31 जुलाई को प्रकाशित पुरवाई के संपादकीय ‘कचरे के ढेरों तले दबते महानगर’ पर निजी संदेशों के माध्यम से प्राप्त पाठकीय प्रतिक्रियाएं
डॉक्टर सच्चिदानंद
आजकल के युग की इस समस्या की ओर ध्यान दिलाना बहुत जरुरी है। पर्यावरण-विमर्श का यह भी बहुत महत्वपूर्ण विषय है ।किन्तु इस पर न पत्रकारि exता के ध्वजाधारियों का ध्यान जाता है।न सरकारें इस विषय को उठने देना चाहती हैं। सामान्य जनता इसको विमर्श का मुद्दा इसलिए नही समझती क्योंकि अभी इसका भावी खतरे उनके अनुमान में गहरे तक नही बैठ पाया है।
सूर्यकांत सुतार
बहुत ही शोधपरक करके चिंताजनक विषय पर हाथ डाला है आपने तेजिंदर जी। सिर्फ़ स्वछता अभियान से काम नही चलेगा उससे निकली हुई समस्या का भी हल ढूंढना होगा। शायद आज के इस लेख से किसी समझदार को इस गंभीर समस्या का समाधान खोजने की इच्छा जागृत हो। सुंदर आलेख कृति के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएं।
प्रगति टिपणिस
बेहतरीन! कचरा-निपटान समस्या भयंकर से भयंकरतम होती जा रही है और हम उस पर बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे। इस समस्या को विभिन्न पहलुओं से छूता आपका यह सम्पादकीय शायद इसके जागरण की चिंगारी जला जाए। बड़ी समग्रता से आपने इस समस्या को पेश किया है।
सरोजिनी पांडेय
संपादक जी ,
धन्यवाद और बधाई ऐसा ज्वलंत, आवश्यक और मूलभूत विषय को संपादकीय के लिए चुनने पर!
इस समस्या को सुलझाने के लिए कई आवश्यक और पूरक घटक हैं, राजनैतिक इच्छाशक्ति के अतिरिक्त जनसाधारण की भागीदारी भी अत्यावश्यक है।
मैं एक गृहणी हूंँ, अपने आसपास स्वच्छता की मानसिकता का मुझे सर्वथा अभाव दिखाई देता है । लोग केवल अपनी चारदीवारी के अंदर या अपने शरीर तक ही स्वच्छता चाहते हैं और उसके लिए प्रयत्न करते हैं । अपने घर के कूड़े को सार्वजनिक स्थान पर फेंक कर अथवा दूसरे के घर के सामने रखकर वे अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।
मैं एक मध्यमवर्गीय सोसाइटी में रहती हूँ, जहाँ हर दिन यही तथ्य पुष्ट होता है कि हम सफाई की सारी जिम्मेदारी किसी और की समझते हैं।
मेरा मानना यह है कि यह मानसिकता हमारे भीतर प्राचीन जाति प्रथा के कारण है। हम स्वच्छ रहना चाहते हैं परंतु स्वच्छता के लिए प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य नहीं है , गंदगी पैदा हम करें और उसको हटाए कोई और।
जिस दिन हर नागरिक अपनी गंदगी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेगा वह दिन इस समस्या के समाधान की ओर सबसे बड़ा कदम होगा।
प्रेम जनमेजय
आने वाली पीढ़ी के भविष्य के खतरे को रेखांकित करने वाले महत्वपूर्ण सवाल उठाए गए हैं। पता चला कि हम अमेरिका से चार गुणा आगे हैं। हम चार गुणा कचरे का उत्पादन करते हैं। किसी भी राजनैतिक दल में इस समस्या को हल करने की इच्छाशक्ति नज़र नहीं आती अतः कोई सूरत नज़र नहीं आती। जबतक इनके दिमाग का कचरा साफ नहीं होगा तबतक…
डॉक्टर पुष्पेन्द्र दुबे
तेजेन्द्र जी,आपने बहुत अच्छे विषय पर बढ़िया संपादकीय लिखा है।
चूंकि मैं इंदौरवासी हूं, इसलिए गर्व के साथ कह सकता हूं कि इंदौर ने स्वच्छता में अपना लक्ष्य हासिल किया है।
