Monday, May 13, 2024
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रेखना मेरी जान (उपन्यास) – समीक्षा (पीयूष द्विवेदी)

समय से आगे की कहानी…

पुस्तक लेखक रत्नेश्वर सिंह  प्रकाशक ब्लूवर्ड, मूल्य – 225 रूपये

– पीयूष द्विवेदी

रत्नेश्वर सिंह का उपन्यास ‘रेखना मेरी जान’ ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर केन्द्रित है। साथ ही इसमें मुख्य कथानक के समानांतर एक प्रेम कथा तथा सांप्रदायिक समरसता और विद्वेष की छोटी-छोटी कथाएँ भी चलती हैं। यह समय से आगे की कहानी है। ग्लोबल वार्मिंग की समस्या अभी पूरे विश्व के लिए चिंता का कारण बनी हुई है, रत्नेश्वर सिंह ने इसी समस्या की भावी विकरालता को अपने कथानक का आधार बनाया है। इस प्रकार के विषय पर, इतने तथ्यपरक और रोचक ढंग से, केन्द्रित कथा-साहित्य संभवतः हिंदी में अबतक नहीं रचा गया है।

इस उपन्यास के प्रति कौतूहल का उदय इसके नाम से ही हो जाता है। रेखना मेरी जान! सुनने में कितना काव्यात्मक लगता है ये नाम – प्रतीत होता है जैसे प्रेम की सघनता में ऊब-चूब हो रहे किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को आतुर हो ह्रदय की गहराइयों से पुकारा है। यह नाम पुस्तक के इर्द-गिर्द एक मनहर प्रेम कथा-सी मोहिनी रचता है। ये अलग बात है कि देखने-सुनने में ये नाम जितना मोहक प्रतीत होता है, कहानी में इसका अर्थ उतना ही भयानक है। लेकिन ये चीज अखरती नहीं है, क्योंकि एकबार कहानी में प्रवेश करने के बाद हम उसकी बुनावट में उलझे-उलझे उसके अंतिम सिरे पर पहुंचकर ही बाहर निकलते हैं। यह लेखक की सफलता है कि पुस्तक का नाम मोहक संदर्भों में न सही, भयानक संदर्भों में ही सही, पूरी पुस्तक में व्याप्त रहा है।

देखा जाए तो ग्लोबल वार्मिंग जैसे अति-गंभीर और वैज्ञानिक विषय पर लिखी गयी किताब से आम पाठक को जोड़ने के लिए ऐसे ही कलात्मक और मोहक नाम की जरूरत थी। अगर पुस्तक को इसके विषय-सा ही कोई गंभीर और भारी-भरकम नाम दिया गया होता तो ये उपन्यास भी शोध की शुष्क प्रस्तुति वाले उन मोटे-मोटे और उबाऊ उपन्यासों जैसा कलेवर धारण कर लेता जो बौद्धिक चारदीवारी के लिए विमर्श की वस्तु तो बन जाते हैं, लेकिन सामान्य पाठकों से कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते। आम पाठक प्रायः इसके विषय और नाम की गंभीरता को देख, नीरस कथानक का अनुमान लगाते हुए, इसके अंदर झाँकने का साहस शायद ही कर पाता। लेकिन रत्नेश्वर सराहना के हकदार हैं कि उन्होंने इस अति-गंभीर विषय के उस पार खड़े पाठक को प्रेम के पुल द्वारा इसके निकट लाने की एक कामयाब कोशिश की है।

