महामारी का रूप धारण कर चुके कोरोना वायरस के संक्रमण ने देश-दुनिया में बेहद भयावह परिस्थितियां पैदा कर दी है। अभी भी दुनिया भर के जीव विज्ञानियों के बीच इस बात पर जद्दोजहद चल रही है कि कोरोना वायरस ‘कोविड-19’ आखिर आया कहाँ से?

हालांकि ज़्यादातर जीव विज्ञानी इस बात से सहमत हैं कि चमगादड़ कोरोना वायरस को फैलाने वाला एक प्राकृतिक स्रोत है, मगर हमारे पास फिलहाल यह मानने का कोई भी आधार नहीं है कि यह वायरस सीधे चमगादड़ से इंसानों में पहुंचा है। जीव विज्ञानियों का मानना है कि कोरोनो वायरस के चमगादड़ से इंसानों में फैलने के बीच कोई अन्य जानवर इंटरमिडिएट (बिचौलिया) या होस्ट हो सकता है। सवाल यह उठता है कि यह बिचौलिया जीव आखिर कौन है?

हाल ही में प्रतिष्ठित साइंस जर्नल ‘नेचर’ में प्रकाशित हुए एक शोधपत्र में यह दावा किया गया है कि इंसानों में यह वायरस ‘पैंगोलिन’ से आया है। इस अनुमान की एक वज़ह यह है कि कोविड-19 उस वायरस फैमिली का सदस्य है जिसके अंदर कई सार्स (सीवीयर एक्यूट रेसपिरेटरी सिंड्रोम)-सीओवी व मेर्स (मिडल ईस्ट रेसपिरेटरी सिंड्रोम)-सीओवी आते हैं जिनमें से कई चमगादड़ में पाए जाते हैं और वह किसी बिचौलिए जीव के जरिए पहले भी इंसानों को संक्रमित कर चुके हैं।

जैसे कि 2003 में जो सार्स का आउटब्रेक हुआ वह इंसानों में सिवेट बिल्ली से चीन में फैला, हालांकि यह वायरस चमगादड़ में पहले से मौजूद रहा है। 2012 का मर्स फ्लू ऊंटों से इंसानों में फैला और इसका केंद्र सऊदी अरब था। 2009 का बहुचर्चित स्वाइन फ्लू मैक्सिको में शुरू हुआ और वह सुअरों के जरिए इंसानों तक पहुंचा।

इस शोध के जरिये वैज्ञानिकों ने कहा है कि पैंगोलिन में ऐसे वायरस मिले हैं जो कोरोना वायरस से काफी हद तक मेल खाते हैं। पैंगोलिन एक लगभग विलुप्तप्राय जीव हैं। इसके के बारे में कहा जाता है दुनिया भर मे इसकी बहुत ज्यादा तस्करी होती है। पारंपरिक चीनी दवाइयों के निर्माण में पैंगोलिन का इस्तेमाल होता है। चीन में कई लोग इसके मांस को भी बड़े चाव से खाते हैं। चीन, वियतनाम और एशिया के कुछ देशों में इसके मांस को स्टेटस सिंबल से भी जोड़कर देखा जाता है। नए रिसर्च में पाया गया है कि पैंगोलिन में पाए गए कोरोना वायरस की जीन संरचना मौजूदा कोरोना वायरस की जीन संरचना से 88.5 फीसदी से लेकर 92.4 फीसदी तक मेल खाता है।

चमगादड़ के अलावा कोरोना वायरस के परिवार से संक्रमित होने वाला पैंगोलिन इकलौता स्तनपायी जीव है। लेकिन ये शोध अभी भी शुरुआती चरण में है इसलिए इस मामले में जीव विज्ञानी किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने को लेकर सावधानी बरत रहे हैं। शोधकर्ताओं ने सलाह दी है कि पैंगोलिन पर और ज्यादा नज़र रखे जाने की ज़रूरत है ताकि कोरोना वायरस के उभरने में उनकी भूमिका और भविष्य में इसांनों में उनके संक्रमण के ख़तरे के बारे में पता लगाने के बारे में एक समझ बनाई जा सके। कई जीव विज्ञानियों का यहाँ तक कहना है कि भविष्य में इस तरह के संक्रमण टालने हैं तो जंगली जीवों के बाज़ारों में जानवरों की बिक्री पर पूरी तरह से  प्रतिबंध लगा देनी चाहिए।

