सुबह  आईना देखा तो श्रीधर हैरान रह गया । अरे !  कितना बदला बदला लग रहा है चेहरा…. बड़ी हुई दाढ़ी के कारण । कितना  बुजुर्ग लग रहा था वह  …भद्र और शालीन । वानप्रस्थाश्रम  की असली  पहचान । जिंदगी की भाग-दौड़ में पता ही नहीं चला था  कि कैसे उम्र फिसल  गई । शायद कभी  इतनी फुरसत से आईना देखने की मोहलत भी न मिली थी । ढलती उम्र का अंदाज भी निराला है ।  जब तलक छिपाओ ,लगता है  छुप गई है  और इंसान इसी भ्रम में जीना  भी चाहता है ।  लेकिन ऐसा होता नहीं है । उम्र छिपाने से नहीं छुपती । थोड़ी सुस्ती क्या हुई … तो देखो क्या हाल हो रखा है  । हैरानी  बड़ी हुई दाढ़ी देखकर नहीं दाढ़ी  की  सफेद चांदी को देखकर हो रही थी  । अजीब सा लग रहा था । लेकिन फिर भी । अब उम्र पचास पार हो   रही है तो सफेदी तो आयेगी ही न । खैर!  रहने दिया ।  यह तो अच्छा हुआ जो  सर के बाल समय से अपनी मर्यादा में  झड़ गए थे । अब तो  सर आधा चाँद बन कर रह गया था लेकिन कुछ ढीठ  बाल कनपटी के पास ही बचे हुए थे जिनसे  उसकी ढलती उम्र  की झलक मिल जाया करती  थी । लेकिन यह दाढ़ी …उफ्फ । पर रहने दो । श्रीधर  ने एक बार फिर आईना देखा  और  बाहर  निकल लिया । 
सूरज अभी उगा नहीं था। हल्की नीली बादामी रोशनी फैली हुई थी । गली  सुनसान  शांत थी । खंभों की  बत्तियाँ अभी बंद न हुई थी ।  चारों तरफ सन्नाटा  । कभी कभार अखबार डालने  वालों के  साइकिलों की चीं-चूँ  की  आहट सुनाई दे जाती थी । उन्हें देखकर बंद दुकानों के सामने दुबक कर सोने वाले कुत्ते अलसाए से इधर उधर मुंह किए भौंकने लग जाते थे  ।  श्रीधर को देखते ही जीभ निकाल कर दुम हिलाने लगे । रोज गली के छोर तक छोड़ने आते थे ।  पहचान जो थी ।
 वह  धीरे से पार्क की सड़क की  ओर हो लिया  । ठंडी ताजी सुहानी  हवा ..तन और मन दोनों हल्के हो गए थे  । गाढ़ा  कोहरा बादल का अहसास दे रहा था । वातावरण में ठंडक आ गई  थी । सड़क के छोर पर हरसिंगार का पेड़ था । फूलों की ताजी सुगंध से पूरा माहौल  महक उठा था । तभी तो रचना उसे हर सुबह टहलने का आदेश  देती थी पर … पर वह  मानता कब  था । 
‘राम-राम साब जी । घूमने’? सूरज देर कर दे लेकिन आप हमेशा समय से निकल आते है । तबीयत ठीक है’ ?   
राम- राम संकर । हाँ  ! जाना तो मजबूरी है और शौक भी । निकल आया । तुम बताओ । सब ठीक ? 