विषय की बात करें तो ग्लोबल वार्मिंग साधारण रूप में तो इतनी ही समस्या है कि विश्व का तापमान बढ़ रहा है, मगर जब इसके अंदर जाकर कथा गढ़नी हो, तो इसके वैज्ञानिक पहलुओं को टटोलना आवश्यक हो जाता है। वैज्ञानिक तथ्यों को जाने-समझे बिना गढ़ी गयी कहानी निष्प्रभावी ही सिद्ध होगी। अतः रत्नेश्वर विभिन्न अंतर्कथाओं के माध्यम से आवश्यकतानुसार विषय की वैज्ञानिकता पर भी प्रकाश डालते चले हैं। उदाहरणार्थ पुस्तक का एक अंश उल्लेखनीय होगा, “…पृथ्वी पर नौ विशिष्ट सीमा रेखाओं को चिन्हित किया गया है, जिनमें हमें हस्तक्षेप से बचने की सलाह दी गयी थी। पर हमने तीन सीमा-रेखाओं का अतिक्रमण पहले ही शुरू कर दिया है। वे हैं जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता और भूमंडलीय नाइट्रोजन-चक्र।” इस प्रकार अनेक स्थलों पर, विविध प्रसगों के माध्यम से, विषय के वैज्ञानिक पहलुओं पर तथ्यों के द्वारा प्रकाश डाला गया है। ये तथ्य विषय से सम्बंधित लेखक के गहन शोध को ही दर्शाते हैं और अच्छी बात यह है कि इन तथ्यों के वर्णन में कहीं ऐसा नहीं लगता कि इन्हें जबरन कहानी में आरोपित किया गया है बल्कि ये प्रायः कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनकर ही सामने आते हैं। इस कारण अपनी पूरी गंभीरता के बावजूद इन तथ्यों का रेखांकन कथानक को उबाऊ नहीं बनाता बल्कि रोचकता ही प्रदान करता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि विषय को वैज्ञानिक तथ्यों का आधार मिल जाने से यह कथा प्रभावी बन पड़ी है।

कहानी दो प्रगतिशील हिन्दू-मुस्लिम परिवारों की है, जिनकी संतानों सुमोना और फरीद के मध्य प्रेम है, परन्तु धार्मिक रेखाओं के कारण संकोच भी है। इसी बीच अंटार्कटिका में पिघलती बर्फ और पर्वतीय खिसकाव से भयानक तूफ़ान का तांडव मचता है, जिसकी जद में बारिसोल शहर भी आ जाता है। इसके बाद शुरू होता है जीने के लिए संघर्ष और इसी संघर्ष के बीचोबीच कहानी भी बढ़ती जाती है। तूफ़ान की त्रासदी के शब्द-चित्र उकेरने में रत्नेश्वर काफी हद तक सफल रहे हैं। इस जलप्रलय के बीच लेखक ने बड़ी ख़ूबसूरती से मानव-रचित विज्ञान और प्रकृति के द्वंद्व को भी बड़े रोचक ढंग से उजागर किया है। कहानी की नायिका सुमोना के पिता जगदीश बाबू तूफ़ान से बचकर भारत पहुँचने के लिए अपनी अत्याधुनिक कार जलथल, जो धरती और जल में चलने के साथ-साथ हवा में छलांग भी लगा सकती है, के भरोसे सपरिवार निकल पड़ते हैं। उन्हें विश्वास है कि इस आपदा की समस्त संभावित चुनौतियों से पार पाने में उनकी उनकी ये सवारी सक्षम है। यहाँ जलथल कार मानव की वैज्ञानिक प्रगति का प्रतीक है, तो तूफ़ान प्रकृति की दुर्धर्ष शक्ति का, इस संघर्ष का परिणाम हम सब जानते हैं। एक जगह यातायात पुल टूटा हुआ मिलता है तो अपनी कार के जल में भी चलने की सामर्थ्य का भरोसा कर जगदीश बाबू उसे नदी में कुदा देते हैं, लेकिन फिर जो होता है उसके लिए पुस्तक का ये अंश देखें, “…पानी की तेज धार को वाटर कटर काटने की कोशिश कर रहा था। पर (गाड़ी के) पानी से ऊपर आने की गति और वाटर कटर के सामंजस्य में थोड़ी गड़बड़ी हुई थी और ऊपर आते ही गाड़ी पानी के ढूह के साथ पलट गयी थी। अंततः जलथल का भरोसा भी जगदीश बाबू का साथ छोड़ चुका था..” जाहिर है, प्रकृति और विज्ञान के इस संघर्ष में विज्ञान बौना साबित होता है और प्रकृति विजयी होकर अपनी लय में गतिमान रहती है।

