मुक्तिबोध जब जबलपुर लौटे तो बहुत टूटे हुए और बहुत क्रोधित। वह आदमी चट्टान जैसा था लेकिन इस घटना ने उनके भीतर भय और असुरक्षा की भावना पैदा कर दी थी। वे बेहद उत्तेजित थे। इस प्रतिबंध से उनकी अपार क्षति हुई। यदि पुस्तक चलती तो उन्हें इतनी रॉयल्टी मिलती कि सारा संकट खत्म हो जाता। व्यक्तिगत क्षति का आघात तो था ही।पर इस पूरे कांड को व्यापक राजनीतिक संदर्भ में देखकर वे बहुत त्रस्त थे। कहते थे- यह नंगा फासिज्म है। लेखक को लोग घेरें, शारीरिक क्षति की धमकी दें, इधर सरकार सुनने तक को तैयार नहीं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जा रही है। गला दबाकर आवाज घोंटी जा रही है।‘अंधेरे में’ कविता का यही रचनाकाल है। उन दिनों मुक्तिबोध बहुत आशंकाग्रस्त थे। छोटी-से-छोटी बात उन्हें विचलित कर देती थी। चाबी जिस जेब में रखी होने की उन्हें याद थी, अगर उस जेब में नहीं है तो वे ऐसे सशंकित हो उठते थे, जैसे कोई बड़ा षडयंत्र उन्हें घेर रहा है।
‘असंभव के विरुद्ध’ काव्य संग्रह में जीवन की कई अनुभूतियों को ,प्रसंगों को स्थान मिला है । राजनैतिक कविताएं भी है तो बिल्कुल अनुभूति परक कविताएं भी हैं। अपनी संवेदना, अनुभूति से पाठक को विचलित कर देने की क्षमता रखने वाली कविताएं भी हैं। ऐसी अर्थ छवियां कविता की पंक्तियों से उपस्थिति होती हैं कि जैसे सब कुछ साकार होता हुआ महसूस होता है। ऐसी ही एक कविता है, स्त्री :-
“सागर बन
स्वयं अपनी गहराई में पैठी है स्त्री
लिए अथाह प्यार, वरदान
कि इसका स्वयं उसे नहीं पता
जैसे विशेषण को संज्ञा का नहीं पता
जैसे नहीं पता भाववाचक को व्यक्तिवाचक का
बोल कुछ देगी, होगी कुछ स्त्री
ठहरो थोड़ा
तो उन्हीं शब्दों में मिल जाएगी
प्रेम से भरी स्त्री
शब्दों का समूह बौना हो जाएगा
स्त्री के दो एक शब्द के सामने
जैसे प्रथम रश्मि के फूटते ही
दीपक हो जाता है बौना
खुलने दो उन शब्दों को
जैसे चूजों के पंख खुलते हैं घोंसलों में
थोड़ा वक्त लेकर
ध्वनित होने दो स्त्री का मौन
भर जाओगे प्रणव से”
संग्रह की एक कविता है ‘ईश्वर’। जिसमें लेखक की अभिव्यक्ति अद्भुत है। वह लिखते हैं, जब हम मनुष्य हैं तो हमारा ईश्वर है, श्रेष्ठतम मनुष्य । सुंदर आंखों वाला ,सुंदर चेहरे वाला और सद्गुणों का सुंदर समुच्चय है हमारा ईश्वर। किंतु जब हम मनुष्य नहीं थे डायनासोर थे तब हमारा ईश्वर रहा होगा श्रेष्ठतम डायनासोर या सांपों के लिए ईश्वर होता होगा श्रेष्ठतम सांप। मत्स्य, कूर्म, वाराह के लिए होता होगा श्रेष्ठतम सर्वगुण संपन्न मत्स्य, कूर्म ,वाराह। ऐसे ही बदलता होगा ईश्वर। तो फिर प्रश्न है कि ईश्वर कौन है ? काश हम समझ पाएं ईश्वर क्या है? सुंदरम, सत्यम, शिवम का अर्थ समझ पाएं।
सहज सरल भाषा में एक प्रतिबद्ध कवि की प्रतिरोधी कविताएं, समाज के प्रति उनकी नैतिक संवेदना, ईमानदारी को स्पष्ट रूप से उजागर करती है। संग्रह की एक कविता है ‘जसिन्ता की कविताओं के लिए’।
“जैसे शब्द बन जा रहे हों
जल के स्रोत
स्रोत फिर नदी
जैसे बहने लगी हो
नदी शब्द की
बिना रुके निकल जाती हो
पत्थरों, चट्टानों के बीच
बनकर पतली पर तेज धार
फिर छलाँग लगाने के लिए
हो जाती हो बड़ी
उद्दाम हो कभी, कभी सरल
और बरबस समेट लेती
शामिल कर लेती आपको अपने में
जैसे अपना ही दर्द
आ जाए सामने
यही तो था
मेरी आँतों का दर्द
दर्द यही तो था छिपा
यकृत, प्लीहा, नसों, फेफड़ों
और जिगर में
लहूलुहान मैं अन्दर से था
इसी से”
