Monday, May 20, 2024
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कल्पना मनोरमा की कहानी – दुःख का बोनसाई

हलो निक्की!
हाँ…! बोल रही हूँ माँ।
हम क्या सोच रहे हैं…?”
बोलो ..?”
दामदजी और बच्चों के साथ इस बार तुम दीवाली में घर आ जाओ।
माँ…!
हाँ!
सब कुछ जानते हुए भी…?”
हाँ, सही कहा तुमने लेकिन तुम चली आओ। जब तक हम हैं। मेरे बाद जैसा लगे करना…।
मतलब तुम क्या चाहती हो माँ! जिन्दा मक्खी निगल लूँ? आह भरे बिना!
भूल जाओ उन बातों और घटनाओं को…।
काश! संभव हो पाता माँ!
कुछ भी असंभव नहीं, एक बार अगर मन बना लिया जाए…। कोशिश तो करो। माफ़ किसी और के लिए नहीं अपने लिए किया जाता है किसी को..!
गहरे अपमान पर माफ़ी का चंदन! अब लेपा नहीं जाता…।
हम ये कह ही नहीं सकते…। सिवाय इसके कि हो सकता है कि अगली दीवाली मैं…?”
प्लीज माँ! मत किया करो ऐसी बातें…। अच्छा! कोशिश करूँगी…। हमेशा जीत जाती हो तुम ये सब बोलकर।
माँ बेटी में क्या हारना और क्या जीतना? खैर छोड़ो, प्रतीक्षा करेंगे हम।
सोचूँगी…,रखती हूँ फोन।
“…………”
अभी पाँच भी नहीं बजा और माँ ने फोन कर दिया। लगता है रात भर माँ सोई नहीं हैं…। आख़िर माँ समझती क्यों नहीं? क्यों हमेशा त्योहारों पर मुझे बुलाती रहती हैं? क्या अपनी सास का स्वभाव नहीं जानतीं? या पापा का मन नहीं समझतीं? या फिर सास के सिर-चढ़ाए अपने बेटों के स्वामित्वपूर्ण रवैयों से बाकिफ़ नहीं हैं। मैं तो सारे त्योहारों में चली आऊँ और ख़ुशी-ख़ुशी चली आऊँ, लेकिन माँ को छोड़ किसी और को भी तो तमन्ना हो, मुझे वहाँ देखने की? वैसे भी स्त्रियों के पास होता ही क्या! सिवाय इस घर से उस घर के बीच दौड़ने के अलावा। इसी बेनाम दौड़ में सदेह बीत जाती हैं स्त्रियाँ! ताज्जुब! जिस खेल से उपजी पीड़ा की भोग्या माँ खुद हैं, उसी में मुझे भी शामिल रखना चाहती हैं। हर बार बिना किये अपराध पर घृणा भरी नजरों का समाना करना! मैं कोई दूध पीती बच्ची तो नहीं जो पानी को मम्म मम्म कहती रहूँगी।
सोचते हुए निकिता अभी भी बिस्तर में अचेत पड़ी है। अलार्म बजकर बंद हो चुका है लेकिन मन के आँगन सूरज उगने को राजी नहीं। 
निक्की! क्या हुआ? आज उठना नहीं है? देर हो रही है अमन को…, मुझे भी।“
पति की आवाज सुनकर बेड से कूदकर निकिता रसोई में दौड़ गयी। उसके पास हमेशा सुबह काम का अम्बार होता है। बच्चे को स्कूल, पति को ऑफिस और खुद को भी ड्यूटी पर ले जाना….! लेकिन आज उसका मन अधीर और बेस्वाद है। वह किसी से बोलना नहीं चाहती। ये बात घर में बेटा और पति जानते हैं। पति और बच्चा अपने गंतव्यों पर चुपचाप जब चले गये तो वह खुद भी ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगी लेकिन माँ की बातें उसके मन को मथ रही हैं। शावर से गिरती बूँदें ठंडक का एहसास न देकर जला रही हैं। ऊहापोह में फँसा उसका मन कसमसा रहा है। 
“क्या करूँ? क्या…?” थोड़ी देर बाद असमंजस के बादल जब छंटे तो उसने ऑफ़िस जाना केंसिल किया और ए. जी. ऑफिस सहकर्मी रमणिका को फोन लगाकर बता दिया-
हेलो रमी, मेरी मदद करेगी?”
