आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, ‘साहित्य में जो मनोवृत्ति दिखाई पड़ती है, उसका निर्माण सामाजिक, राजनैतिक, वैचारिक आदि परिस्थितियों के अनुरूप होता है। दूसरी बात कि साहित्य की एक धारा हमारे सामने मौजू़द होती है। इस धारा में समय समय पर बदलाव दिखाई पड़ते हैं।
इन्हीं परिवर्तनों का सामंजस्य सामाजिक परिवर्तनों के साथ साहित्य में दिखाना होता है। इसी परिप्रेक्ष्य में यदि हिन्दी के पाठकों की बात करें तो दो श्रेणियां दिखाई देती हैं : एक वे लोग – जो लिखते है और दूसरों का पढ़ते है , उनका विश्लेषण करते हैं , अपने गुट बना लेते हैं , दूसरों की आलोचना करते हैं , आत्म मुग्धता के शिकार हैं , ये लोग संख्या में कम हैं किन्तु समझते हैं कि सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का वर्त्तमान व भविष्य वे ही तय करते हैं . दूसरे- वे पाठक गण हैं जिनके लिए तथाकथित साहित्य रचा जाता है किन्तु उनकी पसंद नापसंद को महत्त्व नहीं दिया जाता है, एक आम पाठक साधारण भाषा में लिखा वह साहित्य पसंद करता है जो उसके मन की , उसके परिवेश की बात करता हो। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो साहित्य की परंपरा जनता की चित्तप्रवृत्तियों से प्रभावित होती है और जनता की चित्तवृत्ति बहुत से साहित्येतर कारकों से निर्मित होती है।‘
इसी परिप्रेक्ष्य में प्रवासी हिंदी लेखन पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि वहां जो लेखन हो रहा है, क्या उसे मुख्य धारा के लेखन के समकक्ष रखा जा सकता है? प्रवासी लेखन पर बात करें उससे पहले सवाल उठता है कि यह मुख्य धारा क्या है और क्या इसके तहत विधाओं के लेखन के लिये कोई मानदंड हैं जिनकी कसौटी पर लेखन को कसा जाये। दरअसल गत कुछ वर्षों से हिंदी साहित्य जगत में कई धाराएं चल रही हैं और वे अपने पूरे उफान पर हैं और उनके बीच दलित लेख़न, स्त्री-लेखन, प्रगतिशील लेखन, आंचलिक लेखन, वामपंथी लेखन दक्षिणपंथी लेखन पिस रहे हैं और उनमें एक नया लेखन और समाविष्ट हो गया-प्रवासी लेखन।
अब साहित्य में जो इतनी धाराएं समानांतर रूप से चल रही हैं तो एक बात सामने आ रही है कि यह लेखन न होकर जाति और लिंग आधारित लेख़न हो गया है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो हम हिंदीवाले अपने आपको बांटने की बड़ी भारी क्षमता रखते हैं। हमने ये चौखटे ख़ुद बनाये हैं, अपनी अलग पहचान बनाने के चक्कर में।
इन हालात को देखकर मुझे ऐसा लगता है कि लेखकों के आगे एक भ्रामक स्थति पैदा हो गई है कि उसका लेखन किस श्रेणी के तहत रखा जायेगा। तो आप ही बताईये कि जब हम किसी धारा विशेष के तहत लेखन करेंगे तो वह सही अर्थों में लेखन नहीं होगा बल्कि वर्ग-विशेष को संतुष्ट करने का लेखन होगा।
मेरी समझ से हम पहले ख़ुद से संतुष्ट हो लें, यह बहुत ज़रूरी होगा। मेरे नजरिये से मुख्य धारा का मतलब है कि जो कहानियां मानवीय सरोकारों से जुड़ी हों, जिनके लिखने का कुछ मक़सद हो, सिर्फ़ लिखने के लिये न लिखा जा रहा हो। जो कहानियां पाठक को सोचने के लिये विवश करें, उनके दिलो-दिमाग़ को उद्वेलित करें, जिन रचनाओं को पढ़कर सामाजिक बदलाव की सकारात्मक सोच उत्पन्न हो सके। ऐसी कहानियों को मैं मुख्य धारा के अन्तर्गत मानने के हक़ में हूं। चाहे वे कहानियां प्रवासी लेखकों की ही क्यों न हों।
