उसका रंग गहरा काला है, दुबला पतला मध्यम कद। कुछ भी ऐसा नहीं कि, कोई घर बार बच्चों वाली औरत उसके पीछे अपना बसा संसार छोड़ छाड़ के चली आये। पर प्रेम कुछ भी करा सकता।
रहिमन सो न कछु गनै जासों लागो नैन
सहि के सोच बेसाहियो गयो हाथ को चैन।
पिछले पच्चीस छब्बीस साल से देख रही हूँ उसे। कभी साल दो साल के लिए इधर उधर हुआ फिर वापस यहीं आ गया। यही हाल मेरा भी था। मैने भी बीच मे आसपास स्थानान्तरण लिया, फिर घूम फिर कर यहीं आ गयी । ईश्वर किसी को कंगाल नहीं भेजता। हर जीव मे कोई न कोई विशेषता होती ही है। कन्हैया लाल में भी एक खूबी थी उसका सधा हुआ गला। विभाग का कोई कार्यक्रम होता तो उसका गाना एक आकर्षण होता। क्या तो गला पाया था कमबख़्त ने। रफी ,किशोर और मुकेश तीनों के गाने पूरे कांफिडेंस से गाता। पल पल दिल के पास रहती हो ,और, ‘ जिस गली में तेरा घर न हो बालमा ‘ मे दिल ही निकाल कर रख देता। गाने पर ही लूट गयी होगी मरी जी जान से।
इधर छुट्टी में गाँव माता पिता पत्नी के पास न जाकर वह भाई के पास इलाहाबाद जाने लगा था। जब नहीं तब छुट्टी की दरख्वास लेकर आ जाता।
” भाई ठीक तो है न… बार बार क्यों जाते हो? सारी छुट्टी खत्म हो जायेगी ”
भाई तो ठीक था उसका। इस बार आया तो साथ मे उससे एक हाथ ऊँची औरत थी। कालोनी में खुसफुस मच गयी। कन्हैया लाल की पत्नी को सबसे देखा था। छोटे से कद की गोरी चिट्टी सुंदर सी लड़की थी सुधा। शादी के तुरंत बाद लाया था अपने साथ । जच्चगी के लिए मैके गई थी, वही से ससुराल चली गई । ससुर का पोता मोह उमड़ पड़ा था। सास भी बहू पोते का कुछ दिन दुलार करना चाहते थी। अकेली बहू छोटे से बच्चे के साथ भला परदेस मे कैसे रहेगी ? कन्हैया की तो ड्यूटी कभी रात बिरात भी लगती। अभी तो शहर से पैंतालीस किलोमीटर दूर ड्यूटी है। वहीं क्वार्टर है। छोटा सा स्टेशन है सुनसान सा। कुछ पैसेंजर ट्रेन ही रुकी हैं वहां। शाम से ही सन्नाटा पसरा रहता है बस्ती भी दूर है। सास जब बहू और पोते को लेकर आई तो वहाँ की असुविधा देखकर उल्टे पैरों दोनों को लेकर वापस हो ली। ई कोई भले लोगों के रहने की जगह है? ।एक क्वार्टर से दूसरा इतना दूर है कि, कोई गटई दबा दे तो पता न चले। कहते हैं शामे से सियार लकड़बग्घा घूमने लगते । कंहैया रहे यहाँ। जब शहर मे बदली हो जायेगी तब रक्खेंगे अपने साथ बहू बेटे को।
यही कन्हैया जब कलकत्ते से जवान जहान औरत के साथ लौटा तो सभी के चेहरे फक्क पड़ गए। कौन है ये? कहाँ की है? कन्हैया के साथ क्यों रह रही?
कुछ दिनों मे कन्हैया के भैया भाभी भी आ पहुँचे बड़े साहब के पास दोनों जनन कन्हैया की करतूत लेकर पहुँचे – समझाओ साहब। अंधेर मचाने है… दूसरे की औरत लेकर भाग आया है। तीन बच्चों की महतारी है उ।
साहब का समझाते । इश्क़ का भूत दोनों पर जबरदस्त चढ़ा था। कन्हैया उसी के चक्कर मे जब तब कलकत्ते दौड़ लगाते रहते थे। उसका पति भैया का पड़ोसी था। रात की ड्यूटी होती बेचारे की तो रात गुलजार करने कन्हैया उसके घर पहुँचने लगे। पहले तो मामला बातचीत, चाय पानी तक ही सीमित रहा । बैठक के आगे पैठ नहीं हुई। गृहणी बेचारी पड़ोसिन के देवर को देवर समझ ही इज्जत देती, पति के दोस्त का भाई है, बेचारा यहाँ कहाँ बैठे, किससे बोले बतिआये?
