वर्ष 1953 में बिमल रॉय की एक फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ‘दो बीघा ज़मीन’। उसमें बलराज साहनी, निरुपा रॉय और मुराद प्रमुख भूमिकाओं में थे। उसमें शैलेन्द्र ने एक गीत लिखा था – “अजब तोरी दुनिया हो मेरे रामा / कदम-कदम देखी भूल-भुलैयां / गजब तोरी दुनिया हो मेरे रामा।” कुछ यूं महसूस होता है कि आज के संपादकीय पर यह गीत पूरी तरह से फ़िट बैठता है।
शायरी और गीतों का सबसे प्रिय विषय रहा है शराब! हर शराबी यह ज़रूर कहता है कि, “मुझे दुनिया वालो, शराबी न समझो…” सरदार ख़ुशवन्त सिंह ने अपने एक संस्मरण में लिखा था कि उन्हें सबसे अधिक बेइज्ज़ती का सामना करना पड़ा जब मुंबई (उस ज़माने का बम्बई) में उन्हें शराब पीने के लिये परमिट का फ़ॉर्म भरना पड़ा। फ़ॉर्म की पहला कॉलम था : शराबी का नाम; और दूसरा : शराबी के बाप का नाम! बस इतना पढ़ना था कि ख़ुशवन्त सिंह ने उस फ़ॉर्म को फाड़ डाला।
शराब जितनी पीने वाले को प्रिय है उतनी ही ट्रैफ़िक पुलिस वालों को भी है। जहां कोई शराबी कार या मोटर वाहन चलाता हुआ पकड़ा जाता है, उस पर फ़ाइन की पर्ची फाड़ते हुए पुलिस वालों को आंतरिक ख़ुशी महसूस होती है। ट्रैफ़िक पुलिस के लिये 25 दिसम्बर से 1 जनवरी तक का समय असली धंधे का पीरियड होता है। धड़ाधड़ चलान कटते हैं और यूरोप में तो जेल जाने की नौबत भी आ जाती है।
मगर हाल ही में एक ऐसा किस्सा सामने आया जिसे पढ़ कर मेरे बहुत से साहित्यकार-पत्रकार मित्र कहेंगे – “काश हमें यह बीमारी हो जाए!…” और हर प्रेमी तड़प कर कह उठेगा… “काश मेरी जाने-मन को यह बीमारी हो जाए, उसके नशे में मैं सुबह-शाम डूबा रहूंगा।”
ज़ाहिर है कि आप सोच में पड़ गये होंगे कि यार आख़िर यह बीमारी है क्या जिसे ट्रैफ़िक पुलिस का अधिकारी, साहित्यकार, पत्रकार और प्रेमी… सभी चाह रहे हैं, प्यार कर रहे हैं। बस अगर कोई परेशान होगा तो प्रेस क्लब में शराब परोसने वाला साक़ी… उसकी बिक्री पर बुरा असर पड़ जाएगा अगर साहित्यकार और पत्रकारों को यह बीमारी लग गई।
लीजिये आपके दिल की धड़कनों को आराम देता हूं और आपको बेल्जियम की एक घटना सुनाता हूं। कुछ ही दिनों पहले बेल्जियम पुलिस ने चालीस वर्षीय एक व्यक्ति को सड़क पर गिरफ़्तार कर लिया। उस पर शराब पीकर कार चलाने का आरोप लगाया गया। उसका टेस्ट करने पर उसके ख़ून में अल्कोहल की निर्धारित मात्रा से चार गुनी अधिक थी। मगर पूरे फ़िल्मी अंदाज़ में बंदा दोहराए जा रहा था कि साहब मैंने तो शराब पी ही नहीं। अगर पुलिस वाला हरियाणा से होता तो पहले तो देता एक मोटी सी गाली और फिर यह पूछता, “ना जेकर तन्ने पी ना रखी तो यह तेरे बाप की मशीन झूठ बोलण लाग री के!”