वास्तव में सन 1960 में जुलाई-अगस्त माह में विनोबा भावे इंदौर आए थे। उन्होंने इंदौर में एक माह निवास किया और सफाई अभियान चलाया।
तब विनोबा ने कहा था कि इंदौर से पूरे देश के स्वच्छता का संदेश जाना चाहिए। यहां रहते हुए विनोबा जी ने इंदौर शहर से पांच मील की दूरी पर स्थित महात्मा गांधी द्वारा स्थापित कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक ट्रस्ट में शुचिता से आत्मदर्शन विषय पर सात दिन प्रवचन दिए।
विनोबा ने इंदौर शहर को आदर्श नगर बनाने का ब्ल्यू प्रिंट प्रस्तुत किया और कहा कि नगर निगम और नगर पालिकाओं के चुनाव दलीय आधार पर नहीं होना चाहिए। आम जनता की जरूरतों को पूरा करने के लिए राजनीति की क्या आवश्यकता है। उन्होंने इसे सर्वोदय नगर बनाने का विचार भी रखा।
आज इंदौर पांचवी बार स्वच्छता में नंबर एक है और छठी बार भी आने की उम्मीद है। लेकिन इंदौर से बाहर जाते ही कचरे के ढेर दिखायी देने लगते हैं।
इंदौर मे कचरा फैलाने पर जुर्माना लिया जाता है। गीला और सूखा कचरा अलग अलग इकट्ठा किया जाता है। पेड पौधों के कचरे के लिए अलग से सूचना देना पडती है। खुले में शौच से मुक्ति मिली है।
इसके बावजूद अभी और काम होना शेष है। कचरा इकट्ठा करने वाली गाडी के निकट जाना बडा मुश्किल होता है। असहनीय दुर्गंध आने से बच्चे कचरा डालने नहीं जाते। यदि गीले कचरे की दुर्गंध को कम करने का उपाय हो जाए तो वाहन चालक को भी राहत मिलेगी और वायु प्रदूषण नहीं होगा।
संपादकीय के लिए एक बार पुन: बधाई।
सुरेश चौधरी
तेजेन्द्र जिस प्रकार के लेख रूपी संपादकीय लिखते हैं, उसके लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता होती है जो हर किसी के लिए संभव नहीं है।
आपने यह संपादकीय लिख कर सैकड़ों लोगों को कचरे की समस्या से अवगत कराया। मैंने सन 2000 के आसपास Waste to Wealth के लिए काफी रिसर्च करवाया था एक कंपनी बनायी थी और 10 वैज्ञानिकों कि टीम नियुक्त की थी। Waste को बिजली में बदलने या फ्यूल में बदलने के उपाय खोज कर सरकार को दिए थे। मगर सरकार नॉन कन्वेंशनल एनर्जी की बात तो करती थी पर जो उनके चार्टर में लिखा है उस पर ही काम करती थी। अन्यथा हर शहर में इतना कचरा डंप होता है उसे लैंड फिलिंग करके हाउसिंग के काम मे लाते हैं पर प्रोसेस करके उससे बहुमूल्य मीथेन गैस निकालने का कभी प्रयास नहीं किया। जबकि विदेश में यह बहुत से जगह हो रहा था। पराली की समस्या हर वर्ष होती है उसे काट कर ब्रिंकेटिंग कर के बायो मास्स बिजली बनाई जा सकती है पर कोई प्रयास नहीं।
Vishal Chandra, Zurich
Tejendra ji, thank u for writing this well compiled article.
I wish more people in India become actively aware and take real concrete steps that will hopefully show results in the near future.
Some examples of efforts are explained by presenter of the video link I had sent previously. I hope that the effort by the Delhi government as explained will bring results as predicted.
I also hope that the other state governments in india take similar steps.
It is certainly something which can be reversed and remedied.
