प्रतिष्ठित पत्रिका ‘तद्भव‘ के संपादक अखिलेश की लेखकीय पहचान नवें दशक के एक कहानीकार के रूप में हुई और वे चर्चित भी हुए। उनकी कहानियों में विभिन्न पारिवारिक- सामाजिक मुद्दे और निम्न-मध्यवर्गीय अनेकानेक विडंबनाएँ हैं परन्तु केन्द्रीय कथ्य राजनीतिक गतिविधियाँ हैं जिनमें ऐसे पात्रों की निर्मिति हुई है जो सत्तासीन होकर भ्रष्टाचार में लिप्त हैं या वे छुटभैये नेता हैं जो सत्ता के इर्द गिर्द मँडराते हैं। उनकी कोशिश ऐसे संस्थानों से जुड़ने की होती है जहाँ वे मालामाल हो सकें। उनके लिए राजनीतिक धर्म देशोत्थान या जनमानस की सेवा नहीं अपितु खाने कमाने और लूट-खसोट का माध्यम है। 
कहानीकार ने उन संदर्भों को भी कथ्यरूप में प्रस्तुत किया है जिनसे भारतीय लोकतंत्र दागदार होता है तथा बजरिए षड्यन्त्र उठते प्रतिरोध-स्वरों को कुचल देना पाप नहीं होता। वस्तुतः प्रचलित खाँचे-जाति, धर्म सम्प्रदाय और विभिन्न विमर्शों के व्यामोह में न पड़कर अखिलेश ने भारतीय लोकतंत्र की विकृतियों, मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी, स्त्री-पुरुष संबंधों में आये बदलाव, सम्पत्ति लोलुपता, पारिवारिक खींचतान और सत्ता-संस्थानों की अराजकता आदि की तल्ख अभिव्यक्ति की है जिससे उनकी कहानियाँ मात्र समस्याओं की आख्यान नहीं, सभ्यता-समीक्षा प्रतीत होती हैं।
युगीन परिवेश-समाज का सच भले एक हो किन्तु रचनाकारों की वैयक्तिक दृष्टि, वैचारिकी और विवेक के अनुसार उनकी कृतियों के किरदार, कथाविन्यास और उलकी अभिव्यक्ति की रवानगी औरों से भिन्न होती है। इन्हीं विशेषताओं से रचनाकार की अलग-थलग पहचान बनती है। अखिलेश, कथा पात्रों के संवेग, आवेग, अन्तर्विरोध, द्वन्द्व के उथल-पुथल तथा परिवार-समाज के विधि-विधानों, मान्यताओं की क्रिया-प्रतिक्रिया को इतनी सूक्ष्मता से पकड़़ते हैं कि बहुत ही सहजता से कथावस्तु पृष्ठ-दर-पृष्ठ विकसित होती प्रतीत होती है। संभवतः इसीलिए अखिलेश की कहानियाँ  लम्बी होती हैं। कथ्य के अनुपात में इतनी दीर्घता का विधान शायद ही दूसरा रचनाकार कर सके। सघन बुनावट, अनेकानेक अन्तःसूत्रों के संग्रथन और कथ्य की बहुआयामी  अभिव्यक्ति उनकी कहानियों को ख़ास बनाती हैं और पठनीय भी।
विश्व-साहित्य की परिधि में स्त्री-पुरुष संबंधों की ही दास्तान होती है। यह और बात है कि किसी रचना में इन संबंधों को केन्द्रीयता मिलती है तो अन्य में इनकी उपस्थिति देश-समाज की प्रधान समस्याओं के इर्द-गिर्द होती है। व्यक्ति, एक समाजिक इकाई है तो स्त्री-पुरुष परिवार नामक संस्था के अनिवार्य कारक। किन्तु, जब स्त्री अध्ययन की दृष्टि से किसी लेखक की कृतियों का मूल्यांकन करना हो तो यह पड़ताल ज़रूरी है कि रचनाकार सदियों से पीड़ित औरत के प्रति कितना संवेदनशील है? क्या वह स्त्री के दुःखते रग का स्पर्श करने और मरहम लगाने में सफल हुआ है? क्या उत्पीड़क के प्रति आक्रोशित है तथा उसके अधिकारों के प्रति संघर्षशील है? वस्तुतः दृष्टि से ही दृश्य बदलता है, अक़्स साफ़ निखरते हैं और तभी मूल्यांकन में वास्तविक न्याय हो पाता है।