अब यूरोप में अगर किसी को गिरफ़्तार किया जाता है तो अगले ही दिन अदालत में तो ले जाना ही पड़ता है। जज साहब ज़रा दयालु किसम के इन्सान थे। उन्होंने बन्दे को समझाया कि देखो अगर तुम अपना अपराध कुबूल कर लोगे कि तुमने कार चलाते समय शराब पी रखी थी, तो मैं तुम्हें कम से कम सज़ा दूंगा। वर्ना अगर मुझे ग़ुस्सा आ गया तो फिर तुमको अधिकतम सज़ा मिलेगी।
इसके जवाब में तो बंदे ने कमाल ही कर दिया। वो बोला, “जज साहब, मैं तो शराब पीता ही नहीं।” जज साहब कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे। पुलिस की मीटर रीडिंग बता रही है कि बंदे पर शराब का असर था, और बंदा कह रहा है कि वह पीता ही नहीं। उन्होंने मज़ाकिया लहजे में पूछ लिया कि भाई इसे अकेला ही पकड़ा है या इसके साथ इसकी महबूबा भी थी?… कहीं इश्क के नशे में तो नहीं था? पुलिस को अपनी मशीन पर विश्वास था और बंदे को अपने ना पीने पर। जज साहब ने बंदे के पूरे ब्लड टेस्ट का आदेश दे दिया।
पता यह चला कि जिस वक्त बंदा पुलिस स्टेशन से अदालत में लाया गया उस समय भी उसके शरीर में अल्कोहल मौजूद है। अब हैरानी की बात जज साहब के लिये। उन यह अजूबा समझ ही नहीं आ रहा था। पता यह चला कि यह बंदा एक शराब की ब्रूअरी में काम करता है – जहां शराब बनाई जाती है। और इस बंदे को एक विशेष किस्म की बीमारी है।
तब कहीं जा कर बंदे के बारे में बेल्जियन हस्पताल एज़ेड सेंट-लूकस की क्लिनिकल बायोलोजिस्ट लीसा फ़्लोरिन ने बताया कि वह ऑटो-ब्रूअरी सिंड्रोम (Auto-Brewery Syndrome) से ग्रस्त है। लिसा फ्लोरिन का कहना है कि ए.बी.एस. वाले लोगों में उसी प्रकार का अल्कोहल उत्पन्न होता है जो अल्कोहल वाले पेय में पाया जाता है, लेकिन उन्हें आमतौर पर इसके प्रभाव कम महसूस होते हैं।
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि लोग इस सिंड्रोम के साथ पैदा नहीं होते हैं। लेकिन जब उनमें पहले से ही आंत संबंधी कोई अन्य स्थिति हो तो उनमें यह विकसित हो सकता है। मरीज़ों में शराब के नशे के अनुरूप लक्षण दिखाई दे सकते हैं, जैसे अस्पष्ट वाणी, लड़खड़ाना, मोटर कार आदि चलाने में परेशानी, चक्कर आना और डकार आना।
उसकी वकील एन्से गैसकीयर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि विश्व में इस सिंड्रोम के रोगियों को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा और वे मज़ाक का पात्र बनते दिखाई देते हैं। वर्तमान में पूरे विश्व में केवल बीस ऐसे मरीज़ों के बारे में सूचना है जो इस बीमारी से ग्रस्त हैं।
जज को वकील के तर्क समझ में आए और उन तर्कों से सहमति जताते हुए इस व्यक्ति को नशे में कार चलाने के इल्ज़ाम से बरी कर दिया गया।
यह तो एक घटना हुई जिसके कारण ऑटो-ब्रूअरी सिंड्रोम (Auto-Brewery Syndrome) अचानक विश्व भर के समाचारपत्रों में छा गया। मगर सोशल मीडिया पर इसकी अधिक चर्चा नहीं हुई। यानी कि ख़बर वायरल जैसी नहीं हुई। हमारा मानना है कि पुरवाई के पाठकों का हक़ बनता है कि जब पुरवाई के सामने कोई मुद्दा आया ही है तो आप सबको भी पता चलना चाहिये कि आख़िर यह बीमारी है क्या।
ग्वालियर स्थित विजयाराजे सिंधिया कॉलेज की साइकोलॉजी की प्रोफेसर नीरा श्रीवास्तव का कहना है कि इन दिनों कई लोग चिंता और डिप्रेशन जैसी बीमारी से जूझ रहे हैं। ऑटो ब्रूअरी सिंड्रोम चिंता और डिप्रेशन जैसी परेशानियों का दुष्प्रभाव हो सकता है। एक ऐसी समस्या है, जिसमें व्यक्ति अपना मानसिक और शारीरिक संतुलन खो देता है। इस समस्या से प्रभावित व्यक्ति को कोई सुध नहीं रहता है। आपको इसमें प्रतीत होगा कि जैसे उस व्यक्ति ने किसी तरह का नशा कर लिया है। इससे पीड़ित व्यक्ति को हैंगओवर जैसा महसूस होता है और वह नशे में धुत रहता है। इस समस्या से ग्रसित व्यक्ति को वह चीजें खाने की इच्छा होती है, जिससे हैंगओवर उतर जाता है।