हाँ हाँ, बोल निक्की।
आज मेरी तबियत ठीक नहीं। बॉस को बता दे कि निकिता धारीवाल इन… इन… कारणों से आज ऑफिस नहीं आ सकेगी?”
ओके निक्की, प्लीज टेक रेस्ट।
रमणिका के आश्वासन पर निकिता के चेहरे पर थोड़ी-सी मुस्कान खिली लेकिन तुरंत उदासी ने उसे फिर से घेर लिया। मन उदास, तन उदास तो घर भी उदास हो गया है।
न अकेले रो सकती हूँ न ही गा सकती हूँ। भले ऑफ़िस से छुट्टी ले ली पर अभी मेड आ जाएगीसोचते हुए निकिता ने मेड को भी काम पर आने से मना कर दिया।
अब रोते-रोते हँस सकती हूँ। हँसते-हँसते रो सकती हूँ।” 
निकिता जब उदास होती है तो नितांत अकेले रहना चाहती है। थोड़ी देर उसने इधर-उधर मन बहलाने की कोशिश की लेकिन मन जब नहीं लगा तो एक प्याला चाय लेकर बोन्साई के पास जाकर बैठ गयी। जब-जब मन दुखी होता है, निकिता ठिगने बरगद की शरण लेती है। लोग अहेतुक स्नेह पाने के लिए कुत्ता पालते हैं। निकिता ने बोन्साई को सिरेमिक पॉट में पाल रखा है। सुबह से निकिता का भरा-भरा मन अब बरसना चाहता है और नाटा बरगद पूरी तरह भीगने को तैयार है। दोनों एक-दूसरे को ताक रहे हैं। निकिता ने बरगद के पत्तों से धूल पोंछकर पानी छिड़का और उसके सम्मुख पालथी लगाकर बैठ गयी। अब बोनसाई निकिता को और निकिता बोनसाई को देख रहे हैं। 
तू बता! क्या करूँ? कैसे माँ को मना करूँ? एक माँ ही तो है जो मेरा मन सुनती हैं। अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए क्या उनकी इच्छा को ठुकरा दूँ? या अपने स्वाभिमान का दमन कर दूँ? उड़ जाने दूँ अपने होने के चीथड़े?
बोनसाई मौन है। वह जानता है स्त्री, उत्तर नहीं चाहती। स्त्री अहानिकर श्रोता चाहती है। निकिता अपनी तार्किक बुद्धि पर माँ की ममता को हावी नहीं होने देना चाहती। वह लिजलिजी भावुकता छोड़, खरा-खरा निर्णय लेना सीखना चाहती है। धीरे-धीरे निकिता अपने अभेद अंतर्द्वंद्व में डूबती जा रही है। बोनसाई उसकी माँ में तब्दील होता जा रहा है। न निकिता को ये महसूस हो रहा है कि माँ उससे दूर है और न ही बोनसाई अपने को वृक्ष मान रहा है। दोनों बातों में तल्लीन और गुम होते जा रहे हैं।
माँ, दिवाली में तुम्हारे घर क्यों आऊँ? तुम रहो न! अपने बेटे-बहुओं के साथ। वे आपके मन पर अपना कब्ज़ा चाहते हैं। यही तुम्हारी नियति है और तुम्हारी सास और पति की चाहत है। मेरे बिना रहने की आदत डालो न माँ। सोच लो कि मैं अब इस दुनिया में नहीं हूँ। तुम्हारी बातों में भागीदारी के अतिरिक्त उस घर में मेरा और कोई हस्तक्षेप भी तो नहीं। बोलो?”
“…………” 
तुम्हीं बताओ, क्या छीन लेती हूँ किसी का वहाँ आकर? मैंने छोटी-बड़ी भाभी या भाई या फिर आजी से कभी कुछ कहा? जबकि तुम्हारे प्रति सबके नजरिये में सुधार की भरपूर गुंजाइश है पर क्या मैंने कभी सुधारने की बात कही? फिर भी तुम्हारे बेटों-बहुओं को मेरा तुम्हारे नजदीक आना खटकता है। मैं अगर तुन्हें नहीं सुनूँगी तो तुम किसे बताओगी अपनी पीड़ा? हमारा साथ माँ-बेटी से ज्यादा दो स्त्रियों का है। ये बात वे लोग क्यों नहीं जानते? मैं उस घर से विदा हुई हूँ, मरी नहीं हूँ। जो कुछ बुरा लगेगा, मैं तुमसे कहूँगी और तुम्हारी हर बात सुनूँगी। अपने प्रति आजी की उदासीनता अगर ख़ारिज कर भी दूँ तो पापा का पक्षपात मन को सालने लगता है। पता नहीं उन्हें भी क्यों लगता है कि मैं तुम्हारे साथ अगर ज्यादा घुली-मिली तो तुम्हें बरगला कर कुछ ऐसा हासिल न कर ले जाऊँगी जो सिर्फ उनका है। उनके बाद उनके बेटों का है। जैसे मैं तो आसमान से टपकी हूँ। मैंने भी तो भाइयों की तरह अपने जीवन की पहली डग भरना, दूध-भात खाना, ककहरा सीखना, चिड़ियों की तरह चहचहाना और उनके कार्यों में हाथ बँटाना सब तो उनकी आँखों के सामने ही सीखा है? फिर मैं अनचीन्ही क्यों रह गयी माँ?