‘हाँ साहब । सब ठीक । प्रभु की कृपा’ । कहता हुआ चौकीदार   पानी की टंकी की ओर चला । पंप जो डालना था ताकि पानी भरा जा सके। 
 उसने  चाल तेज कर ली । कैनवास के जूते होते ही आरामदायक है और आदमी को  चुस्त दुरुस्त बना देते है … पहनते ही मन भी जैसे  दौडने लगता है । 
 सोचा लोगों के आने से पहले दो चक्कर हो जाएं तो फिर आखिरी चक्कर में भीड़ भी हो ही  जाती है तो समय ज्यादा  ही लगता है । अब पक्की सड़क पर फुटपाथ पर चलने में चाल तो तेज गई  लेकिन आजकल सांस फूल जाती थी सो  धीरे चलना ही मुनासिब समझा ।
 
कहते हैं, उम्र के साथ याददाश्त कमजोर हो जाती है । बिलकुल गलत । दरअसल हर छोटी से छोटी घटना जो  अंदर गहराई में दफन हो गई होती है , यदा कदा उम्र के इस पडाव पर जब सब छूट जाता है तो ….   सब विस्तार से …..ब्योरेवार  से याद आता रहता है ।  शायद मन और शरीर दोनों ही खाली होने के कारण या फिर कुछ ओर । हर घाव, हर चोट बाहर निकल कर रिसने लगती है । क्यों क्या खुशियाँ याद नहीं आती ? आती है । अवश्य याद आती है । मन खाली रहना ही नहीं चाहता । सुना है मृत्यु के बाद भी ये थोडी न पंच तत्वों में विलीन होता है । ये तो साथ चलता है । अगले जन्म में भी तो वही संस्कार रहते है’ । वह  गहरी सोच में डूबा हुआ आगे बढ रहा था ।  । विचार आंधी की तरह एक के बाद एक आ रहे थे । निरंतर । अबाध । 
रचना को गुजरे दो साल हो गए थे । अनिरुद्ध और आकांक्षा दोनों अमरीका में सेटल हो गए थे । आकांक्षा पढने के लिए गई थी लेकिन वहीं अमेरिकन भा गया .. वही विवाह हो गया । रचना और वह गए थे विवाह पर … दोनों रीतियों से हुआ  …. रचना कितनी खुश थी । दरअसल बडे आधुनिक विचारों की थी  रचना । कभी भी बच्चों में उसे दोष दिखा ही नहीं । हमेशा उनका समर्थन  करती थी । और अनिरुद्ध का विवाह तो यहीं भारत में ही हुआ था । पंद्रह दिनों के लिए आया था और फिर वापस दुल्हन   को लेकर चला गया था । बडी नौकरियाँ … बडे शहर …. बडे दायित्व । लेकिन रचना ने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की थी । शिकायत तो उसने उसकी  भी नहीं की थी । वह भी कौन सा उसे समय देता था … बड़ा व्यस्त रहता था …  । एक बडी कम्पनी का मालिक जो था ।   पता ही नहीं चला कब जीवन की संध्या हो गई । कब रचना दिल की मरीज हुई  और एक दिन .. एक दिन . दिल की धड़कन ही  रुक गई । दोनों बच्चे परिवार सहित आए थे माँ के क्रिया-कर्म पर । फिर पंद्रह दिन रुके । सभी औपचारिकताओं के बाद …फिर वापस । 
       रचना के जाने के बाद श्रीधर काफी अकेला पड़ गया था । उसकी हर छोटी सी छोटी नसीहत को वह याद करने लगा  था अब ।  वैसे जब तक वह इस दुनिया में  थी, तब तक तो वह हर चीज को हल्के में लेता था । बिल्कुल लापरवाह । उसकी  कही हर बात को  हवा में उड़ा देता था  लेकिन अब उसकी हर आदत को वह अपनी आदत बना चुका था । सुबह सवेरे ताजा हवा में  टहलना उसी की आदत थी जिसे वह अब पूरी तरह अपना चुका था ।  । रचना स्वास्थ्य के प्रति बहुत सतर्क रहा करती  थी लेकिन वह ही तो पहले चली गई थी इतनी सावधानियों के बाद भी ।  होनी को कौन टाल सका है? 
