स्त्री को समझना
आसान नहीं है
तुम ही तो कहते हो!
सच में
आसान तो नहीं था
तुम्हारा इस दुनिया में आना,
या फिर अपने पैरों पर
खड़े होकर चल पाना
बिना उसके।
पर वो थी न !
तो आसान या मुश्किल
उसने किया
तुम्हारे लिये
और तुम बस रेखाएँ खींचते हो
कि वो न पार करे
तुम्हारी खींची हुई
कोई रेखा!
पर क्या तुमने ये
देखा कि
जैसे तुम चाहते हो
कि वो तुम्हारे बंधनों में रहे
वो भी तो चाहती है तुम्हें
बांध लेना
कि तुम अगर चाहो मुक्ति
तो उसे भी कर दो मुक्त
या फिर दोनों ही रह जाएं
एक दूसरे के बंधनों में!
अच्छा तो हो अगर
उड़ चलें दोनों ही
सारे बंधनों से परे
असीमित अनंत आकाश में
साथ उड़ें, साथ बढ़ें
साथ साथ छू लें
आकाश की हर ऊंचाई को
और नाप लें हर सागर की
गहराई को
फिर भी हों साथ साथ
कि अपनी मुस्कुराहटें
बाँट सकें
दर्द में एक दूसरे को
थाम सकें।
यूँ लक्ष्मण रेखा खींच कर
मत जाना!
मुझे साथ ले जाना ।
न लाना चाँद तारे मेरे लिए
पर जब मैं जाना चाहूँ
चाँद तारों तक,
चलना तुम भी साथ मेरे ,
देखना कि मेरे सपनों का
आकाश भी उतना ही नीला है!
ख्वाहिशें भी ,अरमान भी
सब वैसे ही तो हैं!
बहुत आसान है समझना
बस तुम अपने ख्याल से
निकाल दो मेरी सीमाएं
मैं असीमित हूँ अपार हूँ
अथाह हूँ
क्यूँकि मैं स्त्री हूँ
मैं स्त्री हूँ।।
मेरी कविता आपकी पत्रिका में प्रकाशित करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद तथा आभार। उम्मीद है मेरी कविता पाठकों को पसंद आयेगी।
अच्छी कविता ….