ऑटो ब्रूअरी सिंड्रोम में आपका शरीर, कार्बोहाइड्रेट से अल्कोहल (इथेनॉल) बनाने लगता है। यह आंतों के अंदर होता है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि आंत में बहुत अधिक यीस्ट होने के कारण इस विकार का खतरा हो सकता है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया वयस्कों या बच्चों, किसी में भी ऑटो ब्रूअरी सिंड्रोम की समस्या हो सकती है। कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि कुछ लोग जन्मजात ऐसी समस्याओं के साथ पैदा होते हैं जो इस सिंड्रोम को ट्रिगर करती है। वयस्कों में आंत में बहुत अधिक यीस्ट के कारण क्रोहन डिजीज हो सकता है जिसके कारण भी ऑटो ब्रूअरी सिंड्रोम की समस्या ट्रिगर हो सकती है।
करीब तीन साल पहले अमेरिकी महिला सारा लिफेबर के साथ यही हेल्थ कंडीशन थी। वह शराब नहीं पीती थीं, लेकिन हर वक्त नशे में रहतीं। डॉक्टर उन्हें किसी भी तरह की बीमारी होने से इनकार देते, उल्टा कहते कि आप शराब पीती हैं। उनके साथ यह स्थित बीस वर्ष की आयु में ही शुरू हो गई थी। इसके 18 साल बाद यानी 38 साल की उम्र में पता चला कि वह ‘ऑटो ब्रूअरी सिंड्रोम’ से जूझ रही हैं। उनकी हालत तब तक इतनी बिगड़ चुकी थी कि लिवर ट्रांसप्लांट की नौबत आ गई।
हमारे पेट में अरबों-खरबों माइक्रोब्स की एक दुनिया है। इसमें बैक्टीरिया, फंगस जैसे ढेरों माइक्रोऑर्गेनिज्म रहते हैं। इनके साथ कुछ यीस्ट भी रहते हैं। ये सब मिलकर खाने को पचाने में मदद करते हैं। इनमें कुछ यीस्ट ऐसे होते हैं, जो कार्बोहाइड्रेट को इथेनॉल यानी शराब में बदलने का काम करते हैं। अगर गट में इन यीस्ट की संख्या बढ़ जाए तो शरीर में जाने वाला कार्बोहाइड्रेट शक्ति प्रदान करने के स्थान पर शराब बनने लगता है क्योंकि इन यीस्ट का काम ही यही है।
ऑटो ब्रूअरी सिंड्रोम का इलाज आमतौर पर एंटी-फ़ंगल दवाओं से किया जाता है। डॉक्टर भोजन में कार्बोहाइड्रेट कम करने की सलाह भी दे सकता है। अगर यह स्थिति किसी क्रॉनिक बीमारी के कारण पैदा हुई है तो दोनों बीमारियों का इलाज एक साथ किया जाता है।
वर्ष 1953 में बिमल रॉय की एक फ़िल्म प्रदर्शित हुई थी ‘दो बीघा ज़मीन’। उसमें बलराज साहनी, निरुपा रॉय और मुराद प्रमुख भूमिकाओं में थे। उसमें शैलेन्द्र ने एक गीत लिखा था – “अजब तोरी दुनिया हो मेरे रामा / कदम-कदम देखी भूल-भुलैयां / गजब तोरी दुनिया हो मेरे रामा।” कुछ यूं महसूस होता है कि आज के संपादकीय पर यह गीत पूरी तरह से फ़िट बैठता है।
सही है, भगवान की माया को कौन समझ पाया है!!! एक नयी बीमारी का पता चला। जवानी में नहीं, लेकिन बुढ़ापे में ऐसी बीमारी हो जाये , जिससे बिस्तर पर पड़े रहने में कष्ट ना हो।
अच्छी जानकारी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
संपादकीय का इंतज़ार यूँ ही नहीं रहता है हमें! कहाँ कहाँ से ऐसी जानकारी पाठकों के लिए लेकर आते हैं आप! साधुवाद है आपको। अपने आसपास हमें भी ऐसे लोगों को पहचानना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए।
जागरूकता बढ़ाने की दृष्टि से संपादकीय बहुत अच्छा होता है।
पुनः एक नव्य तथ्य प्रदान करता यह संपादकीय अत्यंत विशेष है। केवल इस रोग का नाम नहीं इसकी संपूर्ण स्थिति आपने विस्तार से उल्लेखित की है सर। नूतन विषय एवं विचारों को सदैव आप पाठकों के समक्ष रखते हैं। साधुवाद सर
बहुत प्रामाणिक जानकारी।रोग के कारण,लक्षण और फिर उपचार के तरीके भी।एक नाटकीय घटनाक्रम से शुरू हुआ संपादकीय रोचक तथ्यों के साथ समाप्त होता है।फिल्म के गीत, खुशबंत सिंह जी की उपस्थिति और नीरा श्रीवास्तव का बयान ऐसे आधार हैं,जो इस अभिव्यक्ति को कहानी के स्वरूप में भी ढाल सकते हैं।
मैंने कुछ साल पहले एक कहानी “इंतजार करती मां” शीर्षक से लिखी थी,जो अनेक पत्र पत्रिकाओं में छपी थी।इसमें कथानक का आधार “डबल इनकम नो सेक्स सिंड्रोम”बीमारी थी।आजकल इस सिंड्रोम की गिरफ्त में वे युगल ज्यादा आ रहे हैं,जो दोनों कमाई तो खूब कर रहे हैं,लेकिन जॉब के टार्गेट एचीव करने के तनाव में बच्चे पैदा करने में असफल हो रहे हैं।
बहराल,बहुत अच्छी संपादकीय के लिए बहुत बहुत बधाई एवं आभार!
