1 – उड़न खटोला
ईरज हर दिन उससे एक ग़ुब्बारा ख़रीदता था और वह गुब्बारेवाली हर शाम उसकी प्रतीक्षा करती थी । दरअसल दोनों के लिए यह दैनंदिन अनिवार्यता बन चुकी थी ।
दिन पूरा शाम ढ़लने की प्रतीक्षा में बीतता और शाम होते जब पंछी अपने घोंसलो की ओर उड़ान भर देते, नेकलेस रोड पर बने पार्क पर जाने की उसकी ज़िद शुरु हो जाती । पार्क पहुंचते ही मीरा अपनी सहेलियों में व्यस्त हो जाती और वह वहाँ पाषाणी हिरण जिराफ़ और मछलियों पर बैठ वायवी उड़ान के मजे लेता । कुछ देर पार्क की नर्म घास पर उछल कूद, फिसलन पट्टी पर सर्र से फिसलन ,झूले का हिंडोला और एक गुलाबी आइसक्रीम का मछली की आकृति में गढ़ी पट्टीनुमा बेंच पर बैठ कर धीरे-धीरे चूस-चूस कर रस लेना तो उसकी नियमित दिनचर्या बन गया था । राजेश ऑफिस से सीधा वहीं पहुंचता और तीनों वापस घर की ओर प्रस्थान करते । हर शाम इस कार्यक्रम में किसी एक भी घटक का उल्लंघन उस ‘चार साल’ के अबोध के लिए अस्वीकृत था । सिलसिलेवार हर एक औपचारिकता का निर्वाह होता और फिर आनंद का अंतिम पड़ाव बनता ग़ुब्बारा संक्रयणम् …।
गोल मटोल हवादार हल्का फुल्का रंग-बिरंगा ग़ुब्बारा । यह तो उसका सबसे प्रिय परिग्रह था लेकिन अल्प आयु जीव यह ग़ुब्बारा बड़ा ही धृष्ट निकलता था ।
बेवफा …छाती से चिपटा कर प्यार जताते ही साथ छोड़ जाता । फ़टाक …..।
बड़ा ही निर्मोही ,निर्दयी ।
अकसर घर आने से पहले ही वह स्वर्गारोहण कर चुका होता था और फिर हर रात उसकी याद में आंसू बहाए जाते थे । गुलाबी गालों पर आंसू ढुलकते रहते और माँ की छाती से चिपट कर उस धृष्ट ग़ुब्बारे की कई शिकायतें की भी जातीं । माँ पुचकारती रहती और वह रोता रहता । देर रात तक रोते-रोते अगले दिन होने वाली पुनः मिलन की मीठी कल्पना में नन्हे की हर रात बीतती थी ।
ईरज ने आज भी खेल कूद के बाद लाल रंग का ग़ुब्बारा खरीदा और नरम मुलायम उँगलियाँ ने सँभाला भी …पर आज तो हद ही हो गई …. ग़ुब्बारे से बंधा तागा ही बदमाश निकला । देखते-देखते उसकी गिरफ़्त से सर्र फिसल गया और उड़ चला दूर आकाश में ….. हवा के उड़नखटोले पर बैठ कर ।
“अरे..अरे अरे ! ग़ुब्बारा कैसे उड़ गया /? कैसे हाथ से छूट गया …देखो …देखो’ । गुब्बारेवाली खिलखिला कर हंस पडी ।
नन्ही-नन्ही आँखों में मोटे मोटे आंसू आ तो गए पर होंठों पर मुस्कुराहट सजी रही । नासमझ ,समझ भी न सका कि क्या हुआ, क्यों ग़ुब्बारा उड़ चला । कैसे हाथ से छूट गया ।
बात संभालनी थी वरना वह तेज आलाप लेने की मुद्रा बना रहा था!
“औफ्फो कोई बात नहीं लाला…कोई बात नहीं । वह ग़ुब्बारा …ढीठ ग़ुब्बारा …शरारती कहीं का । कोई बात नहीं ।…राजा । पता है वह कहाँ गया”? वह दूसरा ग़ुब्बारा निकाल कर जल्दी जल्दी फुलाने लगी ।
“काँ गया?” रुंधी आवाज में उत्कंठा …।
‘तुम बताओ?’ उसने उसकी ठुड्डी पकड़ कर पुचकारा और ग़ुब्बारा तागे में लपेट कर बांधने लगी ।
नईं तुम बताओ?’
ह्म्म्म्म्… भाग गया” ।
नन्हे की आंखों में अविश्वास की रेखा उभर आई । आंखे सिकुड गई और बोला ,
‘नईं वो खो गया’ ।
‘अरे वाह लाला…क्या बात कही …सही कहा । मुन्ने का हाथ जो छोड़ दिया …है न?’ यह वाक्य शायद उसे कुछ तृप्त कर गया । हल्की सी मुस्कान आने लगी होंठों पर ।
‘तो फिर तुम बताओ लल्ला..क्या तुम भी कभी माँ बाबा का हाथ छोड़ कर खो जाओगे ग़ुब्बारे की तरह? भागोगे इधर-उधर पार्क में ?
