वह मेरे सैलून में सामने की कुर्सी पर चुपचाप आकर बैठ गई और धीरे से कहा — ‘बाल कटवाने हैं।’
‘पर आपके बाल तो बेहद खूबसूरत हैं! मैं इन्हें ट्रिम कर देती हूँ।’
‘नहीं कटवाने हैं।’
कच-कच-कच-कच बाल नीचे गिरते रहते हैं और वह एक बार भी नहीं देखती।
‘मैम हो गया आप देख लीजिए।’
‘नहीं अभी नहीं हुआ। और छोटे कर दो।’
कच-कच-कच-कच बाल एक बार फिर नीचे गिरते रहते हैं।
‘मैम हो गया, अब आपको पसंद आएगा।’
‘और छोटे!’
कच-कच-कच-कच…
‘और छोटे…’
‘और!’
‘हाँ! और…’
मैम इतने सुंदर लम्बे बाल को कंधे तक छोटे कर दिया।
अब और कितना छोटा करूँ?’
‘इतना कि यह किसी के पकड़ते समय हाथ में न आ सकें!’
आँसू उसकी आँखों से बह मेरे हाथों की नसों से होते हुए नीचे कटे बालों पर गिरते चले जाते हैं। मेरी कैंची चलती जा रही है। कच-कच-कच-कच मैं इस तर्पण को उसके साथ चुपचाप पूरा कर रही हूँ….
(कल कुछ देखा सोशल मीडिया पर… कि अपने आपको लिखने से रोक न पाई)
स्वाति आपकी लघुकथा उम्दा है, सामयिक संवेदना से उपजी अभिव्यक्ति में मर्म है।
Dr Prabha mishra
Bhopal
बहुत कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया, वाह दिल छू लिया
स्वाति श्वेता की अद्भुत लघुकथा। सब सामने, जो अनकहा है
छतलानी जीमारलघुकथाएँ।
माँ भारती नेमप्लेट में रहती है, यथार्थवादी तंज।
अन्य भी पठनीय।