एक अजीब ओ गरीब विषय पर कलम चलाने और उसे सही तारतम्य में प्रस्तुत करना बेहद दुष्कर कार्य होता है।अनूठा परन्तु खतरनाक विषय पर जानकारी देने हेतु आपका और पुरवाई परिवार का हृदय से आभार।
गंभीर मुद्दे को हास्य व्यंग के माध्यम से कहना आपके अनुभव का परिचय देता है। आज फिर एक नयी जानकारी के लिए साधुवाद।धन्य है हम जो आपके माध्यम से हमारा ज्ञानवर्धन होता है।
मैने अभी ही पढ़ा आपका सम्पादकीय । सचमुच हमारा शरीर एक अजूबा ही है। और अगर हम mini-micro या nano level पर जायें तो शरीर के सभी तंत्र आपस में तो जुड़े ही हैं पर अपने आसपास के वातावरण और पर्यावरण से भी जुड़े होते हैं और उनके अनुसार प्रतिक्रिया भी देते हैं। हमारा शरीर बहुत बड़ा industrial hub है। जो तंत्रिका तंत्र और हार्मोन्स द्वारा संचालित है और अक्सर सही काम करता रहता है पर कभी कभी हर मशीन की तरह गड़बड़ा जाता है जिस कारण कुछ व्यक्ति बीमार हो जाते हैं और कैंसर और अन्य ऑटोइम्यून रोग हो जाते हैं। कैंसर की जीन्स भी सभी में होती हैं पर किसी किसी में ही खुलती हैं और अलग अलग तरह से खुलती हैं और अलग-अलग अंगों के कैंसर का कारण बनती हैं। ख़ैर जीवों के शरीर की संरचना बहुत ही जटिल है और जितना गहरे जाते हैं पहेली बढ़ती ही जाती है
अजब गजब कहानियों से भारत ही नहीं यह दुनिया ही भरी पड़ी है। आपने शुरू में हास्य से शुरू किए अपने संपादकीय को आखिर में जाकर जो मोड़ दिया है वह अतिउत्तम है। मजा आ गया पढ़ कर सर
Auto Brewery Syndrome
अजब बीमारी ,गज़ब सम्पादकीय और शैलेन्द्र का गीत सारे सन्दर्भ नए नए ख़ुदा करे शराब कारखाने (फैक्ट्री )में बने ,शरीर में नहीं ।
“जीस्त की नींव किसने डाली है
ख़ूब प्याली है, मगर खाली है । ☺️
नमन
Dr Prabha mishra
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
आपका संपादकीय तो मुस्कुराते हुए पढ़ना प्रारम्भ किया पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, आँखें फैलती गईं।भारत होता और शराब पीकर गाड़ी चलाने के जुर्म में पकड़ा जाता तो उसकी सुनवाई भी नहीं होती और पिटाई अलग हो जाती।
आपके संपादकीय वाकई शॉक्ड करते हैं तेजेन्द्र जी!
वैसे हम बिल्कुल भी नहीं चाहेंगे कि हमें या किसी को भी इस तरह की कोई भी बीमारी हो ।
हमने जिंदगी में कभी किसी से नफरत नहीं की !चाहे कोई हमें दुश्मन ही क्यों ना समझता हो पर शादी के बाद हमारे देवर के एक दोस्त से मुलाकात हुई तो पता नहीं क्यों वह हमें कभी अच्छा नहीं लगा;जबकि उस समय हमारे देवर नाइंथ क्लास में ही थे बच्चे ही थे वैसे तो हम भी बड़े नहीं थे भैया से दो साल ही बड़े थे पर भाभी याने माँ।हमने कहा कि,” भैया आपके यह दोस्त हमें अच्छे नहीं लगते।”हम जानते थे कि वह हमारी इज्जत करते थे! उन्होंने कभी कुछ ऐसा नहीं किया जो हमें नागवार गुजरा हो। लेकिन फिर भी बिना किसी कारण के वे हमें अच्छे नहीं लगते थे। हमने भैया को भी उनके साथ रहने से रोका। ऐसा लगता था कि वह हर वक्त नशे में रहते हैं जबकि ऐसा नहीं था। यह हमारी जिंदगी का इस तरह का पहला अनुभव था। हमने इस बात के लिए भगवान से माफी भी माँगी।इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था किसी के लिए भी , हालांकि अब वे इस दुनिया में नहीं है लेकिन आज आपको पढ़कर अचानक उनकी याद आई और ऐसा लगा कि शायद वे इस बीमारी से ग्रसित होंगे और हो सकता है कि उन्हें खुद भी यह न पता हो।