‘स्त्री‘ और ‘राजनीति‘  केन्द्रित कहानियाँ-‘यक्षगान‘, ‘जलडमरू मध्य‘, ‘अगली शताब्दी के प्यार का रिहर्सल‘, ‘पाताल‘, ‘बायाडेटा‘ आदि की यहाँ समीक्षा करना उचित होगा। यद्यपि, अखिलेश की कहानियों में कथा वस्तु बहुपर्तीय सघनता और बहुआयामिता में विकसित होती है, कई कथ्य एक साथ होड़ करते लुकाछिपी करते मालूम होते हैं अतः उन्हें विषयवार विभाजित करना कठिन लगता है। फिर भी, कहना न होगा कि रचनाकार, स्त्री को एक अनिवार्य सामाजिक इकाई के रूप में देखता है तथा उसके वज़ूद को भिन्न-भिन्न परिस्थिति और संदर्भों में रेखांकित करना चाहता है। वह, कहाँ कैसे शोषण की शिकार होती है, कहाँ छली जाती है और कहाँ वह स्वयं चतुर सुजान बनकर लाभार्थी होने का उपक्रम करती है; इन जटिल स्थितियों-विसंगतियों का अखिलेश निस्संग व तटस्थ प्रस्तुति करते हैं ताकि नारी की दशा-दिशा का चित्रांकन यथार्थवादी और अधिक सुस्पष्ट हो। जाहिर है, पितृ-सत्तात्मक समाज के लिए स्त्री आज भी भोग्या है, वस्तु है, खिलौना है जिसका इस्तेमाल वह मन-मुताबिक करना चाहता है। दूसरी तरफ, स्त्रियाँ भी बदली हैं, सशक्त हुई हैं, किन्तु दुखद यह कि वे स्त्रीत्व की सटीक अवधारणा से अपरिचित बराबरी की होड़ में पितृ-सत्ता के ही नये रंग रूपों को गले लगा रही हैं और प्रवंचित हैं। 
 ‘यक्षगान‘ कहानी कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर प्रभावित करती है। प्रारम्भ में लगता है यह प्रेम कहानी है जब नाबालिग सरोज पाण्डेय छैलबिहारी के प्रेमपाश में फँसकर घर से भागती है परन्तु जल्द ही पूर्वाद्र्ध की यह प्रेमकथा कहानी की भूमिका मात्र रह जाती है। वस्तुतः वह एक राजनेता के काले कुचक्र में में फँसा ली जाती है। उसके पाखण्डी प्रेमी के अपराधी मित्र भोला और परमू उसे अपने संरक्षक सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष गोखनाथ को बलपूर्वक सौंप देते हैं। कुटिल नेता पहले सरोज के बालिग होने का फर्जी प्रमाण पत्र बनवाता है फिर महंत के सुरक्षा चक्र में उसके साथ दुष्कर्म करता है। तत्पश्चात, अन्य शोहदों के भी हवश की शिकार वह जब-तब होती है। लेकिन, सामाजिक ज़वाबदेही से बचने के लिए छैलबिहारी की विवाहिता बताकर किराये के एक कमरे में रखा जाता है। कहानी में मोड़ तब आता है जब रचनाकार छुटभैये नेता श्यामाचरण को कथावस्तु के मध्य में सूत्रधार बना देता है। तदुपरान्त कहानी का रंग राजनीतिक हो जाता है और तब एक दुःखद व कटु यथार्थ उजागर होता है कि राजनेत्रियाँ भी स्त्री जाति के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। वे पित-सृत्ता की चालाकियों का अनुकूलन कर ठीेक वैसा ही व्यवहार करती हैं जैसे राजनेता करते रहे हैं। उनकी स्त्री के प्रति सहानुभूति भी छलावा होती है।