प्रवासी लेखन को लेकर मैंने मुख्य धारा के लिये वरिष्ठ रचनाकारों, आलोचकों द्वारा निर्धारित मानदंडों को खंगाला पर ऐसा विशेष कुछ हाथ नहीं लगा। ऐसे में मुझे फेसबुक के अपने साहित्यिक मित्र याद आये और वहां मुख्य धारा के मानदंडों के मुद्दे को उठाया। वहां से मुझे अपने सवाल का जबाब मिला पर वह भी स्पष्ट कुछ भी नहीं। विचार विमर्श हुआ। मित्रों ने मुख्य धारा के नाम पर चल रहे भेद भाव पर अपना आक्रोश जताया कि जिन लोगों ने रचनाकारों को ख़ुद के सर्टिफिकेट से उन्हें मुख्य धारा का लेख़क बनाने का ज़बरन ठप्पा लगाने का ठेका लिया है, उन्हें यह अधिकार किसने दिया है।
वहीं यू ए ई के रचनाकार कृष्णबिहारी के अनुसार ‘आज की तारीख हिंदी में सामयिक लेखन जहां भी हो रहा है वह हिंदी साहित्य ही नहीं बल्कि किसी भी भाषा के मुख्य धारा से जुड़ा लेखन है। प्रवासी लेखन नाम मिल जाने से या किसी के द्वारा कह दिये जाने से रचनाकार पर कोई अच्छा या बुरा असर नहीं पड़ता।‘ वहीं भारत की चर्चित समीक्षक सरिता शर्मा कहती हैं, ‘मुख्य धारा में होने लायक और उनमें होना दोनों अलग-अलग बातें हैं। इसमें भारतीय या प्रवासी का कोई ख़ास भेदभाव नहीं है। साथ ही साहित्य में राजनीति और किसी धारा में शामिल होने का जुगाड़ ख़तरनाक है।‘
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए पुनीत बिसारिया तो ज़रा तल्ख़ होकर कहते हैं, ‘हिंदी में हर ध्वजाधारी साहित्यकार की अपनी एक मुख्य धारा है। वास्तविकता तो यह है कि साहित्य की मुख्य धारा को कुछ लोगों ने अपनी ओर मोड़ लिया है और उनके विचारों से ही हम संचालित होने लगे हैं।
साहित्य की पहली शर्त पठनीयता है, जिस पर यदि ये ख़रे उतरते हैं तो इन्हें साहित्य की मुख्य धारा का अहंकार साहित्य कोटि से क्यों बहिष्कृत रखना चाहता है?’ मेरे इन मित्रों की बातचीत के आधार पर एक बात तो सामने आती है कि संवेदनाएं सार्वभौमिक हैं। साहित्य में तो विचारधारा ही महत्वपूर्ण है। यदि मुख्य धारा का अस्तित्व या इसे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करना ही चाहें तो इसे ‘कालजयी साहित्य’ के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है, बतौर एक मापदंड और कसौटी। हिंदी में अच्छा लिखा जा रहा है, यह सच है लेकिन फिर भी सवाल ‘कालजयी’ तक आकर रुक जाता है।
अब जहां तक प्रवासी लेखन की बात है तो उषा प्रियवंदा, सुषम बेदी, तेजेन्द्र शर्मा का लेखन धाराओं के विवादों से परे, मुख्य धारा के तहत गिना जाता है। इन्हें भारत के स्थापित रचनाकारों में गिना जाता है। मसलन, उषा प्रियवंदा की कहानी ‘वापसी’ जो मील का पत्थर है। सुषम बेदी का ‘मैंने नाता तोड़ा’ बहुचर्चित उपन्यास है। भारत मे ही नहीं दुनिया भर में औरत के शरीर को लेकर उसे हर तरह से सहना पडा है। घर में अपने ही चाचा-मामा लोभ संवरण नहीं कर पाते। यह हर घर की कहानी है।
