सारांश
‘आदि’ अर्थात् प्रथम तथा ‘आदिश्री’ में ‘श्री’ के अंतर्गत गरिमा,उच्चता,श्रेष्ठता,ऐश्वर्य तथा सम्मान का भावनिहित है| द्विवेदी युग के अंत तक आते-आते कवि अति सरलीकरण और उसके कठोर अनुशासन से अलग लीक पर चलने को व्याकुल था| कवि मुकुटधर पाण्डेय पाण्डेय जी काव्य क्षेत्र में प्रकृति का आश्रय लेकर एक नवीन स्वछन्द उड़ान के साथ काव्य-आकाश में विचरण करते हैं,उनमें अपने अस्तित्व को खोजने की बैचैनी थी तो आलोचक के रूप में सह्रदय समाज तक अपनी आवाज़ पहुँचाने का साहस भी था| मुकुटधर पाण्डेय जी प्रथम विद्वान हैं जिन्होंने सर्वप्रथम छायावाद के उन प्रमुख बिन्दुओं को रेखांकित किया जो उसे द्विवेदी युग से विशिष्ट बना रहा थी| वे इस नवोन्मेषित काव्यधारा की विशेषताओं  को पहचानते हुए उसे ‘छायावाद’ शब्द से व्याख्यायित करते हैं,जिसे समझे बिना इस काव्यप्रवृति को नही समझ सकते| साहित्य के संक्रमण काल में, साहित्‍यिक विशेषताओं को पहचानना और नाम देना वास्तव में महत्वपूर्ण कार्य है| छायावाद के सौ वर्षों बाद ही सही हमें लगता है कि हम उस आधुनिक ‘युगपुरुष’  को छायावाद के ‘आदिश्री’ के रूप में सम्मान दें|
बीज शब्द  
आदि, आदिश्री, युगपुरुष,छायावाद ,छायावाद की विविध परिभाषाएँ
भूमिका-  प्रस्तुत  लेख में मुकुटधर पाण्डेयजी  को समर्पित है जिन्होंने छायावाद की आहट को संक्रमण कार में न केवल पहचान लिया बल्कि उसकी महत्ता को रेखांकित भी किया |उनके अवदान और महत्व को स्थापित करने हेतु उस युग की प्रमुख कविताओं व प्रमुख विद्वानों की परिभाषाओं को को उदाहरण स्वरुप  रखा गया है|
‘आदि’ अर्थात् प्रथम तथा ‘आदिश्री’ में ‘श्री’ के अंतर्गत गरिमा, उच्चता, श्रेष्ठता,ऐश्वर्य तथा सम्मान का भाव निहित है| द्विवेदी युग के अंत तक आते-आते कवि अति सरलीकरण और उसके कठोर अनुशासन से अलग लीक पर चलने को व्याकुल था| कवि मुकुटधर पाण्डेय पाण्डेय जी काव्य क्षेत्र में प्रकृति का आश्रय लेकर एक नवीन स्वछन्द उड़ान के साथ काव्य-आकाश में विचरण करते हैं, उनमें अपने अस्तित्व को खोजने की बैचैनी थी तो आलोचक के रूप में सह्रदय समाज तक अपनी आवाज़ पहुँचाने का साहस भी था| मुकुटधर पाण्डेय जी प्रथम विद्वान हैं जिन्होंने सर्वप्रथम छायावाद के उन प्रमुख बिन्दुओं को रेखांकित किया जो उसे द्विवेदी युग से विशिष्ट बना रहा थी| वे इस नवोन्मेषित काव्यधारा की विशेषताओं को पहचानते हुए उसे ‘छायावाद’ शब्द से व्याख्यायित करते हैं,जिसे समझे बिना इस काव्यप्रवृति को नही समझ सकते|साहित्य के संक्रमण काल में, साहित्‍यिक विशेषताओं को पहचानना और नाम देना वास्तव में महत्वपूर्ण कार्य है| छायावाद के सौ वर्षों बाद ही सही हमें लगता है कि हम उस आधुनिक ‘युगपुरुष’ को छायावाद के ‘आदिश्री’ के रूप में सम्मान दें|