सोशल मीडिया पर कोविड-19 से जुड़ी कई तरह के मिथकों और कॉन्सपिरेसी-सिद्धांतों की बाढ़ आई हुई है। जैसे यह दावा कि कोरोना वायरस चीनी वैज्ञानिकों द्वारा प्रयोगशाला में निर्मित एक जैविक हथियार है। जबकि प्रतिष्ठित साइन्स जर्नल ‘नेचर मेडिसिन’ में प्रकाशित शोधपत्र से यह पता चलता है कि यह वायरस कोई जैविक हथियार न होकर प्राकृतिक है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर ये वायरस लैब निर्मित होता तो सिर्फ-और-सिर्फ इंसानों के जानकारी में आज तक पाए जाने वाले कोरोना वायरस के जीनोम सीक्वेंस से ही इसका निर्माण किया जा सकता, मगर वैज्ञानिकों द्वारा जब कोविड-19 के जीनोम को अब तक के ज्ञात जीनोम सीक्वेंस से मैच किया गया तब वह एक पूर्णतया प्राकृतिक और अलग वायरस के तौर पर सामने आया है। नोवल कोरोना वायरस का जीनोम चमगादड़ और पैंगोलिन में पाए जाने वाले बीटाकोरोना वायरस के समान है।

दरअसल पश्चिमी मीडिया ने भी इस बात को खूब प्रचारित-प्रसारित किया कि कोरोना वायरस चीन की प्रयोगशाला में एक जैविक हथियार के रूप में विकसित किया गया था। हद तो तब हो गई जब अमेरिकी समाज विज्ञानी स्टीवन मोशर का ‘न्यूयॉर्क पोस्ट’ में लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने यह संभावना जताया कि कोविड-19 वायरस को वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलोजी की किसी प्रयोगशाला में बनाया गया है, जहां से वह असावधानीवश लीक हुआ है। वायरस की ज्ञात किस्मों की जीन सिक्वेंसिंग के बारे में उपलब्ध डेटा की तुलना के बाद अधिकांश जीव विज्ञानी यह दृढ़तापूर्वक कह रहे हैं कि इस वायरस की उत्पत्ति प्राकृतिक प्रक्रियाओं से हुई है।

होम्योपैथी और आयुर्वेद में कोविड-19 के इलाज के दावे किए जा रहे हैं, लेकिन चिकिसा विज्ञानियों की माने तो यह दावे सही नहीं है। क्योंकि यह वायरस नया है। जब तक किसी दवा का क्लिनिकल ट्रायल नहीं हो जाता तब तक हम नहीं कह सकते कि यह दवा काम करेगी या नहीं। अभी कुछ कहना जल्दबाजी ही होगी। ऐसी ही अनेक दावे जैसे गौमूत्र पीने या लहसुन खाने से कोरोना का संक्रमण नहीं होता, मांसाहारी भोजन करने वाला व्यक्ति ही इससे संक्रमित होता है वगैरह-वगैरह भी मिथक हैं।

अब तक हमारे पास कोविड-19 का कोई विशेष उपचार उपलब्ध नहीं है। इसलिए अभी लक्षणों का ही इलाज किया जा रहा है। इसका मतलब यही है कि रोगी को सांस लेने में सहायता मिले, बुखार पर नियंत्रण रखा जाए और पर्याप्त तरल शरीर में पहुंचाया जाएं। फिर भी जीव विज्ञानियों ने कुछ उपाय सुझाए हैं और कुछ प्रगति भी की है। बहरहाल, इस संदर्भ में वर्तमान में दो रास्ते अपनाए जा रहे हैं।

पहला रास्ता है कि पुराने एंटी वायरल दवाओं को कोविड-19 के उपचार में इस्तेमाल करने की कोशिश करना। वैसे भी अभी हाल तक हमारे पास वास्तव में कारगर एंटी वायरल दवाइयां बहुत कम थीं। खास तौर से ऐसे वायरसों के खिलाफ औषधियों की बेहद कमी थी, जो जेनेटिक सामग्री के रूप में डीएनए की बजाय आरएनए का उपयोग करते हैं, जिन्हें रिट्रोवायरस कहते हैं। कोरोना वायरस इसी किस्म का वायरस हैं। और कोविड-19 तो एक नया वायरस या किसी पुराने वायरस की नई किस्म है।