कहानी यहाँ से एक नाटकीय मोड़ लेती है। कार पलट जाने के बाद सुमोना अपने माता-पिता से बिछड़ जाती है, लेकिन बड़े नाटकीय ढंग से यहाँ फरीद का प्रवेश होता है और वो पानी में डूब रही सुमोना को बचा लेता है। इसके बाद दोनों जंगल आदि से गुजरते हुए इस उम्मीद से भारत की तरफ बढ़ने लगते हैं कि उनके माता-पिता भी जस-तस वहीं पहुँचे होंगे। वे भटकते हुए जंगल में पहुँचते हैं, एक स्थान पर साथ में रात गुजारते हैं और इस दौरान उनके बीच कुछ मुलायम क्षण भी आते हैं, लेकिन रत्नेश्वर को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने यहाँ अपनी कलम को संयमित रखा है। अगर उन्होंने नायक-नायिका के इस सम्मिलन-क्षण से उपजे भावना के उद्वेग में या उपन्यास को मसालेदार बनाने के लोभ में अपना संयम खोकर, अतार्किक दृष्टि अपनाते हुए, यहाँ किसी श्रृंगार-दृश्य की रचना कर दी होती तो इससे कथा का धरातल कमजोर हो जाता। प्रश्न उठते कि जिस लड़की-लड़के के परिवारजन तूफ़ान में बिछड़ गए हैं, वे जंगल में प्रेम-विलास कैसे कर सकते हैं? आपदा के क्षण में ऐसा करने की उनकी मनोस्थिति कैसे बन सकती है? नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न भी उठ सकते थे। लेकिन लेखक की सफलता है कि उन्होंने इस मामले में अपनी कलम पर संयम रखते हुए जंगल में फरीद-सुमोना के बीच प्रेम का एक भिन्न और प्रभावी रूप प्रस्तुत किया है।

कहानी के अंत की बात करें तो ऊपर-ऊपर ये कुछ अजीब-सा प्रतीत होता है, लेकिन गहराई से विचार करने पर इसमें दार्शनिक विस्तार की संभावना भी दिखाई देती है। उपन्यास के अंत का एक अंश देखें, “फरीद के रक्त ने सुमोना को भी रंग दिया था। गाल पर फरीद की अँगुलियों के खून भरे निशान और बिखरे हुए भीगे बाल ने सुमोना को बहुत भयानक बना दिया था। भीड़ के बीच दौड़ते हुए वह चीख रही थी – सुमोना…! सुमोना…! उसके कदम वापस बांग्लादेश की ओर बढ़ गये थे। न तो उसे जिंदगी का मोह रह गया था, ना ही मौत का भय। शायद वह प्रेममग्न होकर प्रेमाकार हो गयी थी।“ ऐसा लगता है कि इस अंत का मूल भाव इसके स्थूल रूप में नहीं, बल्कि सूक्ष्म रूप में छिपा है। भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरीद की मृत्यु और सुमोना का नग्न अवस्था में अपना ही नाम पुकारते हुए नाटकीय ढंग से फरीद को उठाकर चल देना, हमें सती की राख लिए भटकने वाले महादेव का स्मरण कराता है। संभव है कि इसी प्रसंग से प्रेरित होकर ऐसे अंत की रचना की गयी हो। तब जिस ढंग से शिव, सती से एकाकार हो गए थे, सुमोना भी उसी तरह अपने प्रेमी से एकाकार प्रतीत होती है। वो लगभग नग्न है, चिंतन-शक्ति का त्याग कर चुकी है और कुल मिलाकर मनुष्य की उस आदिम अवस्था में है, जब किसी प्रकार के आडम्बरों और विधानों की रेखाएं नहीं होतीं। इस अवस्था में वो तूफ़ान की तरफ वापस चल देती है। यहाँ लेखक ने इस अंत के द्वारा प्रतीकात्मक रूप से देश-धर्म-जाति-वर्ग आदि अलग-अलग रेखाओं के बीच कैद मनुष्य की अवस्था और इनको अनदेखा कर देने पर उसकी उन्मुक्त अवस्था के भेद को स्पष्ट किया है। परन्तु, अंत की संप्रेषणीयता वैसी नहीं है कि लेखक द्वारा उसका लक्षित अर्थ सहज ही हर पाठक तक पहुँच जाए। एक यथार्थवादी विषय पर आधारित पुस्तक के इस अंत को भी पाठक पूरी कथा की तरह ऊपर-ऊपर से ग्रहण करने की भूल कर सकते हैं, जिस स्थिति में उन्हें इस अंत से शायद बहुत मजा न आएगा। निस्संदेह ये एक अलग और सुचिंतित अंत हो सकता है, लेकिन आम पाठकों के लिए कितना सुग्राह्य है, ये समय बताएगा।