 आज जीवन के कुछ और पन्ने उड़ने लगे थे ।  पच्चीस या उससे भी अधिक शायद … सालों बाद … आज ‘उसे’ कॉफी  हाउस में देखा था । अपनी बेटी के साथ आई हुई थी । अचानक हर बात की  याद ताजा होने लगी । मीरा शर्मा …। हाँ । मीरा शर्मा । यही नाम था उसका । उसका पहला और आखिरी प्रेम । 
कोई किताबी और फिल्मी प्यार नहीं था वह , जहाँ चाँद तारे तोड़कर लाने की बातें की जाती हो। वह तो दो  वयस्क व्यक्तियों की समझदार  चाहत थी । मीरा मध्यम वर्ग की लड़की, उसी के कॉलेज में थी । वैसे तो चारों  दोस्त रमाकांत प्रतिमा मीरा और श्रीधर  एक ही कॉलेज में पढ़ते थे । मीरा और प्रतिमा उनसे तीन साल छोटी थीं ।   कालेज के बाद श्रीधर अपने पिता के व्यवसाय में लग गया था और रमाकांत को सरकारी नौकरी मिल गई थी । मीरा की पढाई खत्म होते ही उसके पिता ने उसको एक कम्पनी  में लगा दिया था और परिवार का पूरा बोझ पिता की  सेवा-निवृति के साथ उसके कंधे पर आ पडा था । इस बीच मीरा और श्रीधर मिलते रहे और उनके बीच घनिष्ठता बढ़ती रही । दोनों ने भविष्य के सुनहरे  सपने भी देखे लेकिन मीरा पारिवारिक जिम्मेवारियों से बंधी हुई थी । श्रीधर के आश्वासन देने के पश्चात भी वह वो निर्णय न ले सकी थी जो ले लेना चाहिए था  । अपने विवाह का । और पिता की असमय मृत्यु ने उसे तोड़ कर रख दिया था । पाँच-पाँच भाई बहनों की अग्रजा । परिवार के लिए समर्पित । श्रीधर ने तीन लम्बे साल इंतजार किया था लेकिन वह मुक्त नहीं हो पाई थी और मजबूरन दोनों ने अपने रास्ते अलग कर लिए थे । श्रीधर ने रचना से विवाह कर लिया और मीरा को सरकाई नौकरी मिल गई थी  और वह अपने परिवार के साथ अलग शहर चली गई थी । फिर बाद में तो उससे सम्पर्क ही टूट गया या मीरा श्रीधर की विवाहित जिंदगी में कभी खलल नहीं डालना चाहती थी । लेकिन रमाकांत से श्रीधर मिलता रहा । रमाकांत और प्रतिमा विवाह के बंधन में बंध गए थे और इसी शहर में रहते थे । व्यस्तताओं के बावजूद कभी कभार मिलना हो जाता था लेकिन उसने कभी मीरा के बारे में जानने की कोशिश  न की थी । और आज अचानक  उससे मुलाकात हो गई थी । उसे देखकर वह कुछ पल स्तब्ध रह गया था लेकिन मीरा सहज  थी । कुछ कह भी न पाया श्रीधर । उसने भी कुछ नहीं पूछा । केवल औपचारिक हाय हेलो । फिर वह चली गई अपनी बेटी के साथ लेकिन श्रीधर का मन अशांत हो उठा था । वह तो कभी किसी के बारे में इतना गंभीर होता ही नहीं था .फिर आज क्या हुआ ? पता नहीं । 
‘अरे सुबह सुबह क्या सोचा जा रहा है? चलो हटाओ….  मौसम का आनंद लिया जाए ।  कितनी सुंदर जगह है । चारों ओर हरियाली । पार्क के अंदर गोलाकार सडके पूरे मैदान को आवृत करती हुई और बडे बडे घने वृक्ष,  बीच में फूलों की लम्बी लंबी क्यारियाँ , तरह तरह के मौसमी फूल….पक्षियों का कोलाहल , वाह,  मनभावन दृश्य । 
 