छायावाद का महत्व इस बात से समझ आता है कि इसे आधुनिक काल का स्वर्ण युग माना जाता है| हम जानते हैं कि कोई भी साहित्यिक काव्यधारा अचानक आरम्भ नहीं हो जाती अपितु उसकी पृष्ठभूमि में एक सुदृढ़ नींव होती है,तब जाकर भव्य भवन खड़ा हो पता है और नींव जितनी मजबूत होगी भवन उतना ही पुख्ता होगा| छायावाद के प्रमुख चार स्तंभों प्रसाद,निराला,पन्त व महादेवीजी का कृतित्व से सभी परिचित हैं जिन पर खूब लिखा जाता रहा है और लिखा जा रहा है किन्तु उन स्तंभों को जो नींव आश्रय दे रही है उस पर बहुत कम लिखा गया क्योंकि भवन की विशालता तो सभी को दिख जाती है किन्तु नींव पर किसी की दृष्टि नहीं जाती| छायावाद के सन्दर्भ में मुकुटधर पाण्डेय जी का अवदान मात्र इतना माना जाता रहा है कि उन्होंने इस काव्यधारा का नामकरण किया उस पर भी कुछ आलोचकों के अनुसार…यह नाम देकर उन्होंने भ्रम ही पैदा किया… क्योंकि संकल्पना स्पष्ट न होने के कारण विविध आलोचकों और कवियों ने इस नाम की विविध अतिवादी व्याख्याएं प्रस्तुत की|आगे हम चर्चा करेंगें कि छायावाद का नामकरण करने वाले आदिश्री मुकुटधर पाण्डेय जी को तत्कालीन साहित्यिक प्रवृति की न केवल समझ थी अपितु उनके स्वयं के काव्य में छायावाद के बीज तत्व मिलतें है महानदी पर वे लिखतें हैं-
‘कर रहे महानदी !इस भाँती करुण-क्रंदन क्यों तेरे प्राण?
देख तब कातरता यह आज,दया होती है मुझमें महान|
…विनय है तुझसे चित्रोत्पले,भरे जो फिर तेरे कूल,
मोद में तो यह कातर-रुदन, कभी मत जाना अपना भूल’|(हितकारिणी,1916)
छायावादी कवियों पर भी मुकुटधर पाण्डेय की शब्दावली का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है|उनके ही गीतों की अनगुंज,तथा सुर में सुर मिलाती छायावादी काव्यधारा एक विकास यात्रा करती है|
हर युग में एक प्रधान विचार होता है तो उसके विरोध में भी एक विचार उभर कर आता है साहित्य में भी यह नियम लागू होता है|महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के नेतृत्व में साहित्यिक और भाषिक अनुशासन खड़ी बोली का विकास तो कर रहा था किन्तु परिणामस्वरूप कविता अभिधात्मक सपाटबयानी के धरातल पर अवस्थित होती जा रही थी जिससे कविता की सृजनात्मकता,काव्यगत चारुता,सौन्दर्य के प्रतिमान कहीं पीछे छूट रहे थे,जिसके विरोध में काव्यतत्व की कलात्मकता,कल्पना, और कोमल भावुकता का अस्तित्व संघर्षरत था| पाण्डेय जी ने अपनी कविताओं में सरलता के स्थान पर शब्दों के सौन्दर्यकरण का आग्रह दिखाया,करुण-क्रंदन,विगत-वैभव,कम्पित- हृदय,मलिन-चन्द्र, गुण-गण-पोत, मृदु आलाप, मधुमय-सुधा-ललित जैसे अनेक शब्द-प्रयोग मुकुट जी की कविता के ही हैं जो छायावादी काव्यधारा के लिए मार्ग सरल कर रहे थें|उन्होंने कविता में नीरस बौद्धिकता के स्थान पर काव्य में रागात्मक व कोमलता को स्थान दिया|एक ओर विज्ञान ने प्रकृति में चेतन तत्व सिद्ध किया