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विभा परमार
1- बचाव
मैं बचाव नहीं कर पाई
अपने भावों का
जिसमें बहता ही रहा प्रेम!
बावरी होकर मैंने तुझे अपना सबकुछ मान लिया
जैसे मान लेता है एक भक्त अपने ईश्वर को
क्या ईश्वर का काम सिर्फ़ सुनना ही रहता है?
वो सुन ही रहा है
और तू भी अब सिर्फ़ सुनता ही है
क्या सिर्फ़ सुनना ही काफ़ी होता है?
आगे की ज़िंदगी भी तुम सुनकर ही निकाल दोगे?
तुम्हारे अंदर जो बदलाव आया हैना
उसको मैं नज़र अंदाज़ नहीं कर सकती
क्यूंकि तुमने मुझे मानसिक तौर पर जीता था
मेरा विश्वास मानो
मैं एक टक सब छोड़ सकती हूं
मगर बदलाव के घातों को नहीं छोड़ सकती
मेरे निश्छलता के भाव पर
सिर्फ़ सुनना!
ये तुम्हारे लिए सामान्य होगा
मेरे लिए बिल्कुल भी सामान्य नहीं है।
जिससे तुम जबर्दस्ती का जुड़ाव दिखाकर
अपने मन को संतुष्ट करने का प्रयत्न करके
जीने की कोशिश करते हो
कितने पेंचीदा वृक्ष बन गए हो
जिस पर मुझे हंसी नहीं
दया आती है
अनदेखी, आकर्षण, और समय देकर
तुम बेचैन से जो फिरते होना
वो सिर्फ़ तुम्हारी स्वयं की बनाई इक चाल है
तुम्हें उन पर ख़ासा विश्वास हो रहा
जो अभी अभी आए है
वो भी तब
जब तुम उन्हें बार–बार पनाह देते हो।
मुझे तुमसे चिढ़ होती है बहुत ज़्यादा
अचानक से
एक राक्षस राम पथ पर चलने की कोशिश कर रहा है
आज उसे मेरा मोह
खाली लगता है
मेरी बातें सिर्फ़ बातें लगती है
मेरे ख़त सिर्फ़ एक जानकारी लगता है
पर तुम मानों या ना मानों
तुमने जो सीधे बनकर
मुझे पुचकारा हैना
उससे मैं
अब शापित हो चुकी हूं
और शापित कन्या का श्राप सदैव ख़ुद के लिए ही
लगता है आजीवन ना खुश रहने का!
2- इश्क
तुम्हारा इश्क
नवाज़िशों सा लगता है कभी–कभी
जिसकी बरकतें सदियों में कभी-कभार ही घटती हैं
उस कभी-कभार में
कुछ पल चुराकर
देखती रहती हूं तुम्हें मैं अपलक
उस पल
नहीं चल रही होती है मन में
कोई हड़बड़ाहट
कौतूहल
शिकायत
खालीपन
और ना ही विद्रोह
बस
महसूस होती है
संपूर्णता
तुम्हें देखने भर की!
3 – हां
हां! सबकुछ सामान्य ही तो है
कहां कुछ बदला है
कुछ भी तो नहीं
हैना
वही सुबह
और वही शाम है
वही हम
और वही तुम हो
बस
आज एक शहर
दो शहरों में बदल गए!
अब हम “एक” नहीं
फिर से “दो”
अलग- अलग
इंसान हो गए!
जब साथ थे
तब एक मज़िल
एक जैसी इच्छाएं
और दर्द भी एक ही लगते थे।
लेकिन अब….!
सबकुछ सामान्य ही तो है
तुम्हारे ना होने से
मैंने जीना तो नहीं छोड़ा
और ना ही तुमने
हां बस बोसीदा सी ज़रूर हो गई है
अब तुम रोज़ नहीं पर
कभी कभी ही याद आते हो
जिससे बहुत बेचैनी बढ़ जाती है
तुम्हारी बातों के बोसा से
मेरी आंखों की कोर गीली हो जाती है
पर तुम बिल्कुल भी फिक्र मत करो
क्यूंकि सबकुछ सामान्य ही तो है!
4- दुख की गहराई
मैं दुख की गहराइयों में
डूब चुकी हूं
जैसे
डूबी थी एक दिन तुममें!
सुनो
उस दिन से मेरी छाती में बहुत से दर्द दर्ज़ है
शायद तुममें भी!
हैना…
अच्छा एक बात बोलूं
ये स्थितियों के सैलाब होते हैना
ये हमें बिखेर ज़रूर देते है मगर ख़त्म नहीं कर सकते
मगर
तुम्हारा सैलाब में यूं ही बह जाना!
मेरे अंदर सवाल पैदा कर जाता है
कि शायद
तुम्हें दिखा सैलाब में
अपने जैसा कंधा
अपने जैसी अलख!
मगर मेरा क्या?
मुझसे पूछो
उस दिन से मैं तबियत से सोई नहीं
स्थितियों का बहाना देकर तुम एक ओर हो गए
पर मैं! एक ओर नहीं हो पाई
जो प्रेम मुझे ईश्वर का आशीर्वाद लगता था
आज वही श्राप लग रहा है
और श्राप की आयु लंबी है
ना इस पर मन्नत का धागा काम करता है और ना ही हक़ीम की दवा
5 – कमरा
मेरी सांसें
मेरा कमरा है
भरा कमरा!
जिसमें
लंबी बातें
हरी-भरी यादें
ना, नुकुर
बहे आंसू, बंटी मुस्काने
इन्तज़ार
और अहसासों के स्पर्श है
जो कभी-कभी प्रफुल्लित
तो कभी कभी
बेचैन कर जाते है!
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6. गली