“अपनी-अपनी मंज़िलें” कविता संग्रह जीवन का सच्चा दर्पण

मॉरीशस में दो वर्ष की कालावधि में यहाँ के अनेक पर्यटक स्थलों का भ्रमण करने, सागर तटों पर घंटों बैठकर उसके नीले रंग की फेनिल लहरों की सुन्दर छवि को निहारने के साथ-साथ देश के अनेक हिंदी लेखकों से मिलकर उनकी रचनाएं सुनने तथा उनकी रचनाओं को पढ़ने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ है.

इसी दौरान एक दिन साहित्यिक व्याखान में इंदिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र फीनिक्स में डॉ. सुरीति रघुनन्दन से भेंट हुई. वे मॉरीशस की बहुत प्रतिष्ठित लेखिका हैं. उनका कविता संग्रह “अपनी – अपनी मंजिलें” वर्ष 2017 के अंत में प्रकाशित उनकी प्रथम रचना है. इस कविता – संग्रह में उनकी कुल 42 कवितायेँ संगृहित की गई हैं. इस संग्रह में कुल पृष्ठ संख्या 96 और इस पुस्तक का मूल्य 275/- रु. है. इस संग्रह को अमृत प्रकाशन शाहदरा दिल्ली से प्रकाशित किया गया है. लेखिका एक दशक से अधिक समय से मॉरीशस तथा भारत में आयोजित अनेक काव्य गोष्ठियों में अपनी कविताओं का काव्य पाठ करती रही हैं. इनकी कविताओं में देश के चौरंगे झंडे की अनुपम छटा तथा कविताओं में जीवन के इन्द्रधनुषी रंगों की स्पष्ट झलक दिखलाई पड़ती है.

लेखिका की कविताओं में उनकी जन्म भूमि भारत की बहुत सी पुरानी यादों की बानगी मिलती है जिन्हें डॉ सुरीति ने अपने अंतर्मन के किसी कोने में संजोकर रखा था. उन्होंने उसे  कागज पर उतारते हुए अपनी कविताओं में व्यक्त किया हैं उनको अपने शहर की यादें उन्हें रह-रहकर सताती रहती हैं.

“ऐ मेरे शहर/ वो तू है/ तू खड़ा है वहीँ का वहीँ /मेरे क्षण तेरे आस-पास बीतते हैं.”

उनकी कविताओं में जहां एक ओर कर्मभूमि मॉरीशस के प्रति लगाव दिखाई देता है परन्तु उनका अपनी जन्मभूमि भारत के प्रति भी प्रेम कम नहीं है. मॉरीशस को लघु भारत ही कहा जाता है क्योंकि मॉरीशस के पूर्वज भारत से ही तो आये थे. यहाँ पर रहने वाले बहुतायत में भारत से काम की तलाश में आए गिरिमिटिया आप्रवासी भारतीयों की संतानें ही हैं जो भारत लौटने का सपना देखते-देखते यही पर बस गए और अंत में उन्होंने इस देश को अपने खून पसीने से सींचकर हरित देश बनाने में अपना सर्वस्व निछावर कर दिया. .

“मातृभूमि से प्रेम नैसर्गिक है / कर्मभूमि से प्रेम अवर्णनीय है/

सभी का सहयोग, प्रेम, आशीर्वाद / तिरंगा चौरंगा दोनों वन्दनीय हैं.”

डॉ. सुरीति की कविताओं में स्त्री जीवन का आशावादी मजबूत स्वर, सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ उभर कर आया है. यह सब लेखिका की कड़ी मेहनत, संघर्ष और सकारात्मक सोच के साथ आगे निरंतर बढ़ते रहने की उनकी अपनी जिजीविषा हैं. कवियित्री आधुनिक नारी है जिसे पुरुष की दासता की जंजीरों के बंधन स्वीकार नहीं हैं. वह इस दुनिया में अपनी शर्तों पर जीने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं. वह स्वयं के संघर्षों के बल पर अपनी जमीन पर खड़ी होकर उड़ना और आकाश छूने का हौसला रखती हैं वह इसीलिए कहती हैं.

“न हारी हूँ न हारूँगी”.

यह आधुनिक कवयित्री इस दुनिया में अपने कदमों के निशान अपने बल पर छोड़कर जाने की इच्छा रखती है.