“…………” 
अभी चार महीने ही बीते होंगे– पापा तुम्हें डॉक्टर को दिखाकर घर लौट रहे थे। मैंने पूरा दिन उनके डर से तुमसे बात नहीं की। जब शाम घिरने लगी तो मेरा मन अशांत होने लगा। तुम्हारी तबियत की सोचकर मन विकल होने लगा। मैंने तुम्हें फोन लगा दिया– तुमने बस हैलो ही बोला था, पापा तुनक कर कैसे बोल पड़े थे,”इन्हें क्या हुआ? ये क्यों बार-बार फोन कर रही हैं?” तब तुमने अरे! कहकर फोन ही काट दिया था। क्योंकि तुम जानती थीं अगर तुमने कुछ कहा तो ड्राइवर के सामने ही तुम्हारी माटी झाड़ने-पोंछने लगेंगे। न जाने कौन-सी ग्रंथि के शिकार हैं पापा या बना दिए गये हैं? माना की उनकी माँ को बेटियाँ नहीं पसंद तो पिता के हृदय से भी मानवता बिसर गयी है क्या? वे इतने काठ क्यों हैं?
“………..” 
माँ, जिस घर में आने के लिए तुम इतना आग्रह कर रही हो, सच बताना– वह घर कितना तुम्हारा और कितना मेरा है? मुझे तो लगता है कि जहाँ सिद्धांत अपनी शर्तों पर गढ़े जाते हैं वहाँ नीतियों को वाचाल होना ही पड़ता है। और जिस घर में नीतियाँ अपना रंग-रूप परिस्थिगत बदलने लगती हैं तोमहाभारतको जन्म लेने से कौन रोक सकता है? हमारे होने की कहानी तुमने ही तो मुझे बताई थी, क्या तुम भूल गयीं उस अवहेलना को?”
“………..” 
बड़े भैया के बाद मैं पैदा हुई थी लेकिन घर की पुरखिन तुम्हारी सास! उन्हें तो मेरा आना भाया ही नहीं था। रोना-धोना महीनों चला था उनका। मेरे प्रति पापा को भड़काने में आजी सफ़ल ही नहीं हुईं भावनात्मक दुर्गति भी उन्हीं की देन है। जबकि आजी खुद औरत हैं फिर भी। पापा की बलिहारी उन्होंने भी अपने सारे सिद्धांत उतार कर ताक पर धर दिए। जब पापा को पत्थर में बदल लिया, उसके बाद भाइयों को तब तक भड़काया जब तक दोनों हमारे दुश्मन न बन गए। जिन बेटों-भाइयों पर माँ-बहन को इतराना था, अपने में सिमट कर मरने को अभिशप्त हो गयीं। फिर भी अपनी सास की अमानुषीय पृष्ठभूमि पर कैसे तुमने माँ-बाप की भूमिकाएँ अकेले निभाई? मैं सब जानती हूँ। क्या तुम अपने बेटों, सास और पति से सम्मान ले पायीं या मुझे दिलवा पाईं? जबकि उस घर के प्रति तुम्हारे समर्पण पुरस्कार के काबिल रहे हैं।
“…………” 
मैं बार-बार सोचती हूँ फिर भी सही नतीजे पर नहीं पहुँच पाती हूँ कि इंसान के पास दो मन कैसे होते हैं जो एक स्थान पर बेटे-बेटी में भेद करते हैं? भाई के बच्चों को दुलराओ तो पापा मुस्कान के साथ प्रस्तुत और मेरे बच्चों को तुम गोद में बिठा भर लो तो पापा को चिढ़न होने लगे। तुम जब मुझसे बात करो तो तुम्हारी सास और बेटों के मुँह फूल जाएँ। क्या मेरा अधिकार तुम पर भी नहीं? क्या सिर्फ़ बेटे ही तुम्हारी ममता की डालियों पर फले हैं? जानती हो माँ! मैं अपने बच्चे को क्या ही ममता दूँ!! जबकि मैं ही अपने शिशु-दुःख से उबर नहीं पायी हूँ। भावनात्मक रूप से मेरा मन नितांत खाली है। वो बात तो कभी भूलती ही नहीं जब कनु यानी मेरे बेटे को जुखाम हुआ था और तुमने पापा से दवाई लाने को कह दिया था। पापा ने कहा, निक्की को बोलो दवाई का नाम और पैसे लाकर दे तभी लाऊँगा। उस क्षण तुम मेरा चेहरा देख नहीं सकी थीं। उसके बाद तुमने रो कर मेरी सहानुभूति प्राप्त कर ली लेकिन