अमरीका मे तो सौतेला बाप भी लडकी का दुश्मन होता है. घर- घर की कहानी यही है पर लोग छुपाते फिरते हैं। आप ही बताएं कि क्या भारत के घरों में यह नहीं होता? तेजेन्द्र शर्मा की कहानियां देह की कीमत, ढिबरी टाइट उन्हें भारत के स्थापित रचनाकारों की श्रेणी में ला खड़ा करती है। इसलिये इन रचनाकारों के लेखन पर बात करने के बजाय भारत से बाहर लिखे जा रहे साहित्य की उन रचनाओं को आपके सामने रखना चाहूंगी जिन्हें सामाजिक सरोकारों की वजह से मुख्य धारा की कहानियों में शामिल करने पर विचार किया जा सकता है।
मुझे यह कहने में बिल्कुल संकोच नहीं है कि मैंने अपने इस पेपर में समाहित रचनाओं के रचनाकारों के पूरे लेखन को नहीं पढ़ा है। व्यावहारिक रूप से यह संभव भी नहीं है। जिस प्रकार चावल गले या नहीं, यह देखने के लिये दो-चार चावल उंगली से दबाकर देखे जाते हैं, नकि भगौने के पूरे चावल। उसी प्रकार जो रचनाएं अपने को सहजता से पढ़वा ले जायें, जिनमें सामाजिक सरोकार हों, भाषा सरल हो, डिक्शनरी देखकर शब्दों का प्रयोग न किया गया हो, कठिन शब्दों का प्रयोग पाठक की एकाग्रता को भंग करता है। इसी परिप्रेक्ष्य में मैंने अमेरिका, यू के, कैनेडा और मॉरीशस के रचनाकारों की कुछ कहानियां पढ़ीं।
यू के की रचनाकार उषा वर्मा की कहानी ‘रौनी’ रंगभेद के शिकार रौनी नामक बच्चे की कहानी है जहां वह फॉस्टर अभिभावक के साथ दर-दर भटकने को अभिशप्त है। बाल मनोविज्ञान की यह कहानी उस बच्चे की मानसिक कहानी बयां करती है जहां वह अपने स्कूल के एक टीचर की मि. ह्यूबर्ट की हैवानियत का शिकार होता रहता है। वे रौनी के साथ सेक्स करते हैं और साथ ही किसी का बताने पर उसे स्कूल से निकलवाने की धमकी भी देते हैं।
उसका काला होना ही मानो उसका क़सूर है और इसका आभास उसे क़दम-दर क़दम कराया जाता है। यह कहानी भारत के परिवेश को व्यक्त नहीं करती? क्या भारत में होमो सेक्सुअल नहीं है? भारत में रंगभेद न सही पर जाति भेद के आधार पर इस तरह की हरकतें की जाती हैं। कारण अलग-अलग हो सकते हैं पर मानसिकता तो एक ही है।
इसी प्रकार यू एस ए की कहानीकार सुधा ओम ढींगरा की कहानी क्षितिज़ से परे एक ऐसे दंपत्ति की कहानी है जहां पत्नी सारंगी अपने पति से सुलभ से शादी के चालीस साल बाद बच्चों के सैटल होने के बाद तलाक़ का फै़सला लेती है। अपने अस्तित्व की तलाश में वह पति के सारे अत्याचार सहती रही और जब पानी सिर से ऊपर हो गया तब उसने फैसला किया और महसूस किया कि वह सोच और समझ दोनों में वह अपने पति सुलभ से बहुत आगे निकल गई है।
उसके अनुसार, ‘मेरी प्राथमिकताएं बदल गई हैं…भावनात्मक स्तर पर मैं उनसे बहुत दूर निकल चुकी हूं…क्षितिज़ से परे…मैं सचमुच सुलभ से ‘रिलेट’ नहीं कर सकती। इस कहानी को पढ़ने के बाद मुझे लगा कि जहां भारत में शादी के 40 वर्ष बाद नारी ज़िन्दगी जीने के लिये विवश होती है, भले ही उसे कितनी ही प्रताड़ना मिले। वह तलाक लेने के विषय में सोच नहीं पाती, वहीं विदेशों में महिला उम्र के ढलते पड़ाव में भी तलाक लेने का साहस करती है।