 चेहरे पर हल्की सी तरावट आ गई  थी । शायद ओस की नमी थी जो पिघल रही थी । वह  धीरे धीरे चलने लगा लेकिन विचार पीछा करते रहे  । 
दूर  रमाकांत आता दिखाई दिया । हाँ.. रमाकांत  ही है । अरे । इतने दिनों बाद । अचानक ! वह उसी की  तरफ आ रहा था ।
 
    हेलो … यार  ? बहुत दिनों बाद ? क्या हुआ ? फोन भी न उठा रहे थे । मैं आज घर आने वाला था । हुआ क्या? रमाकांत ने हाथ हिलाते हुए कहा ।  श्रीधर को देखते ही वह  खिल उठा ..। 
‘हाँ भई । आजकल कुछ ठीक नहीं था । मैं तुम्हें परेशान नहीं करना चाहता था’ । श्रीधर के चेहरे पर उदासी झलक रही थी । चाल धीमी और आवाज में भारीपन । 
‘यार ऐसी भी क्या परेशानी जो दोस्तों से भी छिपाई जाए?  हुआ क्या ? अच्छा चलो ..वहाँ बैठते है । सामने वाली बेंच पर बैठ कर बातें करते है  । रमाकांत उसे कंधे से खींचता हुआ ले आया । 
‘अब बताओ । क्यों गायब हो गए थे? इतने दिन’ । रमाकांत ने प्यार से कहा  और  नजरें उसके  चेहरे की परेशानी को पढ़ने का प्रयत्न करने कर रही थी  ।
  
‘कुछ नहीं यार! बच्चे अमरीका में बस गए है । खालीपन काटता है । कह तो रहे है कि आप भी आ जाओ लेकिन …पता नहीं मन नहीं मानता । एक आध बार हो आए । अभी से उन पर बोझ नहीं बनना चाहता । और बताओ … तुम कैसे हो? प्रतिमा ? श्रीधर ने मुस्कुराने का सायास प्रयत्न किया । 
‘सब ठीक  । यही हाल है यहाँ पर भी । अनिकेत भी कह रहा था …पर तुमने सही कहा । अभी से वहाँ जाने का मन नहीं होता । और तो और प्रतिमा  तो बिल्कुल नहीं चाहती । बस वे खुश तो हम खुश । मन को मारे हुए है लेकिन हम क्यों उनकी उड़ान में बाधा बने । जाना उनका निर्णय था । दुनिया देखना चाहते थे }। सपनों को सच करने में पूरी तन्मयता से लगा था अनिकेत । जब मौका मिला तो कैसे गंवाता । उसका दोष भी नहीं है । आने को कहता है, लेकिन फिर बात वही आकर रुक जाती है । खैर छोड़ो कुछ और बात करते है । सुबह कितनी सुहानी कितना सुकून दे जाती है … ठंडी  हवा मन को भी शांत कर जाती है । इसलिये एक दिन भी मैं गवाना नहीं चाहता । 
हम्म्म्म्म’ । श्रीधर ने टांग सीधी की  और सर उठाकर आकाश में शून्य  की ओर घूरने लगा  । कुछ  देर  खामोशी पसरी रही दोनों के बीच । 
सामने विशंभर ने अंगीठी जला ली थी । दूध का पतीला चढा रहा था । चाय बनाने की तैयारी । दोनों दोस्तों ने अर्थपूर्ण मुस्कुराहट से  उसे देखा और  हाथ हिलाया । वह इतनी दूर से भी समझ गया । 
अभी लाते है साहब .. अभी’ । उसने चाय दो कपों में डाली और तेज कदमों से उनकी ओर बड़ा ।
क्या बात है श्रीधर ? कुछ ज्यादा ही गंभीर लग रहे हो? पहले कभी तुम्हें ऐसे नहीं देखा । क्या मुझसे भी नहीं कह सकते ? 
‘है कुछ सीरीयस । कहूँगा । लेकिन यहाँ नहीं …. शाम को तुम्हारे घर पर …. । आऊँ क्या ? 