मेरे भीतर मवाद पड़ने से क्या रोक नहीं पायी थीं तुम माँ? वे बातें फिर भी मैं भूल गयी थी लेकिन बड़े भैया के गृह-प्रवेश में मेरे सामने सगे-सौतले का खेल पापा ने फिर से खूब खेला। उस पर बड़े भैया और पापा के व्यवहार से तो मैं परिचित थी लेकिन छोटे भैया, जिन्हें मैं थोड़ा समझदार समझती थी, जानबूझ कर पापा द्वारा दवाई के पैसे माँगने वाले प्रकरण को छेड़ कर ख़ुद भी हँसे, औरों का भी मनोरंजन किया। माँ, हमारे भाई भी घाव पर नमक कब-कितना छिड़कना चाहिए, जानते हैं। जबकि दोनों के पास अपनी बेटियाँ हैं।
“……….” 
जब-जब तुमने मुझे सुसराल भेजा, आजी का मुँह कुप्पा ही बना रहा। मैं भी अनभिज्ञ बनी रहती अगर बीना चच्ची न बतातीं। आजी ने चच्ची से कहा-इस औरत का अर्थात तुम्हारा अगर बस चले तो ये अपनी बिटिया को घर उठाकर बाँध दे।आजी के वचन सुनकर चच्ची क्या कोई भी दंग रह जाता। सच बताऊँ माँ तुम्हारी तरह मैं भी त्याग कर सकती हूँ। लेकिन सोचती हूँ कि उन्हीं मुँह बंद त्यागों ने तुम्हें तपेदिक (टीबी) का मरीज़ बना दिया है। थोड़े दिन बाद तुम दुनिया छोड़ दोगी और मैं अनाथ हो जाऊँगी। जो तुम्हारे अपराधी हैं, वे सब सलीके से बाइज्जत घूमेंगे। इसलिए मैं महान नहीं बनना चाहती। मेरे साथ जिसने जो व्यवाहर किया है, चुकता करूँगी और तुम्हारे साथ किए गये दुर्व्यवहार का भी मैं बराबर हिसाब लूँगी। क्योंकि मैं अच्छे से जानती हूँ कि तुमने गुलदान में सजाकर अपनी जिन्दगी नहीं बिताई बल्कि रिश्तों की सिल पर उड़द की दाल तरह अपने को बटा (पीसा) है।
“………..”
कभी-कभी ये भी लगता है कि मेरा दुःख तो इकहरा है लेकिन तुमने तो दोहरे दुःख झेले हैं। जब तक तुम बच्ची रहीं तो अपने पिता का पक्षपात झेला और जब बड़ी हुईं तो सास और पति के खोखले सैद्धांतिक व्यवहार ने तुम्हें डस लिया। जिन लोगों के कर्तव्य बाहर से उजले और भीतर से स्याह होते हैं, वे लोग बड़े घातक होते हैं माँ। ऐसा नहीं कि मुझे तुम्हारे मायके की दमघोंटू कार्यवाहियाँ याद नहीं? सब याद हैं। मौसी-मामाओं की शादियों में जब तुम मायके जातीं तो कोई पालना नहीं झुलाता था बल्कि थान के थान कपड़े मशीन पर रखे मिलते थे तुम्हें। जिन्हें काटने, छाँटने और सिलने में तुम दिन-रात सिलाई मशीन से चिपटी रहतीं। न चोटी करने का होश न हँसने-बोलने की फुर्सत। तुम्हारे भाई भी अपनी पत्नियों के प्रति सहृदय और तुम्हारे लिए पत्थर बने रहे। नानी के मायके से आये कपड़ों पर भी तुम बहनों का अधिकार नहीं था। उसपर लौटने पर तुम्हारे ताज़े घावों को खोदना पापा और आजी का मन पसंद शगल था। हर काम में चुस्त-दुरुस्त रहने के बावजूद आजी और पिता की बातों और कृत्यों की अंतर्ध्वनि पकड़ने में तुम कितनी कच्ची रह गयी माँ! वही तुम मुझसे चाहती हो कि अपनों को बर्दाश्त करो और माफ़ करना सीखो। मैं कहती हूँ अगर तुम्हारे अंदर बर्दाश्त करने का हुनर न होता तो शायद तुम अपने और मेरे जीवन का आस्वाद ज्यादा अच्छे से ले सकती थीं! जिस घर में आने की तुम बात करती हो, वह घर तुम्हारा नहीं, आजी का है। अगर ऐसा न होता तो कभी तो मेरा भी मान-मनुहार करती वे। बेटी के रूप में आजी के घर जन्मना क्या मेरा निर्णय था?” 