कहानी में, विपक्ष पार्टी की मीरा यादव सरोज पाण्डेय को अपराधियों के चंगुल से मुक्त कराकर राजनीतिक रोटियाँ बेलने का भरपूर प्रयास करती हैं यह विचार किए बगैर कि बलात्कार संबंधी तीखे सवालों का जवाब देना लड़की के लिए कितना पीड़ादायी होगा; तत्परता से पत्रकार वार्ता आयोजत करती हैं। इसीलिए, समाचार पत्रों में उस मामले को प्रमुखता  मिलने पर शाबाशी की तमन्ना में सहर्ष अपने राजनीतिक आका के यहाँ पहुँचती हैं, किन्तु वहाँ जब गालियों से उनका स्वागत होता है तो वे तुरंत पैंतरा बदल सरोज को गायब करा देती हैं और उसके पिता को चंद राशि देकर टरकाती हैं। फिर, सत्ता पक्ष के गोरखनाथ और विपक्ष की मीरा यादव में कोई फर्क़ नहीं रह जाता विषमलिंगी होते हुए भी दोनों सरोज का नाम आने पर गालियाँ बकते हैं। श्यामाचरण लाख प्रयत्न के बाद भी नहीं मालूम कर पाता कि वह ज़िन्दा है या मार दी गई क्यांेकि लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ ‘पत्रकारिता‘ की भी भूमिका निष्पक्ष नहीं रही। उनकी निष्ठाओं के केन्द्र अलग-थलग होने से सरोज का मामला येन केन प्रकारेण दब जाता है। परिणामस्वरूप, न सरोज मिलती है  न उसके अपराधियों को सज़ा। अदालत में 164 के बयान को ख़ारिज करने वाली सरोज असली थी कि नकली, यह भी सुनिश्चित नहीं हो पाता। अलबत्ता, रचनाकार जादुई यथार्थवाद और फंतासी के सहारे सरोज के कुछ पत्रों का विनियोजन करता है जिनसे उत्पीड़न के वे बिन्दु अधिक स्पष्ट होते हैं जो लगभग छूट से गये थे। इसीलिए, सरोज उसमें संशोधन की माँग करती है। माता-पिता के लिए जन्मना शुभ सरोज विकृत राजनीति, अपराधीकरण, भ्रष्ट लोकतंत्र और पशुवृत्ति के पु्रुषों के कारण कलंक गाथा बनती है। एक अभिशप्त बलात्कृता अपमानित नारी।
लम्बी कहानी ‘जलडमरू मध्य‘ सघन औपन्यासिक कथाविधान के कारण बहुचर्चित रही है। अखिलेश कथानक को विस्तार देने में सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं, कथ्य व्यक्तिगत हो या सामाजिक। वैसे, वैयक्तिक संघर्ष में भी समाज की ही भूमिका प्रबल होती है। कथापात्र- नई पीढ़ी के प्रतिनिधि चिन्मय (पति) और मंजीत (पत्नी) के माध्यम से कहानीकार तीन पीढ़ियों की कथा बुनता है जिसके केन्द्र में मुख्य पात्र के रूप में पिता सहाय जी और माता कौशल्या हैं। फिर भी, तीन पीढ़ियों का चरित्रांकन, व्यक्तित्व विश्लेषण, जीवन-मूल्य और उनके समय की आर्थिक-सामाजिक स्थितियों की सघन बुनावट कहानी में हुई है। एक पीढ़ी चाची की, दूसरी सहाय जी की और तीसरी पीढ़ी चिन्मय और मंजीत की है। गाँव में सहाय जी अपनी चाची के मृत शरीर को लेकर जब घर लौटते हैं तो पड़ोसी मुँह ढककर गड़े खजाने पाने की लालच में पूरा घर तहस-नहस कर दिये होते हैं और वर्तमान में जब सहाय जी इलाज के लिए दिल्ली जाते हैं तो चिन्मय और मंजीत योजनाबद्ध तरीके से चिरैयाकोट का मकान बेचने का उन पर दबाव बनाते हैं। अन्ततः वे राजी होते हैं, यह कहते हुए कि जो चिरैयाकोट से नाता तोड़ेगा, वह दुःख भोगेगा। लेकिन उनके पु़त्र और पुत्रवधू पर कोई फर्क नहीं पड़ता।  
एक कथासत्य यह भी कि संपत्ति की सुरसामुखी लालसा पुरानी पीढ़ी में भी थी परन्तु  तब चोरी होती थी और अब दबंगई- छिनैती। तब, बाहरी लोग घर में सेंध लगाते थे, अब अपनी ही संतान कब्जा कर लाचार बना देती है। सहाय जी जैसे वरिष्ठ पीढ़ी के निजी धन संपत्ति और स्वतंत्रता का दिन-दहाड़े अपहरण होता है। ज़ाहिर है, गाँव, शहर और महानगर के अनगिनत सूत्रों को एक कथा में पिरोना कहानीकार के लिए आसान नहीं रहा होगा। कथावस्तु की दृष्टि से कहानी का शीर्षक बहुत ही सटीक और सार्थक है। भौगोलिक अभिप्राय में भी कई पीढ़ियों के कथा तन्तुओं को जोड़ती मजबूत करती कहानी पाठक के दिल को गहराई से छूती है।