लेस्टर की कथाकार नीना पॉल की कहानी ‘आख़िरी गीत’ बाल मनोविज्ञान की कहानी है जहां पति कपिल और पत्नी अंजलि के बीच नीरज आ जाता है। नीरज और अंजलि के किन्हीं कमज़ोर क्षणों का संसर्ग सोनल के रूप में सामने आता है जिसके परिणामस्वरूप कपिल घर छोड़कर चले जाते हैं ताकि अंजलि नीरज के साथ रहे। बावज़ूद इसके वे अंजलि अैर बेटी सोनल से बहुत प्यार करते हैं।
सोनल को यह ग़लतफ़हमी है कि पापा छोड़कर गये और वह अपने पिता कमल से मिलना ही नहीं चाहती पर जब मां के आग्रह पर वह अपने भाई चिराग के साथ अपने पिता के यहां छुट्टियां बिताने जाती है तो पता चलता हे कि उसके पिता को फेफड़ों का कैंसर है और वे चंद महीनों के मेहमान हैं। तब वह अपने पिता की सारी इच्छाएं पूरी करने की कोशिश करती है और यहां तक कि वह अपने पिता के लिखे आख़िरी गीत को अपना पहला गीत बनाकर पिता के संगीत को आगे ले जाती हैऔर इस तरह अपने पिता को एक तरह से वह अनोखे रूप से श्रद्धाजंलि देती है, साथ ही जब उसे पिता के घर छोड़ने का कारण पता चलता है तो वह अचानक कह बैठती है, ‘आई डोंट बिलीव दिस। इट वाज़ यू माम।‘ बच्चे के मन की कशमकश से ओतप्रोत यह कहानी बाल-मन की कथा और विदेशों में पारिवारिक विघटन की कहानी कहती है।
यू एस ए की कथाकार सुदर्शन प्रियदर्शिनी की कहानी अख़बारवाला पाठकों को निःस्तब्ध कर देनेवाली कहानी है। यहां जीवन को केवल जीवन समझकर जिया जाता है, वह भी अपने लिये…केवल अपने लिये। ठीक, स्वस्थ्य, भरपूर सुविधाओं से भरा-पूरा होना- जीने की अनिवार्य शर्त है। उसके बाहर सब मिथ्या है।’ सुदर्शनजी की यह कहानी बहुत ही मार्मिक है और पाठकों को विदेशों की वस्तुस्थिति से परिचित कराती है। वहां हर इंसान को ख़ुद में ही बन्द रहना होता है। न एक-दूसरे से बोलना न चालना। विदेशों की संवेदनहीनता को जिस प्रकार सुदर्शनजी ने दर्शाया है, वह सच में पठनीय है और यही संवेदनहीनता भारत में भी प्रवेश करती जा रही है।
मॉरीशस के कथाकार वेणीमाधव रामखेलावन की कहानी जय दुर्गे एक ऐसे मज़दूर की दास्तान है जो ज़मींदार के अत्याचारों से पीड़ित है। भारत से ले जाये गये इन मज़दूरों के साथ जो अमानवीय व्यवहार किया जाता है, उसकी दास्तान है यह कहानी, साथ ही ईश्वर के प्रति उस आस्था की कहानी जिनको ये मज़ूर अपने साथ ले जाते हैं और वहां भी पूजते हैं, जैसे भारत में देवी-देवताओं को पूजा जाता है।
इनकी यह आस्था इस कहावत को चरितार्थ करती है कि मानो तो पत्थर भी देवता हैं और न मानों तो देवता भी पत्थर हैं। तो बात आस्था की है जिसके बल पर भिख्खू अपने बेटे बुधवा की मौत का बदला जमींदार को मारकर लेता है। मॉरीशस में भारतीय मज़दूरों पर किये जानेवाले अत्याचारों की मार्मिक कहानी है यह। यह कहानी पढ़ते समय मेरे जेहन में भारत में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या की घटनाएं लगातार आती रहीं और मन-मस्तिष्क को मथती रहीं।