कन्हैया समझते थे उनका रंग रूप भौजी को उनके प्रति अरूचि ही उत्पन्न करता है। काश एक बार अपने टैलेन्ट का प्रदर्शन कर पाते । मौका भी जल्दी मिल गया। भतीजे का जन्मदिन पड़ा। उस जमाने में मंदिर जाकर टीका लगाकर , प्रसाद बांधकर जन्मदिन मना लिया जाता था। पर कन्हैया थे, तो भला भतीजे के जन्मदिन पर रौनक क्यों न होती। केक आर्डर हुआ पड़ोसियों को न्यौता मिला, अगल बगल की दो तीन कर्मठ गृहणियां दुपहर से आ गयीं रसोई संभलवाने। जाहिर सी बात थी सरोज भी पड़ोसी धर्म निभाने दुपहर से शपहुँची थी। शाम को बाहर अहाते में कालोनी घरों से मंगवाये कुर्सी मेजों और पड़ोसियो के घरों से मंगाया बर्तनो से पार्टी का रंग जमा और असली समातो तब बंधा जब कन्हैया ने अपनी सधी और मधुर आवाज़ मे ‘ तुम अगर साथ देने का वादा करो, मै यूँ ही मस्त नग़मा लुटाना चलूं ‘ गाना शुरू किया तो लोगों के मुंह खुले रह गये। फिर तो एक के बाद एक नग़मो की पैमाइश होने लगी। कन्हैया भी मौज मे थे। बड़ी अदा से गाने के बीच में सरोज को देख लेते खूब गहरी नजरों से। मानों कह रहे हो ं, ये सारे गीत आपके चरणों में अर्पण है।
– पल पल दिल के पास तुम रहती! जादुई आवाज कोई किसी को ये महसूस कराते हुए गाये कि वो उसी के लिए गा रहा तो क्यों न कोई सुध बुध भुला दे । फिर तो सरोज भी आकर्षित हो गई कन्हैया की तरफ। कन्हैया के जादू ने इस कदर जकड़ा कि, पति बच्चों की चै पें पे खीज लगने लगी। प्रेम नाम की शै को फिल्मों मे देखा जाना था, किताबों मे पढ़ा था पर महसूस नही किया था सरोज ने। विवाह हुआ, तीन बच्चे हुए पर पति के लिए दिल कभी वैसे न धड़का जैसे कन्हैया के लिए धड़कता है। उसकी आवाज रोमांचित कर देती है, दिन रात जैसे किसी नशे मे बेसुध होती है वो । हर आहट उसे चौंका देती है। पति टोकने लगे हैं – कहाँ रहता है तुम्हारा ध्यान आजकल?