स्त्री-पुरुष के संबंधों की दृष्टि से भी यह कहानी विचारणीय है। कहानी में रचनाकार की यही धारणा पुष्ट होती है कि पुरानी पीढ़ी के दाम्पत्य जीवन मे प्रेम, विश्वास, आस्था, पवित्रता और समर्पण जैसे विशेष भाव थे, वे धीरे-धीरे भाप बन रहे हैं। वर्तमान युग में भी ‘विवाह‘ संस्था का अस्तित्व है मगर उसकी पवित्रता की अहमन्यता समाप्त हो चुकी है। भौतिकता की बढ़ती अपरिमित भूख, स्वार्थलिप्सा, स्त्री-पुरुष की बराबरी का दावा, कार्यस्थलों पर उनका साथ-साथ होना, पश्चिमी जीवन शैली के प्रति रुझान आदि के कारण पति-पत्नी के संबंधों में समर्पण और ईमानदारी का क्षरण हुआ है। चिन्मय का आरोप होता है कि मंजीत अपने बॉस के साथ मुंह काला करती है और मंजीत का आरोप होता कि वह अपने सहकर्मियों की जिन्दगी बर्बाद करता है। ज़ाहिर है, पश्चिमी अन्धानुकरण, समानता का नारा और प्रतिद्वंद्विता के कारण यौनशुचिता की अवधारणा टूटी है। पति-पत्नी का झगड़ना, लात घूसा करना और एक-दूसरे के प्रति संशयग्रस्त होना अगर वैवाहिक जीवन का आधुनिक यथार्थ है तो खतरनाक है। ऐसे में यह संस्था स्थायित्व का आश्वासन नहीं दे सकती और न ही लम्बी ख्ंिाच सकती है। महानगरीय जीवन-यथार्थ के बरक्स रचनाकार कस्बाई और ग्रामीण जीवन के पारस्परिक संबंधों का जैसा वितान खींचता है उससे यह साफ़ संकेत मिलता है कि आत्मनिर्भर स्त्रियों के जीवन-मूल्य काफी बदल चुके हैं। उनका जीवन इकहरा न होकर जटिल और प्रतिद्वन्द्विता की होड़ में उलझ गया है, प्रस्तुत कहानी का कथ्यार्थ यही है। किन्तु सामाजिक यथार्थ का भी यही सौ फीसदी सच है, ऐसा कहना बेमानी होगा।
‘अगली शताब्दी के प्यार का रिहर्सल‘ कहानी में जिस कथ्य की प्रस्तुति हुई है वह यह कि अब प्रेम सचमुच का नहीं होता, योजनाबद्ध तरीके से प्रेमी-प्रेमिका होने का मात्र अभिनय किया जाता है। अमीर बाप की बेटी दीपा जितेन्द्र से प्यार का अभिनय करती है क्योंकि वह पिछली दफा आई ए एस के साक्षात्कार तक पहुँचा था और इस बार भी। जितेन्द्र भी उसके अभिनय के जादू से धीरे-धीरे उससे प्यार करने लगता है। किन्तु, तिबारा सफलता न मिलने पर दीपा का नज़रिया उसके प्रति बदल जाता है। पिता, राजनीतिक लक्ष्यसाधन हेतु जिस परिवार में उसका विवाह करना चाहता थे ऐसे लड़के से जिसके ‘‘बाल उड़ गये थे और तोंद निकल आयी थी‘‘ वहाँ असफलता मिलने पर जब वे जितेन्द्र से विवाह के लिए राजी होते हैं तो वही मना कर देती है स्वयं रूपमती और योग्य न होने पर भी। वस्तुतः पिता-पुत्री दोनों ही विवाह संस्था को  महत्वाकांक्षा-पूर्ति हेतु इस्तेमाल करना चाहते हैं। वैसे, यह सोच प्राचीनकाल से सक्रिय रही है। राजपरिवारों में भी विवाह के द्वारा शक्तिसंवद्र्धन किया जाता रहा है। कहानी का एक निहितार्थ यह भी कि धनी युवतियाँ अर्थ-मद में युवकों को खिलौना समझती हैं। उनके तिकड़म में लड़के