फरीद और सुमोना की प्रेम कहानी के माध्यम से लेखक अक्सर हिन्दू-मुस्लिम समाज के मध्य समरसता और विद्वेष के पहलुओं को भी टटोलने की कोशिश करते हैं। इस क्रम में कई जगह वे चीजों का बेहद सरलीकरण करते जाते हैं। अब जैसे कि फरीद जैसे सुशिक्षित युवा का कुरआन की प्रशंसा करते हुए यह कहना कि उसने गीता भी पढ़ी है और सभी ग्रंथ बेहद करीब हैं, सम्बंधित विषय के सरलीकरण का ही एक उदाहरण है। सभी धर्मों, धर्मग्रंथों में समानता की यह बातें कहने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तविकता में उनका कोई ठोस आधार नहीं होता। अतः ऐसे सरलीकरण गंभीर कथानक को हल्का बनाते हैं। इनसे बचा जाना चाहिए। यदि ऐसे प्रसंगों से लेखक की मंशा सांप्रदायिक समरसता के समर्थन की है, तो इस दृष्टि से भी इन प्रसंगों का कोई अर्थ नहीं; क्योंकि निराधार और वायवीय धारणाओं पर आधारित सामाजिक समरसता स्थायी नहीं हो सकती। बहरहाल, हिन्दू-मुस्लिम विषय इस पुस्तक की एक अंतर्कथा के रूप में सीमित रूप से मौजूद है, अतः संभव है कि लेखक ने इसकी गहराई में जाकर उलझने से बचने के लिए भी ऐसे सरलीकरण का मार्ग अपना लिया हो। और ठीक भी है, क्योंकि यदि वे इस विषय की गहराई में उतरते तो मूल विषय से भटक सकते थे।

भाषा की दृष्टि से यह पुस्तक अत्यंत प्रभावित करती है। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू आदि के शब्दों सहित बंगाली शब्दों का भी भरपूर और बेहद सहज प्रयोग हुआ है। बंगाली शब्दों के इस प्रयोग से भाषा में सहज ही एक ताजगी पैदा हो गयी है। इस बारे में अच्छी बात यह है कि बंगाली शब्दों के भरपूर प्रयोग के बावजूद पुस्तक को पढ़ते हुए कहीं असहजता महसूस नहीं होती। ऐसा लगता है जैसे बांग्ला के वे शब्द हिंदी के ही शब्द हों। दूसरी बात कि यह समय से आगे की कहानी है, तो इसकी भाषा भी उसी तरह समय से कुछ आगे की है। इसमें वर्तमान समय से कुछ आगे के अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरण अपने अनूठे और आकर्षक नामों के साथ मौजूद हैं, जैसे सूरजेटर (सूर्य द्वारा बिजली पैदा करने वाला यंत्र), छड़ीकैम (कैमरा लगी छड़ी), रिंगफोन (अंगूठी वाला फोन) इत्यादि। ऐसे और भी बहुत से नामों की रचना लेखक ने की है जो कहीं-कहीं कुछ बेढब लगती है, तो कहीं-कहीं  प्रभावित भी करती है।

यह पुस्तक आज जितनी भी प्रासंगिक हो, वो अपर्याप्त है; क्योंकि इसकी असल प्रासंगिकता आने वाले समय में दिखेगी। जैसे-जैसे ग्लोबल वार्मिंग की समस्या की विकरालता में वृद्धि होगी, वैसे-वैसे इस पुस्तक की प्रासंगिकता भी बढ़ती जाएगी। खैर, इस अर्थ में हम यही चाहेंगे कि भविष्य में ये पुस्तक अप्रासंगिक ही हो जाए। बहरहाल, कुल मिलाकर कह सकते है कि ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषय की भावी विकरालता को आधार बना यह उपन्यास रचकर रत्नेश्वर सिंह ने न केवल हिंदी साहित्य को और समृद्ध किया है, बल्कि हिंदी के नवोदित लेखकों को भविष्य में वर्तमान से जुड़े कथाओं के सूत्र तलाशने के लिए मार्ग दिखाने का भी काम किया है।

पीयूष द्विवेदी, ईमेलः sardarpiyush24@gmail.com

 

पीयूष कुमार दुबे
पीयूष कुमार दुबे
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603
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