जैसे कोई चोरी पकड़ी गई हो उसकी । वह हड़बड़ा कर छोटके का कोई काम करने लगती है । छोटके से उसे बहुत मोह है। पेट पोछना बेटा है, एही से दुलार ज्यादा पाता है वो। अपने पापा का तो जान परान है छोटका। जबतक पापा घर में होते, छोटका कभी उनके गले में झूलता, कभी पीठ पर। दूध पाएगा तो पापा के हाथों से, खाना खायेगा तो पापा के हाथों से। नहाना कपड़ा पहनना सब पापा के साथ। साइकिल पर आगे लगी छोटी सी सीट पर बैठ वह बाजार जाता पापा के साथ । जातक पापा घर मे होते छोटका के नक्शे ही नहीं मिलते। बड़े भाइयों को तो धमकाना ही, माँ पर भी रोब जमाता।
हफ्ते भर बाद कन्हैया वापस आ गये। पर मन तो सरोज के आँचल मे गठिया आये थे। कहीं राहत नहीं। दोस्त यार, सिनेमा कहीं मन न लगे। गाना गाने आदत थी, वही सहारा था – ‘ याद आ रही है, तेरी याद आ रही है ‘ गाकर आँसू बहाते । मन ज्यादा घबराया तो दो दिन को गाँव चले गये। पत्नी पूरे दिन से थी ,अब तब लगा था। न मन बहल सका न तन ही आराम पा सका। गर्भवती पत्नी के कष्टकारी अवस्था के मद्देनजर पति उसके कष्ट में सहारा बनने के लिए गाँव आये हैं ऐसा सोचकर पत्नी के दिल मे कन्हैया के लिए प्रेम के साथ आदर भाव का पार्दुभाव भी हुआ जो गृहस्थी में लगभग अनहोनी घटना की तरह देखी जानी है। पति से प्रेम करना पत्नी का कर्तव्य है पर आदर दिखाना मजबूरी। ऐसा कम ही होता है कि, जो आदर पत्नी के हृदय मे उठा वो दाम्पत्य के दैनंदिनी में दीर्घावधि तक बचा भी रह जाए । यहाँ भी ये आदर क्षणिक ही रह पाया। सुबह कन्हैया खीजे हुए थे और पत्नी आहत। पत्नी की डबडबाई शिकायती आंखों की ताब कन्हैया ज्यादा नहीं झेल पाये, फौरन वापस लौट आये ।
सरोज की याद विह्वल किये थी कन्हैया को। पत्र लिखें, तो पकड़े जाने का डर था । सरोज के पति की ड्यूटी तो रात की रहती थी अक्सर , दिन मे तो वह घर में ही रहता था।पत्र लिखने पर पकड़े जाने की पूरी संभावना थी। पर दिल का हाल सरोज तक पहुँचाना भी लाजिमी था। ग़ालिब यो ही नहीं फरमा गये – ये वो आतिश है जो लगाये न लगे, बुझाये न बुझे । बड़ी फेर मे पड़ गये थे कन्हैया। जब जलन हद से बढ़ गयी तो फिर छुट्टी की अर्जी लगाकर कल्कत्ते निकल लिए। हफ्ते भर बाद लौट तो अकेले नहीं थे। साथ में हाथ भर लम्बा घूंघट करे सरोज भी थी। ।रेलवे कॉलोनी मे सुग बुग शुरु हो गयी। पहले तो सभी ने यही समझा कि, कन्हैया पत्नी को साथ लाये हैं । पर, कन्हैया की पत्नी को तो बच्चा होने वाला था ।फिर बच्चा कहाँ गया? क्वार्टर से किसी बच्चे की हंसने रोने की आवाज़ तो सुनाई नही देती
राज आखिर कबतक राज रहता… जल्द ही सबको पता चल गया। अॉफिस में सबने कन्हैया को समझाने की चेष्टा की पर कन्हैया तो इश्क़ में होशो हवास गुम किये बैठे थे। जिसकी बांह पकड़ लिए भला कैसे छोड़ दें। स्टाफ के लोगों ने नौकरी जाने का डर दिखाया पर इश्क़ के फितूर के आगे ग़म- ए–रोजगार की क्या बिसात। कन्हैया अपने मे और सरोज में मगन थे।
राजे उल्फत खुल चुका था। कलकत्ते में बड़े भाई और उनका परिवार, कन्हैया की करतूत के कारण शर्मिंदगी उठा रहे थे। और सरोज का पति अलग एक मुफ्त का कलंक ढो रहा था। दोनों ने अपना स्थानान्तरण अन्यत्र करवा लिया। कन्हैया के गाँव तक भी उसका सुयश पहुँच गया था । रोना पीटना मच गया परिवार में। सुधा के मायके भी ख़बर गयी। उसके बाप भाई भागे आये। समधी के पैरों मे अपना सिर रखकर बिलख पड़े। कन्हैया के पिता जी मारे शर्म के सिर नहीं उठा सके – नालायक कन्हैया ने गाँव भर में हँसाई करा दी। आते जाते कोई भी मुंह उठाकर पूछ लेता – का हो पंडित जी, कन्हैया के बारे मे का सुन रहे?
