“जोया देसाई कॉटेज” जाने-माने कथाकार, उपन्यासकार और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका “विभोम स्वर” के संपादक पंकज सुबीर का हाल में प्रकाशित नया कहानी संग्रह है। इस संग्रह की शुरूआत “भूमिका”, “प्राक्कथन” या “अपनी बात” जैसी औपचारिकता से नहीं हुई है। उन्होंने सीधे अपनी कहानियों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचना बेहतर समझा है। यह रचना और पाठक को लेकर उनके आत्मविश्वास को प्रतिबिंबित करता है।
उनका कहानी कहने का अपना अंदाज है। कहानियों के शीर्षक भी उनके इस अंदाज को बयां करते हैं। संग्रह की पहली कहानी “स्थगित समय गुफा के वे फलाने आदमी” कोरोना काल की उस विभीषिका को सामने लाती है, जो शायद ही कहीं और उजागर हुई हो। संक्रमित हो जाने के डर से लाशों का अंतिम संस्कार करने का साहस परिवार के लोग भी नहीं कर पाते तो अन्य लोगों से कैसी अपेक्षा। इस काम को अंजाम देने के लिए चार लोग स्वैच्छिक रूप से रात-दिन जुटे रहते हैं। रात गए सेल फोन पर मदद के लिए आए उस महिला के कॉल को वे नजरअंदाज नहीं कर पाते जिसके पिता की मौत हो गई है, लाश पड़ी है और घर में उसके और उसकी मां के अलावा और कोई नहीं है। घर का दृश्य, मां-बेटी की स्थिति और व्यवहार, श्मशान में संस्कार के लिए लगी लाइनें, औपचारिकताएं और इस स्थिति में भी सरकारी इमदाद की चर्चा पाठक के रोंगटे खड़े कर देती है। यह कहानी पाठक के मन में ऐसी जुगुप्सा जगा जाती है जो कहानी पढ़ चुकने के बाद भी मन-मस्तिष्क में जमी रहती है।
मानसिक रोग विशेषज्ञ डॉ. संभव के पास जब मरीज राकेश कुमार को लाया गया तो उसके मुंह से “ढ़ोंड़ चले जै हैं काहू के संग” के अलावा और कुछ निकलता ही नहीं था। वह अपने आसपास की सारी दुनिया से कट चुका था और उक्त शब्दों के अलावा कोई दूसरी बात नहीं करता था। इस केस की जड़ में जाने के बाद उन्हें इन शब्दों का अर्थ मालूम पड़ता है, “किसी के साथ अपने गांव ढ़ौंड़ चले जाएंगे।“ इस मानसिक स्थिति के लिए जिम्मेदार बातों की पड़ताल करने पर सोशल मीडिया की जो भूमिका सामने आती है, वह वितृष्णा जगाने वाली है। सोशल मीडिया के हर ग्रुप में या तो गर्व के या फिर घृणा के भावों से भरी पोस्टों की भरमार होती है। ये पोस्ट सदस्यों के अपने विचारों या विचारधारा के अनुसार बहस क्या, बाकायदा युद्ध का रूप ले लेती हैं, विशेषकर तब जब गर्व या घृणा के लिए धर्म को विषय बनाया गया होता है। सच, आज सोशल-मीडिया पर यही सबकुछ तो हो रहा है। ऐसी बहसें दोस्तों को दुश्मन तक बनाए दे रही हैं। ये किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की मानसिक स्थिति को कहां तक पहुंचा सकती हैं, इसका जबरदस्त विश्लेषण इस कहानी में हुआ है।
प्रेमिका, दोनों प्रेम में अंधे होकर अपनी-अपनी हैसियत भूल जाते हैं। जूलीभूल जाती है कि वह जिले के सर्वोच्च अधिकारी की कुतिया है तो कालू यह कि वह गरीब किसान का पालतू कुत्ता है। कालू को अपनी हैसियत भूल जाने और गोबर को कलेक्टर के कर्मचारियों के सामने जुर्रत दिखाने का जो परिणाम मिलता है, वह रोंगटे खड़े करने वाला है। वस्तुत: यह कहानी शक्ति, अधिकार और सत्ता के मद में चूर कलेक्टर और शक्ति के सबसे अंतिम बिंदु पर खड़े उस कमजोर किसान की कहानी है जहां शक्ति एकदम शून्य हो जाती है।
