वैसे तो 1950 के दशक में स्तरीय सस्पेंस फ़िल्मों का निर्माण शुरू हो गया था। इस दशक में देव आनंद ने सी.आई.डी. (1956, देव आनन्द, शकीला, जॉनी वॉकर एवं वहीदा रहमान, निर्देशकः राज खोसला) बी.आर. चोपड़ा ने 1957 में (अफ़साना – अशोक कुमार, वीना, कुलदीप कौर) और बिमल रॉय ने 1958 में अभि-भट्टाचार्य अभिनीत फ़िल्म ‘अपराधी कौन’ जैसी सफल सस्पेंस फ़िल्में हिन्दी सिनेमा को दीं।
मगर सही मायने में बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्मों का निर्माण 1960 के दशक में हुआ जो 1970 के दशक में भी जारी रहा। इस दशक की तमाम सस्पेंस फ़िल्में मुझे देखने का अवसर मिला। ज़ाहिर है कि ये फ़िल्में मैंने बड़े होने के बाद ही देखीं। मगर इन तमाम फ़िल्मों का मुझ पर गहरा असर रहा।
वैसे एक कलाकार हुआ करते थे एन.ए. अन्सारी जिन्हें ब्लैक अण्ड व्हाइट ज़माने की फ़िल्मों का जेम्स बॉण्ड माना जाता था। उनका थ्री पीस सूट, बो टाई और मुंह में सिगार या पाइप… एक अद्भुत लुक देता था। मगर मैं अपनी 11 बेहतरीन सस्पेंस फ़िल्मों में उनकी कोई फ़िल्म नहीं शामिल कर सका।
पहले मैंने दस फ़िल्मों की सूची बनाने के बारे में सोचा था। मगर किसी भी तरह मैं ऐसा कर नहीं पाया। हालांकि राज खोसला की अनिता भी इस सूची में शामिल हो सकती थी, मगर मैंने स्वयं को ग्यारह फ़िल्मों तक ही सीमित कर लिया।
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कानून (1960)
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बीस साल बाद (1962)
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चाइना टाउन (1962)
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उस्तादों के उस्ताद (1963)
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वह कौन थी (1964)
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गुमनाम (1965)
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मेरा साया (1966)
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ज्वैल थीफ़ (1967)
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आमने सामने (1967)
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हमराज़ (1967)
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इत्तेफ़ाक (1969)
सस्पेंस फिल्मों की इतनी अच्छी विवेचना की है सचमुच इन्हें बार बार देखने को मन करता है ,युवा काल में आपाधापी में देखी गई मूवीज़ को अब देखने पर ही इतनी बारीकी से उनकी खूबियों को समझा जा सकता है ।
पहले कला को बहुत सोच विचार कर प्रस्तुत करने का चलन था और प्रतियोगिता भी सुंदर और श्रेष्ठ के बीच रही है।
नए साल का नया विचार सुखद है
Dr Prabha mishra
धन्यवाद प्रभा जी। १९७० के दशक की महत्वपूर्ण सस्पेंस फ़िल्मों के बारे में भी लिखूंगा।
A wonderful guide of the suspense films of that period.
I have also seen all of them and this article of yours took me back to those days when these suspense films were a craze.
A great read.
Regards
Deepak Sharma
Thanks Deepak ji. I shall write about suspense films of 70s.
बहुत सही विवेचना की है आपने, बहुत बहुत बधाई हो .वैसे मै स्वयं को भाग्यशाली मानता हूं क्योंकि मैने ये तमाम फ़िल्मे देखी हैं. आपके लेख से सारी यादें ताज़ा हो गईं, सच में क्या दौर था उस समय फ़िल्मों का, लेख पढ़ कर मज़ा आ गया. बहुत ख़ूब…
धन्यवाद निर्मल भाई। आप जैसे मित्रों ने ही यह लेख लिखवाया है।
उपरोक्त जिन फिल्मों का वर्णन है वे सब भारतीय फिल्म उद्योग के सुनहरी दिनों की हैं अर्थात् फ़िल्म निर्माता, निर्देशक, लेखक, गीतकार, संगीतकार, कैमरामैन और अन्य अनेक परदे के पीछे के कलाकार फिल्म बनाने का जुनून लिए होते थे। निर्माता कहानी के ज़रिए दर्शकों को एक मैसेज देना चाहते थे। आजकल तो एक ही जुनून होता है की फिल्म साम दाम दण्ड भेद प्रक्रिया से हिट हो जाए और करोड़ों के वारे न्यारे हों। फ़िल्म बनाना कोई रेस्टोरेंट में सब्जी बनाने जैसा नहीं की उसमे लसन,प्याज,नमक, मिर्च, हल्दी, गरम मसाला और ऊपर से तड़का लगा कर चाट मसाला पर निबू निचोड़ दो
मदर इंडिया, मुगले आज़म, शोले आदि आदि ऐसे ही नहीं बन गई । आज फिल्म निर्माण में धर्म, जाती, राजनीति और सरकार की चापलूसी जरूरी है। इन हालात में फिल्मों का हश्र आपके सामने है !