बेचारे मुड़ी नीचे घुसाकर शर्मसार होते अपने बेटे के कुकर्म पर। आजकल चाहने से धरती भी तो नहीं फटती …कोई त्रेतायुग थोड़े है… ये तो कलयुग है, सारी बेशर्मी को प्रशय देने का युग। पर ऐसे बिना कुछ किये धरे भी तो नहीं रह सकते। जवान जहान बहू, दुधमुंहा बच्चा… इंतजाम तो करना ही पड़ेगा । कन्हैया की बदचलनी की सजा बहू और पोता काहे भुगते …और वो छिनाल राज करे! ये अन्याय वो न होने देंगे।
कुछ सोच विचार कर उन्होंने बहू और छोटे बेटे को बुलवाया । घूँघट की ओट से भी बहू का कुम्हलाया चेहरा उन्हें दिख गया। लरकोरी औरतों जैसी कोई ममतालू स्निग्धता उस चेहरे पर नहीं थी। उन्होंने बेटे को अच्छी तरह समझाया । उसे अपनी भौजाई को भाई के पास छोड़कर आना है।
‘ और सुन बहुरिया !’बहू को समझाते हुए बोले, ” कन्हैया कुछु कहें बोले… तुमको लौटना नहीं है। जी कड़ा करके जाओ, लड़ना पड़े तो लड़ लियो…रोवे पड़े रो लियो। मिन्नत करनी पड़े पैरों गिरना पड़े… सब करना, बस्स लौटना नहीं बच्ची। ”
बेचारी सुधा , अवाक होकर ससुर का मुंह ताक रही थी। अभी तक जिन्हें वह बहुत कड़क इंसान समझती थी , जो कितना कम बोलते थे। किसी की हिम्मत नही होती थी उनके सामने पड़ने की ।आज वही इंसान कैसे अपने बेटे की करतूत से शर्मिंदा है… कैसे अपनी बहू के दुःख को महसूस कर उसकी आँखें नम हो रही। श्रद्धा से वह ससुर के पैरों पर गिर पड़ी।
“जाओ बहू, तैयारी कर लो जाने की। सुबह की बस है। और सुनो, मन को खूब कड़ा कर लेना। इम्तहान की घड़ी है । याद रखना, कन्हैया तुम्हें ब्याह कर लाये थे, भगाकर नही । कानून भी तुम्हारे साथ है।
अगले रोज सुधा देवर के साथ चल दी थी अपनी लड़ाई लड़ने। देवर उसे लेकर सीधे आफिस ही पहुँचे। कन्हैया तो अपनी पत्नी ,बच्चे के साथ भाई को देखते ही मानों चक्कर खा गये।
ये लोग यहाँ कैसे?
” बाबू कहें हैं अब से इ पंजे इहै रहिएं, तोहर पास।“ छोटे भाई से इतना सुनते ही कन्हैया तैश में आ गये
” अइसे कइसे इहाँ रहिएं? ”
” हम कुछ नाहीं जनते …”
” वापस ले जा… हम इहाँ नही रख सकते… ”
” नहीं ,हम वापस नहीं ले जा सकते… बाबू जीयत नाहीं छोड़िहें हमको। ” भाई की घिघ्घी बंध गई, इस कल्पना मात्र से ही कि, कहीं भौजी को वापस न ले जाना पड़े …सड़क पर तो छोड़कर नहीं जा सकता न।
कन्हैया भी अपने बाबू को भली भाँति जानते थे। बाबू के गुस्से से अब भी थर थर कांपते हैं वो। बाबू के सामने आज भी पलंग पर नहीं बैठ सकते… जबान खोलने की कौन कहे। बाहरी ओसारे से बाबू दिन में दो बार भीतर आते, सुबह और रात के खाने के लिए। और दोनों समय मजाल जो कोई उनके सामने पड़ने की हिम्मत जुटा सके सिवाय अम्मा के । जिसे जो कहना बताना होता उन्हें अम्मा के मार्फत कहता बताता …
छुटके की रोआई सुनकर कन्हैया का ध्यान बेटे की ओर गया। कठकरेज तो थे नहीं कि, बेटे को न मोहाते …पत्नी की ओर मुखातिब हो बोल पड़े
” काहे रोवाती है बचवा को… भूखा है का? ऊपर का दूध पीअत है? ..ले आये?