फँसकर  प्रायः बर्बाद हो जाते हैं। ज़ाहिर है, स्त्रीवादी दृष्टि से यह कहानी नहीं लिखी गई है। कहानी की जैसी बुनावट हुई है उसमें एकांगीपन अधिक लगता है। इकहरी दृष्टि का प्रतिफलन अर्थात् पुरुषवादी दृष्टि की प्रतिश्रुति है यह कहानी और कहानी का कथा विन्यास। यह तथ्य अधिक सत्य है कि ऐसा व्यवहार युवकों द्वारा अधिक होता है। वर्तमान में समस्या रूप में धर्मान्तरण के जो मामले प्रकाश में आ रहे हैं, उनमें भी अग्रणी भूमिका पुरुषों की ही है। हालाँकि, कहानी का सच एकदम झूठा हो, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता।
अखिलेश, प्रायः अपने जीवनानुभवों के आसपास कथाभूमि निर्मित करते हैं, इसलिए उनकी कहानियों में आनुभूतिक प्रामाणिकता का भावबोध होता है। ‘चिट्ठी‘ और ‘मुक्ति‘ ये दोनों कहानियाँ निम्नमध्यमवर्गीय शिक्षित बेरोजगार युवाओं पर केन्द्रित हैं। ये,  लाखों उन युवकों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो उत्साहपूर्वक सपने संजोये किसी विश्वविद्यालय में दाखिला लेते हैं। तब, उनके पिता के लिए भी दुर्ग का द्वार खुलता हुआ प्रतीत होता है। लेकिन, डिग्री लेने के उपरान्त भविष्यहीनता की निराशाजनक स्थिति में वे हताशा में जीते हैं और बेचारगी के शिकार हो जाते हैं अपनी ही निगाह में। औरों की निगाह में भी उनका अस्तित्व निठल्ले, नक्कारे और बेरोजगार का होता है। 
वर्तमान शिक्षा प्रणाली बेरोजगारों की लम्बी कतार खड़ी कर रही है। हल, कुदाल छोड़कर गरीब किसान तक की नई पीढ़ी शिक्षा के द्वार पर उत्साहपूर्वक पहुँचती है। लेकिन, शिक्षाप्राप्ति के उपरान्त उन्हें बोधिसत्व होता है कि उनकी शिक्षा रोजगार देने का कोई आश्वासन नहीं देती। विडम्बना यह कि तब वे पैतृक धन्धे से भी नहीं जुड़ पाते। उनके लिए सामाजिक जीवन असह्य लगता है और निरापद घर भी काँटों का बाड़ा बन चुभता है। निराशान्धकार में उनमें आत्महत्या तक का विचार कौंधता है। चैन पाने या पीड़ा को झुठलाने हेतु वे नशे का सहारा लेते हैं, परन्तु नशे में उनका दुःख और दहकने लगता है फिर कुछ भी गोपन नहीं रह जाता। 
अक्सर, विश्वविद्यालयी शिक्षा से मुक्त हुए युवाओं की ज़िन्दगी में ऐसे क्षण आते ही हंै जब वे व्यथा- सागर में डूबने के लिए अभिशप्त होते हैं। विदा होने के पूर्व विनोद की कुटिया में सभी मित्र शराब के नशे में अस्तित्व और अर्थसंकट की समस्याओं का त्रासद बयान करते हैं। मदन के बोल होते हैं-‘‘रोज मेरी मृत्यु होती है। रोज कई-कई बार मेरी मृत्यु होती है। कोई मुझसे पूछता है, तुम क्या करते हो और मैं मर जाता हूँ।‘‘ जब, अर्थाभाव की आशंका अनके सर पर मँडराती है तब वे सब फूट-फूटकर रोते हैं। ‘चिट्ठी‘ कहानी का अंतिम अंश बहुत कारुणिक लगता है। उत्तमपुरुष का कथन होता है, ‘‘एक दूसरे से विदा होने के पूर्व यह वादा किया गया था कि यदि कोई सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को खत लिखेगा………..लम्बा समय बीत गया इन्तजार करते किसी दोस्त की चिट्ठी नहीं आयी। मैंने भी…..कोई चिट्ठी नहीं लिखी।‘‘
