होम कविता शिरीष पाठक की कविताएँ कविता शिरीष पाठक की कविताएँ द्वारा Editor - April 5, 2019 102 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet शिरीष पाठक 1. किसी रोज़ शाम को अकेले बैठ जाता हूँ मैं एक सुखी हुई ज़मीन को देखता हुआ जहां कभी पानी का सैलाब आ जाया करता था जहां कभी नाव चला करती थी देखता हूँ वहां मैं नाव का एक टूटा हुआ हिस्सा और सोचने लगता हूँ उसकी वीरानियों के बारे में क्या खुद को वो भी अकेला महसूस करता होगा क्या सोचता होगा और लोगो के बारे में जिनको न जाने कितनी बार मंज़िलों पे पहुँचा दिया होगा देखता हूं वहां एक पेड़ की टूटी हुई टहनी जो अब सुख रही है खुद को मिट्टी में समा रही है रोज़ थोड़ी थोड़ी अपनी हरियाली को न जाने कब का पीछे छोड़ चुकी है और अब बस इंतेज़ार में है खुद के अदृश्य हो जाने की अब यहां दूर दूर तक सिर्फ रेत है जिसको मैं मुट्ठी में भरना चाहता हूं मगर वो हर बार फिसल जाती है मैं मुस्कुराता हुआ देखता हूँ आसमान को और उन परिंदो को जो शायद लौट जाना चाहते हों अपने उन घरों को जो उजाड़ चुके है हम खुद के आशियानों को बनाने के लिए 2. तुम मेरी दुनिया की सबसे खूबसूरत कड़ी हो मैं कई बार देखता हूँ तुमको एकटक देखती हुई आसमान की ओर घिरते हुए काले बादल को देख तुम घबराती नही मुस्कुरा देती हो अचानक से एक बूंद तुमको छू जाती है तुम छुप जाती हो दौड़ कर एक अधूरे से इमारत में मैं भी आ जाना चाहता हूं वहां लेकिन फिर मैं खुद को भीग जाने देता हूँ तुम मुस्कुराती हुई देखती हो मुझे न जाने क्यों हर बार मैं सब कुछ भूल जाता हूँ तुमको मुस्कुराता देखकर मैं ठहर जाता हूँ बारिश में और बूंदों के बीच से देखता हूँ तुमको सुकून से सुबह और शाम के बीच का वक़्त न जाने क्यों काटने को दौड़ता है खाली पड़ी कॉफ़ी के मग को देखता मैं याद करता हूँ उसकी कई चुस्कियां जो हम साथ मे लिया करते थे मेरे जीवन की सबसे खूबसूरत सी कड़ी तुम हो जो मुझे बांधे रखती है उन पलों के साथ जहां हम सिर्फ मुस्कुराते है और उन लम्हों के साथ भी जिसमें हम न जाने कितनी मीठी यादें समेट लेते है मैं जीना चाहता हूं तुम्हारे साथ तुम्हारे लिए और तुम्हारे पास भी 3. तुम्हारे साथ से शाम का रंग बदल सा जाता है एक धुंधली सी शाम जो काली रात के पहले आती है तुम्हारे साथ भर से मनभावन हो जाती है तुमको मुस्कुराते हुए सुनना तब और भी अच्छा लगता है मुझको जब शाम में ट्रैफिक का शोर अपने चरम पे होता है कॉफ़ी की चुस्कियां लेती हुई तुम गुम सी हो जाती हो एक ऐसी दुनियां में जहां सिर्फ शांति फैली होती है तुम मिठास घोल देती हो अपनी बातों से जब भी कहीं से कोई कड़वाहट करीब आने लगती है तुम देखती हो एक किताब को जो तुमने कई बार पढ़ने की कोशिश की और जिसे तुम हर बार एक मुड़े हुए पन्ने पर भूल जाती हो पहले पेज पर तुमने अपना नाम अलग अलग भाषाओं में लिख दिया है लेकिन फिर भी न जाने क्यों तुम उस किताब को आज भी अपना नहीं कहती एकाएक कहती हो खिड़की के बाहर देखती हुई “चलो आज कहीं घूम आते है मौसम बहुत खुशनुमा है“ फिर दौड़ती हुई स्कूटी के साथ न जाने हम कई रास्ते बदल देते है और अंत में आ ठहरते है एक उफनाई सी नदी के किनारे नदी को देखती हो और फिर अपने कैमरे से उसकी तसवीरें कैद कर लेती हो तुम ढूंढती हो एक टूटी हुई नाव जो अब मिट्टी में आधी दबी पड़ी है बैठ कर उसपे कहानियां सुनाती हो उसके किसी ज़माने में नदी के संग बहने की और मैं खो जाता हूं तुम्हारी कई सारी कहानियों में तुम्हारा साथ हर शाम को लाल रंग से भर देता है जिसकी