बेचारी सुधा घूंघट के भीतर कांप उठी, जैसे कन्हैया उसके मरद नही कोई गैर हों। हकलाते हुए उसकी आवाज निकली थी –
” सफर से औउजियान है… तनिक हाथ पैर डोलाई त ठीक हो जाई “
कन्हैया ने हाथ बढ़ाकर बेटे को अपनी गोद में ले लिया। बच्चा भी माँ की संक्षिप्त सी गोद और घूंघट में से निकल कर बाप के विस्तृत गोद में पहुँच हवा बयार पाकर उत्फुल्लता अनुभव करने लगा और कुछ ही देर में रोना भूलकर किलकारी भरने लगा। उधर से गुजरने वाले अॉफिस के साथी, कर्मचारी दिलचस्पी से ये नजारा देख रहे थे। एक दो ने पूछा भी –कौन है ये लोग?
” घरवाली और भाई है साहब। ” संकोच में भरकर इतना बोल पाये कन्हैया
” अरे तो क्वार्टर पर ले जाओ इन्हें… यहाँ काहे बैठाये हो? ” साहब की बात पर कन्हैया चेते । सही बात थी, यहाँ कितनी देर बिठाकर रख सकते थे इन्हें । पर, क्वार्टर पर कैसे ले जाएं… सरोज तो बवाल मचा देती, लेकिन ले तो जाना पड़ेगा। बेटा अबतक उनके कंधे पर सिर धरे निश्चिंत हो सो चुका था। उसके नन्हें से हृदय की धड़कन उनके अपने हृदय की धड़कन से जुगलबंदी सी कर रही थी। ममता में भरकर उन्होंने बेटे का मुंह चूम लिया है, घूंघट की ओट से सुधा ने ये दृश्य अपनी आँखों में भरा और आँखें सजल हो गईं। भाई ने भी इस दृश्य को स्मृति में जगह दी – आखिर गाँव लौटकर बाबू को पूरा ब्यौरा भी तो देना है।
बाजार में एक जगह रुककर कन्हैया ने कुछ सौदा सुलभ खरीदा और एक गुमटी में भाई और पत्नी को चाय समोसा खिलाया । पता नहीं घर में क्या परिस्थिति निर्मित हो? चाय पीते हुए वह यही सोच रहा था। जो होगा वो देखेंगे यही सोच उसे इन लोगों को घर ले जाने और सरोज का सामना करने को प्रेरित किये थी और बेटे का स्पर्श सुख हिम्मत दे रहा था।
उस दिन दरवाजे की थपथप से उमगकर सरोज ने लास्य बिखेरते हुए प्रियतम के स्वागत में जब दरवाजा खोला तो शरीर की मांसपेशियों का कसाव शिथिल पड़ गया। संभावित प्रेम किल्लोल के स्वप्निल दृश्यों से सजी आँखों की चमक तिरोहित हो गई। अवाक स्थिति में उसने स्वयं को एक ओर करके आगन्तुकों को रास्ता दिया । झट से तीनों जनि भीतर दाखिल हो गये और बिजली की गति से कन्हैया ने कुंडी चढ़ा दी।
बच्चे को आहिस्ता से खाट पर लिटाकर सुधा से बोले – उधर गुसलखाना है, जाओ हाथ मुंह धो लो।
अबतक सरोज की चेतना वापस आ चुकी थी। उसे कुछ पूछने की जरुरत नहीं थी। आने वालों का परिचय उसकी समझ ने उसे बता दिया था। आवाज में दुनियाभर की तल्खी भरकर उसने पूछा था।
– इ लोग इहाँ काहे आये…?