क्या परायों की तरह पूछ रहे हो ? अपना ही घर है … जब मन करें आओ’। 
‘ठीक है । फिर मिलते है शाम को । क्या तुम और रुकोगे।? श्रीधर ने चाय खत्म की और जाने को उठा । 
‘हाँ! कुछ देर । शाम को इंतजार करूँगा । 
ओके । श्रीधर मुड़ा और धीमे कदमों से निकल गया । जाते-जाते बिशम्भर को पैसे देना न भूला ।
‘प्रतिमा, आज पार्क में श्रीधर मिला था । बहुत बदला-बदला सा । बडी हुई दाड़ी, उलझे बाल , देवदास लग रहा था  । वह घर आना चाहता है शाम को  । कह रहा था कि कोई गम्भीर बात है । पता नहीं क्यों उसे देखकर लग रहा था कि कोई बात उसे बुरी तरह परेशान कर रही है’ ।
‘श्रीधर …ओह … बहुत दिनों बाद … लेकिन क्या कहा? श्रीधर और परेशानी? अजीब सा लग रहा है न? प्रतिमा में मेज पर खाना लगाते कहा,’ बड़ा ही प्रेक्टिकल आदमी है श्रीधर .. मैं उसे अच्छे से जानती हूँ । बड़ी व्यवहारिक सोच … आगे ही देखने वाला … कभी पीछे मुड़कर देखता ही नहीं ..   उसे भला क्या परेशानी हो सकती है ? रचना के जाने के बाद अकेला पड गया है । इसीलिए तबीयत सुस्त लग रही होगी । खैर आने दो । देख लेंगे । 
   
    शाम धुंधली हो चली थी । सूरज डूब गया था । प्रतिमा ने घडी की ओर देखा ,… सात बज गए थे । अभी तक श्रीधर नहीं आया । शायद रमाकांत सही कह रहा था । तबीयत सच में ही ठीक  न हो । उसे चिंता होने लगी ।  वह फोन लगाने  उठी ही थी कि सामने की  में खिड़की में से उसकी गाड़ी को देखकर ठिठक गई । 
‘हाय! कैसी हो प्रतिमा’ ? उसने आते ही आवाज दी । वह  काफी नॉर्मल लग रहा था । उसका हुलिया भी  बदला हुआ था ।  अंदर आते ही  फल और आईसक्रीम प्रतिमा को पकड़ाए । । 
‘बैठो श्रीधर । बहुत दिनों बाद दर्शन दिए । रमाकांत ने तो तुम्हारे बारे में कुछ और ही बताकर डरा ही दिया था । कह रहे थे काफी बदल गए हो । मुझे तो नहीं लग रहा’ । 
‘तुम्हें कैसा लग रहा हूँ?’श्रीधर ने उसकी आँखों में झांक कर कहा । 
‘बिल्कुल फ़िट और फाईन’   । कॉफी या चाय?
निःसंदेह कॉफी’ । तुम्हें देखकर ऊर्जा वापस आ गई । बस’ ।
वाह ! कितना बदलाव ! पहले तो चाय पिया करते थे । रचना यह आदत भी कहीं तुम्हें सौंप कर तो  नहीं गई है?  
‘बस यार । तुम गरमागरम कॉफी लाओ । बहुत जरूरी बात करनी है’ । 
‘मेरा इंतजार करना । तुम दोनों दोस्त बात शुरू न कर देना ‘। प्रतिमा रमा कांत को आदेश देती किचन में घुसी । 
‘ठीक है … । तो रुको … हम बाद में कॉफी पीते है । तुम यहीं बैठो प्रतिमा…. पता है कल क्या हुआ … मेरी  मुलाकात मीरा से हुई । वह इसी शहर में है । अपनी बेटी के साथ रहती है । कॉफी हाउस में मिले थे । कुछ नहीं बदली । हमेशा की तरह मौन … कुछ नहीं बताया । क्या तुम दोनों जानते हो’ ? श्रीधर एक ही सांस में कह गया  । 
‘हाँ! श्रीधर ।  रमाकांत ने अर्थपूर्ण दृष्टि से प्रतिमा को देखते हुए कहा । 
‘यार क्या छिपा रहे हो? सच -सच बताओ न’ । श्रीधर उनके संकेतों को समझ रहा  था । 
हाँ ,  श्रीधर , प्रतिमा बोली , ‘तुम हम सबसे कम ही मिलते हो और मीरा से तो तुम पूरी तरह कट गए थे लेकिन मेरा संपर्क उससे बना रहा है । खैर तुम बताओ ? क्या कहा उसने ? क्या बताया? 
