लगभग तीन वर्ष पहले ऐसा हुआ कि कोई घर नहीं आया! पांच-छह महीने पहले नया घर ख़रीदा था इस लिहाज से अपने घर में हमारी पहली दीवाली थी। फौज द्वारा मुहय्या करवाए फर्नीचर को छोड़ कर आए थे, इसलिए अपने घर में हर चीज़ नई ख़रीदी गई। सोफ़ा, डाइनिंग टेबल, बैड़ आदि-आदि यानी सब कुछ एकदम नया था। हाँ कुशन पुराने थे पर उनके कवर नए ख़रीद लिए थे इसी तर्ज़ पर रोजमर्रा में काम आने वाली कुछ अन्य चीज़ों का भी कायापलट कर लिया था। उस दिन घर में अपने बैस्ट वाले टेबल क्लॉथ्स बिछाए थे और ऐसा होता भी क्यों नहीं, साल भर के इंतज़ार के बाद जो आता है जगमग दीयों का त्योहार। सो हर चीज़ चमचमा रही थी।
सारा दिन मेहनत करके घर के भीतर-बाहर रंगोली भी बनाई। फूलों से घर का हर कोना महक रहा था। सेंटर टेबल तो इतनी सुंदर लग रही थी कि किसी का भी दिल चुरा ले। मंदिर भी अपनी सजावट से ऐसा लग रहा था जैसे किसी भी पल नए लिबास में सजे देवतागण कहीं घूमने ही ना निकल जाएं। सब कुछ ऐसा कि बस मैं लट्टु हुई जा रही थी।
जानती हूँ कि लक्ष्मी जी तो बस भाव की भूखी हैं। वे तो घूम-फिर कर, अपने स्वागत की तैयारी का जायजा ले कर चली जाएंगी फिर भी प्रत्येक बैड़ रूम में नए बैड़ कवर लगाए, शॉपिंग मॉल से ख़रीद कर लाई महंगी हवन सामग्री और अलग तरह की पैकिंग वाले कोयले की प्रजाति की चीज़ से दिन भर घर में ख़ुशबुएं महकाए रखीं थीं मगर पूजा का समय आते-आते हम अपने देसीपने पर लौट आए। पूजा की शुरुआत गोबर के कंडे पर हवन करने से ही हुई।
दोपहर से पहले परिवार के तमाम सदस्य, सज-धज कर, तैयार हो कर उनकी प्रतीक्षा में जुट गए जो बाद तक नहीं आए। दिन भर काजू-बादाम और मिठाइयों की तश्तरी आगंतुकों की राह तकती रही।
हम ठहरे आशावान प्रवृत्ति के इंसान, हम कहां हार मानने वाले थे! संध्याकाल लक्ष्मी पूजन के बाद प्रसाद को सुंदर-सुंदर कटोरियों में सजा कर फिर नए सिरे से अनजान मेहमानों का इंतजार करने लगे पर वो नहीं आने थे, सो नहीं आए।  
बाहर अंधेरा हो गया था। पटाखों कि भड़ाभड़ सुन कर मैं भी घर से बाहर चल दी। सोसायटी के पच्चीस, तीस, पैंतीस वर्ष के कुछ लोग, सोसायटी के बाहर, सर्विस रोड़ पर नाक पर मास्क लगा कर पटाख़े फोड़ने में व्यस्त मिले। (उस समय तक आम इंसान को मास्क  पहने देखना अजूबे जैसा लगता था।) कुछ लोग मेरी टोकाटाकी की आदत से नाराज़ हो कर और कुछ पटाख़े ख़तम होने पर मैदान छोड़ कर अपने-अपने घरों को चले गए। 
वापसी में सोसायटी के अंदर वाले सर्किल में मम्मियां अपने छोटे बच्चों के साथ व्यस्त दिखीं। वे अपने नौनिहालों के मन से ड़र मिटाने के लिए साथ ख़ड़ी हो कर उनकी हौसला अफजाई कर रही थीं। यहां छोड़े जा रहे पटाखों का धूंआ, हवा के कम बहाव के कारण, चारों ओर बने घरों के बीच वाले सोसायटी के चौक में धूंए का बादल बन कर ठहर सा गया था। मेरी समझाईश से उनका नाराज़ होना लाज़मी था। वर्ष भर का एक त्योहार उसमें भी पटाख़े ना चलाने देने पर कोर्ट ने फरमान जारी कर दिया था। जिसे लगभग प्रत्येक पटाखा प्रेमी इंसान ने अपने-अपने स्तर पर थोड़ा-बहुत अनदेखा ज़रूर किया परन्तु जहां मेरे जैसे पड़ौसी रहते हों जिन्हें वर्तमान में जीना आता ही नहीं वे सिर्फ भविष्य की चिंता में ही घुलते रहते हैं, ऐसे लोग बाक़ी सबका स्वाद भी किरकिरा करने पहुंच ही जाते हैं। वैसे भी दस बज गए थे, इस समय तक आतिशबाजी पर आधिकारिक तौर पर रोक लगा दिए जाने के आदेश थे। मेरे टोकने पर सब लोग नाराज़ होते हुए अपने-अपने घरों को लौट गए। वहां अकेले खड़ी मैं भी क्या करती, आख़िरकार मैं भी अपने घर आ गई !
