निधि ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में नौकरी देने की प्रक्रिया क्या है। उन्होंने न पीएचडी की है, न उनके लेख किसी प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित हैं। न वह ऐसी महान रिपोर्ट्स कर चुकी हैं कि इतिहास में अमर हो जाने वाली पत्रकार हो गई हों। तो फिर क्या देख कर हार्वर्ड उन्हें हायर कर रहा था।
इन दिनों हार्वर्ड भारत में चर्चा का विषय बना हुआ है। जहां पढ़ना लोगों का सपना हो, वहां यदि किसी को पढ़ाने का मौका मिले, तो खुश होना लाजमी है। भारत का एक टीवी चैनल एनडीटीवी की भूतपूर्व कर्मचारी (भूतपूर्व पत्रकार नहीं, क्योंकि पत्रकार कभी भूतपूर्व नहीं होता) को ऐसा ही ‘ऑफर’ जब मिला तो वो खुशी से फूला नहीं समाईं और तुरंत अपने देशवासियों से इस खुशखबरी को ट्विटर के माध्यम से साझा कर दिया।
उन्होंने अंग्रेजी में ट्वीट किया, i am teaching at Harvard (22 सितंबर 2020)। सरकारी स्कूल की छात्रा हूं और हिंदी माध्यम में पढ़ी हूं फिर भी इसका हिंदी तर्जुमा तो यही हुआ कि “मैं हार्वर्ड में पढ़ा रही हूं।” अब यह तो निधि राजदान ही बताएं कि वह 22 सिंतबर 2020 को ट्विटर पर झूठ बोल रही थीं या अब बोल रही हैं।
क्योंकि एनडीटीवी में लिखे अपने ब्लॉग में उन्होंने कहा है कि कागजी कार्रवाई चलती रही और कोविड-19 की वजह से वह क्लास नहीं ले सकीं। ऑनलाइन भी नहीं। फिर भी बिना जॉइनिंग, बिना एक भी क्लास लिए खुद को हर जगह हार्वर्ड का असोसिएट प्रोफेसर लिखती रहीं, उसी हैसियत से अमेरिका के चुनाव में अपना मत देती रहीं और हर जगह उनका परिचय उस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के तौर पर ही आता रहा। एक पत्रकार जो खुद को जिम्मेदार मानने वाले टीवी चैनल में काम करता है, निजी तौर पर अपनी इतनी भी जिम्मेदारी नहीं समझता कि ट्वीट पर कब क्या लिखना है।
अमेरिकी चुनाव में हार्वर्ड के प्रोफेसर के शब्दों की क्या कीमत है। इस हैसियत से उन्होंने जो भी कहा, उसकी कीमत वसूली होगी, फीस ली होगी जो जाहिर सी बात है, सौ दौ सौ रुपये तो होगी नहीं। ऐसा नहीं है कि निधि इन सब बातों को जानती नहीं है। वह हम लोगों से बेहतर जानती हैं कि एनडीटीवी की पत्रकार होने और हार्वर्ड की प्रोफेसर होने में क्या अंतर है।
निधि को वो लोग महीनों मेल करते रहे और निधि भी महीनों उनके मेल का जवाब देती रहीं। उन्होंने ब्लॉग पर अपनी सफाई में यह भी कहा कि जब वो वहां एक लेक्चर देने गई थीं, तब वहां के किसी व्यक्ति ने उन्हें यह जॉब ऑफर की थी।
जब कोई नतीजा नहीं निकल रहा था तो निधि उन्हें फोन कर सकती थीं, ईमेल कर सकती थीं। यदि वो ऐसा करतीं तो तुरंत ही सच्चाई सामने आ जाती।
अब भी वह सिर्फ सफाई देने का काम कर रही हैं। इसके बजाय उन्हें हार्वर्ड को कटघरे में खड़ा करना चाहिए कि उनका सिस्टम इतना कमजोर कैसे है कि ओरिजनल सिग्नेचर, लैटर हेड कॉपी हो जाता है। लोग उनके स्टाफ के नाम पर दूसरे लोगों से धोखाधड़ी कर लेते हैं। यह कोई छोटी बात नहीं है। निधि इतनी भी इनोसेंट नहीं हैं जितना वो अपनी सफाई में लिख रही हैं। और एक बात जिस पर्सनल डेटा की वो बात कर रही हैं तो कौन नौकरी देने से पहले अकाउंट डीटेल मांगता है भला।
जब विदेश में काम करोगे तो सैलेरी डॉलर में आएगी, तो वहीं किसी बैंक में जमा होगी न? कि भारत के अकाउंट में पैसा देते वो लोग और निधि हर महीने भारत आकर खर्च के लिए पैसे निकालतीं। और यदि किसी ने अकाऊंट डीटेल या पर्सनल डीटेल मांगे और उसे मिल गए तो फिर उसका क्या इंटरेस्ट कि वो आपसे ईमेल- ईमेल खेलेगा। वो आपके अकाऊंट से पैसे निकालेगा और दूसरे शिकार पर निकल जाएगा। फिशिंग बंदा बड़ा वेल्ला था भाई। पर्सनल डेटा लेकर भी उसने निधि का अकाउंट खाली नहीं किया।
सबसे महत्वपूर्ण निधि ने यह भी जानने की कोशिश नहीं की कि हार्वर्ड जैसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में नौकरी देने की प्रक्रिया क्या है। उन्होंने न पीएचडी की है, न उनके लेख किसी प्रतिष्ठित जर्नल में प्रकाशित हैं। न वह ऐसी महान रिपोर्ट्स कर चुकी हैं कि इतिहास में अमर हो जाने वाली पत्रकार हो गई हों। तो फिर क्या देख कर हार्वर्ड उन्हें हायर कर रहा था।
निधि राजदान…भारत के लोग आपके मुकाबले भले ही खराब क्वालिटी का गेहूं खाते होंगे, पर खाते रोटी ही हैं…घास नहीं।
आकांक्षा पारे के लेख ने चौंका दिया ।
साधुवाद
प्रभा मिश्रा