‘बस ज्यादा कुछ नहीं … हाँ कह रही थी कि उसने विवाह नहीं किया … लेकिन फिर वह बच्ची’? 
‘गोद लिया है । बडी दर्द भरी कहानी है श्रीधर उसकी । जिस परिवार के लिए उसने अपना जीवन होम कर दिया, तुम्हें ठुकरा दिया … पता है सब अपना-अपना घर बसा कर अलग बस गए । किसी ने मुड़कर भी नहीं देखा । माँ को साथ लिए जी रही थी…. कुछ वर्षों  पहले वो भी चल बसी ।  तब से  जीना और भी कठिन हो गया था बेचारी का । फिर संभाला अपने आप को और एक बच्ची गोद ले ली । सहारा उसे दिया या खुद को पता नहीं लेकिन जो मिला सब सह  लिया । बहुत झेला है उसने श्रीधर । बहुत । उसने तुम्हारे बाद किसी और को अपने मन में और जीवन में स्थान नहीं दिया ! 
प्रतिमा चुप हो गई थी । कमरे में कुछ देर चुप्पी छाई रही । रमाकांत श्रीधर के  चेहरे को पढ़ रहा था। 
‘रमाकांत, मैं, लगता है कुछ गलत सोच रहा हूँ । कुछ क्षण बाद श्रीधर ने चुप्पी तोड़ी । 
‘क्या? क्या गलत’ ? रमाकांत की भौंहें सिकुड़ गई । 
‘पता नहीं जब से मीरा को देखा है, उसी के बारे में ख्याल आ रहे है । मीरा की सोच से अपने आपको अलग नहीं कर पा रहा । यह क्या हो रहा है रमाकांत? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए । यह क्या उम्र है ये सब सोचने की ? मुझे अपने बच्चों और पोतों में मन लगाना चाहिए ? है  न ? न कि ये सब । जो बीत गया वह अतीत था । उसे याद करना पाप है , अपने बच्चों के साथ अन्याय है । है न’ ? 
‘कैसी पागलों की बाते कर रहे हो श्रीधर? तुम्हारे बच्चों की जिंदगी में दखलअंदाजी करोगे तो क्या वे चुप रहेंगे? और मिस्टर… आपके  पोते पोतियाँ  अमरीकी धरती की उपज है । उनके जीवन में  तो क्या उनके कमरे में भी दरवाजा ठोके बिना अंदर नहीं जा सकते । समझे । वरना तुम्हें वे  बाहर निकाल कर रखेंगे । और क्या ? और अपनी जिंदगी का  फैसला तुमने कब से दूसरों के हाथों में देना शुरु कर दिया ?’  
‘तुम कहना क्या चाहते हो रमाकांत? 