बढ़ते मशीनीकरण और कंप्यूटरीकरण की वजह से हाथ का काम करने वाले कारीगरों और मजदूरों की कम होती जरूरत और उसके कारण उनके बेकार और बेरोजगार होने की समस्या को “रामसरूप अकेला नहीं जाएगा” कहानी में गंभीरता से उठाया गया है। यह समस्या रामसरूप जैसे लोगों के साथ ही नहीं है, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते प्रयोग से अन्य रोजगारों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। आनलाइन क्लासेस ने मानव शिक्षकों तक की नौकरी को खतरे में डाल दिया है। यह एक ऐसा गुबार है जिसमें सभी तरह के और सभी के रोजगार समाते जा रहे हैं। इस कहानी में जिस समस्या को उठाया गया है, वह अपनी जगह है, पर इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि मशीनीकरण, कंप्यूटरीकरण और आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस ने रोजगार के नए-नए अवसर भी उपलब्ध कराए हैं और शुरुआती दौर में जिन आशंकाओं ने सिर उठाया था, वे धीरे-धीरे कम होती जा रही हैं।
किन्नर बनने और किन्नर का जीवन जीने की द्रवित कर देने वाली कहानी है “नोटा जान”। किन्नरों की दुनिया रहस्यों और अंधेरों से भरी होती हैं। कितनी-कितनी बातें होती हैं, इनके बारे में। कितनी कहानियां हैं इनके बारे में, सच हैं या झूठ, कोई नहीं जानता। यह कहानी ब्रजेश से बिंदिया बने किन्नर की कहानी है। खुशी के मौकों पर लोगों के घरों में नाचने-गाने वाले, अभद्र इशारे करके हंसने-हंसाने वाले किन्नरों के दिल में छुपा दर्द कभी सामने नहीं आ पाता। अपने घरों से दूर रहने और अपनी पहचान छुपा कर जीने को मजबूर किन्नरों के सीने में भी दिल होता है, भावनाएं होती हैं, पर उन्हें जानने-समझने वाला कोई नहीं होता। यहां तक कि खुद के परिवार वाले भी उनसे दूरी बनाए रखते हैं। बिंदिया का यह कहना किसी भी संवेदनशील मन को पिघला सकता है कि “अपनी ही जिंदगी से भाग कर जाऊंगी कहां साहब? लौट कर तो कहीं नहीं जा सकती। सबके लिए अब मैं नोटा का बटन हो गई हूं, किसी काम की नहीं”।
संग्रह की दो कहानियां “उजियारी काकी हंस रही है” और “हराम का अंडा” समाज में घरेलू स्त्रियों की बदहाल जिंदगी पर मर्मांतक टिप्पणी की तरह है। उजियारी काकी के लिए हंसना मना है, उसका काम है अपनी तमाम इच्छाओं को दफन करके सिर्फ पति की सेवा करना। उसकी सबसे बड़ी गलती है बहुत सुंदर होना। शंकित और हीन भावना से ग्रस्त पति की तंजपूर्ण बातें सुननेऔर उसे नीचा दिखाने के लिए लाई गई सौत का दंश झेलने वाली उजियारी काकी की खोई हुई हंसी सिर्फ और सिर्फ मौत ही वापस लौटा सकती थी। “हराम का अंडा” कहानी में नूरी का हाल भी इससे बहुत अलग नहीं है। वह अपने पति को औलाद तभी दे सकती है जब उसका पूरा इलाज हो। पर उसके पति को उसका खर्चीला इलाज कराने से बेहतर लगता है कम खर्चीला दूसरा निकाह कर लेना।
पंकज सुबीर कुशल कहानीकार हैं। कहानी कहने का उनका अपना अंदाज है। वे गंभीर विषयों को भी रोचक बना देते हैं। उनकी मंजी हुई भाषा और जबरदस्त शिल्प-विन्यास कहानी का एक-एक शब्द पढ़ने के लिए मजबूर कर देते हैं। इस संग्रह की सभी कहानियां उनकी इस विशेषता को शिद्दत से रेखांकित करती हैं। पढ़ कर देखिए, हर कहानी आपसे कुछ ना कुछ ऐसा कहती हुई मिलेगी जो आपको सोचने – विचारने पर मजबूर कर दे।