इन हड़ताली दिनों में कुछ पल ऐसे भी आए कि देखने वाला हर इन्सान नर्सों और एम्बुलैंस स्टाफ़ के पक्ष में खड़ा होने को मजबूर हो गया। नर्सें पिकेट लाइन पर खड़ी थीं यानी कि हड़ताल के नारे लगा रही थीं। ऐसे में जब कोई एमरजेंसी केस आ गया तो नर्सें अपनी हड़ताल वाली मुद्रा त्याग कर रोगी की सेवा में पुरज़ोर तरीके से लग गयीं। ठीक ऐसा ही एम्बुलैंस कर्मचारियों ने किया। जब उनके सामने एक मोटर साइकिल सवार का वाहन उलट गया तो वे भी हड़ताल छोड़ उसे प्राथमिक उपचार देने के लिये पहुंच गये। इस तरह नर्सों और एम्बुलैंस कर्मचारियों ने साबित कर दिया कि सरकार से टकराव के चलते वे अपना वेतन बढ़वाने के लिये हड़ताल तो कर सकते हैं; मगर उनके लिये मरीज़ की जान की कीमत कहीं से कम नहीं हो जाती।
चीन से फिर एक बार ख़तरे की घन्टी की आवाज़ सुनाई दे रही है। वहां के नागरिक कोरोना की चपेट में आकर हस्पतालों में दम तोड़ रहे हैं और जनता किसी भी प्रकार के लॉक-डाऊन के लिये तैयार नहीं दिखाई दे रही। चीन में कोरोना की हालत देख कर अमरीका, युरोप, भारत और ब्रिटेन में भी सीट की पेटी बांधने की उद्घोषणा सुनाई देने लगी है।
मगर ब्रिटेन के हालात बहुत ही नाज़ुक स्थिति से गुज़र रहे हैं। लगता है कि इन दिनों हड़ताल का मौसम चल रहा है।इस महीने बस ड्राइवर, रेलवे कर्मचारी, एयरपोर्ट कर्मचारी, एंबुलेंस कर्मचारी, नर्सिंग स्टाफ, सिविल सर्वेण्ट और पोस्टल स्टाफ़ समेत कई विभागों के 2 लाख से ज्यादा कर्मचारियों ने हड़ताल का आह्वान किया है।पूरा ब्रिटेन क्रिसमिस से ठीक पहले जैसे ठप्प सा पड़ता जा रहा है। देश में महंगाई बढ़ रही है और आम आदमी में असुरक्षा और आक्रोश।
शायद इतिहास में पहली बार ब्रिटेन भर से नर्सों ने काम पर हड़ताल की है। हर देश की तरह यहां भी स्वास्थ्य सेवा, रेल, बस आदि को आवश्यक सेवाओं का हिस्सा माना जाता है। मगर जब कोई सरकार अपनी बेवक़ूफ़ियों की वजह से अपने नागरिकों के हितों को दरकिनार कर दे तो हड़ताल और चक्का जाम के अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं बचता है।
लंदन की ओवरग्राउण्ड रेलवे में कोविद-19 के दौरान स्टेशन कर्मचारियों को सबसे अधिक ख़तरे का सामना करना पड़ा था। जब वेतन बढ़ाने का समय आया तो मैनेजमेंट ने अपने आपको तो 12 प्रतिशत और उससे भी अधिक तरक्की दे ली। मगर स्टेशन स्टाफ़ के मामले में हाथ ऊपर खड़े कर दिये। याद रहे कि कोरोना काल में कोविद-19 का मुक़ाबला अस्पताल की नर्सों और डॉक्टरों के बाद रेलवे के कर्मचारी ही कर रहे थे। न जाने कितने रेल-कर्मचारी, बस ड्राइवर कोविद-19 की भेंट चढ़ गये।
अन्य विभागों के कर्मचारियों की हड़ताल तो समझ में आती है। मगर अस्पताल में सेवा करने वाली नर्सों के हड़ताल पर जाने का एक ही अर्थ है कि ब्रिटेन की वर्तमान सरकार लगभग असंवेदनशील हो चुकी है। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तर्ज़ पर ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री बॉरिस जॉन्सनने नर्सों के लिये मोमबत्तियां जलवाईं; तालियां पिटवाईं और तारीफ़ें कीं। पता नहीं तारीफ़ें सच्ची थीं या झूठी। मगर अब नर्सों के नारे हैं – Claps don’t pay bills / NHS Hero, but my purse says Zero / We had enough of praise – we now need a raise /.