तो मनुष्य ने भी अपने स्वातंत्र्य के लिए विद्रोह आरम्भ कर दिया था| पाण्डेय जी की ‘कुररी के प्रति’ कविता प्रकृति के माध्यम से मानवतावादी करुणा और वेदना की स्थापना करती है वस्तुत: इस कविता में कमोबेश छायावाद की सभी विशेषताओं का निर्वहन मिलता है जैसे भारतीय संस्कृति में निहित करुणा,संवेदना,जिज्ञासा,और सचेतन प्रकृति के प्रति मानवीयता| सभी जानतें है कि कली और पवन का मानवीकरण करते हुए प्रेम और प्रकृति से सम्बद्ध निरालाजी की कविता जूही की कली (1920) को सरस्वती में स्थान नहीं मिल पाया था लेकिन काव्य में इस ‘प्राकृतिक प्रेम और सौन्दर्य बोध’ को पाण्डेय जी ने समझ लिया था,उनके अनुसार इस आत्माभिव्यक्ति को रोका नहीं जा सकता,रोकना चाहिए भी नहीं क्योंकि काव्य में कवि का आत्मतत्व अनिवार्य है,अन्यथा उसे कविता की श्रेणी में नहीं रख सकते अपनी ‘कविता’ नामक शीर्षक कविता में वे
स्पष्ट करते हैं-
कविता अंतर उर का वचन प्रवाह है,
कविता काराबद्ध ह्रदय की आह है|
कविता भग्न मनोरथ का उद्गार
इस प्रकार कह सकतें हैं की मुकुट जी ने छायावाद की मूल संवेदना ‘आत्मनिष्ठता’ महत्व को समझते हुए ही कवियों व काव्य पद्धति में इसके निर्वाह के लिए अनिवार्य माना| और छायावाद का केन्द्रीय तत्व मैं शैली, प्रकृति और मानवतावाद आदि प्रमुख तत्वों से आज सभी परिचित हैं जिनके प्रणेता भी मुकुट जी ही माने जायेंगे| पन्त जी ने पल्लव की भूमिका में कविता के विषय में लिखा है- “काव्यभाषा, (यानी) उसकी अंतर्वस्तु, चित्रात्मकता…(यानी) ‘भाव ही भाषा में घनीभूत हो गए हो, गति और एक बन गए हो छुड़ाएं ना जा सकते हैं…कविता में शब्द तथा अर्थ की अपनी स्वतंत्रता नहीं रहती वे दोनों, भावों की अभिव्यक्ति में डूब जाते हैं…कविता विश्व का अंतरतम संगीत है, उसके आनंद का रोमांस है, उसमें हमारी सूक्ष्म दृष्टि का मर्म प्रकाश है…’ इसके पूर्व मुकुट जी अपनी ‘कविता’ नामक कविता में ऐसा ही  भाव व्यक्त कर रहें है-
‘कविता भावोंन्मत्तों का सुप्रलाप है;
…कान्त जनों का मृदु आलाप है;
…कोई लोकोत्तर आह्लाद है;…
सरस्वती का परम प्रसाद है…
{कविता ,चंद्रप्रभा 1917 में प्रकाशित}
स्पष्ट है कि छायावदी कवि प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष मुकुट जी से प्रभावित रहें होंगे यानी मुकुट जी के विचारों से प्रेरणा पा रहे थे|’कुररी के प्रति’ कविता में निहित जिज्ञासा के भाव को सहज ही रहस्यात्मक अभिव्यक्ति से जोड़ा जा सकता है,पूरी कविता रहस्य और जिज्ञासा के साथ प्रश्नचिह्नों में बंधी हुई है-
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप?
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति काया उठी ह्रदय में जाग?
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप?
बता कौन सी व्यथा तुझे है,है किसका परिताप?