– बाबू भेजे हैं… ‘ मरी सी आवाज में कन्हैया ने जवाब दिया।
– इहाँ काहे भेजे? सरोज की आवाज़ का पैनापन बढ़ रहा था
– तो अउर कहाँ भेजते? बियाह किये हैं उससे… भगाकर नहीं लाये। कन्हैया के स्वर में खीज का पुट देखकर सरोज ने फिलहाल के लिए झगड़ा स्थगित कर दिया ।
देवर ने भौजी को उसके ठिकाने सही सलामत पहुँचा कर अपने हिस्से का काम पूरा कर दिया था। एक गिलास पानी पीकर उसने भाई भाभी के चरण स्पर्श किये भतीजे के गाल का चुम्बन लिया और जाने के लिए खड़ा हो गया।
सुधा अपना रोना नहीं रोक पाई। देवर की भी आँख गीली हो गई। क्या कहकर भौजी को ढ़ाढस दे – हम आते रहेंगे भौजी… बाबू भी आयेंगे कुछ दिन में। अपना और लल्ला का ध्यान रखना ।
एक कमरा उससे लगा छोटा सा बरामदा, बरामदे से लगा रसोईघर, आँगन और आँगन के छोर पर पखाना और गुसलखाना। उस दिन कमरे मे सुधा अपने बच्चे के साथ तख्त पर बिछे बिस्तर पर सोई और कन्हैया और सरोज बारामदे में फोल्डिंग चारपाई बिछाकर । रात भर कन्हैया सरोज की मिन्नते करते रहे और सुधा अपने बच्चे को सीने से चिपकाये करवट बदलती, रोती रही और साथ ही आगत भविष्य की कल्पना कर आतंक से घुलती रही।
अगले कुछ महीने मे कन्हैया ने बरामदे को घेर कर एक छोटा सा दरवाज़ा लगवाकर कोठरी की शक्ल दे दी और स्वयं मय सरोज के उस कोठरी में अपने सोने रहने की व्यवस्था बनाई। सरोज बहुत भिन्नाईं इस नयी व्यवस्था से पर लल्ला का वास्ता देकर उसे चुप करा दिए कन्हैया। सुधा को तो रसोई में ठेल देते, पर साथ में बेटा है उनका। भला इतने छोटे बच्चे को बेआरामी में कैसे रख सकते। गैर का बच्चा तो है नहीं आखिर उनका अपना खून है। बेटे के लिए अपनी ममता पर सरोज को कैसे भी भारी नहीं पा रहे थे कन्हैया। सरोज के पास इस नयी व्यवस्था से सामन्जस्य बिठाने के अलावा कोई चारा नही था। वापस लौटने की धमकी देती तो शायद कन्हैया उसे रोकने का उपाय न करते… पर वापस लौटकर जायेगी कहाँ। दुनियां का किस आदमी का इतना बड़ा दिल हो पाया है, जो भागी हुई औरत को फिर से अपने घर में बसा ले। बच्चे को खटिया पर चिहुँकी चलाते देखते मन भटक कर छोड़े हुए घर में जा पहुँचता ।छोटके की याद में छाती टभकने लगती। अभी दो साल का होने में महीना भर बाकी था। जब तब आचल में मुह ढुकाकर उसकी छाती चुसने लगता। दूध छुड़ाने के उपाय आजमाने का सोचने लगी थी वो। पर इतना दूध होता भी तो था। तीन टाइम छोटका का पेट भर जाता । पेट पोछना बेटा था, उसपर मोह भी ज्यादा था सरोज का। कन्हैया के साथ आने की शर्त भी थी, कि छोटका को नहीं छोड़ेगी । वो छोटका ही ऐन वक्त पर रिक्शा से उतर कर घर की ओर भाग गया। और कन्हैया हरबिआने लगे थे – रेल का समय हो गया है रेल छूट जायेगी… ! जाने कैसा होगा उसका छोटका …बिना उसकी छाती मुंह मे धरे उसे नींद भी नहीं आती थी।
दिन ,महीना, साल गुजरता रहा। समय की अपनी गति अपनी चाल होती है । कन्हैया के घर में दो औरतों को देखने की आस पड़ोस, मित्र नातेदार, रेलवे अॉफिस के कर्मचारियों की आँखें अभ्यस्त हो गई थीं । यदा कदा उसके घर से उठने वाले झगड़ो की आवाजों की भी लोगों को आदत हो गयी थी। कन्हैया की पत्नी होने के आस पड़ोस के घरों में सुधा उठना बैठना होने लगा था। पूजा पाठ या किसी घरेलू आयोजन में सुधा बुलौवा वगैर मे जाने लगी थी। पर घर के भीतर तो राज सरोज का ही था। सुधा घबरा रहती कि कब सरोज कोई हंगामा खड़ा कर दे। ये हंगामा तभी होता जब कन्हैया सरोज को कुछ अतिरिक्त चीज समान लाते।