‘‘मेरी टूटी हुई हड्डियाँ देखिए। ये मेरी हड्डियाँ नहीं टूटी हैं, इस देश के लोकतंत्र को फ्रैक्चर हो गया है। मेरा अपाहिज़पन दरअसल इस देश के शक्तिपीठों की क्रूरता और न्यायप्रणाली की विकलांगता को दर्शाता है।‘‘ यह कथन ‘श्रृंखला‘ कहानी का केन्द्रीय बिंदु है। इससे कहानीकार का यही मंतव्य स्पष्ट होता है कि लेखक लोकतंत्र का प्रहरी होता है। वह, लोकतंत्र को जब तानाशाही में बदलते देखता है तो उसकी विकृतियों को रेखांकित करने में नहीं हिचकता। जहाँ अभिव्यक्ति की आजा़दी पर ग्रहण लगा हुआ हो, वह भयानक स्थिति होती है। ज़ाहिर है, ऐसे लोग निरापद नहीं रह पाते, जिनकी विचारधारा या स्वर सत्ता संस्थानों के विचार से मेल नहीं खाते।
अर्बन नक्सलवाद की अवधारणा का विकसित होने का एक आधार यह भी हो सकता है। अतः बुद्विजीवियों को शक की नज़र से देखा जाना, उन्हें तरह-तरह से नुक़सान पहुँचाना और कारागार में कैद करवा देना बड़ी बात नहीं। इसी क्रूरता को फोकस करने के लिए कहानीकार फैंटेसी के मिश्रण से  जिस लोकतांत्रिक यथार्थ की बुनावट करता है, उसके प्रतिनिधि लेक्चरर रतनकुमार हैं जिनसे अप्रिय कॉलम लिखवाकर कहानीकार उन लोगों के पक्ष में खड़ा होता हुआ दिखाई देता है जो बुराइयों से लड़ते हुए नाना प्रकार के कष्ट भोगते हैं। विडम्बनापरक यह कि न्यायालय भी उन्हें न्याय नहीं दिला पाता क्योकि ‘‘गुनाह से सजा़ नहीं मिलती, सजा़ गुनाह के सुबूत से मिलती है। सुबूत के कारण ही अनेक गुनाहकार आजाद हैं और लाखों बेगुनाह जेल के पीछे।‘‘
बेहतरीन कहानी ‘वजूद‘ बौद्धिक सम्पदा के अधिकार पर एक तीखा सवाल है। आयुर्वेद का संबंध पौधों से है जिनका स्रोत जंगल होता है और वहाँ से जुड़े होते हैं आदिवासी गाँव-गँवई के लोग। परन्तु विडम्बना यह कि उस वानस्पतिक सम्पदा पर अमीर, दबंग और जमींदार जैसे लोग आधिपत्य जमा लेते हैं तथा डरा धमकाकर वहाँ के गरीबों का शोषण करते हैं। उनसे अधिकाधिक श्रम कराते हैं इस सतर्कता के साथ कि वे कूपमण्डूक बने रहंे, उनके ज्ञान में तनिक भी वृद्धि न हो। 
समकालीन महामारी में निश्चित ही आयुर्वेद का महत्व बढा है अतः इस कहानी के माध्यम से यह संदेश पाठकों तक पहुँचेगा कि इस करोबार में भी श्रमिक उत्पीड़न-शोषण के शिकार हैं।  कहानी के वैद्यराज जैसे लोग अस्सी बिगहा खेत और बाग बगीचे के मालिक बन जाते हैं और रामबदल जैसे हरवाह पीढियों तक हरवाह ही बने रहते हैं। मुख्य पात्र जयप्रकाश किशोरावस्था में अपने पिता से बोला था कि ‘‘तुम भी दवाई के बार में जानते हो तो क्यों नहीं बैद महराज की तरह बन जाते वैसे ही कुत्र्ता पहनो वैसी ही धोती। त्रिपुण्ड लगाकर वैसी ही मूँछ रख लो।‘‘ लेकिन बहुत जल्द ही उसे यातनाप्रद भीषण अनुभव होता है। उसके पिता के शरीर से महक आने मात्र से बैदराज भड़क कर बोले थे-‘‘इस कुत्ते की औलाद में इतनी हिम्मत कि महकेगा….इस सुअर को लगाओ जूते…..मूत दो इसके मुँह में……‘‘ हमलावर भीड़ से वह पिटता रहा और फिर उसे तलैया में फेंक कर लोग चले गये। जिस किसी तरह जयप्रकाश पिता के शव को घर लाया था। 