पता नहीं क्यों आज आपको पढ़कर हमें अपराधबोध सा महसूस हो रहा है। अपने आप पर क्रोध भी आ रहा है। अब तो ईश्वर से ही माफी माँग सकते हैं। वैसे अच्छा न लगना और बुरा लगना ,दोनों में काफी अंतर होता है। फिर अच्छा न लगने का कोई कारण भी नहीं था। जिंदगी में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम जिसे बिल्कुल भी नहीं जानते हैं तब भी पहली नज़र में ही वह अच्छा लगता है और ऐसा भी होता है कि किसी ने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा ,कुछ कहा नहीं कभी,आपके प्रति कोई भी गलती नहीं की, कोई अपराध नहीं किया, आपका भरपूर सम्मान भी करता है, फिर भी न जाने क्यों अच्छा नहीं लगता। बुरा नहीं है पर अच्छा नहीं लगता यह भी सच है लेकिन अच्छाइयों के होते हुए भी अकारण ही अच्छा नहीं लगना; यह भी सत्य है।
बिल्कुल इस तरह की जैसे किसी से कट्टी नहीं है लेकिन बात भी नहीं है। लेकिन किसी से कट्टी है फिर भी ऐसा नहीं कि बात बंद हो जाएगी।बात कट्टी में भी जारी रहेगी वह हमारे लिए सिर्फ नाराजगी द्योतक शब्द है।
कभी-कभी आपके संपादकीय जीवन की अंदरूनी परतों को खोल देते हैं।
बहरहाल बीमारी तो बीमारी है।
यह दूसरी बार है जब आपने किसी बीमारी से रूबरू करवाया। इसके पहले गेहूँ से होने वाली बीमारी की बात हुई थी।
आपके संपादकीय का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि आप जिस विषय पर बात करते हैं, उन्हें तथ्यों के साथ ब्योरेवार पेश करते हैं।
जानकारियाँ नई तो होती ही हैं लेकिन बेहद महत्वपूर्ण भी होती हैं।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया इस नये और अनजाने रोग की विधिवत जानकारी देने के लिये।
गुजारिश है कि इसके पहले वाले संपादकीय पर लिखी हुई टिप्पणी पर भी गौर फरमाएँ। और देरी के लिए माफी आता फरमाई जाये।
आदरणीय नीलिमा जी, तथ्यों के बिना कोई भी मुद्दा कमज़ोर रह जाएगा। मेरा प्रयास रहता है कि आप सबके साथ हर वो जानकारी साझा करूं जो मुझे कहीं से भी प्राप्त होती है।
आप अपने संपादकीय के लिए बड़े ही अनूठे विषय ढूंढ लाते हैं। उन अनूठे विषयों पर ढेर सारी जानकारी भी प्रदान करते हैं। निस्संदेह आपके संपादकीय रोचक और पठनीय होते हैं। साधुवाद
पुरवाई की सम्पादकीय एक नया विषय उठाकर सामने लाती है, जो सिर्फ वर्तमान से ही नहीं जुड़ी होती है बल्कि विश्व में कहीं भी विद्यमान हो सकती है। मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के संयोजन से उत्पन्न स्थितियों का अध्ययन कठिन अवश्य है लेकिन नामुमकिन नहीं है।
ऐसे विषय पर शोध ही निदान दे सकता है।
पी जी आई लखनऊ में अपनी सर्जरी के चलते मैं 2013 में 72 दिनों तक रहा.उसी समय वहां ऐसा एक केस आया था. जो चर्चा का विषय बना हुआ था. वह व्यक्ति एक इंजीनियर था. इस बीमारी के चलते उसकी नौकरी, पारिवारिक जीवन कष्टप्रद हो गया था. समय के साथ बात विस्मृत हो गई थी. लेकिन आपकी संपादकीय ने सब स्मरण करा दिया. मन में यह बात भी आई कि बात तो होती है कि हमारा विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है, लेकिन ऐसी समस्या सामने आते ही लगता है कि अभी कितना बौना, कितना असहाय, है हमारा विज्ञान.
इस विषय पर यह सम्भवतः पहली संपादकीय है. यह जितना चर्चा में आए अच्छा है जिससे बेल्जियम वाले निर्दोष व्यक्ति की तरह दुनिया के अन्य बहुत से निर्दोष सजा पाने से बच सकें.
आपको बहुत धन्यवाद, हार्दिक शुभकामनाएं.
प्रदीप भाई, कितना हैरान करने वाली बात है कि 2013 में आप इस बीमारी से ग्रस्त एक इंजीनियर से लखनऊ में मिल चुके हैं। प्रयास रहता है कि पुरवाई के पाठकों को हर नई जानकारी से परिचित करवा सकूं।
आज एक नई बात पता चली। ऐसी बीमारी भी हो सकती है, सोचा ही नहीं था …
सर, गहन अध्ययन के पश्चात् आपको मिली जानकारी फिर उसे संपादकीय के माध्यम से सभी से साझा करना, अतुलनीय है.. हम पाठकों को बहुत कुछ जानने/समझने को मिलता है..