‘श्रीधर तुम्हारी तरह घूम फिर कर बात करना मुझे नहीं आता’ । …, प्रतिमा बीच में ही बोल पडी, ‘देखो अगर अब भी तुम्हारे हृदय में मीरा के लिए जगह बची है तो सोचो उसके बारे में …उसके जीवन में खुशियाँ लाने के बारे में । बहुत तपस्या की है उसने । बहुत सजा भी भोग चुकी है वह तुम्हें ठुकराकर । और अब तुम्हें भी सहारे की जरूरत है …. उससे ज्यादा । और जीवन किसी के चले जाने से ठहर नहीं जाता । कुछ फैसले ईश्वर के होते है तो कुछ निर्णय हमें अपनी प्रज्ञा से करने पड़ते है । बच्चे! वे सब अपनी दुनिया में व्यस्त है । जितनी दूरी रखेंगे उतना मान बढ़ेगा । यह तो खुला सच है । हम सब जानते है लेकिन हम स्वीकार नहीं करते । कोई भी अपने जीवन में किसी का हस्तक्षेप एक हद तक ही सहन करता है , फिर वे हमारे बच्चे ही क्यों न हो ।  है न  । सोचो !  तुम एक बच्ची को पिता का नाम दे रहे हो । उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर श्रीधर ..शरीर को नहीं, सहारे की जरूरत मन को अधिक होती है । तुम समझ रहे हो न मैं क्या कहना चाह रही हूँ । अब और मौन नहीं । कह डालो उससे’ । 
‘क्या वो मान जाएगी प्रतिमा’? 
‘मैंने उसकी आंखों में हमेशा तड़प देखी है श्रीधर हमेशा एक खालीपन । मैंने महसूस किया है उसके अकेलेपन को । एक बार कहकर देखो । वह अवश्य मान जाएगी’ । 
कुछ देर कमरे में शांति छाई रही । 
मैं खाना लगाती हूँ । नौ बज गए’ । 
‘नहीं प्रतिमा । मैं चलता हूँ । भूख नहीं है’ । श्रीधर उठा । कार की चाभी उठाई और चुपचाप निकल गया । रमाकान्त ने उसे रोकने का प्रयत्न नहीं किया ।
       सुबह के नौ बजे फोन की घंटी बजी । रमाकांत बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था । उसने प्रतिमा को आवाज दी । पता नहीं वह कहाँ थी , उसने फोन नहीं उठाया ।  रमाकांत ने पेपर छोड़ा और  भागते हुए रिसीवर उठाया  , ‘हेलो कौन…. श्रीधर ? 
  ‘रमाकांत…. प्रतिमा को लेकर फौरन लाल चौक के रजिस्ट्री ऑफिस पहुँचो । मैं और मीरा विवाह के बंधन में बंध रहे है । समय नहीं है । जल्दी आना । बाकी बाद में बात करूँगा । 
रमाकांत को जैसे कानों पर विश्वास नहीं आया । 
‘प्रतिमा, उसने तेज आवाज दी, ‘तुमने तो कमाल कर दिखाया । देखो तो … इतना जिद्दी श्रीधर कितनी आसानी से मान गया । मीरा को वह अपना रहा है। लाल चौक रजिस्ट्री ऑफिस । जल्दी तैयार हो जाओ’ । 
आश्चर्य में डूबी प्रतिमा जल्दी -जल्दी तैयार होने लगी । समय बहुत कम था और रजिस्ट्री  ऑफिस बहुत दूर । बेमौसम अचानक बारिश की झड़ी लग गई थी । ट्रेफिक में फंसने की संभावना थी । इसीलिए दोनों जल्दी ही निकल पड़े । 
  रमाकांत की गाडी लाल चौक पर रुकी । वहाँ मीरा और श्रीधर उन्हीं का इंतजार कर रहे थे । चार साल की रूपाली भी सज धज कर खड़ी थी । गुलाबी सूती साड़ी में मीरा  सादगी की मूर्ति लग रही थी ।
प्रतिमा को देखते ही वह  अपने को रोक न पाई ….उसके गले से लग गई । 
‘पता नहीं प्रतिमा मैं तेरा कर्ज कैसे उतारूंगी’। मीरा ने भर्राई हुई आवाज से कहा । 
‘क्यों मैंने क्या किया है? तेरी तपस्या पूर्ण हुई । तुझे उसका फल मिला मीरा । दूसरों के लिए जीने वालों को ईश्वर कभी निराश नहीं करता । उसके घर में देर है अंधेर नहीं । 
रजिस्टर पर हस्ताक्षर करते मीरा के हाथ काँप रहे थे ।  प्रतिमा  ने उसकी हथेली कस कर पकड़ी हुई थी जो पसीने से तरबतर हो रही थी । किस्मत  के  इस तरह पलट जाने पर उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था  । अंदर ही अंदर बहुत घबराहट हो रही थी । 
‘मुबारक हो! आप दोनों कानूनी तौर पर पति पत्नी बन गए हो’। सामने बैठे क्लर्क ने घोषणा की और प्रमाण पत्र की एक कॉपी उनके हाथ में रख दी ।
सभी औपचारिकताओं के  बाद  रमाकांत  श्रीधर को खींच कर  बाहर ले आया । 
‘बोल यार, अचानक इतनी जल्दी? कैसे यह सब ? कैसे मनाया दुल्हन को? और बच्चों को खबर दी? 