यानी कि “तालियों से बिल नहीं भरे जाते / एन.एच.एस. तो हीरो है, मगर मेरा पर्स ज़ीरो है / तारीफ़ तो बहुत सुन ली, अब पगार बढ़ाइये।”
यह किसी भी देश के लिये चिन्ता का विषय होगा जब उसके अस्पतालों में नर्सें और एम्बुलैंस के कर्मचारियों को हड़ताल पर जाना पड़े। इससे अधिक भयावह तो यही हो सकात है कि पुलिस और सेना भी हड़ताल पर चली जाएं। मगर लगता है कि अपने पहले ही इम्तहान में ऋषि सुनक कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं। ऋषि सुनक ने साफ़ कह दिया है कि वह हड़ताल समाप्त करने के लिए नर्सों और एंबुलेंस कर्मचारियों के वेतन में कोई वृद्धि नहीं करेंगे।
ऋषि सुनक ने सेना के जवानों को एंबुलेंस का इंतज़ाम संभालने के आदेश दे दिये हैं। मगर यह कोई तरीका तो नहीं है कि सेना सिविल काम करे। सैनिकों का काम युद्ध है और देश की रक्षा है। उनका काम शांति के दौरान प्राकृतिक विपदाओं में देश की सहायता करना है। मगर उनसे यदि स्वास्थ्य कर्मचारियों की हड़ताल तुड़वाने का काम लिया जाएगा तो क्या यह अन्याय नहीं होगा। कल को यदि सेना के मुखिया मुड़ कर प्रधानमंत्री सुनक को कह दें कि वे नर्सों और एम्बुलैंस स्टाफ़ के विरुद्ध काम नहीं करेंगे तो क्या सैनिक विद्रोह नहीं हो जाएगा?
वैसे यह भी सच है कि पूरे विश्व में कोरोना वायरस और रूस-यूक्रेन युद्ध ने अर्थव्यवस्था का भट्ठा बिठा रखा है। भारत में भी बढ़ती महंगाई पर विपक्ष लगातार शोर मचा रहा है। पाकिस्तान महंगाई के दबाव के नीचे दबा जा रहा है। चीन का तो कोरोना ने बैंड बजा ही रखा है। उसकी अर्थव्यवस्था तो रसातल की ओर जा रही है। हज़ारों लोग मर रहे हैं। ज़ाहिर है कि ब्रिटेन में भी आर्थिक दबाव महसूस किया जा रहा होगा।
मगर यहां ब्रिटेन में एक विशेष किस्म की स्थिति मौजूद है। कोविद-19 के दौरान ब्रिटेन के वित्त-मंत्री ऋषि सुनक ही थे। यानी कि उन्हें मालूम है कि हालात कैसे थे और उनसे कैसे निपटने के प्रयास किये गये थे… कैसी-कैसी योजनाएं बनाईं गयीं थीं। जो योजनाएं ऋषि बना रहे थे उनको प्रधानमंत्री के तौर पर बॉरिस जॉन्सन लागू कर रहे थे। इसका एक ही अर्थ है कि ऋषि सुनक को मालूम है कि क्या सही हुआ और क्या ग़लत। उनसे बेहतर कोई इन्सान ब्रिटेन की समस्या को समझने वाला हो ही नहीं सकता।
ऋषि समस्या को जानते और समझते तो हैं। सवाल यह उठता है कि क्या उनके पास इस समस्या का कोई हल भी है? ब्रिटेन के जिस तरह के हालात इस समय दिखाई दे रहे हैं, लगता नहीं कि सुनक उनसे निपटने के लिये तैयार हैं। यह तो उनकी ख़ुशकिस्मती है कि विपक्षी लेबर पार्टी उन पर सही तरह से दबाव नहीं बना रही। यदि केयर स्टामर मौक़े का फ़ायदा उठाने में सिद्धहस्त होते तो ऋषि सुनक तो कब के छुट्टी मनाने के लिये निकल पड़े होते।
नर्सों की यूनियन ने वेतन में 19 फीसदी वृद्धि की मांग की थी जो अब शायद 15 प्रतिशत पर अड़ गयी है। बीते गुरुवार,15 दिसम्बर को वेतन बढ़ाने और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों की मांग को लेकर सरकार के साथ वार्ता विफल होने के बाद इंग्लैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में नर्सों ने काम बंद कर दिया।
