विभिन्न रंगों के ऊँचे, भरे-पूरे पर्वतों की श्रेणियांँ। हरियाली से आच्छादित पर्वतों के बीच की पगडंडियाँ। पहाड़ काट-काट कर बनाए गए रास्तों का जाल। हिमाच्छादित चीड़, देवदार, शाल के काफी ऊँचे-ऊँचे विटप।तुषार धवल पर्तमालाएँ। नदी, नालों, झरनों की कल-कल ध्वनि और इन सबके बीच बहता जीवन। दार्जिलिंग को पहाड़ों की रानी कहा जाता है। स्वाभाविक है कि यह रानी अत्यधिक सौंदर्यवती होगी। लेकिन…कंचनजंघा की चोटी पर स्थित इस पहाड़ों की रानी के पास ही एक और नन्हां सा पर्यटन स्थल है। और वह है मिरिक!
एक छोटी पर बेतरह आकर्षक जगह। मिरिक का सौंदर्य किसी भी तरह दार्जिलिंग के सौंदर्य से कम नहीं होगा, ऐसा मिरिक की ओर बढ़ते हुए गाड़ी में बैठे-बैठे उसका सौंदर्यपान करते वक्त महसूस किया।
ड्राइवर ने बताया था – मिरिक एक नए पर्यटन स्थल के रूप में तेजी से अपनी पहचान बना रहा है। वहाँ देखते हुए हम आगे सिलिगुड़ी की ओर जा सकते हैं।
– हाँ! हम जरूर देखना चाहेंगे।
– ठीक है, चलता हूँ। वहाँ नारंगी बाग भी देख सकते हैं, सर!

जैसे-जैसे हम दार्जिलिंग से नीचे की ओर उतर रहे थे, वैसे-वैसे प्रकृति की अप्रतिम सुंदरता हमें अवाक् कर रही थी। घुमावदार, पहाड़ी सड़कों पर सरपट दौड़ती गाड़ी के शीशे पर ओस-सी जल की बूँदें टपक रहीं थीं। झरने, नदी के साथ सड़क किनारे आकाश से मिलने के लिए भागते पेड़ों की फुनगी दिखलाई पड़ रही थी। कहीं-कहीं न उनकी जड़ें नज़र आ रहीं थीं, न ही फुनगी । गहरी घाटी में झाँकने पर या ऊपर तलाशने पर भी ओर-छोर का पता नहीं।

हाँ, एक जगह ऐसी मिली, जहाँ पूरे देवदार सामने थे …जड़ से फुनगी तक। उस मनमोहक मोड़ ने हमारा रास्ता रोक लिया और हम गाड़ी से उतर पड़े। हर पर्वतीय क्षेत्र की तरह जलधर हमारा स्वागत कर रहे थे। उड़ते हुए बादल…आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, हर तरफ बादल और धुंध में खो से गए वृक्षों का समूह। कभी-कभी जैसे कलाईयों को छेड़ते हुए भाग जाए।

फिर आगे बढ़ते हुए हम उस छोटे… बहुत छोटे स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ सड़क के एक ओर भारत, दूसरी तरफ छोटा सा भूखंड नेपाल के अंतर्गत है। एकदम छोटे से भूखंड पर खड़े होकर सैलानी साश्चर्य अपने हिंदुस्तान की सड़क तथा बेहद नीचे वादी में दोनों देशों के घरों को देख रहे थे।
घाटियों में श्वेत-श्याम छतोंवाले गृह। दोनों देशों के घरों के अंतर को दर्शाने के लिए दो तरह के रंग में रंगी छतोंवाले मकान।
दूर बर्फ से आच्छादित नग भारत और नेपाल की सीमा पर एक साथ गलबहिया डाले खड़े थे। पूरा दृश्य अद्भुत। इधर पलटूँ तो स्वदेश, उधर देखूँ तो विदेश। मन था कि भरा नहीं परन्तु हमारी मंजिल मिरिक थी। समय किसी के लिए नहीं ठिठकता पल भर को भी। वक्त की तरह हम भी ठहर नहीं सकते थे। हम विदेश नेपाल को अलविदा कह, उसी रोड से, जो देश में था, आगे बढ़े। कटावदार खूबसूरती का आन्नद लेते हुए विस्तृत हिमालय की गोद में लेटे मिरिक के व्यस्त बाजार में जा पहुँचे। स्थानीय पोशाक में स्थानीय लोग अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे।
पार्वत्य खूबसूरती का अस्सीम विस्तार देख याद आया

– यज्ञानां जपयज्ञो स्थि स्थानराणां हिमालयः

पहाड़ के गर्भ में मिरिक झील हमारी असली मंजिल थी। हम बीच में मिले बाजार और बस्ती का मोह छोड़ और आगे बढ़ चले। पहाड़ के गर्भ में झील… काफी बड़ी।

गाड़ी रूकी नहीं कि आगवानी करने श्वेत बादलों का झुंड उमड़ पड़ा। धुंध से भरे हाथ को हाथ सुझाई न देनेवाली जगह पर हम उतर तो गए, झील तक जाएँ कैसे, किधर से?  कुछ भी तो नज़र नहीं आ रहा था। थोड़ी ठंढ थी, घन हमें घेरे हुए थे।
लगा, एक… बस एक मुट्ठी जलधर चुराकर ले चलूँ। रेतीले समुद्र तल, नदी के पथरीले किनारों से रेत या चिकने पत्थर उठाकर लाना तो संभव है लेकिन जगह-जगह हमसे आँखमिचौली खेल रहे जलधर को लाना संभव था? यहाँ उसने हदें तोड़ दीं थीं।