वापसी में लड़ियों की सजावट के युग में दीयों की रौशनी से जगमग हमारा फ्लैट अलग ही दिख रहा था। वैसे भी अपना घर तो सबसे हसीन ही हुआ करता है फिर हमारा तो यह ऐसा वाला अपना घर था जहां घर ढ़ूंढ़ने से पहले हमने शहर के नाम के चयन पर ही बरसों का समय लगा दिया था। सेना ने पूरा देश घुमा-घुमाकर हमें अपने देश का नागरिक बना दिया है। हम राज्य और जाती से उपर उठ कर भारतीय हो चुके हैं।
मैने अपने आशियाने के बाहर बनी रंगोली और प्रज्वलित दीयों की बलैईयां लीं। प्रदूषण से बेहाल बाहर की हवा से पीछा छुडवा कर घर के भीतर आने पर पता लगा कि जन्नत किसे कहते हैं!
दूर रहने वाले मित्र और रिश्तेदार, दूरियों और ट्रैफिक की समस्या से घिरे हमारे घर ना आए सके! अपनी सोसायटी वाले पड़ौसियों को पटाख़े फोड़ने से रोक दिया था इसलिए अगली दीपावली पर भी यहां से किसी के द्वारा हमारी रंगोली और सजावट को सराहने की उम्मीद जाती रही। तनख्वाह वाली नौकरी में अलग से लक्ष्मी जी तो कभी आती हुई दिखी नहीं, बस दिवाली पर मेहमान ही आ कर ख़ुशी दे दिया करते थे, उस दिन वह ख़ुशी भी अपने हिस्से नहीं आई। वैसे यह एकदम अचानक नहीं हुआ, पिछले कुछ वर्षों से बदलाव झेलते-झेलते उस बार क्लीन स्वीप हो गया था।
सुबह से व्हाट्सअप के फोर्वर्ड़ मैसेजेज़ और मैसेंजर के संदेशों के लिए अपना व्यक्तिगत रूप से बनाया संदेश भेज-भेज कर अब कोफ्त होने लगी थी। इस बीच दो फोन ऐसे भी आए जो हमारी सजावट और रंगोली के पारखी हो सकते थे मगर उन्हें बेदर्द ट्रैफिक ने हमारी मेहनत को सराहने से रोक दिया था!
मिलावट के जमाने में अपने हाथों से बनाई मिठाई को हम सब अपने मोबाईल फोन पर संदेशों का जवाब देते और परिचितों से वीडियो कॉल पर बात करते हुए अकेले-अकेले बैठ कर खा रहे थे।
यह यक़ीन होने पर कि बहुत देर हुई, अब कोई नहीं आएगा, मन उदास हो गया। बस उसी पल विदेश में रह रही बिटिया का फोन आ गया। वीडियो कॉल पर उसे पूरे घर की सजावट दिखाई, मंदिर में उससे हाथ भी जुड़वाए। अंत में मिठाईयों और मेवों की तश्तरी तक पहुंच कर पांव रूक गए। भरे मन से मैने उसे बताया कि इस बार दीवाली पर कोई हमारे घर नहीं आया! 
‘तो आप ही फ्रेंड्स या रिलेटिव्स के यहां चली जातीं!’
बिटिया की बात सुन कर मैं हैरान रह गई। पति अपने पद पर सीनियर हो गए थे इसीलिए लोग-बाग हमारे घर आया करते थे। हमें भी जाना चाहिए, ऐसा कभी सोचा नहीं था। उस वक़्त ग्यारह बजने में लगभग दस मिनट बाक़ी थे। नीचे एक बार फिर से पटाख़े चलाने की आवाज़ें आने लगीं। सोचा कि एक बार फिर नीचे जाऊं, अपना फ़र्ज़ अदा करूं पर तभी आईडिया आया कि पुलिस को फोन करती हूँ।
उसी समय मेहमानों के इंतजार में ठंड़ी हो गई प्रसाद की कटोरियों ने मुझे रोक लिया। मुझे भी लगा कि ये छोटे-छोटे से पटाख़े ही तो हैं, इनसे क्या घबराना! मैने फटाफट कटोरियों को बड़े थाल में सजाया, मिठाई की तश्तरी सबसे उपर रखी और वहां पहुंच गई जहां धूंए के गुबार में मेरे अनजान पड़ौसी खड़े थे। 
कुछ ने मुझे लौटता देख कर मुंह बिचकाया, कुछ ने पीठ घुमाई पर थोड़ी देर बाद सब बच्चे-बड़े, प्रसाद और मिठाईयां खा रहे थे। कुछ देर सबने अलग-अलग एंगल से आसपास की रौशनाई देखी और फिर माहौल इस तरह बदला कि थोड़ी ही देर में वहां अंताक्षरी की दो टीम बन गईं। पटाख़े फोड़ना बंद हो गया था। देर रात हम अपने-अपने घर लौटे। दो नई बनी सहेलियां, बर्तन रखवाने मेरे घर तक आईं। दीयों और रंगोली की जम कर तारीफ हुई! लक्ष्मी जी कब आईं, कब छुप कर घर में बैठ गईं पता ही नहीं चला।

10 टिप्पणी

  1. अच्छा आलेख, अपनी खुद की बनाई दुनिया से बाहर निकलने की बात को बहुत अच्छे से बयान किया

  2. अच्छा लिखा है, अपने दायरे में आत्ममुग्ध होकर रहने से बेहतर है दायरा तोड़ कर सबसे निश्चल मन से मिलना। दुनिया आपकी अपनी हो जाती है ।

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