वह सोच में पड़ गया । मन में शायद डर आ गया था । उसने एक बार फिर आकाश की ओर देखा और जोर से सर हिलाकर असहमति जताई, ‘नईं….ई…ई।
“वाह लाला …तुम तो बहुत समझदार हो । ये रहा तुम्हारा ग़ुब्बारा अब की बार कस कर पकड़ो! ठीक ”? उसने उसे खींच कर माँ की ओट से बाहर निकाला और बायीं उंगली में गुब्बारा लपेट दिया ।
“औ’ वो ”? नादान मन अभी थी वहीं लगा हुआ था ।
“आने दो उसको नीचे …ख़बर लेंगे उस शरारती की…खूब पिटाई होगी’ ।
मुरझाया फूल खिलखिला कर हंस पड़ा । उसकी नन्ही उँगलियों ने माँ कीं उँगली को कसकर पकड़ लिया … उस अबोध को अब हाथ छूटने पर खो जाने का अहसास शायद हो गया था।
2 – बोधिसत्व
वह पलायन कर देना चाहता था । प्रयाण के सब उपाय सोच रखे थे । आस्तिक था वह , घोर आस्तिक । आज वह मोह भी टूट चुका था । समाप्त कर देना चाहता था जीवन जिसने निराशा के अतिरिक्त उसे कुछ न दिया था। चला जा रहा था हाँफता ,बड़बड़ाता इस उधेड़बुन में कि या तो पटरियों पर लेट जाएगा या नदी में छलांग लगा देगा या पर्वत से कूद जाएगा ।
अंधकार पूरे यौवन में था । उसके कदमों में तेज़ी आ गई । सुबह होने से पहले निर्णय को अंजाम देना था ।
आगे मार्ग अस्पष्ट । घना जंगल । डरावनी वीरानी और निस्तब्धता । उसे पार करते ही गंतव्य आ जाएगा और सब पीड़ा समाप्त ।
उसे अंधेरे में परछाई दिखी । कदम धरती से चिपक गए ।
कोई योगी बैठा हुआ था पेड़ के नीचे ध्यान मग्न ।
वह धीरे से पास गया । चेहरा देखा । देखते ही मन कांप गया …अलौकिक तेज़ … मुखमंडल जैसे अग्नि कुंड की तरह ज्वाजल्यमान था ।
वह चरणों में बैठ गया…निर्लिप्त …विचार शून्य । उस ऊष्मा से उसके सब ताप घुलने लगे ।
सामीप्य का प्रभाव -मन शांत हो रहा था ।
अनायास उसकी दृष्टि ऊपर पेड़ पर गई । धुंधली रोशनी में देखा ,एक गिलहरी पके हुए बेर को अपने हाथों के पंजों में दबोच कर मज़े से कुतर रही थी और निचली डाल पर घात लगाए बिल्ली बैठी हुई थी ।
अविलंब उसने एक कंकड़ी उठायी और बिल्ली की ओर दे फेंकी । अप्रत्याशित वार , बिल्ली धड़ाम से नीचे गिरी और गिलहरी चंपत ।
योगी ने आंखें खोली ।
स्निग्ध दृष्टि से उधर देखा । उठे और चल दिए ।
“रुकिए …कौन है आप…?” वह हड़बड़ाया सा उनके पीछे दौड़ पड़ा ।
योगी के क़दम ठिठक गए ।
बिना मुड़े कहा,
“योगी हूँ ,भिक्षुक” ।
“मुझे अपना शिष्य बना लो । आपके साथ रहूँगा ,साधना सीखूँगा ।” वह गिड़गिड़ाने लगा ।
“गुरु दक्षिणा में क्या दोगे?” उनकी वाणी सम्मोहित कर रही थी और वह बंधा जा रहा था ।
“जो माँगे वही । यह जीवन आपको समर्पित ।” आश्चर्यचकित था वह कि इतनी ऊर्जा उसमें आई कहाँ से ।
“पीछे तो न हटोगे ?” वे अब भी न मुड़े ।
“परीक्षा ले लो ” ।
“तो गुरु आदेश है कि वापस चले जाओ” । उनके शब्द तीर की तरह उसकी अन्तरात्मा को भेदते चले गए ।
“इस जगत को तुम्हारी आवश्यकता है । साधना समर्पण माँगती है पलायन नहीं । वह वरण करती है कर्मरत व्यक्ति का । और हाँ…प्रतीक्षा करना… मैं आऊँगा …किसी न किसी रूप में । ध्यान रहे ,तुमने अपना जीवन मुझे समर्पित किया है । अब इस पर मेरा अधिकार है”।
निश्चेष्ट ,उसके नयन मुँद गए । । वे कब ओझल हुए उसे भान ही न रहा । सूरज क्षितिज पर अपनी रक्तिम आभा बिखेरता चला आया । चारों और गुलाबी रश्मियाँ फैल गई । उसकी तंद्रा हटी । वहाँ कोई न था । न जंगल न अंधेरा ..लेकिन ..लेकिन उसका अन्तर्मन अब रसमय हो चुका था। अब मार्ग स्पष्ट दिखाई दे रहा था ।
3 – मनसा…वाचा….क
