आफ़ताब ‘आस’ की पांच ग़ज़लें
हमारी बात ये समझो है बेहतरी के लिए
ज़रा सा ख़म करो ख़ुद को तमाशा फिर देखो
मैं अपनी हस्ब ए ज़रूरत ही खुल के हँसता हूँ
मैं सारा प्यार शुरू में नहीं लुटाऊँगा
तमाम “फ़ीगर ऑफ़ स्पीच” का हो इक्स्ट्रैक्शन
पहुँच के भी मैं वहाँ पर पहुँच नहीं पाया
इसी गुमान ने मुझको बिगाड़ रक्खा था
वहाँ किसी को भी इंसाफ़ मिल नहीं सकता
तुम्हारी जीत का हल्ला महज़ दग़ा से “आस”
अफ़सोस! लड़ते रहते हैं हम बात-बात पर
उसने कहा कि हाथ तुम्हारा न छोड़ूंगी
सब तोहमतों को रोक कर के एक हाथ से
मेरी बसी है जान किसी और शख़्स में
उसने गले के ज़ख़्म को ढाँपा था हार से
झगड़े का हल “तलाक़” की अर्ज़ी जमा हुई
मेरी तमाम मुश्किलें आसान हो गयीं
जिनके हँसी- मज़ाक का ज़रिया रहा हूँ मैं
ख़ुशियों को अपनी दिन के हवाले किया है “आस”
झूठ को झूठ कह रहा हूँ मैं
आप मजबूर हो कर आये यहाँ
एक अच्छाई मेरी ये भी है
अब तो वो भी बदल गया होगा!
इसलिए सख़्त जाँ हूँ बाहर से
गर मैं चाहूँ तो खोल कर रख दूँ
अपने माँ-बाप की मैं दुनिया हूँ
वो अ़दू की ही ज़ात होते हैं
पहले से उनका वाक़िया तयशुद
बुग्ज़,कीना,कपट,हसद मत पाल
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता
इश्क़ भी एक हादसा है और
ये सुखनवर मरा नहीं करते
सच को दबा के,झूठ को ऊपर रखा गया
ऐबों को अपने ऐसे छिपा कर रखा गया
सबको हुदूद उनके बताये गए मगर
दर्जे मेरे बुलंद हुए मुझको जैसे ही
मतलब जो ख़त्म हो गया पगड़ी उछाल दी
सरकार की ग़ुलामी को रक्खा गया हमें
हमको हमारे काम की तारीफ़ मिल गयी
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