“………..” 
उस दीवाली तुम्हारी तबियत ज्यादा बिगड़ गयी थी। आनन-फानन सब तुम्हारे पास पहुँच गये थे। तुमने बड़े भैया-भाभी को दीवाली की पूजा की जिम्मेदारी सौंप दी थी। किसी ने एक फूल पूजा में चढ़ाने को मुझे बुलाया हो तो बताओ। क्या बेटियाँ अपमान सहने के लिए ही पैदा होगीं उस घर में? मुझसे ज्यादा बुरा तुम्हें लग रहा था लेकिन तुम्हारी जुबान मौन और आँखें बरस रही थीं। क्या फिर से वैसा ही चाहती हो? जबकि मेरी भी इच्छा होती है कि जब मैं मायके जाऊँ तो हुमक कर पापा को आवाज़ लगाऊँ किदरवाज़ा खोलो पापामैं आ गयी हूँ। रिश्तों के बीहड़ में भागते-भागते थक चुकी हूँ। अब तुम्हारी अपनत्व भरी शीतल छाया में सुस्ताना चाहती हूँ, तुमसे बातें करना चाहती हूँ। जानती हो माँ! पेड़ की डालियाँ भी सिर उठाकर पेड़ की बात नहीं करतीं। वे आकाश को धरती की सदाशयता की कहानियाँ सुनाती हैं। उसी तरह मैं भी सोचती हूँ। काश ऐसा होता कि तुम्हारे समर्पण को उन्हें बता पाती! पापा के हृदय की जमीन पर जितना हक़ भाइयों का है, उतना अपना भी जता पाती। लेकिन मेरे चाहने से क्या होगा? अपने प्रति जब भी पाया तब तुम्हें अकेले ही बरसता पाया। लगता है कि मेरा जीवन सिर्फ तुम्हारा कर्जदार है माँ! उसके लिए एक दीवाली क्या! हज़ारों दीवालियों पर मैं जातीय अपमान भुलाकर तुम्हारे पास आ सकती हूँ।” 
आहत भावनाओं का गुबार जब छंटा तो गुनगुने आँसुओं से भर आई आँखों को निकिता ने पोंछकर इधर-उधर देखा तो बोनसाई को अपनी ओर ही ताकता पाया।
अरे! मैं तो तुझे भूल ही गयी थी–मेरे प्रिय बोनसाई! तुम्हारी तरह मेरे दुखों को भी मेरे अपने छोटा कर आँकते हैं। उनकी नज़र में स्त्रियों के दुःख, दुःख नहीं, प्रपंच होते हैं।” 
बोनसाई अभी भी पूरी तरह समर्पित और मौन है। 
सूरज दो बल्ली आसमान पर चढ़ आया है। खिड़की से उतर कर धूप बोनसाई की पत्तियों को चमकदार बना रही है। आत्मालाप कर निकिता को अपना मन कुछ हल्का लग रहा है। उसने उठकर एक गिलास पानी पिया और मोबाइल उठाकर माँ का नंबर डायल करने लगी।   
कल्पना मनोरमा
उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जन्मी, पली बढ़ी कल्पना मनोरमा ने दो संस्थानों से हिंदी भाषा में एम. ए और बीएड किया. लम्बे समय तक अध्यापन कार्य से जुड़ी रही हैं. अवकाश प्राप्ति के बाद अब लंबे समय से वे हिंदी में लेखन कर रही हैं। 
इनकी पुस्तकें: कबतक सूरजमुखी बनें हम (नवगीत संग्रह),”बाँस भर टोकरीकाव्य संग्रह, एक लघुकथा संग्रह और एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है। दर्जनभर साझा प्रकाशित संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित हैं और होती आ रही हैं। देश की प्रतिष्ठित पात्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन जारी है। आपकी कृतियों का अनुवाद नेपाली और ओड़िया भाषा में हुआ है।
कल्पना मनोरमा ब्लॉगकस्तूरियाके कुशल संचालन व सम्पादन करती हैं।  