‘हाँ । रात को फोन किया था मीरा को । उसके घर गया । गलती की माफी मांगी । सब गिले शिकवे बह गए । हम दोनों ने पलों में निर्णय लिया । देरी का परिणाम भुगत चुकी थी मीरा । उसने निर्णय लेने में पल भर का भी विलम्ब नहीं किया और बच्चों को…बच्चों को भी बताया । पहले तो कुछ असहज हुए लेकिन फिर कुछ ही देर में संभल गए । और हाँ!  तुम हमें एयरपोर्ट छोड दो । हम तुम्हारी ही गाडी में एयरपोर्ट जाएंगे ।  हम स्वीड्जरलेण्ड जा रहे है । सॉरी यार तुम्हें बता नहीं सका । कल ही बुकिंग की थी । रात बहुत हो गई थी । सोचा सुबह मिलना ही है तो … सब मिलकर बताऊँगा । 
दरअसल मीरा से बहुत   साल पहले  एक वादा किया था….. विवाह के बाद  स्विस लेकर जाऊंगा । लेकिन किस्मत ने लंबा समय लगा दिया वादा पूरा कराने  में  । आज पूरा कर रहा हूँ; । 
‘देर आए दुरुस्त आए’ । रमाकांत ने श्रीधर को गले से लगा लिया । 
गाडी अब एयरपोर्ट की ओर दौड़ रही थी । आकाश साफ हो गया था । बादल छंट गए थे । 
सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, आसन मेमोरियल कॉलेज, जलदम पेट , चेन्नई, 600100 . तमिलनाडु. विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र -पत्रिकाओं में शोध आलेखों का प्रकाशन, जन कृति, अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साहित्य कुंज जैसी सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन कार्य , कहानी , स्मृति लेख , साहित्यिक आलेख ,पुस्तक समीक्षा ,सिनेमा और साहित्य समीक्षा इत्यादि का प्रकाशन. राष्ट्रीय स्तर पर सी डेक पुने द्वारा आयोजित भाषाई अनुवाद प्रतियोगिता में पुरस्कृत. संपर्क - padma.pandyaram@ gmail.com

4 टिप्पणी

  1. बहुत बढ़िया कहानी मैम, पात्रों का सहज जीवंत संवाद और कथा प्रवाह अतिउत्रम । मानसिक संवेदनाओ की सुंदर अभिव्यक्ति और प्रासंगिक भी । बहुत बहुत बधाई आपको

  2. बहुत ही बढ़िया और हृदयस्पर्शी कहानी है मैम, जिंदगी के हर पड़ाव को बड़ी बारीकी व सजीव चित्रण किया है l जिंदगी के भागदौड़ व व्यस्तता में जीवन के सुन्दर क्षणों को उपेक्षित करते है, इस कहानी मे जीवन के हर पहलू के भावनाओं, संवेदनाओं व अंतरंग मे व्याप्त ऊहापोह का बड़ी अच्छी और सुन्दर अभिव्यक्ति है। कहानी में तारतम्यता, रोचकता व प्रासंगिकता बहुत ही बढ़िया ढंग से प्रस्तुत किया गया है l उत्कृष्ट लेख मैम
    बहुत- बहुत बधाईयाँ मैम

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