खुशवंत सिंह वाला किस्सा तो वाकई लाजवाब है
अशेष शुभकामनाएँ… सादर
सही है, भगवान की माया को कौन समझ पाया है!!! एक नयी बीमारी का पता चला। जवानी में नहीं, लेकिन बुढ़ापे में ऐसी बीमारी हो जाये , जिससे बिस्तर पर पड़े रहने में कष्ट ना हो।
अच्छी जानकारी देने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
सही कहा शैली जी…
संपादकीय का इंतज़ार यूँ ही नहीं रहता है हमें! कहाँ कहाँ से ऐसी जानकारी पाठकों के लिए लेकर आते हैं आप! साधुवाद है आपको। अपने आसपास हमें भी ऐसे लोगों को पहचानना चाहिए और उनकी मदद करनी चाहिए।
जागरूकता बढ़ाने की दृष्टि से संपादकीय बहुत अच्छा होता है।
हार्दिक आभार शिवानी…
सदैव की भांति अनुपम ज्ञानवर्धक जानकारी, धन्यवाद।
उषा श्रीवास्तव
हार्दिक आभार उषा जी
गज़ब बीमारी है, न आप लिखते न हमें पता चलता , थैंक्स
यही तो गजब है भाई… आभार।
पुनः एक नव्य तथ्य प्रदान करता यह संपादकीय अत्यंत विशेष है। केवल इस रोग का नाम नहीं इसकी संपूर्ण स्थिति आपने विस्तार से उल्लेखित की है सर। नूतन विषय एवं विचारों को सदैव आप पाठकों के समक्ष रखते हैं। साधुवाद सर
हार्दिक आभार अनिमा जी।
बहुत प्रामाणिक जानकारी।रोग के कारण,लक्षण और फिर उपचार के तरीके भी।एक नाटकीय घटनाक्रम से शुरू हुआ संपादकीय रोचक तथ्यों के साथ समाप्त होता है।फिल्म के गीत, खुशबंत सिंह जी की उपस्थिति और नीरा श्रीवास्तव का बयान ऐसे आधार हैं,जो इस अभिव्यक्ति को कहानी के स्वरूप में भी ढाल सकते हैं।
मैंने कुछ साल पहले एक कहानी “इंतजार करती मां” शीर्षक से लिखी थी,जो अनेक पत्र पत्रिकाओं में छपी थी।इसमें कथानक का आधार “डबल इनकम नो सेक्स सिंड्रोम”बीमारी थी।आजकल इस सिंड्रोम की गिरफ्त में वे युगल ज्यादा आ रहे हैं,जो दोनों कमाई तो खूब कर रहे हैं,लेकिन जॉब के टार्गेट एचीव करने के तनाव में बच्चे पैदा करने में असफल हो रहे हैं।
बहराल,बहुत अच्छी संपादकीय के लिए बहुत बहुत बधाई एवं आभार!
एक अजीब ओ गरीब विषय पर कलम चलाने और उसे सही तारतम्य में प्रस्तुत करना बेहद दुष्कर कार्य होता है।अनूठा परन्तु खतरनाक विषय पर जानकारी देने हेतु आपका और पुरवाई परिवार का हृदय से आभार।
हार्दिक आभार भाई सूर्यकांत जी।
बहुत बढ़िया पा’ जी। मज़ा आ गया। इस उत्तम संपादकीय के लिए आपको हार्दिक बधाई। आटो ब्रूअरी सिंड्रोम! वाह!
इतना ज्ञानवर्धक!
बल्ले बल्ले सर जी।
गंभीर मुद्दे को हास्य व्यंग के माध्यम से कहना आपके अनुभव का परिचय देता है। आज फिर एक नयी जानकारी के लिए साधुवाद।धन्य है हम जो आपके माध्यम से हमारा ज्ञानवर्धन होता है।
अंजु जी प्रयास रहता है कि गंभीरता के साथ-साथ पठनीयता बनी रहे।
मैने अभी ही पढ़ा आपका सम्पादकीय । सचमुच हमारा शरीर एक अजूबा ही है। और अगर हम mini-micro या nano level पर जायें तो शरीर के सभी तंत्र आपस में तो जुड़े ही हैं पर अपने आसपास के वातावरण और पर्यावरण से भी जुड़े होते हैं और उनके अनुसार प्रतिक्रिया भी देते हैं। हमारा शरीर बहुत बड़ा industrial hub है। जो तंत्रिका तंत्र और हार्मोन्स द्वारा संचालित है और अक्सर सही काम करता रहता है पर कभी कभी हर मशीन की तरह गड़बड़ा जाता है जिस कारण कुछ व्यक्ति बीमार हो जाते हैं और कैंसर और अन्य ऑटोइम्यून रोग हो जाते हैं। कैंसर की जीन्स भी सभी में होती हैं पर किसी किसी में ही खुलती हैं और अलग अलग तरह से खुलती हैं और अलग-अलग अंगों के कैंसर का कारण बनती हैं। ख़ैर जीवों के शरीर की संरचना बहुत ही जटिल है और जितना गहरे जाते हैं पहेली बढ़ती ही जाती है
आपने सही कहा ज्योत्सना जी… शरीर की संरचना बहुत ही जटिल है।