ऋषि सुनक के इस बयान के बादकि वे नर्सों या पैरामैडिक्स के साथ बात नहीं करेंगे, इस महीने की दूसरी 24 घंटे की हड़ताल में मंगलवार को हजारों नर्सों ने काम छोड़ दिया। वहीं एम्बुलेंस ड्राइवर, पैरामेडिकल और डिस्पैचर 21 दिसंबर की हड़ताल के बाद अब 28 दिसंबर को हड़ताल पर जाने के लिए तैयार हैं। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि कल को यदि कोरोना का नया वेरियेन्ट ब्रिटेन में भी तबाही मचा देता है तो प्रधानमंत्री ऋषि सुनक किस मुंह से उन्हें पूरे कमिटमेंट और दक्षता के साथ काम करने को कह पाएंगे।
रॉयल कॉलेज ऑफ नर्सिंग के नर्स यूनियन के प्रमुख पैट कुलेन ने सुनक को वेतन सम्बन्धी मुद्दे पर चर्चा कर कुछ कदम उठाने और इस देश के हर मरीज़ और जनता के सदस्य की ओर से अच्छा काम करने का आग्रह किया है।
यूनियन का कहना है कि अगर समझौता नहीं हुआ तो वह जनवरी में और हड़तालें करेगी। नर्सों ने हड़ताल के दौरान महत्वपूर्ण देखभाल और कैंसर सेवाओं सहित प्रमुख क्षेत्रों में कर्मचारियों के लिए सहमति व्यक्त की है, लेकिन इंग्लैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड में हजारों ऑपरेशन और प्रक्रियाएं रद्द कर दी गई हैं। जबकि स्कॉटलैंड में नर्सें हड़ताल पर नहीं हैं।
जानकारों का कहना है कि कुछ समय तक तो सरकार इन हड़तालों से होने वाले नुक़्सान की भरपाई कर लेगी… लेकिन अगर यह लंबे समय तक चलता रहा तो ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था घुटनों पर आ सकती है… और ज़ाहिर है कि यह प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की सेहत के लिये अच्छा नहीं होगा।
ऋषि सुनक की सरकार पर दबाव बढ़ने की दो बड़े कारण हैं…
– पहला, सुनक की कंजर्वेटिव पार्टी के कई नेताओं ने सरकार से कर्मचारियों की मांगों पर ध्यान देने के लिए कहा है। सुनक पर आरोप लग रहे हैं कि वे भी पिछले प्रधानमंत्रियों की तरह ही हैं। वे इस मुद्दे पर कोई निर्णय लेना ही नहीं चाहते। अगर पार्टी के अंदर पल रहा असंतोष बढ़ा तो उनके ख़िलाफ़ भी माहौल तैयार हो सकता है। ऐसे में सुनक का कुर्सी पर बने रहना आसान नहीं रह जाएगा।
– दूसरा कारण विपक्ष से जुड़ा है। ब्रिटेन की मुख्य विपक्षी लेबर पार्टी का जन्म ट्रेड यूनियन आंदोलन से ही हुआ है। फ़िलहाल, 12 ट्रेड यूनियनें लेबर पार्टी से जुड़ी हुई हैं। लेबर पार्टी को मिलने वाली फ़ंडिंग का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा ट्रेड यूनियनों से आता है। विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ेगा। यह भी तय है कि हड़ताल का मुद्दा किसी ना किसी रूप में ब्रिटेन की बड़ी आबादी को प्रभावित करता है। इसका असर आने वाले चुनावों पर पड़ सकता है।
ऋषि सुनक के लिए आगे की राह कतई आसान नहीं होने वाली है। अपनी तरफ़ से वे इसे संभालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं… सच तो यह है कि उनका राजनीतिक कैरियर इस कोशिश की सफलता पर निर्भर करेगा।