यू एस ए के रचनाकार उमेश अग्निहोत्री की कहानी क्या हम दोस्त नहीं रह सकते विजय और विजया की दोस्ती पति-पत्नी के रिश्ते में परवान चढ़ती है। पति पत्नी बनते ही विजया विजय से दूर होती जाती है और सप्ताहांत गर्ल्ज़ नाइट आउट में गुजरना पसन्द करती है। जब विजय विजया से इस दूरी का कारण पूछती है तो वह बेबाक़ रूप से उत्तर देती है, ‘जब तुम दोस्त थे तब तुम इतने पजेसिव नहीं थे जितने अब हो रहे हो। तुमने भी लड़कों से मिलवाया था, वे हैंडसम तो थे पर वे मेरी ज़िन्दगी का रिमोट अपने हाथ में रखना चाहते थे।…मेरे ‘मूवमेंट्स’ को ‘मैनेज’ करना चाहते थे। कोई भी मुझे मेरी आज़ादी देने को तैयार नहीं था।….तुम मुझे अधिक संवेदनशील और उदार जान पड़े थे। मुझे मेरी आज़ादी देते थे। सोचने की वह आज़ादी अब भी दे पाओगे?’ स्त्री चाहे कहीं की भी हो वह पति के रूप में बॉडीगार्ड कभी नहीं चाहती। भारत की महिलाएं भी अब पति की तरह ख़ुद के लिये स्पेस मांगने लगी हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये कि वे अब वह स्पेस लेने लगी हैं तो अतिरेक नहीं होगा। हां यह भी सच है कि भारतीय परिवारों में गर्ल्ज़ नाइट आउट शुरू नहीं हुआ है।
कैनेडा की रचनाकार स्नेह ठाकुर की कहानी ‘प्रथम डेट’ एक अनूठी थीम के साथ अपनी बात कहती है। पति अनिल अपने फ्लर्ट स्वभाव के कारण अपनी पत्नी निधि को छोड़कर अपनी से आधी उम्र की लड़की जूली के साथ रहने लगते हैं। ऐसे में निधि के जीवन में पियूष आते हैं और वे निधि को डेट के लिये आमंत्रित करते हें1 निधि को पेशोपेश की स्थिति से उसकी बेटी अदिति उबार लेती है। वह अपनी मां को पियूष से मिलने के लिये सजाती है, संवारती है। उस असमंजस की स्थिति से निकलने के बाद उसने पाया, ‘दर्पण से झांकती अपनी आंखों को देख मैं चौंक पड़ी, उनमें प्रथम डेट का भय नहीं था, वरन् थी आशा की किरण।‘ इस कहानी की विशेषता यह लगी कि एक बेटी अपनी मां को मानसिक रूप से तैयार करती है। निधि बगावत नहीं करती बल्कि निर्णय लेती है।
तो इन कहानियों को पढ़ते समय लगातार मन में यही उमड़ता-घुमड़ता रहा कि ये कहानियां कहीं से भी तो क़मतर नहीं लगतीं। सिर्फ़ दूसरे देश में रहकर लिखे जाने मात्र से ही तो साहित्य विभाजित नहीं हो जाता। ये कहानियां पढ़ते समय यही भान होता रहा कि ये कहानियां कहीं से भी तो बेग़ानी नहीं लगतीं। हमारी और आसपास के परिवेश की ही तो हैं। मेरे मित्र ओम निश्चल का कहना है, ‘यह बात ज़रूर है कि कोई भी लेखक हर समय श्रेष्ठ नहीं रच रहा होता। जैसे हर रचना कालजयी नहीं होती, वैसे ही हर लेखक मुख्य धारा में नहीं रखा जा सकता। समय अपने आप लोगों को हाशिये में डालता जाता है। जो धारा के विरुद्ध जाकर रचते हैं, वही टिक पाते हैं। मुहिम चलाकर या लामबंदी से कोई लेखक नहीं बनाया जा सकता।‘
आगे वे कहते हैं, ‘सभी गाड़ियां राजधानी नहीं होतीं। यही हाल लेखकों को भी है। सभी शिखर पर नहीं होते। शिखर बनते-बिगड़ते रहते हैं। मुख्य धारा शब्द का आतंक फैला है। इसकी जगह व्यापक धारा या व्यापकता के बारे में चर्चा होनी चाहिये। साथ ही यह बात समझ में नहीं आती कि साहित्य इतने टुकड़ों में क्यों बंटा है। साहित्य तो साहित्य है। पाठक को असमंजस की स्थिति में नहीं रखना चाहिये। अग़र कृति में दम है तो वह अपनी धारा ख़ुद बना लेती है। कमज़ोर कृतियों को ही किसी नाम के सहारे से आगे बढ़ाया जाता है और वह साहित्य में आरक्षण जैसा है। मुख्य धारा है ज़रूर और वह हमारे आसपास हवा पानी की तरह मौजू़द है पर हम उसे ठीक-ठीक पहचान नहीं पाते।‘ वहीं हरीश नवल कहते हैं, ‘हां, सत्य है कि प्रवासी साहित्य हिंदी की मुख्य धारा का साहित्य ही है। हां, जैसे भारत के सभी हिंदी लेखक मुख्य धारा में नहीं आते, वैसे ही हर प्रवासी लेखक मुख्य धारा में नहीं हो सकता। केवल लिखने से लेखक मुख्य धारा में नहीं आ सकते।