अभी बगल में खड़ा व्यक्ति नज़र नहीं आ रहा था, अभी धूप खिल उठी। हटते धुरंधरों के साथ झील के पास जाने का रास्ता दिखलाई पड़ने लगा था। अन्यथा हम टटोलते हुए एक बड़े से गड्ढे के पास रुक उसे ही मिरिक झील समझ बैठे थे। आनंदित हो रहे थे। यह हमारे साथ बादलों की आँखमिचौली… ज्यादा देर नहीं चली। काफी बड़े मैदान के पार बहुत बड़ी विलक्षण झील थी। पीछे ऊँचे-ऊँचे दरख़्त। दरख्तों की छाया झील में जल संग डोलती हुईं… कभी हिलोरें ले गुम सी जातीं। बोटिंग की उत्तम सुविधा।

मैदान में दौड़ते घोड़ों को देख उस पर चढ़ने का लोभ यायावर छोड़ नहीं पा रहे थे। हम भी घोड़ेवाले से बात करने आगे बढ़े। अब भी बादल हाथों-चेहरों को छूकर निकल रहे थे। नेपाल या आस-पास से आजीविका की तलाश में आए लोग, अनगिनत घोड़ेवाले। गोरे-गोरे, ललछौंही रंगत.. चमकती त्वचावाले किशोर, युवा… भर दिन घोड़ों को दौड़ाते हुए अपने घरों की जिम्मेदारी उठाते हैं। इन मेहनतकशों की अथक-अकथ मशक्कत मन में कसक पैदा करती है। समरसता-समानता की बात बेमानी सी लगती है। लेकिन यही जीवन है।

हमने भी घुड़सवारी की, थोड़ा डरते हुए, थोड़ा आन्नद लेते हुए। अब ये आपकी मर्जी, खुद ऐड़ लगाकर दौड़ा दें अश्व ।या उसकी लगाम थाम अश्वारोहण करें पर चलें घोड़ेवाले के सहारे। आप घोड़े पर सवार उसकी दुलकी चाल के साथ, वह रास थामे पैदल चलता या दौड़ता हुआ आपके साथ।
अश्वारोहण के पश्चात् झील के शांत-स्वच्छ जल पर नौकाओं की सैर का मजा नहीं लिया, तो मिरिक घूमने का आन्नद अधूरा रह जाता है। बोटिंग की बहुत अच्छी व्यवस्था थी। नौकायन करते समय खिली धूप में शीतल हवा मन को सहला रही थी। हमारी उमंग तथा खुशी और बढ़ गई।
झील के पास ही अच्छे होटल, दुकानें, नर्सरी आदि थीं। कुछेक दुर्लभ पौधे नर्सरी की शोभा बढ़ा रहे थे। हमने चंद आकर्षक पौधे खरीदे। एक कैक्टस पर गुलाबी-गुलाबी घनी बुनावटवाला पुष्प …जैसे मुश्किल ज़िंदगी के बीच उल्लास के राग। काफी सालों तक वह मनमोहक कैक्टस साथ भी रहा। खूब घना होकर। गमले के साथ मन में भी खिलता हुआ, मन को खिलाता हुआ। बुढ़ापे में काल-कवलित।

कई घंटे वहाँ गुजारने के बाद हम सिलीगुड़ी की राह पर। फिर, फिर आकर्षित करता रहा मिरिक का बिखरा सौंदर्य। चाय बागान, बागानों में काम करती स्त्रियों का झुंड। हम जब निकल रहे थे, धूप-छाँव खेलती प्रकृति रोने लगी थी। विदाई के अश्रु बूँदों की शक्ल में गिर रहे थे। जैसे-जैसे हम नीचे उतर रहे थे, एक मटमैली नदी साथ चल रही थी…संभवतः तिस्ता। जलद जलविहीन हो रहे थे, गर्मी बढ़ती जा रही थी।

हमें अफ़सोस रहा, मिरिक की एक और बड़ी ख़ासियत नारंगी बाग नहीं देख पाए। फिर भी जितना देखा, अपने देश के पग-पग पर बिखरी खूबसूरती को दर्शानेवाला लगा। समय की कमी थी, उसी दिन सिलीगुड़ी पहुँचना जरूरी था। दूसरे दिन वापस लौटना था।
पर्वतराज हिमालय के उन भोले-भाले, श्रमशील, अपने काम से काम रखनेवाले अहिंदीभाषियों का हिंदी में बात करना भी खूब भाया। पर्यटन हिंदी के विकास में कितना सहायक है, यह बात सुखद एहसास देती रही। प्रायः हर पर्यटन स्थल पर अन्य भाषा-भाषी हिन्दी बात करते हुए मन मोह लेते हैं। अनेकता में एकता का दर्शन!
सड़क मार्ग से जुड़े, इस नयनाभिराम दृश्यों से भरे स्थल से एक मुट्ठी बादल न ला पाने का गम भी रहा, बादलों की गोद में खेल पाने की खुशी भी।
यहाँ दार्जिलिंग से सड़क मार्ग से आसानी से आया जा सकता है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.