दिलचस्प तथ्य। धन्यवाद सर
इस बीमारी के बारे में अभी हाल ही में खबर पढ़ी थी। आपकी प्रस्तुति ने इसे रोचक बना दिया है।
आभार अरविंद भाई।
अजब गजब कहानियों से भारत ही नहीं यह दुनिया ही भरी पड़ी है। आपने शुरू में हास्य से शुरू किए अपने संपादकीय को आखिर में जाकर जो मोड़ दिया है वह अतिउत्तम है। मजा आ गया पढ़ कर सर
जब युवा पीढ़ी मेरे लेखन के साथ जुड़ती है, तो एक उपलब्धि का अहसास होता है। आभार तेजस।
बहुत ही शानदार हमेशा की तरह एक नया विषय और नई जानकारी,
साधुवाद
हार्दिक आभार कपिल।
Auto Brewery Syndrome
अजब बीमारी ,गज़ब सम्पादकीय और शैलेन्द्र का गीत सारे सन्दर्भ नए नए ख़ुदा करे शराब कारखाने (फैक्ट्री )में बने ,शरीर में नहीं ।
“जीस्त की नींव किसने डाली है
ख़ूब प्याली है, मगर खाली है । ☺️
नमन
Dr Prabha mishra
इस काव्यात्मक टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार डॉ. प्रभा जी।
आश्चर्यजनक! और साथ ही रहस्यपूर्ण । मनोरंजक भी जब तक हमे इस बीमारी से पाला नहीं पड़ता । 🙂
क्या बात है सर जी।
आदरणीय तेजेन्द्र जी!
आपका संपादकीय तो मुस्कुराते हुए पढ़ना प्रारम्भ किया पर जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए, आँखें फैलती गईं।भारत होता और शराब पीकर गाड़ी चलाने के जुर्म में पकड़ा जाता तो उसकी सुनवाई भी नहीं होती और पिटाई अलग हो जाती।
आपके संपादकीय वाकई शॉक्ड करते हैं तेजेन्द्र जी!
वैसे हम बिल्कुल भी नहीं चाहेंगे कि हमें या किसी को भी इस तरह की कोई भी बीमारी हो ।
हमने जिंदगी में कभी किसी से नफरत नहीं की !चाहे कोई हमें दुश्मन ही क्यों ना समझता हो पर शादी के बाद हमारे देवर के एक दोस्त से मुलाकात हुई तो पता नहीं क्यों वह हमें कभी अच्छा नहीं लगा;जबकि उस समय हमारे देवर नाइंथ क्लास में ही थे बच्चे ही थे वैसे तो हम भी बड़े नहीं थे भैया से दो साल ही बड़े थे पर भाभी याने माँ।हमने कहा कि,” भैया आपके यह दोस्त हमें अच्छे नहीं लगते।”हम जानते थे कि वह हमारी इज्जत करते थे! उन्होंने कभी कुछ ऐसा नहीं किया जो हमें नागवार गुजरा हो। लेकिन फिर भी बिना किसी कारण के वे हमें अच्छे नहीं लगते थे। हमने भैया को भी उनके साथ रहने से रोका। ऐसा लगता था कि वह हर वक्त नशे में रहते हैं जबकि ऐसा नहीं था। यह हमारी जिंदगी का इस तरह का पहला अनुभव था। हमने इस बात के लिए भगवान से माफी भी माँगी।इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था किसी के लिए भी , हालांकि अब वे इस दुनिया में नहीं है लेकिन आज आपको पढ़कर अचानक उनकी याद आई और ऐसा लगा कि शायद वे इस बीमारी से ग्रसित होंगे और हो सकता है कि उन्हें खुद भी यह न पता हो।पता नहीं क्यों आज आपको पढ़कर हमें अपराधबोध सा महसूस हो रहा है। अपने आप पर क्रोध भी आ रहा है। अब तो ईश्वर से ही माफी माँग सकते हैं। वैसे अच्छा न लगना और बुरा लगना ,दोनों में काफी अंतर होता है। फिर अच्छा न लगने का कोई कारण भी नहीं था। जिंदगी में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम जिसे बिल्कुल भी नहीं जानते हैं तब भी पहली नज़र में ही वह अच्छा लगता है और ऐसा भी होता है कि किसी ने आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ा ,कुछ कहा नहीं कभी,आपके प्रति कोई भी गलती नहीं की, कोई अपराध नहीं किया, आपका भरपूर सम्मान भी करता है, फिर भी न जाने क्यों अच्छा नहीं लगता। बुरा नहीं है पर अच्छा नहीं लगता यह भी सच है लेकिन अच्छाइयों के होते हुए भी अकारण ही अच्छा नहीं लगना; यह भी सत्य है।