लेकिन हाल के वर्षों में वैज्ञानिक शोधों की बदौलत हमारे एंटी वायरल जखीरे में काफी तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसा कतई नहीं है कि रोज–दो–रोज में दवा बाजार में आ जाएगी। जो भी दवा इस रोग पर कारगर लगता है उसकी तरह–तरह से, विविध परिस्थितियों में जांच करनी होगी, ताकि उसके दुष्प्रभाव जाने जा सकें, उसे प्रभावशाली बनाया जा सके। तो फिलहाल यह तरीका ठीक ही लगता है कि नई दवा का इंतजार करते हुए पुरानी दवाओं को आज़माया जाए।

दूसरा रास्ता है कि इसके लिए (टीके) वैक्सीन की खोज को निरंतर जारी रखी जाए। दरअसल, जब कोई वायरस शरीर में प्रवेश करता है तो उसे कोशिकाओं के अंदर पहुंचना पड़ता है। कोशिकाओं में प्रवेश पाने के लिए वह कोशिका की सतह पर किसी प्रोटीन से जुड़ता है। यह प्रोटीन रिसेप्टर-प्रोटीन कहलाता है। वायरस के रिसेप्टर मानव कोशिका झिल्ली (ह्यूमन सेल मेंबरीन) को तोड़ देते हैं और कोशिकाओं में घुस जाते हैं। वायरस को कोशिकाओं में घुसने और उन्हें संक्रमित करने के लिए इस प्रक्रिया की जरूरत होती है।

शोधकर्ता कोरोना वायरस के इसी रिसेप्टर को लक्षित करके वैक्सीन विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। उनका मानना है कि अगर वायरस के स्पाइक प्रोटीन रिसेप्टर को लॉक कर दिया जाए तो उसे मानव कोशिकाओं में घुसपैठ करने से रोका जा सकता है। वैज्ञानिक वायरस के संक्रमण के किसी भी चरण में बाधा पहुंचाकर वायरस का प्रसार रोक सकते हैं। करीब 20 वैक्सीन अभी विकास की अवस्था में हैं और एक वैक्सीन के जानवरों पर परीक्षण से पहले ही मनुष्यों पर ट्रायल शुरू हो गया है।

वायरसों के साथ दो प्रमुख समस्याएं होती हैं। पहली है कि वायरस में बहुत विविधता पाई जाती है। दूसरी दिक्कत है कि वायरस आपकी अपनी कोशिका की मशीनरी का उपयोग करते हैं। इस वजह से वायरस के कामकाज में बाधा डालते हुए खतरा यह भी रहता है कि कहीं आपकी कोशिकीय मशीनरी प्रभावित न हो। बहरहाल, इन मामलों से निपटने के लिए जीव विज्ञानी दिन-रात अनुसंधानरत हैं।

महामारी का कहर कैसे बरपा होता है और एक झटके में हजारों जिंदगियां तथा देश-समाज कैसे तबाह हो जाते हैं, 21वीं सदी में दुनिया के ज्यादातर लोगों ने इसका जिक्र कहानियों में ही सुना होगा। लेकिन कोरोना वायरस ने उन कहानियों और उसके खौफ को फिर से लोगों में बसा दिया है।

कुल मिलाकर वर्तमान स्थिति यह है कि कोविड-19 तेज़ी से फैल रहा है, कोई पक्का इलाज उपलब्ध नहीं है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि आने वाले दिनों में यह बीमारी क्या रुख अख्तियार करेगी। अत: इसे फैलने से रोकने के उपाय करना ही बेहतर होगा। ऐसे में सामाजिक दूरी बनाये रखकर इसकी रोकथाम में योगदान दें। हमें मानवता को बतौर एक जाति मानना ही होगा, पूरी दुनिया को मिलकर इसका हल खोजना होगा, एक-दूसरे से निरंतर संवाद करना होगा, तभी इसका बेहतर ढंग से सामना किया जा सकता है। जैसे-जैसे विज्ञान अपने पुष्ट मत रखता जाएगा, वैसे-वैसे कोविड-19 से लड़ने में हम बेहतर सिद्ध होते जाएँगे।

प्रदीप कुमार, विज्ञान विषयों के उभरते हुए लेखक हैं. दैनिक जागरण, नवभारत टाइम्स, इलेक्ट्रॉनिकी आदि देश के अग्रणी पत्र-पत्रिकाओं में इनके विज्ञान विषयक आलेख प्रकाशित होते रहते हैं. संपर्क - pk110043@gmail.com

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