मगर इन हड़ताली दिनों में कुछ पल ऐसे भी आए कि देखने वाला हर इन्सान नर्सों और एम्बुलैंस स्टाफ़ के पक्ष में खड़ा होने को मजबूर हो गया। नर्सें पिकेट लाइन पर खड़ी थीं यानी कि हड़ताल के नारे लगा रही थीं। ऐसे में जब कोई एमरजेंसी केस आ गया तो नर्सें अपनी हड़ताल वाली मुद्रा त्याग कर रोगी की सेवा में पुरज़ोर तरीके से लग गयीं। ठीक ऐसा ही एम्बुलैंस कर्मचारियों ने किया। जब उनके सामने एक मोटर साइकिल सवार का वाहन उलट गया तो वे भी हड़ताल छोड़ उसे प्राथमिक उपचार देने के लिये पहुंच गये।
वैसे भी एम्बुलैंस कर्मचारियों ने हड़ताल पर जाने से पहले यह वादा कर दिया था कि इमरजेंसी मामले में वे रोगी की सहायता के लिये उपलब्ध होंगे।
इस तरह नर्सों और एम्बुलैंस कर्मचारियों ने साबित कर दिया कि सरकार से टकराव के चलते वे अपना वेतन बढ़वाने के लिये हड़ताल तो कर सकते हैं; मगर उनके लियेमरीज़ की जान की कीमत कहीं से कम नहीं हो जाती। वेतन बढ़ाने के लिये दिमाग़ लड़ रहा है तो मरीज़ों और रोगियों के प्रति उनका दिल ठीक उसी तरह महसूस करता है जैसा कि हड़ताल पर जाने से पहले करता था। कहा जाता है न कि “बहुत कठिन है डगर पनघट की!” कुछ ऐसी ही कठिन राह ब्रिटेन के स्वास्थ्य कर्मचारियों की भी है।
कोरोना का नया वेरिएंट कोविड Omi Chron xbbपहले से ज्यादा खतरनाक बताया जा रहा है, मतलब कि इस बार जिंदगी पहले से ज्यादा खतरे में है. हमारे देश की एक प्रबल दुविधा यह है कि हमारे यहां सब कुछ इमरजेंसी की तरह घोषित किया जाता है ,मतलब पहले से कोई तैयारी नहीं, कोई अपडेट नहीं, अचानक समाचार पत्रों ,सोशल मीडिया के माध्यम से चीन की वास्तविकता को सामने लाना सबसे ज्यादा हड़बड़ी पैदा करता है । ऐसा लगता है हमारे सरकार की ट्यूबलाइट देर से जलती है अचानक से एडवाइजरी जारी कर देना. पहले से दिन देश दुनिया में क्या हो रहा है उसकी कोई खबर ना रखना .सबसे बढ़िया बात अपने सरकारी कार्यक्रमों को चालू रखना और देश के बाकी हिस्सों में *कोरोना कोरोना* का शोर मचाना. आज जरूरत है ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की अनुशासन पद्धति को अपनाने की और यह समझने की कि पिछले कोरोना काल मे ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने अपने नागरिकों की रक्षा किस प्रकार की। उम्मीद है कि इस बार किसी भारतवासी को जान से हाथ ना धोना पड़े।
दीपा, कोरोना आसानी से न तो समझ में आने वाली ब्रा है न ही नियंत्रण में। मगर संपादकीय का मुख्य मुद्दा ब्रिटेन में नर्सों और एंबुलेंस कर्मचारियों की हड़ताल है।
किसी भी व्यवस्था के बुनियादी कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने से वह चरमराएगी अवश्य, इस बात पर राजनेता कैसे आँखें बंद कर लेते हैं। युद्ध और कोरोना के नये वैरिएंट का प्रहार पहले से ही आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर हो चुकी दुनिया के लिए झेलना बहुत मुश्किल काम होगा। राजनेताओं और नागरिकों को अपनी सभी कोशिशें करनी होंगी कि दुनिया अब बढ़ौतरी की ओर चले न कि मंदी के गड्ढे में और नीचे लुढ़क जाए।
आपके सम्पादकीय से ब्रिटेन की वर्तमान हालत बहुत नाज़ुक लगती है उम्मीद करती हूँ कि जल्दी ही उसमें सुधार आएगा।