“जीवन पथ पर बढ़ती जा रही हूँ / इस उम्मीद के साथ कि /

मंजिलें मिलें न मिले / रास्तों पर मेरे कुछ / पद चिन्ह अवश्य रहेंगे.”

 

इनकी कविताओं में अपने कर्तव्य पथ पर चलने, बढ़ने और रहने के संकल्प को साथ लेकर और कभी न थकने के प्रण को फलीभूत करने के लिए निरंतर अपने पथ पर अग्रसर होते रहने की बात करती हैं.

“अंतिम सांस तक सामना करूंगी / रुकना मेरा चरित्र नहीं /

चलूंगी, बढूंगी, ना कभी थकूंगी/”

एक स्त्री पत्नी बनकर घर ग्रहस्ती को चलाने के लिए घर में अपना सब कुछ दाव पर लगा देती है इस दौरान स्त्री घर की पारावार रहित क्रूर हिंसा की हद तक को बर्दाश्त करती है. इस दर्दनाक पीड़ा से उसके शरीर पर उभरने वाले लाल और नीले, निशानों को अपने श्रृंगार से ढककर अपने परिवार की नौका को चलाने का अथक प्रयास करती है, यह सही मायने में भारतीय मूल्यों में पली बढ़ी स्त्री का असली रूप परिलक्षित होता है.

लाल, नीले, पीले, हरे रंग थे चोट के / चहरे पर पुते मेक-अप की पररतों के नीचे /

क्या बताएं ? और क्या छिपाएं ?

डॉ. सुरीति दुखों से कभी घबराती नहीं है बल्कि वे इन सुख – दुःख को दो सगे भाइयों की तरह अपने जीवन का अंग मानती हैं जो कभी साथ नहीं रहते हैं. परन्तु एक के आते ही दूसरा तुरंत वहां से प्रस्थान कर जाता है.

“सुख दुःख हैं दो भाई, पर एक साथ चलते नहीं

एक आता है तो दूसरा चला जाता है, सहजता समभाव ही जीवन का मूल मन्त्र है”

 

लेखिका इस बदलती हुई दुनिया के लोगों के व्यवहार से बखूबी परिचित है इसीलिए इस संसार के बुजुर्गों के प्रति उनके ह्रदय में अथाह सहानुभूति और प्रेम भरा हुआ है वे बुजुर्गों को अपनी कविताओं में पूर्णरूपेण स्थान देती हैं तथा अपनी कविता के माध्यम से बुढ़ापे से गुजर रहे लोगों को आगाह करती हुई चलती हैं कि बुढापा गुजारने के लिए अति आवश्यक जमा पूँजी को अपने साथ में रखना जरूरी होता है क्योंकि हाथ में पैसा न होने पर अर्थात हाथ खाली होने पर बुढ़ापा बोझ में तब्दील हो जाता है. ऐसी स्थिति में जीवन रसहीन लगने लगता है.

“बुढ़ापे में न फ़ैलाने पड़ें हाथ / अपनी खातिर जमा पूँजी रखना साथ.”

लेखिका अपने इस संग्रह की कई कविताओं में माँ को, मातृ शक्ति को और ममत्व की शक्ति को बहुत अहम मानती है क्योंकि दुनिया का कोई भी बड़ा विद्वान विचारक, नेता, अभिनेता  और साधारण व्यक्ति माँ के गर्भ में नौ महीने विश्राम के बाद ही बाहर आता है. वह तमाम ऊम्र अपनी माँ के कर्ज से उऋण नहीं हो सकता है. इसीलिए उनका माँ के ऋण से ऋणी मन माँ की तारीफ करते नहीं थकता है.

“माँ किस मिट्टी की बनी होती हो तुम ? / क्या आवश्यकता है द्वार पर,

नीबू मिर्च लटकाने की / माँ का आशीर्वाद और दुआओं का

कारवां चलता हो जिसके साथ / तीर तलवार और बुरी नजर के खंजर भी ,

बेअसर हो जाते हैं. / माँ का कवच भेदने की शक्ति किसी में नहीं है.”

 

कवयित्री जीवन को गणित के प्रश्नों को हल करने के गुणा एवं भाग की तरह देखती हैं जहां पर परिणाम में घटत बढ़त होने की उम्मीद नगण्य हो क्योंकि जीवन भी गणित के सवाल की तरह होता है जिसमें कोई कड़वी बात कहकर, किसी को आहात कर देना अथवा जीवन में भूल नहीं बल्कि भयंकर भूलें करते रहना आदि के सभी परिणाम इसी दुनिया में भुगतने होते हैं. इसलिए गलतियों से निरंतर बचकर गणित के सवालों की तरह चलते रहना ही सार्थक जीवन जिया जा सकता है.