‘वे होते’ एक ऐसी मर्मस्पर्शी कविता है जिसके शब्द चित्र लेखन में दुर्लभ ही हैं। कवि ने लिखा है कोर से कोर जब फूलती है रोटी, तो मां की याद आती है और याद आती है आटे की चिड़िया जो तवा पर सेकी जा रही है। रोटी के बनने के बाद पाइप की तरह बच्चों द्वारा इस्तेमाल की जा रही है और उससे चाय सुड़की जाती है । यह सब कुछ मां की याद दिलाता है। आज जब स्वाद के लिए खाया जाता है आचार में मिलाकर प्याज, पानी और नमक तब मां के साथ के समय की याद आती है। मां के द्वारा छोटी सी लिस्ट का बनाना और पिता का चुप रह जाना। मां के चेहरे से झलकती बेचारेगी और पिता की लाचारी याद आ जाती है । आज जब शौक से कम तेल ज्यादा पानी देकर सब्जी बनाई जाती है और स्वाद लेकर खाई जाती है तब वही ईंटों वाला आंगन और चौकी याद आते हैं । आज अब तेल है ,घी है, हर महीने एक लंबी लिस्ट है, घर हर सुविधा से संपन्न है और भी बहुत कुछ है तब मां का पुण्य और पिता का धर्म याद आ जाता है।
माता पिता के त्याग के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती कविता है तो प्रकृति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती कविता है ‘फूलखोंसी’ :-
“मुझे बेचैन कर रखा है एक शब्द ने
क्या इसलिए कि
इसमें घुले हैं सामूहिक थिरकते कदम
कि इसमें दिखता है
घने, चमकीले केशों वाले
जूड़े का श्रृंगार
या इसमें है कृतज्ञता
उपकार के लिए
जो वृक्षों, जंगलों ने किया
हमारे जीने के शैशव काल से
या है धरती, पानी, हवा के साथ
आदिम रिश्ते के
गठबन्धन के लिए
पाहन द्वारा बाँधे जाते धागों
की मजबूत पकड़
या प्यार
जिसके लिए
ले लिये गये सखुआ के फूल”
‘असंभव के विरुद्ध’ संग्रह की एक कविता है ‘सीता सी प्रजा’ इस कविता में राम को संबोधित करके कवि ने लिखा है:- तुमने सीता को सिर्फ तभी नहीं छोड़ा था जब प्रजा में से किसी एक ने शंका जाहिर की थी। तुमने तभी सीता को तभी छोड़ा था जब तुम जीत चुके थे लंका को,राक्षसों का दर्प दलन किया था, रावण को धराशाई किया था। राक्षसों की लाशें थी और अनगिनत वानर घायल थे। विनाश का यह दृश्य एक स्त्री के लिए! यह सोचकर तुम्हारे मस्तिष्क में पीड़ा से हुई थी। वह अतीत जिसने तुम्हें वन भेजा, 3 माताओं ने असमय वैधव्य भोगा, निरपराध उर्मिला ने 14 वर्ष प्रतीक्षा में बताएं इसकी वजह थी पिता के द्वारा अपनी सुंदर, छोटी रानी को स्वच्छंद अधिकार देना मुंहमांगे वरदान का । यह वह रानी थी जिसने राजा को अपने सौंदर्य में उलझा रखा था। राम को महसूस होता है कि लंका युद्ध के पीछे भी उनका सीता के लिए मोह ही तो था । इसी लक्षण से अपने को मुक्त रखने के लिए राम ने सीता को कहा मैंने तुम्हारे लिए युद्ध नहीं किया, तुम जा सकती हो। मैंने सिर्फ क्षत्रिय धर्म का निर्वाह किया। आतताई रावण का वध किया, उसे सजा देने के लिए। और शंका की ज्वाला में जली सीता जब मातृत्व के नाजुक पलों में राज्य से निष्कासित कर दी जाती हैं अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए धरती में विलीन हो जाती हैं तब राम महसूस करते हैं कि वह स्त्री का हो, अपने जन का हो, सत्ता का हो राजा के एक असंतुलित कदम की छाया उसकी प्रजा को विवश बना देती है। दुख की लंबी कतार खड़ी कर देती है, कष्टदायक समय सामने होता है, कटघरे में प्रजा होती है और वह भी सीता के जैसे ठगी सी रह जाती है।
जीवन की व्यापकता, अनुशासन और उसके विभिन्न रंगों की तरह विभिन्न परिस्थितियों ,परिवेश को, विन्यास को, भाव ,लय, छंद , अनुभूति प्रदान करती संग्रह की कविताएं सटीक भाषा और शिल्प का संतुलन भी साधती हैं। जीवन की सूक्ष्म अनुभूतियों को इतनी निपुणता से कवि ने उकेरा है की पाठक कविताओं में स्वयं को ढूंढ लेता है। संग्रह की  कविताएं बार-बार पढ़ने और फिर फिर समझने की उम्मीद रखती हैं। कई कविताएं ऐसी हैं जो हर बार पढ़ने पर कुछ और भीतर तक ले जाती हैं।
डॉ कुमारी उर्वशी
सहायक प्राध्यापिका
हिंदी विभाग, रांची विमेंस कॉलेज,रांची
मोबाइल नंबर – 9955354365
ईमेल आईडी – urvashiashutosh@gmail.com

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