(सरस्वती में 1920 में प्रकाशित)
इस कविता के केंद्र में ‘छायावादी रहस्यवाद’साफ़ झलकता है जिसे ‘रहस्यवाद’ के पर्याय के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया लेकिन भारतीय साहित्य और दर्शन का रहस्यवाद ‘छायावादी रहस्यवाद’ से भिन्न है जो ईश्वरीय अज्ञात सत्ता से न जुड़कर मानवीय संवेदनाओं,प्रेम और प्रकृति में अपने अस्तित्व को खोजने का प्रयास है| मुकुट जी तत्कालीन युग इन काव्यगत विशेषताओं को न केवल समझ पा रहे थे अपितु ‘श्रीशारदा’ में प्रकशित ‘हिंदी में छायावाद’ लेखमाला(1920) चार निबंधों की श्रृंखला आई जो छायावाद पर प्रथम लेख है,इसके माध्यम से वे सह्रदय समाज को समझाने का प्रयास भी रहे थे तभी वे इस काव्यधारा का नामकरण कर पायें| हालांकि छायावादी विरोधियों ने इस नाम के हास्यास्पद,अर्थ प्रदान किये जिसमें मुकुट जी द्वारा दिए गए नाम में कोई दोष न था अपितु वे विद्वान् छायावाद के महत्व और संकल्पना को गंभीरता से लेना ही नहीं चाहते थे|सरस्वती पत्रिका में सुशील कुमार ने भी ‘हिंदी में छायावाद’नाम से निबंध लिखा| इसमें कोई दो राय नहीं कि छायावाद के सन्दर्भ में
मुकुट जी की व्याख्या आज भी प्रासंगिक हैं|काव्य की अंतर्वस्तु व रूप दोनों में आने वाले परिवर्तनों को वे रेखांकित करते है| भाषा में स्थूलता के स्थान पर अभिव्यंजना में लक्षणा व व्यंजना की सूक्ष्मता को भी उन्होंने भांप लिया था वे लिखते हैं कि-
भाषा क्या, वह छायावाद,
है न कहीं उसका अनुवाद
(श्रीशारदा की लेखमाला के प्रकाशन के पूर्व मार्च1920)की हितकारिणी में प्रकाशित उनकी कविता ‘चरण प्रसाद’)
इसमें अनुवाद से अभिप्राय यही है कि पर्यायवाची शब्द रखकर उसके गूढ़ार्थ नहीं जान सकते यहाँ आप कविता का अभिधार्थ मात्र नहीं लगा सकते डॉ. नगेन्द्र ने जब कहते हैं कि ‘छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है’ तो उनका अर्थ स्थूल अभिधा के प्रति सूक्ष्म व्यंजना का विद्रोह ही है मुकुट जी भी समझा रहे थे कि भावाभिव्यन्जना में सूक्ष्मता आ रही थी अत: सांकेतिक शैली के अर्थ विशेष को ध्यान में रखते हुए इस काव्यधारा का नाम छायावाद सर्वथा उचित है | छायावाद के सन्दर्भ में मुकुटधर पाण्डेय जी ने जो तत्व पहचाने उनके आलोक में प्रमुख विद्वानों की व्याख्याओं को समझने का प्रयास करते हैं| छायावाद के कट्टर विरोधी प्रगतिशील आलोचक शिवदान सिंह चौहान विशाल भारत 1937 में इसके विरोध में लिखते है कि‘इस छायावाद की धारा ने हिन्दी साहित्य को जितना धक्का पहुँचाया उतना शायद ही भारत को हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग ने पहुँचाया हो’,(विशाल भारत ,1925 माधुरी अप्रैल 1928) कारण उसकी ‘ले चल मुझे भुलावा देकर’ जैसी पंक्तियों को छायावाद का केन्द्रीय भावबोध मानते हुए पलायनवादी माना उनके अनुसार जबकि यह दौर राजनितिक सामाजिक उथल पुथल से गुजर रहा है ये नाविक जीवन के यथार्थ से पीठ मोड़ बैठे है| लेकिन नामवर सिंह जी ने इस काव्यधारा को‘राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति’ कहकर इसके महत्व को प्रतिपादित किया| वास्तव में इन कवियों ने राजनीति और समाज दोनों पर अपनी गहन दृष्टि बनाये हुई थी| मुकुट जी जोकि स्वयं प्रकृति प्रेमी,स्वछंदता के पक्षधर थे उन्होंने भी किसान,खोमचेवाला,लॉज जैसे विषयों पर गंभीरता से लिखा-
खींच रहा था हल आतप में बूढ़ा एक बैल संत्रास
उसे देखकर विकल बहुत ही पूछा मैंने जाकर पास
बूड़े बैल खेत में नाहक क्यों दिन भर तुम मरते हो?
क्यों न चारागाहों में चलकर ,मौज मजे से करते हो ?