शन्नो अग्रवाल, लंदन
देश-विदेश की तमाम समस्यायों के बारे में आप अपने आलेखों द्वारा जानकारी देते रहते हैं। भारत में अब कूड़े की पहाड़ जैसी समस्या सबका सिरदर्द बनती जा रही है। और इस तरफ भी आपका ध्यान आकर्षित हुआ।
मोदी जी के प्रयासों से सफाई अभियान से जो खुशी की लहर आई थी वह इस समाचार से निराशाजनक स्थिति में बदल गयी। लगता है कि पूरा देश अब कूड़ेदान में बदलता जा रहा है।
एक अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।
‘साथी हाथ मिलाकर
सभी एक हो जाओ
देश में कूड़े के ढेरों से
छुटकारा अब पाओ।’
हरीतिमा भरी पहाड़ियों को देखकर जो सुकून मिलता है वह ऐसे कूड़े के पहाड़ों को देखकर दहशत में बदल जाता होगा।
यहाँ UK में लोग थोड़ा समझदारी से काम लेते हैं। काउंसिल के नियमों के अनुसार घर का कूड़ा-कर्कट डस्टबिन में और तमाम अनचाही वस्तुओं के लिये बड़े-बड़े कंटेनर हर एरिया में रखे होते हैं। लेकिन नियमों का पालन करना जनता के हाथों में होता है। वहाँ भी कुछ ऐसे नियम बनने चाहिये और लोगों को सभ्यता और समझदारी से काम लेना चाहिये।
और लोकल नगरपालिका को इस कूड़े के पहाड़ से निदान पाने का कोई कारगर समाधान ढूँढना चाहिये।
Excellent संपादकीय।
शुभम राय त्रिपाठी
बहुत ही गंभीर विषय है। सचमुच इस विषय पर गंभीरता पूर्वक काम नहीं हुआ ना तो शासन की अपेक्षाओं के अनुरूप हम सुधरे और न ही हमारी अपेक्षाओं पर सरकार ही खरी उतरी । ठोस अपशिष्ट कचरा प्रबंधन के लिए ग्रामसभा स्तर से लेकर महानगर निगम पालिका तक में निष्पादन की स्थिति संतोषप्रद नहीं है।
स्थानीय स्तर पर इस विषय पर मेरी वर्षों से नजर है , मेरे परिचय में इम्तियाज अली जी है भोपाल में सार्थक नाम से एनजीओ चलाते हैं, मुख्य रूप से सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट पर ही वर्क है । कई राज्यों में अथवा जिलों में मध्यप्रदेश के इन्होंने अपने एनजीओ के माध्यम से प्लास्टिक युक्त कचरे की सड़क निर्माण में काम किया है। ठोस कचरा प्रबंधन के लिए इनके एनजीओ को राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तर पर कई अवार्ड मिले। जो चिंता आपने अपनी लेखनी के माध्यम से स्पष्ट की है। उसके लिए मैंने अपने स्तर पर समय समय पर अपने स्थानीय नगर पंचायत के सीएमओ तक से नगर के कचरे के निष्पादन की ठोस और स्थाई व्यवस्था के लिए इम्तियाज जी से बात भी करवाई पर स्थानीय नगर पंचायत के उदासीनता के चलते कभी भी औपचारिक रूप से सहमति नहीं बन सकी। चित्रकूट में फिलहाल जो भी उपाय वर्तमान में प्रशासनिक स्तर पर किए जा रहे हैं वो उतने सार्थक नहीं लगते और उसमें लागत और कमीशन भी अधिक जान पड़ती है कहने का आशय यह है कि स्थानीय स्तर से ही जिले , प्रदेश, प्रांत और केंद्र स्तर की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। सरकारी तंत्र और प्रजा दोनों ही अपनी आदतों में सुधार लाएं बदलाव तभी संभव है।
डॉक्टर प्रणव भारती