बिल्कुल इस तरह की जैसे किसी से कट्टी नहीं है लेकिन बात भी नहीं है। लेकिन किसी से कट्टी है फिर भी ऐसा नहीं कि बात बंद हो जाएगी।बात कट्टी में भी जारी रहेगी वह हमारे लिए सिर्फ नाराजगी द्योतक शब्द है।
कभी-कभी आपके संपादकीय जीवन की अंदरूनी परतों को खोल देते हैं।
बहरहाल बीमारी तो बीमारी है।
यह दूसरी बार है जब आपने किसी बीमारी से रूबरू करवाया। इसके पहले गेहूँ से होने वाली बीमारी की बात हुई थी।
आपके संपादकीय का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि आप जिस विषय पर बात करते हैं, उन्हें तथ्यों के साथ ब्योरेवार पेश करते हैं।
जानकारियाँ नई तो होती ही हैं लेकिन बेहद महत्वपूर्ण भी होती हैं।
आपका बहुत-बहुत शुक्रिया इस नये और अनजाने रोग की विधिवत जानकारी देने के लिये।
गुजारिश है कि इसके पहले वाले संपादकीय पर लिखी हुई टिप्पणी पर भी गौर फरमाएँ। और देरी के लिए माफी आता फरमाई जाये।
आदरणीय नीलिमा जी, तथ्यों के बिना कोई भी मुद्दा कमज़ोर रह जाएगा। मेरा प्रयास रहता है कि आप सबके साथ हर वो जानकारी साझा करूं जो मुझे कहीं से भी प्राप्त होती है।
आप अपने संपादकीय के लिए बड़े ही अनूठे विषय ढूंढ लाते हैं। उन अनूठे विषयों पर ढेर सारी जानकारी भी प्रदान करते हैं। निस्संदेह आपके संपादकीय रोचक और पठनीय होते हैं। साधुवाद
हार्दिक आभार सीमा जी।
कितनी अजीब बीमारी है। कैसी कैसी बीमारियां हैं डाक्टर्स के सामने बङा चैलेंज होता है इस तरह की नई नई बीमारियों को जानने,समझने और उनका इलाज करने का।
रेणुका जी सच ही तो कहा है – अजब तेरी दुनिया, ओ मेरे रामा…
पुरवाई की सम्पादकीय एक नया विषय उठाकर सामने लाती है, जो सिर्फ वर्तमान से ही नहीं जुड़ी होती है बल्कि विश्व में कहीं भी विद्यमान हो सकती है। मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के संयोजन से उत्पन्न स्थितियों का अध्ययन कठिन अवश्य है लेकिन नामुमकिन नहीं है।
ऐसे विषय पर शोध ही निदान दे सकता है।
रेखा जी इस सार्थक टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।
पी जी आई लखनऊ में अपनी सर्जरी के चलते मैं 2013 में 72 दिनों तक रहा.उसी समय वहां ऐसा एक केस आया था. जो चर्चा का विषय बना हुआ था. वह व्यक्ति एक इंजीनियर था. इस बीमारी के चलते उसकी नौकरी, पारिवारिक जीवन कष्टप्रद हो गया था. समय के साथ बात विस्मृत हो गई थी. लेकिन आपकी संपादकीय ने सब स्मरण करा दिया. मन में यह बात भी आई कि बात तो होती है कि हमारा विज्ञान बहुत आगे बढ़ गया है, लेकिन ऐसी समस्या सामने आते ही लगता है कि अभी कितना बौना, कितना असहाय, है हमारा विज्ञान.
इस विषय पर यह सम्भवतः पहली संपादकीय है. यह जितना चर्चा में आए अच्छा है जिससे बेल्जियम वाले निर्दोष व्यक्ति की तरह दुनिया के अन्य बहुत से निर्दोष सजा पाने से बच सकें.
आपको बहुत धन्यवाद, हार्दिक शुभकामनाएं.
प्रदीप भाई, कितना हैरान करने वाली बात है कि 2013 में आप इस बीमारी से ग्रस्त एक इंजीनियर से लखनऊ में मिल चुके हैं। प्रयास रहता है कि पुरवाई के पाठकों को हर नई जानकारी से परिचित करवा सकूं।
सचमुच, बड़ी रोचक जानकारी…अब तो कोई भी आलस्य में डूबा व्यक्ति भी मुझे उसी ऑटो ब्रुअरी सिन्ड्रोम से ग्रस्त नजर आ रहा है….वास्तव में अजब तोरी दुनियाँ
सही पकड़ा है जया!
आज एक नई बात पता चली। ऐसी बीमारी भी हो सकती है, सोचा ही नहीं था …
सर, गहन अध्ययन के पश्चात् आपको मिली जानकारी फिर उसे संपादकीय के माध्यम से सभी से साझा करना, अतुलनीय है.. हम पाठकों को बहुत कुछ जानने/समझने को मिलता है..
खुशवंत सिंह वाला किस्सा तो वाकई लाजवाब है
अशेष शुभकामनाएँ… सादर
मनीष प्रयास रहता है कि हर सप्ताह अपने पाठकों को कुछ नया दे सकें। हार्दिक आभार।