पुरस्कार: दोहा शिरोमणि (2014), लघुकथा लहरी सम्मान (वनिका पब्लिकेशन, 2016), नवगीत गौरव सम्मान (वैसबारा शोध संस्थान, 2018), एवं सूर्यकान्त निराला सम्मान 2019 (प्रथम कृतिकब तक सूरजमुखी बनें हमपर सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा), आचार्य सम्मान (जैमिनी अकादमी पानीपत हरियाणा, 2021) “काव्य प्रतिभा सम्मानहिन्दुस्तानी भाषा अकादमी, अखिल भारती कुमुद टिक्कू प्रतियोगिता 2022 में कहानीपिता की गंधसाहित्य समर्था सम्मान से पुरस्कृत हो चुकी है।.
सम्प्रति: अवकाश प्राप्त अध्यापक
kalpanamanorama@gmail.com
मोब – 8953654363/
पता-
बी.24 ऐश्वर्यम अपार्टमेंट/प्लाट संख्या 17/ सैक्टर 4 द्वारका / नई दिल्ली – 110075
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5 टिप्पणी

  1. “अरे! मैं तो तुझे भूल ही गयी थी– “मेरे प्रिय बोनसाई! तुम्हारी तरह मेरे दुखों को भी मेरे अपने छोटा कर आँकते हैं। उनकी नज़र में स्त्रियों के दुःख, दुःख नहीं, प्रपंच होते हैं ..”.पूरी कहानी का मर्म, अच्छी कहानी, बधाई कल्पना जी

  2. बहुत सुंदर कहानी दुःख का बोनसाई खेद इसी बात का हैं कि आज भी नारी की स्थिति कई स्थानों पर विशेषतया अपने ही घर में दयनीय हैं न वो ससुराल की हैं न मायके की न जाने ऐसा कैसे भाई स्वयं की पुत्री को तो पूरा महत्व देते हैं पर बहन को घर में सदा वंचित ही रखा जाता हैं। बहुत पीड़ा होती हैं ऐसा देख,सुन व पढ़ कर ऐसा सह कर।

  3. जहाँ सिद्धांत अपनी शर्तों पर गढ़े जाते हैं वहाँ नीतियों को वाचाल होना ही पड़ता है।
    कल्पना जी स्त्री जीवन के दर्द को उजागर करती आपकि मार्मिक कहानी l ये हमारे समाज की सच्चाई है, जहाँ ब्याह देने के बाद बेटी के लिए अपना घर ही नहीं पराया हो जाता बल्कि पिता और परिवार का हृदय भी पराया हो जाता l दादी के माध्यम से आपने स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है कि पितृसत्ता केवल पुरुष नहीं चलाते हैं बल्कि उसमें स्त्रियाँ भी शमिल होती हैं l माँ की स्थिति अत्यंत दयनीय है l उसे उसे घर में रहना है और अपनी ममता की भवनाओं का गला भी घोंटना है l बोनसाई पाला है… बिम्ब के माध्यम से करारा प्रहार भी है l एक बोनसाई ही स्त्री की पीड़ा को समझ सकता है, जिसकी सारी संभावनाओं को समाप्त कर लघु कर दिया गया है l
    “अरे! मैं तो तुझे भूल ही गयी थी– “मेरे प्रिय बोनसाई! तुम्हारी तरह मेरे दुखों को भी मेरे अपने छोटा कर आँकते हैं। उनकी नज़र में स्त्रियों के दुःख, दुःख नहीं, प्रपंच होते हैं।”
    एक शानदार कहानी के लिए बधाई कल्पना जी

  4. आज 21 वीं शताब्दी में भी बेटियों की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। दुःख तब होता है ज़ब स्त्री ही स्त्री का सम्मान नहीं करती। हृदयस्पर्शी कहानी। बधाई आपको।

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