आपने अपने संपादकीय में बढ़ते कोरोना के प्रकोप के साथ ब्रिटेन में नर्सों और एम्बुलैंस कर्मचारियों की हड़ताल तथा सरकार का उदासीन रवैया का विवरण देते हुए कहा है कि सरकार से टकराव के चलते वे अपना वेतन बढ़वाने के लिये हड़ताल तो कर सकते हैं; मगर उनके लिये मरीज़ की जान की कीमत कहीं से कम नहीं हो जाती। वेतन बढ़ाने के लिये दिमाग़ लड़ रहा है तो मरीज़ों और रोगियों के प्रति उनका दिल ठीक उसी तरह महसूस करता है। काश भारत में भी ऐसा ही हो पाता!! यहाँ तो हड़ताल का मतलब है, लोगों को परेशान कर,सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाकर अपना विरोध प्रकट करना। सदा की तरह परिस्थितियों का बेबाक चित्रण करता संपादकीय।
समाज के जिस वर्ग ने मानवधर्म का पालन करते हुए कोविड काल में सेवाएं दीं, और कई लोगों ने जान भी दे दी ऐसे लोगों के बारे में सरकार का व्यवहार संवेदनशील होना चाहिए सिर्फ़ तारीफ़ करने से उनके जीवन पर असर नहीं पड़ेगा ।
कोविड अभी समाप्त नहीं हुआ है ,अतः ब्रिटेन के साथ पूरी दुनिया को अपने देश की आधारभूत
सेवाओं पर गम्भीरता से चिंतन करने की जरुरत है। सम्पादकीय असरदार हो जाए
Dr Prabha mishra
संपूर्ण विश्व की राजनीति का मूल उद्देश्य ही मानो संवेदना और मानवता को मूल से नष्ट कर देना हो गया है! अब जहां मानवता को ही खतरा हो वहां किसी भी हड़ताल से क्या होगा? कोरोना वास्तव में मानवता को ही समूल नष्ट करने तो आया है तो मुद्दा यह है कि चारों ओर भटकाव की स्थिति पनप चुकी है।केंद्र में भले ही नर्स और एम्बुलेंस चालक हैं पर सच्चाई ये है कि भीतर से संपूर्ण मानवता भयावह स्थिति में आ चुकी है।साधुवाद संपादक महोदय ,मानवता को बचाने की गुहार को अपनी कलम से पाठकों तक पहुंचाने और कुर्सी की सच्चाई से वाकिफ कराने के लिए।धन्यवाद।
ब्रिटेन का भाग्य ख़राब है या नेता? यही देश कभी पूरी दुनिया पर राज करता था, आज देश और कर्मचारी नहीं सम्भाले नहीं सम्भल रहे , कारण समझ से परे है। सेना को लगा कर एक उचित माँग को नकारना कुछ ज़्यादा ही नाइंसाफी है। ये नेता क्या कभी अपने कोष या वेतन से ऐसे मुद्दों के लिए धन नहीं निकाल सकते।
कोरोना और रूस – यूक्रेन ने तो विश्व का सत्यानाश किया हुआ है। खोजपरक अच्छे संपादकीय को पढ़ कर अच्छा लगा, बाकी हम सब का भविष्य क्या है, कोई नहीं जानता, पढ़ने का वक़्त अच्छा कटा, धन्यवाद सम्पादक जी ।
यह सभी के लिए एक कष्टकर स्थिति है। एक लंबी घुटन के बाद साँस लेने के लिए ज़रा सा झरोखा खुला था किंतु उस झरोखे से आम आदमी के लिए फिर से ऐसी कठिनाइयाँ पैदा होने की संभावना है, जोऔर भी कष्ट पूर्ण दिखाई दे रही है।
नर्सो के रवैये से मानवता की संवेदना झलकती है। यह बहुत कोमल मुद्दा है।यह वास्तव में श्रेष्ठ कार्य है। साधुवाद उन सभी को जो किसी भी स्थिति में मानवता के प्रति इउमानदार बने रहते हैं।
अब आपके सुनक जी की यह पहली कठिन परीक्षा है।
हमारे भारत के राजनीतिज्ञों नै तो सुना कोरोना को आदेश दे दिए हैं कि वापिस नहीं घुस सकता। पता नहीं कौनसी शीट लगा दी है!
