ओ मेरे मनमीत
कहां से रचती हो ये गीत
बताओ ओ मेरे मनमीत!
कहां पर खुलती हैं बेसुध
तुम्‍हारे मन की ये पांखें
किसे खोजा करती निशिदिन
तुम्‍हारी चपल सजल आंखें
कौन बो जाता कंठों में
तुम्‍हारे अमर सुगम संगीत।
तुम्‍हारे होठों पर उल्‍लास
रचाता है जैसे मधुमास
तुम्‍हारे हिय से उठी हिलोर
हिला देती सारा आकाश।
कुमुदिनी जैसे खिलते बैन
निभाते कैसी सच्‍ची प्रीत।
कुलाचें भरता है व्‍याकुल
तुम्‍हारा उन्‍मन मन-हिरना
उसे भाता है आठो याम
तितलियों-सा उड़ते फिरना
किसी कांधे पर माथा रख
कहीं सो जाना गहरी नींद।
कहां से रचती हो ये गीत
बताओ ओ मेरे मनमीत !
एक दिया बस अटूट प्रण का
एक  दिया इस कोने
एक दिया उस कोने
एक दिया बैठक में
एक दिया मेज पर ।
अम्‍मा कहती थीं दिये
बालना सहेज कर। 
पहले दीए पर बाबा का हक
रखना चारो  कोने बाल कर
चौपाई मन में सुमिरन कर
अक्षत-जल हवा में उछाल कर
एक दिया देहरी पर
दूजा  चौपाल पर
एक दिया तुलसी पर
एक हरसिंगार पर
बाबा की बगिया में एक दिया
एक दिया मरकटही बाग में
एक दिया बँसवारी में रख दो
घर का पिछवाड़ा रोशन कर दो
एक दिया पशुओं की चरही पर
एक दिया पीपल के थान पर
एक दिया धानों के खेत में
एक दिया आन बान शान पर
एक दिया बैठक में
एक दिया मेज पर।
अम्‍मा कहती थीं दिये
बालना सहेज कर। 
एक दिया ताली में
धान जहां होता है
बासमती की सुगंध-
सरिता का सोता है
चार दिए सभी दिशाओं में
रख देना कुऍ की जगत पर
और भूलना मत करना प्रणाम
पुरखों के कल-कल बहते सत पर
एक दिया अँगनाई रख देना
उठती तरुणाई से कह देना
बहुत ही अंधेरा है अभी यहां
फैली अमराई से कह देना
एक दिया बैठक में
एक दिया मेज पर।
अम्‍मा कहती थीं दिये
बालना सहेज कर। 
अभी और दिये जलाने होंगे
झुग्‍गी-झोपड़ियों में
सड़कों पर गलियों में
मंदिर की चौखट पर
चित्‍त की सरणियों में
अभी कहीं बंधक है
ऋद्धि-सिद्धि का दीया
दुख के चौबारे पर
अभी नहीं जला दिया
जहॉं रोशनी चकमक
वहां घुप्‍प अंधेरा है
लिख रहा ”अँधेरे में”
कवि कोई चितेरा है
अभी अनय औ’ अनीति
दुनिया पर भारी
संतों के चोले में
दिखते व्‍यभिचारी हैं
एक दिया रोशन हो मन का
एक दिया पितृ से उऋण का
एक दिया बुराई से रण का
एक दिया बस अटूट प्रण का
एक दिया बैठक में
एक दिया मेज पर।
अम्‍मा कहती थीं दिये
बालना सहेज कर। 
————————— 
तुमसे मिलना 
तुमसे मिलना
अभीष्ट से मिलना।
जैसे अपने ही इष्ट से मिलना।
मिलना अपनी ही आस्थाओं से
जुड़ना अपनी परंपराओं से
यह जो विस्मृत-सी हो रही संस्कृति
बाँध लेना उसे हवाओं से।
तुमसे मिलना है बुद्ध से मिलना
ज्यों किसी चित्त-शुद्ध से मिलना।
जिससे मिलकर स्वयं में खोना हो
जिससे मिलकर स्वयं को पाना हो
गीत –जिसमें घुले सबद अमरित
ज्यों अकेले में गुनगुनाना हो
तुमसे मिलना है स्वयं से मिलना
अहम् आवाम् वयम् से मिलना ।
तुमसे जब भी कभी मिला हूँ मैं