समय-सीमा को ध्यान में रखते हुए अपनी बात को इस प्रकार कह सकती हूं कि साहित्य की मुख्य धारा मानवीय मूल्यों को केंद्र में रख कर लिखा जा रहा सब कुछ है. विधा कुछ भी हो सकती है, भाषा कुछ भी हो सकती है, देश कोई भी हो सकता है. साहित्य को आप और हम क़बीलों मे नहीं बँट सकते. समीक्षकों और आलोचकों का अपना महत्व है लेकिन उनकी भूमिका सीमित है. वे न साहित्य के निदेशक हैं न प्रवर्तक. कोई क्षमतावान रचनकार ही कभी आकर्षित करता है, प्रभावित करता है, और नई लीक भी बनाता है. देखना है तो उनकी ओर देखिए आप को सारे उत्तर वहीं मिल जाएंगे. जैसे मधुमक्खियों को मधु संचय केलिए बड़ी मशक्कत करनी होती है उसी तरह हम भी इस टोह में रहते हैं कि कहीं से कुछ ऐसा मिले जो जीवन की बेचैनियों को तरतीब दे। कम से कम मेरे लिये तो यही मुख्य धारा है।
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि हमें यह तय करना होगा कि साहित्य की मुख्य धारा क्या है? क्या केवल कुछ मठाधीशों, गुटबाजों और राजनीतिक उठा-पटक के माध्यम से प्रकाशित हो जाने या स्थापित हो जानेवाले लेखक ही हिंदी साहित्य की मुख्य धारा में आते हैं? क्या केवल किसी ख़ास वैचारिक चिंतन को लेकर चलनेवाले लोग ही साहित्य की मुख्य धारा कहे जा सकते हैं? आज हिंदी साहित्य की तथाकथित मुख्य धारा के स्थापित मठाधीश- मठाधीश कैसे बने, इनके इस तमगे का कोई इतिहास नहीं है1 यह हमारे दिमाग़ की उपज है और हमें इन ख़ेमों से बाहर रहकर सामाजिक सरोकारों की कहानियों को प्रश्रय देना होगा।
हां, प्रवासी साहित्य के नाम पर पाठकों के सामने अल्लम बल्लम न परोसा जाये। विदेश में रहकर लेखन करनेवाले रचनाकारों को अपने लेखन में सामाजिक सरोकार, वहां के परिवेश को लाना होगा। सिर्फ़ सेक्स या पारिवारिक विघटन न दिखाकर बल्कि उन कारणों को भी दिखायें जिनसे ये परिस्थितियां पैदा हुईं और समाधान भी दिखायें। समाधान न दिखाकर दूसरे रास्ते पर चल देना तो कोई साहित्य न हुआ। रचनाकारों को ख़ुद की रचनाओं को फिल्टर करना होगा और स्वस्थ रचनाएं देना होगा जो पाठकों के लिये प्रेरणा बने नकि सिरदर्द बने।
रामावतार त्यागी का एक गीत जो लेखकों लेखकों के बीच के स्तर ओर अस्तर दोनों को उरेहता, उधेड़ता -सा लगता है। आपके समक्ष प्रस्तुत है और इसीके साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूं।
मैं भी कुछ लिखता हूँ
हॉं तुम भी लिखते हो
मेरे भी ग्राहक है
हॉं, तुम भी बिकते हो
होने को फिर भी कुछ अंतर तो होता है
पंडित के श्लोकों में, गणिका के मुजरे में।
कितनी शानदार आलोचना है यह लेखन के स्तर को जांचने परखने के लिए। मुख्यधारा की भी चौहद्दियां प्रशस्त होती रहती है, उनमें दाखिले की जगह होती है। पर जो मुख्यधारा में शामिल किये जाने या होने की चिंता में ही दुबला हुआ जा रहा है, ऐसे लेखक का कुछ नही किया जा सकता।
इस आलेख में समाविष्ट कहानियां- प्रवासी दुनिया से साभार।