भविष्य कहीं भी सुरक्षित दिखाई नहीं देता।काश! इस छोटी सी ज़िंदगी में आदमी चैन से साँस ले सके।
समसामयिक कठिन समस्या पर बेबाकी से लिखने के लिए आपको साधुवाद !
अब तक लोगों को यह लगता रहा है कि विकसित राष्ट्रों में कोई समस्या नहीं होती खासतौर से भारत की आम जनता यही सोचती है। यथार्थ है कि
हर देश की स्थिति बदलती है।
परंतु आपातकालीन सेवाएं देने वाले कर्मचारियों की बात किसी भी राष्ट्र की सरकार को सुलझाना चाहिए।
संपादकीय से यह जाना।
वर्तमान ब्रिटेन की स्थिति से आपने वाक़िफ कराया।
अन्यथा लोगों को यह लगता रहा है कि विकसित राष्ट्रों में कोई समस्या नहीं होती खासतौर से भारत की आम जनता यही सोचती है। यथार्थ है कि
हर देश की स्थिति बदलती है।
परंतु आपातकालीन सेवाएं देने वाले कर्मचारियों की बात किसी भी राष्ट्र की सरकार को सुलझाना चाहिए।
A thoughtful n thought provoking Editorial.
Speaks about the low wages of British nurses n ambulance workers n their strike for a raise.
Also points out how even during the strike these people do serve civilians when need be.
Very creditable indeed.
Regards
Deepak Sharma
नई-नई किस्तों में ,नए रूप में मानवता को आतंकित करता करोना और साथ ही उससे लड़ने की मानवीय जिजीविषा को इंगित करता आपका संपादकीय बहुत रोचक हैः साधुवाद
सबसे विशिष्ट बात जो आपके संपादकीय में मुझे लगी, वह है मानव की मूलभूत आवश्यकताओ ,राजनैतिक जिम्मेदारियों, भय की मूल मानव वृत्ति के साथ-साथ नर्सों और सुरक्षाकर्मियों के सोने जैसे दिल की ओर संकेत करना- वाह, बहुत बढ़िया!
कोरोना का नया वेरिएंट कोविड Omi Chron xbbपहले से ज्यादा खतरनाक बताया जा रहा है, मतलब कि इस बार जिंदगी पहले से ज्यादा खतरे में है. हमारे देश की एक प्रबल दुविधा यह है कि हमारे यहां सब कुछ इमरजेंसी की तरह घोषित किया जाता है ,मतलब पहले से कोई तैयारी नहीं, कोई अपडेट नहीं, अचानक समाचार पत्रों ,सोशल मीडिया के माध्यम से चीन की वास्तविकता को सामने लाना सबसे ज्यादा हड़बड़ी पैदा करता है । ऐसा लगता है हमारे सरकार की ट्यूबलाइट देर से जलती है अचानक से एडवाइजरी जारी कर देना. पहले से दिन देश दुनिया में क्या हो रहा है उसकी कोई खबर ना रखना .सबसे बढ़िया बात अपने सरकारी कार्यक्रमों को चालू रखना और देश के बाकी हिस्सों में *कोरोना कोरोना* का शोर मचाना. आज जरूरत है ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की अनुशासन पद्धति को अपनाने की और यह समझने की कि पिछले कोरोना काल मे ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने अपने नागरिकों की रक्षा किस प्रकार की। उम्मीद है कि इस बार किसी भारतवासी को जान से हाथ ना धोना पड़े।
दीपा, कोरोना आसानी से न तो समझ में आने वाली ब्रा है न ही नियंत्रण में। मगर संपादकीय का मुख्य मुद्दा ब्रिटेन में नर्सों और एंबुलेंस कर्मचारियों की हड़ताल है।
बहुत सही आकलन
नर्सों की हड़ताल, ब्रिटेन की वस्तुस्थिति की विस्तृत विश्लेषण…विकसित देशों का हल भी कोई बहुत अच्छा नहीं।