सुनकर मेरी बात बैल ने कहा दुःख से भरकर आह-
“इस अनाथ असहाय कृषक का होगा फिर कैसे निर्वाह
(किसान,सरस्वती दिसम्बर 1918 में)
ऐसे ही ‘लॉज’नामक कविता उन बाल श्रम करते उन छोटे बच्चों की ओर संवेदना जाग्रत करती है जो लॉज में ठहरने वाले ‘श्रीमानों’ के लिए पंखा झलते हैं ताकि वे चैन की नींद सो सकें| बाद के छायावादी कवियों ने भी मानव को समग्र मानवता के सन्दर्भों के साथ प्रतिपादित किया भिक्षुक वह तोड़ती पत्थर आदि|राष्ट्र और देश को सर्वोपरि मानने वाले ‘मैं’ शैली के कवि हिमाद्री तुंग श्रुंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती,स्व्यम्प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती …या जागो फिर एक बार …वर दे वीणा वादिनी वर दे जैसे आह्वान गीत भी जनता में ओज व उत्साह का संचार कर रहे थे| अत: शिवदान जी की टिप्पणी को सहज ही स्वीकार नहीं किया जा सकता |आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदीजी ने छायावाद और रहस्यवाद को पर्यायवाची मानते हुए ‘आजकल के हिंदी कवि और कविता’ सरस्वती 1927 सुकवि किंकर के छद्म नाम लिखा था) कि ‘छायावाद से लोगों का क्या मतलब है ,कुछ समझ नहीं आता शायद उनका मतलब है कि किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यंत्र पड़े तो उसे छायावादी कह देना चाहिए…जो लोग रहस्यमयी या छायामूलक कविता लिखते हैं उनकी कविता से तो उन लोगो की पद्य रचना अच्छी होती है जो देश प्रेम पर लेखनी चलाते हैं|’यहाँ उनका तात्पर्य अन्योक्ति,वक्रोक्ति अथवा व्यंजना शक्ति से ही रहा होगा| संभवत: ‘छायावाद जो समझ आए’ का अर्थ यही है कि वे भी छायावाद को ठीक से न समझ पाए,जहाँ तक रहस्यवाद और छायावाद को समानार्थी समझने का प्रश्न है यहाँ भी अध्यात्मिक व वैचारिक पृष्ठभूमि का अंतर हैं,जिसके केंद्र में क्रमश: ईश्वर और मानव है|
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने छायावाद शब्द को दो अर्थों में विभक्त करते हुए इसे ‘काव्यवस्तु के संदर्भ में रहस्यवाद से जोड़ा जबकि दूसरा काव्य शैली के पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में’ समझने का प्रयास किया जो मुकुट जी की संकल्पना के काफी निकट है,मुकुटजी अपनी लेखमाला के दूसरे निबंध में लिखते हैं ‘हिंदी यह बिलकुल नया शब्द है|अंग्रेजी या पाश्चात्य साहित्य अथवा बंग-साहित्य की वर्तमान स्थिति की कुछ भी जानकारी रखने वाले सुनते ही समझ जायेंगे कि यह शब्द मिस्टीसिज्म के लिए आया है’ (श्रीशारदा सितम्बर 1920) स्पष्ट है कि ‘पाश्चात्य समझ’ कहने का स्पष्ट अर्थ है कि यह रहस्यवाद भारतीय पृष्ठभूमि से भिन्न है|और इसे बंगसाहित्य में टैगोर की मानवीयता से परिपूर्ण विश्व-बंधुत्व की वैचारिक पृष्ठभूमि में ही समझना चाहिए संभवत: यही कारण रहा होगा की शुक्ल जी को 1921 में काव्य में ‘रहस्यवाद’नामक निबंध लिखना पड़ा| एक तर्क और है कि शुक्ल जी ने अपने निबंध ‘काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था’ में करूणा व प्रेम को साहित्य में मूल तत्व के रूप में स्वीकार करतें हैं इस संदर्भ में छायावादी काव्यधारा के केंद्र में करूणा,मानवतावादी प्रेम ही है; शुक्ल जी का ‘लोक’शब्द वस्तुत: छायावाद में अपनी समग्रता में ‘मानव’ ही तो है|