“जीवन गणित सा है,/ गणित के प्रत्येक प्रश्न का

कुछ लम्बे और कुछ छोटे चरणों के बाद / हल मिलाना, धुर्व सत्य होता है/

प्रत्येक समस्या का समाधान मिलता है / कभी शीघ्र, तो कभी विलम्ब से.”

 

लेखिका सुदामा और श्री कृष्ण की – सी दोस्ती जैसे समाज की कामना करती है जिसमें छोटे-बड़े का भेद न हो बल्कि सदैव प्रेम और प्रेम की गंगा का प्रवाह, प्रवाहमान और फलीभूत होते रहने की कामना करती हुई अग्रसर होती हैं तथा वह श्री राम कथा की तरह हर युग और समय में इसी तरह की मित्रता चलती रहने की आशा करती है.

“सुदामा सी दोस्ती को / राम कथा सी आयु प्राप्त हो.”

लेखिका इस संसार को सदैव प्रगति के पथ पर अग्रसर होते हुए देखने के लिए प्रीति और प्रेम के दीये जलना चाहती है.

“दिए बिन प्रीति के दिए नहीं जला करते हैं / संबंध बिन प्यार के अक्सर खला करते हैं /

मुद्दत से वीरान थी मेरी आँखों की बस्ती / इसमें तेरे हजारों ख़्वाब पला करते हैं.”

 

इस कविता के माध्यम से लेखिका आगे निकलने की चाहत रखती है, उड़ान भरना चाहती है परन्तु जमीन पर रहकर ही आसमान की बुलंदियों तक पहुँचाने का हौसला रखती है.

“चाहत बस इतनी है तुम प्रेम का प्रमाण बनो / लहरों में जीवन की कुछ सैलाब चाहती हूँ

मुझको इल्म है तुम्हारी चाहत का मगर/ तुमसे हकीकत के कुछ गुलाब चाहती हूँ.”

 

लेखिका जीवन को यथा संभव सरल बनाने की हिमायत करती है तथा सदैव सरल पथ का अनुगमन करने की पक्षधरता का समर्थन करती हुई प्रतीत होती है.

“लोगों के व्यंग को / दिलों पर न ले /

प्रेम और परोपकार का / छौंक लगाकर / जीवन को सुख का निवास बना दे.”

 

अंत में “अपनी – अपनी मंजिलें” संग्रह की कविताओं को साहित्य की दृष्टि से परखने और कसौटी पर कसने के बाद निः संकोच कहा जा सकता है कि लेखिका अपने कविता – संग्रह की कविताओं में एक स्त्री के रूप में स्वयं उपस्थित ही नहीं रहती है बल्कि स्त्री प्रतिकूल परिस्थितियों और तमाम प्रवंचनाओं के बावजूद पलायन करने से सदैव बचने का प्रयास करती है. यह इस दुनिया का सबसे बड़ा ध्रुव सत्य है कि स्त्री अपने बड़े से बड़े दर्द को सहकर भी उसे दूसरों के समक्ष कभी उजागर नहीं करती है और उसका हल अपने बल पर तलाशने का प्रयास करती रही है, करती रहेगी. स्त्री सदैव से अपने दर्द को व्यक्त करने से परहेज करने के साथ – साथ अपनी असफलताओं, विफलताओं को ढांकने के लिए सदैव प्रयासरत रहती आई है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. इस प्रकार के अनगिनत संकेत इन तमाम कविताओं में देखने को मिलते हैं. इस संग्रह की अधिकांशतः कविताओं ने संवेदना के गहरे धरातल को स्पर्श किया है इसलिए मुझे आशा है हिंदी साहित्य तथा डायस्फोरा साहित्य जगत द्वारा इस कृति का स्वागत किया जाएगा.

 

 

डॉ उमेश कुमार सिंह,

हिंदी चेयर, हिंदी विभाग, भारतीय भाषा अध्ययन संकाय, महात्मा गाँधी संस्थान, मोका,रिपब्लिक ऑफ़ मॉरीशस, मॉरीशस. ई-मेल: umesh_jnu@rediffmail.com दूरभाष: +230-57022776, +91-9423307797 (India)   

 

 

 

 

 

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