धन्यवाद जया।
किसी भी व्यवस्था के बुनियादी कर्मचारियों के हड़ताल पर जाने से वह चरमराएगी अवश्य, इस बात पर राजनेता कैसे आँखें बंद कर लेते हैं। युद्ध और कोरोना के नये वैरिएंट का प्रहार पहले से ही आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर हो चुकी दुनिया के लिए झेलना बहुत मुश्किल काम होगा। राजनेताओं और नागरिकों को अपनी सभी कोशिशें करनी होंगी कि दुनिया अब बढ़ौतरी की ओर चले न कि मंदी के गड्ढे में और नीचे लुढ़क जाए।
आपके सम्पादकीय से ब्रिटेन की वर्तमान हालत बहुत नाज़ुक लगती है उम्मीद करती हूँ कि जल्दी ही उसमें सुधार आएगा।
प्रगति दर असल स्थिति ऐसी है कि पूरा यूरोप कोरोना के नये वेरिएंट से मुकाबला करने के लिए तैयार नहीं है।
आपने अपने संपादकीय में बढ़ते कोरोना के प्रकोप के साथ ब्रिटेन में नर्सों और एम्बुलैंस कर्मचारियों की हड़ताल तथा सरकार का उदासीन रवैया का विवरण देते हुए कहा है कि सरकार से टकराव के चलते वे अपना वेतन बढ़वाने के लिये हड़ताल तो कर सकते हैं; मगर उनके लिये मरीज़ की जान की कीमत कहीं से कम नहीं हो जाती। वेतन बढ़ाने के लिये दिमाग़ लड़ रहा है तो मरीज़ों और रोगियों के प्रति उनका दिल ठीक उसी तरह महसूस करता है। काश भारत में भी ऐसा ही हो पाता!! यहाँ तो हड़ताल का मतलब है, लोगों को परेशान कर,सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाकर अपना विरोध प्रकट करना। सदा की तरह परिस्थितियों का बेबाक चित्रण करता संपादकीय।
सुधा जी, आपने सही तथ्यों की ओर इंगित किया है।
समाज के जिस वर्ग ने मानवधर्म का पालन करते हुए कोविड काल में सेवाएं दीं, और कई लोगों ने जान भी दे दी ऐसे लोगों के बारे में सरकार का व्यवहार संवेदनशील होना चाहिए सिर्फ़ तारीफ़ करने से उनके जीवन पर असर नहीं पड़ेगा ।
कोविड अभी समाप्त नहीं हुआ है ,अतः ब्रिटेन के साथ पूरी दुनिया को अपने देश की आधारभूत
सेवाओं पर गम्भीरता से चिंतन करने की जरुरत है। सम्पादकीय असरदार हो जाए
Dr Prabha mishra
इस संवेदनशील टिप्पणी के लिये धन्यवाद प्रभा जी।
संपूर्ण विश्व की राजनीति का मूल उद्देश्य ही मानो संवेदना और मानवता को मूल से नष्ट कर देना हो गया है! अब जहां मानवता को ही खतरा हो वहां किसी भी हड़ताल से क्या होगा? कोरोना वास्तव में मानवता को ही समूल नष्ट करने तो आया है तो मुद्दा यह है कि चारों ओर भटकाव की स्थिति पनप चुकी है।केंद्र में भले ही नर्स और एम्बुलेंस चालक हैं पर सच्चाई ये है कि भीतर से संपूर्ण मानवता भयावह स्थिति में आ चुकी है।साधुवाद संपादक महोदय ,मानवता को बचाने की गुहार को अपनी कलम से पाठकों तक पहुंचाने और कुर्सी की सच्चाई से वाकिफ कराने के लिए।धन्यवाद।
ब्रिटेन का भाग्य ख़राब है या नेता? यही देश कभी पूरी दुनिया पर राज करता था, आज देश और कर्मचारी नहीं सम्भाले नहीं सम्भल रहे , कारण समझ से परे है। सेना को लगा कर एक उचित माँग को नकारना कुछ ज़्यादा ही नाइंसाफी है। ये नेता क्या कभी अपने कोष या वेतन से ऐसे मुद्दों के लिए धन नहीं निकाल सकते।