बहुत ज्वलंत समस्या है।सूखे,गीले कचरे के लिए सरकार द्वारा अलग रंग के डस्टबिन बाँटे गए हैं किंतु हम भी तो इतने शानदार हैं कि कचरे को अलग करने में कष्ट होता है।सरकार के कर्तव्य के साथ नागरिकों का भी उतना ही कर्तव्य है कि सहयोग करे।
शायद मुंबई की ही बात है, झुटपुटा था, कार में बैठे दूर से ऐसे ही पहाड़ नज़र आ रहे थे, पास जाने पर पता चला हम बहुत दूर तक कचरे के पहाड़ वाली सड़क पर ही कार भगाते रहे थे।
अपने संपादकीय के माध्यम से बहुत महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करना ,बहुत साधुवाद आपको ।
शायद किसी दिन इस बड़ी समस्या का हल भारत निकाल सके।
रचना सरन, कोलकाता
सर, कचरे की इस भयावह समस्या का समाधान तो उपलब्ध है लेकिन राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना कुछ भी सम्भव नहीं ।
साधारण नागरिक का इसकी भयावहता के प्रति गम्भीर होना भी बहुत ज़रूरी है ।
कचरे की समस्या साधारण जन के लिए तभी तक है जब तक वह उसके घर और रास्ते में हो। इसके दुष्प्रभाव से अनभिज्ञ वह उसमें इज़ाफ़ा करने से भी गुरेज़ नहीं करता ।
अज्ञानता के चलते गंभीरता का अभाव है ।
स्वच्छ भारत अभियान का भी मज़ाक यह कहकर उड़ाया गया था कि गम्भीर मुद्दों से भटकाने के लिए नया शग़ूफ़ा छोड़ा गया है।
ख़ैर, समय रहते चेत जायें तो अच्छा है अन्यथा दुष्परिणाम भी जल्द ही दिखने शुरु हो जायेंगे ।
आशा है कि यह सम्पादकीय लोगों की ऑंखें खोलने में कारगर साबित होगा।
आरती पांडया, मुंबई
तेजेन्द्र जी, हमारे देश में कचरे की समस्या दिन पर दिन बढ़ रही है और यह सिर्फ घर और किचन का नज़र आने वाला कचरा नहीं है बल्कि लोगों की सोच में बढ़ने वाला कचरा अधिक चिंता जनक है। हिंसा, द्वेष और धर्म से जुड़े मानसिक कचरे को साफ करना बहुत जरूरी है वरना दिमागी कचरा लोगों को पहले ही ले डूबेगा।
डॉ. ऋतु माथुर
आदरणीय, आपके प्रत्येक संपादकीय के समान यह संपादकीय भी अत्यंत महत्वपूर्ण व जागरूक करने वाला तो है ही, साथ ही विशेष संबंधित विभिन्न सूचनाओं को भी समेटे हुए हैं, जिसके माध्यम से पाठक व समाज केवल जागरूक ही नहीं होता अपितु देश दुनिया के नियम व कार्यप्रणाली से भी अवगत होता है, आज वास्तव में कचरे के ढेर की समस्या विकराल रूप में सामने खड़ी है, जिसका निदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यों में से एक है। आशा है आप के संपादकीय से इस संदर्भ में सभी जागरूक जनों द्वारा अवश्य आवश्यक कदम उठाए जाएंगे और सूचनाओं द्वारा लाभ भी प्राप्त होगा।
अति महत्वपूर्ण ज्वलंत व अत्यावश्यक विषय पर सार्थक और सारगर्भित संपादकीय के लिए पुनश्च साधुवाद
अशोक रावत
तेजेन्द्र भाई सार्थक और आवश्यक आलेख।
काश! भारत की सरकार सख्ती और जनता थोड़ी ज़िम्मेदारी का परिचय दे और प्लास्टिक, पोलीथीन और रसायनिक पदार्थों से निर्मित वस्तुओं पर निर्भरता को खत्म करे।
सियासत की सारी प्राथमिकताएं अपनी सत्ता को हाथ से न जाने देने से जुड़ी होती हैं, देश भले ही भाड़ में जाए।