धूप के फूल-सा खिला हूँ मैं
मिल के जिसको न बिसारा जाए
ऐसी चाहत का सिलसिला हूँ मैं
तुमसे मिलना कबीर से मिलना
शायरी के अमीर  से मिलना।
तुम मेरी रूह में समाये हुए
चेतना में मेरी नहाये हुए
नूर बन कर सदा बरसते रहे
आसमानो-सा सर पे छाए हुए
तुमसे मिलना किसान से मिलना
बीज से, धान – पान से मिलना।
जिन्‍दगी अनमनी सी हो जाती
यह उदासी घनी सी हो जाती
तुम न मिलते तो शब्‍द की दुनिया
व्‍यर्थ भावों की लड़ी हो जाती
तुमसे मिलना है अर्थ से मिलना
जैसे अपने ही चित्‍त से मिलना । 
तीर्थ कोई पा लिया हमने
तीर्थ कोई पा लिया हमने
जब लिया अँकवार में तुमने। 
तुम मिले तो याद घिर आई
एक छवि-सी चित्त में छाई
फिर उमड़ आए दृगों में जल
वेदना की साँझ गहराई
झिलमिलाए फिर पुराने दिन
आँख में सपना लगा तिरने।
तुम न थे तो ज़िंदगी कम थी
रोशनी में रोशनी कम थी
हास से उल्लास ओझल था
आँसुओं में भी नमी कम थी
उँगलियों में भर गया कंपन
कनखियों से जो छुआ तुमने।
बो गया अहसास कोई फिर
छंद-सा नवगीत की धुन में
भर गया चुपचाप ज्यों कोई
फिर अपरमित रंग सावन में
खुल गई मन में लगी साँकल
साँस में पुरवा लगी बहने।
वश में जो होता यह मन
वश में जो होता यह मन।
उड़ आता बन कर खंजन।
जूड़े में फूल टॉंक देता
दे देता बासंती मन । 
वाणी में शहद घोलता
तोल मोल शब्द बोलता
कभी दुखी कभी खुशगवार
बन कर ज्यों पवन डोलता
जीवन के भेद खोलता
खिल उठता प्रिय का आँगन।
काँधे पर सिर रख प्रिय के
सुनता वह परियों के गीत
सुनते सुनते थक कर वह
सो जाता फिर गहरी नींद
फिर आता बन कर सपना
खो जाता सपनों में मन।
जीवन होता बसंत-सा
मन होता फागुनी पवन
सुध बुध खो देती यों ही
पल भर में चंचल चितवन
हो जाता हर तीरथ व्रत
लेते ही एक आचमन।
डॉ ओम निश्चल का जन्‍म प्रतापगढ़, उत्‍तर प्रदेश में 15 दिसंबर, 1958 को हुआ। उन्‍होंने हिंदी व संस्‍कृत में एमए एवं पीएच.डी एवं पत्रकारिता एवं जनसंपर्क में पोस्‍टग्रेजुएट डिप्‍लोमा हासिल किया है। वे हिंदी के सुधी कवि, आलेाचक, निबंधकार एवं भाषाविद हैं। उनकी शब्‍द सक्रिय हैं(कविताएं), मेरा दुख सिरहाने रख दो(गीतिका), ये जीवन खिलखिलाएगा किसी दिन(गजल), शब्दों से गपशप, कविता के वरिष्ठ नागरिक, कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई सहित अनेक कवियों की रचनाओं का संपादन किया है। वे हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उप्र हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान, यूको बैंक के अज्ञेय भाषा सेतु सम्मान, माहेश्‍वर तिवारी साहित्‍य साधना सम्‍मान तथा चर्चा में गोलमेज पर अरुण कमल पुस्‍तक के लिए डॉ रामस्‍वरूप चतुर्वेदी स्‍मृति आलोचना सम्‍मान से सम्मानित हो चुके हैं। संपर्क - dromnishchal@gmail.com

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