बेटे का नाम स्कूल मे लिखने के लिए सुधा का साथ जाना जरुरी था। स्टेशन से करीब पन्द्रह मील दूर था अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल । लौटने मे देर हुई तो सरोज ने पूरा सिर पर उठा लिया। रेल की पटरी पर सिर धरकर कट जाउंगी ,यही उसकी धमकी रहती थी। बेचारी सुधा डर जाती । कन्हैया की फिक्र होने लगती। आखिर उसके सुहाग थे कन्हैया… उसके और बेटे के एकमात्र सहारा।‘ कहीं ये सचमुच कट मर गयी तो कितना आफत मे पड़ जाएंगे हम लोग। पति की नौकरी जा सकती, जेल हो सकती …फिर कोर्ट कचहरी के चक्कर। उल्टी खोपड़ी की मेहरारू कुछु कर सकती ये। जो उल्टी खोपड़ी की न होती तो क्या ऐसे अपना घर बार बाल बच्चे छोड़ ईहां पड़ी रहती? अइसने प्यार के मुंह मराये। ‘
सुधा कोमल हृदय की थी, कभी कभी सरोज के लिए मन दुखी भी होता उसका। हारी बिमारी में दोनों एक दूसरे का सहारा भी बन जाती। सुधा सोचती , कहाँ जाएंगी बेचारी …पति का घर छोड़ते ही तो औरतें चारों ओर से घिना जाती हैं । अब उसका आदमी उसे इस जनम में तो रखने से रहा। भले वह गंगा के सारे पानी से नही ले या कोई चमत्कार से उसके सारे बदन की चमड़ी बदल जाए। कभी कभार पड़ोसिने पूछ लेतीं – काहे नहीं भगा देती ओकरा के…।
सुधा मुंह गिराकर जवाब देती – कहाँ जइहें उहां के? हमरे गटई के घेंघ नियर हमेशा हमरे जियान बनल रहिएं।
सुधा तो कभी कभार कुछ दिन के लिए मायके ससुराल टर भी जाती थी, पर सरोज को जाने के लिए कोई ठौर नहीं थी। चौदह पन्द्रह बरस बीत गये इसी तरह। अब लल्ला बड़ा हो रहा था। उसकी अपार जिज्ञासा थी। बाहर लड़के चिढ़ाते ,ऊ तोहर घर में कौन रहती है… तोहर पापा से ओकर का रिश्ता है। लड़का गुमसुम रहने लगा, सरोज को गरिआने लगता। कन्हैया कपाल पर हाथ धरे सोचते… यही सब देखने सुनने के लिए ऐतना पइसा खर्च करके अंग्रेजी स्कूल मे पढ़ा रहे एकरा के। लल्ला तो पापा से भी जवान लड़ाने लगा था।
कन्हैया इस समय बड़ी प्रॉब्लम मे हैं ये बात अॉफिस में भी सभी को पता थी। प्रॉब्लम की वजह भी पता थी। साहब लोग भी कन्हैया का किस्सा शुरुये से देख रहे थे। कन्हैया को सभी लोग समझाने लगे –लड़के से हाथ धो बैठोगे महराज… ये उम्र बड़ी नाज़ुक होती । गुस्से और शर्म से कहीं कुछ कर करा न बैठे ।अब बहुत हुआ ,उस औरत से छुटकारा पाओ ।
” पर कैसे? ” बड़ी समस्या यही थी । मायका ससुराल सभी जगह वह अवांछित थी। सबसे अच्छा हो अपने बाल बच्चों के पास वापस चली जाए । पर ये कैसे संभव होगा। सीता मैया जैसी सती जब वापस रामचन्द्र जी के ओतना बड़ राजमहल में दुबारा न बस सकीं तो इ पापिन के कौन बड़ भारी हृदय वाला वापस लेई। पर सरोज के भूतपूर्व स्वामी का हृदय विशाल ही निकला।
हुआ यों कि, कलकत्ता से रांची के पास इस कस्बे तक कई रेलवे कर्मचारी का आना जाना होता था। इस बीच सरोज के भूतपूर्व स्वामी भी कलकत्ता के आसपास के कस्बों में नौकरी के कुछ साल बिताकर फिर से कलकत्ता आ गये थे। कुछ दिन मे रिटायर होने वाले थे। रांची और कलकत्ते के साहबों ने आपस में बात की कुछ लोग और मध्यस्थ बने। इस बीच पता चला कि सरोज के दोनों बड़े बेटे बढ़िया नौकरी से लगे हैं शादी हो गई है। बड़के के तो एक डेढ़ साल की बेटी भी है। पक्का दोमंजिला मकान बन गया है। छोटका बेटा इसी साल कॉलेज गया है। स्वामी तो राजा हो गये हैं ।
