• अभिषेक सूर्यवंशी

यह वक्त है कि हिन्दुओं को पंडित हरिमोहन झा और मुस्लिमों को मंटो को पढ़ते हुए अपने गिरेबान में झाँककर देखना चाहिये। सवाल यह नहीं है कि सर्फ एक्सेल के वीडियो में सही था या गलत। सवाल यह है कि आखिर हम इतने अंधे क्यों हो गए हैं कि धर्म के नाम पर हमारी कोई भी बजा कर चला जाता है। ऐसा पहली बार थोड़े ही हुआ है। ऐसा तो अक्सर होता ही रहता है। सिर्फ हिन्दुओं के साथ ही नहीं होता। यह समान रूप से मुसलमानों के साथ भी तो होता है।
सोचिये कि जब हर बार दिवाली पर मिठाई से दूर रहने की बात होती है और ईद पर सेवईयों को खाने की बात होती है तो क्या आपके मन में थोड़ी खटास नहीं भरती? क्या यह खटास सिर्फ हिन्दुओं या सिर्फ मुसलमानों के लिये हानिकारक है? जब आग लगेगी तो चोटी और दाढ़ी दोनों ही झुलसेंगे। लोग मुझसे कई बार जानना चाहते हैं कि मैं कट्टर हिन्दू क्यों नहीं हूँ। इसकी वजह है। वजह है कि हिन्दू मुस्लिम का फर्क बाद में समझा था। बचपन में अजान की आवाज को सुबह के अलार्म की तरह जाना है।
हिन्दू हूँ तो हिन्दुओं से सम्बन्ध बताने की जरूरत नहीं है। जरूरत है इस बात को जानने की कि मुसलमानों से नफरत क्यों नहीं है। बताता हूँ। बचपन में गाँव के सरकारी स्कूल में एक गुरूजी थे, मौलवी साहब। ठीक ठीक याद नहीं कि कौन सा पेपर पढ़ाते थे, लेकिन उनकी कक्षा में बैठकर पढ़ा करता था और यह पक्का है कि उनका विषय उर्दू नहीं था। छमाही और वार्षिक परीक्षाओं के दौरान उनके पैर छूने और फिर आशीर्वाद पाने की स्मृति है, आज भी।
सहरसा में एक गुरूजी हुए, रहमान सर। रूपवती स्कूल के पास डोमनलाल के पीछे उनका घर था। सुबह के चार बजे पिताजी उनके पास छोड़ आते थे और वे तुलसी के पत्ते और ग्रीन टी उबाल कर पीते हुए हमें अंग्रेजी पढ़ाते थे। उनके घर की छत पर तुलसी का पौधा लगा था, जिसके तले हर शाम एक दिया जलता था। पूछने पर कहते थे कि तुलसी हर घर में होनी चाहिये।
सहरसा नवोदय में पढ़ने वाला शायद ही कोई बच्चा अशदुल्ला ग़ालिब नाम से अनजान हो। अशदुल्ला सर बिना भेदभाव के सबको पढ़ाते थे और नवोदय की आधी सीटें उनके लड़के ले जाते थे। उनके लड़कों में कमर को नब्बे डिग्री के कोण पर मोड़ कर उनके पैर छूने वाले भी होते थे और हल्का सा झुककर हाथ को नाक तक उठाकर कर असलाम वालेकुम कहने वाले भी। न उनके हाथ कभी आशीर्वाद देने से पीछे हटते थे और न कभी वालेकुम असलाम कहने से। नवोदय में जाने पर मिले फैज़, शाहबाज और शादाब जो सात साल तक साथ रहे और यह कभी नहीं लगा कि उनके मन में कुछ बुरा हो।
इलाहाबाद में चार साल जिस मकान में रहा वह एक मुस्लिम व्यक्ति का मकान था, मोहम्मद ज़ुबैर। हर ईद और बकरीद में वे हमारे लिये अलग दावत रखते थे। होली में हमने मालपुए बनाए तो उन्होंने भी आकर भोग लगाया। उनकी छत पर जब हम नंग-धडंग रंगारंग हुड़दंग में लगे रहते थे, उस पूरे मोहल्ले से एक भी मुस्लिम आदमी यह पूछने नहीं आता था कि ऐसा क्यों हो रहा है। उलटे वे लोग अपनी खिड़कियों से झाँक कर मस्ती देखते रहते थे।
पटना में मेरी कक्षा में एक लड़का था, दिलहाम अहमद। एक बार होली की छुट्टी अगले दिन से होने वाली थी। क्लास के बाहर निकले तो दिलहाम बाबू गुलाल लिये खड़े थे। हमलोग रंगों से बचकर भाग रहे थे और दिलहाम हमें सराबोर किये जा रहा था। दिलहाम की गाड़ी पर पीछे बैठकर जाने किधर किधर किधर घूमा पटना में।
जब एन आई टी पहुँचा तो वहाँ भी बहुतेरे शिक्षक मुस्लिम मिले। जैसे नादिया मैम, समीर सर, और भी कई। बात आगे बढ़ते हुए बैंगलोर में मिले लोगों से होते हुए भोपाल के डाकसाब अबरार मुल्तानी और डॉक्टर साहिबा नाज़िया नईम जी के क्लिनिक में रुकेगी।
इतना लम्बा लिखने का मकसद यह बताना है कि समस्या यह नहीं है कि हिन्दू या मुस्लिम एक दूसरे से नफरत करते हैं। दरअसल समस्या यह है कि दोनों ही धर्मांध हैं। धर्म की बात आते ही अंधे हो जाते हैं। इसी का फायदा हर वह व्यक्ति या संस्था उठाएगी जो बेचने का काम करती है। क्योंकि एक बनिया वही दिखाता है जो उसके ग्राहक सबसे ज्यादा पसंद करते हैं।  अफ़सोस की बात तो यह है कि हम सबसे ज्यादा प्रेम नफरत से करते हैं।
हमारे बीच दबी हुई नफरत उनके लिये खाद-पानी की तरह है। बेहतर है कि धर्म के आडम्बर को मंदिर मस्जिद में छोड़कर आया जाय। न तो कोई भगवान इतना क्रूर होगा कि रंग से बचने वाले को पकड़कर रंग में गोंत दे और न कोई अल्लाह इतना जालिम होगा कि अगर किसी के शरीर पर रंग पड़ जाय तो उसके नमाज को खारिज कर दे।
जब धर्म ज्यादा हावी होने लगे तो मंटो और खट्टर काका को पढ़िये। रूह पर जमी काई जरा सी हटेगी तो उस ओर ध्यान दे पाईयेगा जो ज्यादा जरूरी है। रही बात सर्फ एक्सेल के वीडियो की तो इन्तजार करिये, वह बच्चा नमाज पढ़कर लौटेगा तो होली खेलेगा। तब तक के लिये चाहें तो सर्फ को चौखट से बाहर खड़ा रखिये।

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