मिश्रा जी समाज सेवी हैं । उदार दिल वाले । आए दिन उनके भाषण होते हैं कम्यूनिटी हॉल में … जातिवाद के विरोध में । दो बार विधायक का चुनाव भी जीत चुके हैं । इस बार किस्मत टेढ़ी हो गई है ।
कई क्षेत्रों में उनकी पैठ है । कला में भी रुचि रखते हैं । एक नृत्य विद्यालय खोलने की सोच रहें हैं ।
स्वयं अंगूठा छाप है पर कई स्कूल उनके नाम से चल रहे है । विद्या के क्षेत्र में माँ लक्ष्मी उन पर अपार करुणा बरसा रही है । इसी कारण शहर के लगभग सभी नामी निजी स्कूलों को खरीद कर उन्होनें अपनी छत्रछाया में ले लिया है । बल केंद्रीकरण में उनकी अपार श्रद्धा है ।
पर…आजकल कुछ उदास दिख रहे हैं । नृत्य विद्यालय के लिए प्रशिक्षित शिक्षिका की चिंता खाए जा रही है।
चाहते हैं कि ऐसे प्रदेश से कौशल की खोज हो जो प्रख्यात भी हो और नृत्य विद्या में पारंगत भी ।
आज शाम को जलसा है । जलसे में उनका भी भाषण है । मुद्दा – जातिवाद ।
आधा घंटा अविराम बोलते रहे । ‘देश को जातिवाद ने खोखला कर रखा है । प्रतिभा जाति का आश्रय नहीं लेती”।
नारा भी दिया- “कौशल देखो जाति नहीं, तलवार देखो म्यान नहीं” ।
लोगों ने अभिभूत होकर जयकारा लगाया । वैसे यह इलाका सवर्णों का नहीं है ।
पहला बोला , ‘मिश्रा जी देवता है’ ।
दूसरा बोला , ‘ ईश्वर का अवतार ! पंडित और इतना सद्भाव ?’
तीसरे की आवाज आई, “हम दोषी है । वरना पिछली बार मिश्रा जी न हारते । अब सबने ठान लिया है । वोट देंगे तो उन्हें ही । पूरा इलाका प्रतिबद्ध है” ।
चौथा अपराध बोध से चिल्लाया, “ जीतेंगे…जीतेंगे …अबकी बार ….मिश्रा जी ही जीतेंगे” । चिल्लाते-चिल्लाते रो पड़ा ।
नामी ठेकेदार कृष्ण स्वामी अय्यर की धर्मपत्नी स्टेज पर आईं । मिश्रा जी को फूल माला अर्पित की ।
वे गदगद हो गए । इस बार का टेंडर उनके पति ‘अय्यर जी’ को मिला है । मिश्रा जी की उदार दिली ।
उन्होनें अपने बगल वाले को उठाया, सीट खाली करवाई और स्टेज पर उन्हें आसन दिया ।
आहिस्ता बोले,“ धन्न भाग अय्यर देवी । आप पधारीं हमारी समस्या का हल लेकर” ।
उनके दोनों हाथ जुड़ गए । कलाइयों को आदत हो गई है । वे जनता के सेवक हैं ।
“समस्या ? और आपको? नारायणी की आंखों में आश्चर्य फैल गया ।
“समस्या गंभीर है नारायणी देवी…आपकी सहायता चाहिए ’ ।
वे उनकी विनम्रता पर नतमस्तक हो गईं । धड़ पैंतालीस डिग्री पर झुक गया । “सेवा का अवसर दीजिए मिश्रा जी’ ।
“हमारे कला विद्यालय के लिए शिक्षिका चाहिए’। उनका स्वर अब भी गंभीर था ।
‘जी । …तो?’
“कुछ नहीं’ सायास होंठों पर मुस्कुराहट ला बोले, “एक विचार आया है आपको देखकर । कितना अच्छा हो अगर नृत्य शिक्षिका आप के क्षेत्र से हो तो? और …और…मैं चाहता हूँ वह ब्राह्मण ही हो । अब क्या छिपाना देवी जी …हुनर अगर कहीं है तो…आगे आप विदुषी है । सब समझती हैं ”। मिश्रा जी की खुसपुसाहट से नारायणी के कान फट गए ।
सूरज डूबा…शाम गहराई….आज एक बार फिर अंधेरा छा गया ।
जमघट में समवेत नारा गूँजा , ‘जीतेंगे … जीतेंगे मिश्रा जी जीतेंगे … हमारा मसीहा…पंडित जी.”
डा पदमावती जी आपकी तीनो लघुकथाएं एक से बढकर एक हैं।शीर्षक पर सार्थकता से उतरती कथाए है।भाषा शैली रोमांचित कर देती है। आपको सुझाव देता हूं आप लघुकथा-संग्रह की पुस्तक प्रकाशित जल्द करें।
बधाई
रोचक कथ्य, शीर्षक को सार्थक करती कहानियांँ, कहानी में प्रवाह, पात्र अनुकूल संवाद…आपकी अगली कहानी की प्रतिक्षा…. शुभकामनाएंँ!!!!
लाजवाब लघुकथाएँ!