‘प्राचीन के प्रति नवीन का विद्रोह’ के संदर्भ में आचार्य नन्दुलारे वाजपयी जी ने छायावाद की आत्मा को समझते हुए सर्वप्रथम स्पष्ट किया कि छायावाद और रहस्यवाद पर्यायवाची नहीं हैं बल्कि छायावाद की एक विशेषता है रहस्यवाद वे छायावाद को सांस्कृतिक आख्यान मानते हुए प्रतिष्ठित करतें हैं|लेखमाला के पहले निबंध में मुकुट जी ने भी स्पष्ट किया था कि ‘छायावाद एक मायामय सूक्ष्म वस्तु है कि शब्दों द्वारा उसका ठीक-ठीक वर्णन करना असम्भव है क्योंकि ऐसी रचनाओं में शब्द अपने स्वाभाविक मूल्य खोकर सांकेतिक चिह्न मात्र हुआ करते हैं’ (श्रीशारदा लेखमाला 1920) मुकुट जी के अनुसार भी सांकेतिक चिह्न मात्र रहस्यमय अज्ञात सत्ता नहीं बल्कि पाश्चात्य संदर्भ का रहस्यवाद ही है जो इस कविता को ‘विशेष’ बना रहा था|
नामवरसिंह जी ने मुकुट जी की लेखमाला के महत्व को निर्धारित करते हुए लिखा‘यह छायावाद का पहला निबंध होने के साथ ही अत्यंत सूझ-बूझ भरी गंभीरता समीक्षा भी है इस निबंध का ऐतिहासिक महत्व ही नहीं बल्कि स्थाई मह्त्व भी है’ उन्होंने इसे ‘राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति’ माना| यह संयोग ही नहीं कि ‘बापू के प्रति’(अप्रैल 1936) कविता में अपनी श्रध्दा अर्पित करने वाले पन्त जी से पूर्व ‘गांधी के प्रति’ नामक कविता मुकुट जी पहले ही लिख चुके थे|-
तुम शुद्ध बुद्ध की परम्परा में आए
मानव थे ऐसे कि देव लजाएँ (मुकुटधरजी),
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण,हे चिर नवीन!(पन्तजी)
इस प्रकार हम देखते हैं कि छायावाद पर विभिन्न विद्वानों के विचार मुकुट जी द्वारा दिए गये नाम के आलोक में ही प्रस्तुत किये गयें हैं तथा सभी की समझ कही न कही पाण्डेय जी के कथनों का समर्थन ही कर रही है पर जैसे कि हमें प्रतीत हुआ बस वे उन्हें श्रेय नहीं देना चाहती|इस सन्दर्भ में छायावादी कवि तो प्रसाद जी ने माना की मुकुटधर पाण्डेय जी छायावाद के प्रवर्तक हैं उन्होंने छायावाद शब्द को न केवल स्वीकारा अपितु उसमे निहितार्थ अर्थ गाम्भीर्य को भी अपने निबंध ‘यथार्थवाद और छायावाद’ में स्पष्ट किया था|छायावाद को नकारने वाले या उसका उपाहास करने वालों को उनका यह निबंध एक चुनौती की तरह है जिसमें उन्होंने इसे परम्परागत भारतीय साहित्य सांस्कृतिक काव्यशास्त्रीय सिद्धान्तों के आलोक में व्याख्यित किया जो उनके गहन अध्यन का परिणाम है|‘मोती के भीतर छाया और तरलता होती है वैसी ही कान्ति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है, छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति की भंगिमा पर निर्भर करती है| ध्वन्यात्मकता लाक्षणिकता सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ अनुभूति की विवृति छायावाद की विशेषताएं हैं’ | यानी जब कविता में प्रयुक्त शब्दों में उनके सामान्य अर्थ के अतिरिक्त अर्थ पैदा होने लगे तो वहां छायावादी कविता है मुकुट जी भी तो अपनी सरल शब्दावली में यही कह रहे थे-‘इसमें शब्द और अर्थ का सामंजस्य बहुत कम रहता है कहीं कहीं तो परस्पर सम्बन्ध नहीं रहता ,लिखा कुछ और है मतलब और ही निकलता है इसमें कुछ जादू भरा है कि प्रत्येक पाठक अपनी रुचि और समझ के अनुसार भिन्न भिन्न अर्थ निकाल सकता है’ ‘जादूभरा’ वास्तव में ‘ध्वन्यात्मकता लाक्षणिकता सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता’ ही है| कुल मिलाकर हम कह सकते है कि –छायावाद प्रेम और सौन्दर्य की उन्मुक्त अभिव्यक्ति है जिसमें प्रकृति उसकी चिर संगिनी है जिसका झुकाव आध्यात्मिकता की ओर है जो जिज्ञासा और रहस्य की विशेषताओं से युक्त है इसलिए अभिव्यक्ति प्रतीकात्मक हो गई है| डॉ सुरेश के अनुसार इनके काव्य में मानव प्रेम,प्रकृति सौंदर्य करूणाजनि सहानूभूति, दुःख:वाद, मानवीकरण, वैयेक्तिकता, लाक्षणिकता,प्रतीकात्मकता,आध्यात्मिकता,संयोग-वियोग,,अव्यक्त सत्ता के प्रति जिज्ञासा और गीतात्मकता की प्रधानतारही है|…इनके सभी गीत-पदचाप छायावादी शैली का पूर्वाभास हैं छायावाद के कल्पना वैभव की
अट्टालिका का पहला द्वार मुकुटधर पाण्डेय हैं|…जिनकी प्रतीतियों ने कालांतर में ऐतिहासिक यात्रा करते हुए छायावाद की संज्ञा प्राप्त की (https://aarambha.blogspot.com/2008/09/blog-post_30.html)
निष्कर्ष – निष्कर्ष के रूप में हम देख सकते हैं कि मुकुट जी का दिया नाम छायावाद शब्द अपने आप में एक बेहतरीन नामकरण था जिसे कभी किसी ने बदलने का प्रयास नहीं किया,न ही किसी ने कोई अन्य नाम ही दिया ‘छाया’ को केंद्र में रखकर सभी इसी नाम की अपने-अपने ढंग से व्याख्या करते रहें हैं चाहे पक्ष में, चाहे विपक्ष में| यह इस शब्द का महात्म्य ही नहीं, सार्थकता भी है जो पाण्डेय जी के व्यक्तित्व के गंभीर चिंतन का परिचायक है|अनुशासन के अतिरेक बंधन से स्वाधीनता की आकांक्षा प्रकृति वर्णन मुक्त छंद ,स्त्री स्वातंत्र्य की पुकार ,कल्पनाकी उड़ान में भी धरातल का एक पक्ष सदा थामे रहे मुकुट जी के नेतृत्व में छायावादी कविता ने एक सुदृढ़ आकार पाया अत:छायावाद के आदिश्री मुकुटधर पाण्डेय जी हीं है, आलोचक और कवि दोनों स्तरों पर| अंत में पाण्डेय जी के ही शब्दों में –‘कविता तो ह्रदय का सहज उद्गार है ‘वाद’ तो बदलते रहते है पर कविता का ह्र्द्य कभी नहीं बदलता मानव मन में जो भावानुभूति होती है ,वही सर्वजनीन है,सार्वकालिक है|
संदर्भ अध्यन सामग्री स्रोत-

*रामचंद्र शुक्ल2016, हिंदी साहित्य का इतिहास प्रभात प्रकाशन दरियागंज
*नामवरसिंह ,2018 आधुनिक साहित्य की प्रवृतियाँ लोक भारती प्रकाशन
*नन्दुलारे वाजपयी हिंदी साहित्य:बीसवीं शताब्दी 1945 इंडियन बुक डीपो लखनऊ
*मुकुटधर पाण्डेय श्री शारदा लेखमाला, हिंदी में छायावाद –विविध ऑनलाइन सन्दर्भ https://www.sahapedia.org/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%BE

*छायावाद-एक-प्रवेशिका Published on: 07 June 2016 Dr. Gopal Pradhan is Associate Professor, Ambedkar University Delhi
*पल्लव की भूमिका http://egyankosh.ac.in/bitstream/123456789/24326/1/Unit-9.pdf

*https://www.rachanakar.org/2017/09/blog-post_16.html?m=1डॉ बलदेव

*http://ashvinik.blogspot.com/2007/12/blog-post_25.html अश्विनी केशवानी

*https://kavitakosh.org/kk/index.php

*https://aarambha.blogspot.com/2008/09/blog-post_30.html )
सहायक आचार्य हिंदी विभाग कालिंदी महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय संपर्क - rakshageeta14@gmail.com

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