इधर दूसरे की गृहस्थी पर डाकिन बनकर बैठे रहने की अपनी जद्दोजहद से सरोज भी थक गई थी। सुधा का लड़का कैसी उज्जडयी दिखाता है उसे। एक नहीं भजता। हर दिन उसे अपमानित करता है। कन्हैया और सुधा भी उसे कुछ नहीं कहते। इस तरह रोज अपमान का घूँट पीकर वह कैसे रह सकती। कलकत्ता लौटने की बात पर उसकी आँखें सपने देखने लगी। पति और बच्चों का सुयश उसके भी कानों तक आई थी। उसकी अक्ल पर जाने कैसे पत्थर पड़ गया था ,जो बिना कुछ सोचे समझे अपना भरा पूरा संसार छोड़कर चली आई इस कलुये के साथ। जो कन्हैया किसी समय उसे मन मोहना लगता था अब मन ही मन दाँत पीकर वह उसे कलुआ नाम से नवाजती।
साहब लोगों की समझाइश सरोज के पति पर असर कर रही थी। ठीक ही तो कह रहे सब। दाई बनाकर रख लें… सेवा करेगी। घर का कामकाज कर दिया करेगी। आखिर वो तैयार हो गये उसे ले जाने के लिए । जिस दिन उन्हें आना था, कन्हैया घर के बाहर ही रहे आये। सरोज के दिल की धड़कन बढ़ी हुई थी। जो आदमी उसके देह से पैदा बच्चों का बाप था आज समय ने उसे कितना अजनबी बना दिया। स्थिर तो सुधा का हृदय भी नहीं था – आखिरकार इससे निजात मिल ही गयी।
अपने झोला बैग के साथ जब सरोज रिक्शा में अपने पति के साथ बैठी तो सुधा ने अरसे बाद मानों चैन की एक सांस ली। आज जाकर ये घर पूरी तरह उसका हुआ था। कन्हैया भी शाम ढले वापस आ गये। आज उन्हें भी एक सद्गृहस्थ होने का भला स एहसास हो रहा था। पत्नी और बेटे पर से जैसे कोई मनहूस साया उतर गया हो। तनावमुक्त ये चेहरे ही उसके अपने थे पूरी दुनिया में। सुधा ने पूरी खीर और आलू की रसेदार सब्जी बनाई थी । भरपेट खाकर तृप्त मन से बाप बेटे सोने चले गए। सुधा जब चौका समेट कर सोने आई तो दोनों गहरी नींद में थे। संतुष्ट मन वह भी सोने चली। आज उसे भी निश्चिंत होकर नींद आयेगी । अंत भला सब भला….
गहरी नींद का पहले पड़ाव पर ही थी वो कि, दरवाजे की सांकल खटकी… इतनी रात कौन होगा भला… नींद में भ्रम हुआ शायद, सोचकर वह फिर सोने जा रही थी कि, फिर सांकल खड़की …भ्रम नहीं है ।अबतक कन्हैया और लल्ला भी उठ आये थे। कौन है इतनी रात… बड़बड़ाते हुए कन्हैया ने दरवाजा खोला और उसे देख चिहुँक कर दो कदम पीछे हट गये – तुम! गयी नहीं ?
अबतक सुधा भी दरवाजे पर खड़ी सरोज को देख चुकी थी… सरोज मय सामान के दरवाजे पर खड़ी थी। कन्हैया ने रास्ता छोड़ दिया सामान सहित सरोज भीतर आते हुए बड़बडाई “आपन भाग तो हम पहिलही मेट चुके थे… अब तो ओ घर मे… दाई, के रुप मे भी हम कोई को नहीं चाहिए …।बेटे लोग अड़ गये, अगर हम रहे तो उ लोग घर छोड़ के चले जायेंगे… का करते बेचारे …मुझ पापिन के लिए बेटन को तो नहीं न छोड़ते… हमको वापसी की गाड़ी मे बिठा दिए…।
बेचारी सुधा समझ नहीं पा रही थी, ये कहानी सुनकर हमसे या रोये ?बूढ़ पुरनिया सही कहते हैं – जो गटई में एक बार घेंघा हो जाए न फिर, जिंदगी भर नहीं जाता। इ सरोज सचमुच उसके गटई की घेंघ ही है… इसे जिंदगी भर ढोना ही है…!