लालिमा तुम्हारे चहरे पर भी दिखती है तुम्हारी आँखों की चमक से तुम्हारी बातों से भी न जाने कैसे पर शाम का रंग बदल सा जाता है 4. कई बार शाम में अपने फ़ोन को टटोलता हूं इस उम्मीद में, आज तुम वापस लौट आई होगी मगर एक खामोशी दिखती है कई सवालों के बीच उम्मीदों से भर लेता हूँ खुद को जब पीछे से टोकता है कोई पलट के देखता हूँ तो सिर्फ भीड़ जिसमें न जाने कितने लोग एक दूसरे को बुला रहे होते है उम्मीद तब भी बढ़ती है नदी की लहरें टकराती है इस बात का भरोसा भी होता है, तुम ही हो जो नदी की लहरें बन आती हो मेरे पास और उन हवाओं में भी जो खुशनुमा बना देती है गर्म से घाट को उम्मीद तब भी आती है मन के अंदर जब पढ़ता हूँ कोई नई किताब हर किरदार में छिपी हुई होती हो तुम कुछ की बातों में और कुछ के किरदारों में उम्मीद इस बात की रोज़ हो रही बारिश में तुम भीग जाना चाहती हो भूल जाना चाहती हो खुद को भी और सिर्फ याद रखना चाहती हो मिट्टी पे पड़ने वाली बूंदों की खुशबू को और सबसे बड़ी उम्मीद मुझको होती है उम्मीद तुम्हारे पास होने की उम्मीद साथ में बैठ कॉफी की चुस्कियां लेने की और उम्मीद एक दूसरे को जान लेने की 5. कुछ अधूरा सा ढूंढता हूं मैं अंदर पढ़ने की कोशिश करता हूं उस फटे हुए पन्ने को आसमान को देखता हूं कई कई बार काले बादलों को आते जाते कहीं बारिश होती है तो रुक जाता हूँ मिट्टी को गौर से देखता हूँ सोखते हुए उन तमाम बूंदों को भी जो अक्सर मुझसे तुमसे होकर गुजरती है सवाल करता हूँ अब खुद से क्या चाहता हूं मैं तुमको देखना तुमको जान लेना या न जाने खुद को पा लेना तुम्हारे अंदर वक़्त को कई टुकड़ो में बांट दिया है मैंने कई हिस्सों में बंदिशों के साथ बंदिशे उस वक़्त को तुम्हारा बन जाने के लिए और फिर बंदिशे उसके थम जाने की मैं खुद को संभालता हूं रोज़ उन पलों में जब तुम साथ होती हो उन पलों में भी जब तुम दूर चली जाती हो मेरे कई सवालों को यूं ही अधूरा छोड़कर 6. खो जाता हूँ मैं कई बार रास्तों में मिलना नहीं चाहता हूं कहीं बैठ जाता हूँ किसी दीवाल का सहारा लेकर और सोचता हूँ उन ख्वाबों को जो पूरे नहीं हुए पास में उपजी घास पे हाथ फेरता हूं जो आज भी खुश्क है आज भी जहां सवाल रख छोड़ा गया है जिनके जवाब मिलते नहीं मुझको किताबों में सामने बहते हुए नदी में कुछ कंकड़ फेक के उनके डूबने का इंतज़ार भी करता हूँ उम्मीद जगाए रखता हूँ कोई कंकड़ तैरने लगे उछल के शायद उस पार पहुँच जाए खुद के करीब होना भी चाहता हूं कई बार एक अधूरी पढ़ी किताब को पूरा करना चाहता हूं लेकिन न जाने क्यों मैं खुद को थोड़ा और ढूंढने लगता हूँ उन किताबों में और हर उस किरदार में कुछ अपना सा ढूंढने लगता हूँ जो पूरे नहीं होते शाम में कई बार ओस को थाम लेता हूँ हाथों में इस उम्मीद में शायद आज चांद जल्द बाहर आएगा उसको आसमान में ढूंढने की कोशिश भी करता हूँ लेकिन ढूंढ पाता हूँ बस अनगिनत तारों को जो मेरे पास हमेशा होते है संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं शोभा प्रसाद की तीन कविताएँ सावित्री शर्मा ‘सवि’ की कविता – चुनावी रंग दीपमाला गर्ग की कविता – ज़िंदगी के इम्तहान कोई जवाब दें जवाब कैंसिल करें कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें! कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें आपने एक गलत ईमेल पता दर्ज किया है! कृपया अपना ईमेल पता यहाँ दर्ज करें Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment. Δ This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.