उसने देखा था कि दहशत में अन्य घरों के दरवाजे बन्द हो चुके हैं। यह अतीत उसका कभी पीछा नहीं छोड़ता। जबकि, उसका बेटा कोमल अमीर बनने की ख्वाहिश रखता है और बेटी कटोरा महकना चाहती है। कहानी के अंत में जब जयप्रकाश के हुनर से आकर्षित तमाम सौदागर उसके समक्ष प्रलोभनों के प्रस्ताव रखते हैं तब पिता के साथ घटित दर्दनाक घटना की स्मृति से उसके मुँह से मात्र चीख निकलती है। बैद की पोती उसके बेटी को धमकाती भी है कि जैसा इसके बाबा के साथ हुआ था, ‘इस साली की भी वही गति होगी‘। कहानी में राजनीतिज्ञों के काले करनामों पर भी तंज है। एक बीमार मुख्यमंत्री जंगल में भैषजोद्यान लगवाता है और विशाल अस्पताल बनवाने के लिए शिलान्यास करता है। मगर उसके हटते ही अगले मुख्यमंत्री को शिलापट्ट में पूर्वांकित नाम से चुभन होती है और वह योजना ठंडे बस्ते में चली जाती है। यह कथन असत्य न होगा कि भारतीय राजनीति में देश और जनता के लिए योजनाएँ नहीं बनतीं, प्राथमिकता व्यक्ति और पार्टी की होती है। 
‘शापग्रस्त‘ कहानी के विषयवस्तु और बुनावट में खिलन्दड़ापन अधिक है। इसमें सीधे-सीधे कोई सामाजिक, पारिवारिक समस्या का दिग्दर्शन नहीं होता, मानसिक समस्या ‘सुख की कामना‘ है। दरअस्ल सुख, आनुभूतिक सच्चाई है, पदार्थगत सत्य नही।  भ्रष्टाचार, लूटखसोट अधर्म आदि में संलग्न व्यस्त मनुष्य के लिए तो यह सचमुच दुर्लभ है। आध्यात्मिकता के लोप से व्यक्ति सुख के लिए जितना भी संसाधन जुटाए, उसे सुख मयस्सर नहीं होता। कथानायक स्वयं कहता है, मेरा सुखी होना किसी भी तरह संभव नहीं क्योंकि मेरी आत्मा खो गई है।… लोक निर्माण विभाग के दफ्तर, सड़क पर या किसी यात्रा में, पता नहीं कहाँ मैंने उसे अपने से अलग रखा और वह खो गई।‘‘ प्रकारान्तर से कहानी  सत्यता, ईमानदारी और मनुष्यता की वकालत करती है क्योंकि आज की तारीख में मनुष्य छल- छद्म में जीने का अभ्यस्त हो गया है। समाज की दृष्टि में लोक निर्माण विभाग में कार्यरत प्रमोद वर्मा पत्नी और बेटी के साथ सुखमयजीवन का भोक्ता है। उनके विभाग में सारे कुकर्म स्वीकार्य होते हैं लेकिन ईमानदारी क़तई नहीं। अतः वह दुःखी है और सुख की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के जोखिम उठाता है ताकि जड़ता से वह मुक्त हो सके। वह नौकरी तक छोड़ देता है। 
अंततः। कहना न होगा कि अखिलेश की कहानियाँ भारतीय राजनीति, राजनीतिज्ञों के काले कारनामे, लोकतंत्र की बिगड़ती स्थिति, सत्ता संस्थानों के धुँधले चेहरे, पारिवारिक आर्थिक खींचतान और स्त्री-पुरुष संबंधों की विभिन्न स्थितियों की प्रतिदर्श हैं। उनकी कहानियाँ वहीं निर्मित होती हैं जहाँ असंतोषप्रद, क्षोभकारी और निराशाजनक स्थितियाँ होती हैं। वे अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्तियों के विरोधाभासी चरित्र और सामाजिक असंगतियों- विसंगतियों पर ठोस प्रहार करते हैं। जाहिर है, उनकी कहानियाँ दमदार हस्तक्षेप के कारण पठनीय हैं, विचारोत्तजक भी।
अध्यक्ष हिन्दी- विभाग, वसंत महिला महाविद्यालय (बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय) राजघाट फोर्ट, वाराणसी-221001 संपर्क - 9936439963, 8840473942

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