कोरोना और रूस – यूक्रेन ने तो विश्व का सत्यानाश किया हुआ है। खोजपरक अच्छे संपादकीय को पढ़ कर अच्छा लगा, बाकी हम सब का भविष्य क्या है, कोई नहीं जानता, पढ़ने का वक़्त अच्छा कटा, धन्यवाद सम्पादक जी ।
यह सभी के लिए एक कष्टकर स्थिति है। एक लंबी घुटन के बाद साँस लेने के लिए ज़रा सा झरोखा खुला था किंतु उस झरोखे से आम आदमी के लिए फिर से ऐसी कठिनाइयाँ पैदा होने की संभावना है, जोऔर भी कष्ट पूर्ण दिखाई दे रही है।
नर्सो के रवैये से मानवता की संवेदना झलकती है। यह बहुत कोमल मुद्दा है।यह वास्तव में श्रेष्ठ कार्य है। साधुवाद उन सभी को जो किसी भी स्थिति में मानवता के प्रति इउमानदार बने रहते हैं।
अब आपके सुनक जी की यह पहली कठिन परीक्षा है।
हमारे भारत के राजनीतिज्ञों नै तो सुना कोरोना को आदेश दे दिए हैं कि वापिस नहीं घुस सकता। पता नहीं कौनसी शीट लगा दी है!
भविष्य कहीं भी सुरक्षित दिखाई नहीं देता।काश! इस छोटी सी ज़िंदगी में आदमी चैन से साँस ले सके।
समसामयिक कठिन समस्या पर बेबाकी से लिखने के लिए आपको साधुवाद !
धन्यवाद प्रणव जी इस संवेदनशील टिप्पणी के लिए।
अब तक लोगों को यह लगता रहा है कि विकसित राष्ट्रों में कोई समस्या नहीं होती खासतौर से भारत की आम जनता यही सोचती है। यथार्थ है कि
हर देश की स्थिति बदलती है।
परंतु आपातकालीन सेवाएं देने वाले कर्मचारियों की बात किसी भी राष्ट्र की सरकार को सुलझाना चाहिए।
संपादकीय से यह जाना।
ब्रिटेन के हालात पर तथ्यपरक लेख
धन्यवाद पल्लवी जी।
वर्तमान ब्रिटेन की स्थिति से आपने वाक़िफ कराया।
अन्यथा लोगों को यह लगता रहा है कि विकसित राष्ट्रों में कोई समस्या नहीं होती खासतौर से भारत की आम जनता यही सोचती है। यथार्थ है कि
हर देश की स्थिति बदलती है।
परंतु आपातकालीन सेवाएं देने वाले कर्मचारियों की बात किसी भी राष्ट्र की सरकार को सुलझाना चाहिए।
ब्रिटेन की वर्तमान स्थिति से अवगत। साथ ही लोगों ने यह जाना कि समस्याएं विकसित राष्ट्रों में भी होती हैं।
धन्यवाद क्षमा जी।
A thoughtful n thought provoking Editorial.
Speaks about the low wages of British nurses n ambulance workers n their strike for a raise.
Also points out how even during the strike these people do serve civilians when need be.
Very creditable indeed.
Regards
Deepak Sharma
Thanks Deepak ji. We feel honoured, as even when you’re not well, you spared time to not only read the editorial, but also write a comment.
नई-नई किस्तों में ,नए रूप में मानवता को आतंकित करता करोना और साथ ही उससे लड़ने की मानवीय जिजीविषा को इंगित करता आपका संपादकीय बहुत रोचक हैः साधुवाद
सबसे विशिष्ट बात जो आपके संपादकीय में मुझे लगी, वह है मानव की मूलभूत आवश्यकताओ ,राजनैतिक जिम्मेदारियों, भय की मूल मानव वृत्ति के साथ-साथ नर्सों और सुरक्षाकर्मियों के सोने जैसे दिल की ओर संकेत करना- वाह, बहुत बढ़िया!