प्रवासी साहित्यकार योजना साह जैन द्वारा काग़ज़ पे फुदकती गिलहरियाँ कविता संग्रह पढ़ने का अवसर मुझे पोलैंड में मिला। इसी दौरान मैंने कई प्रवासी साहित्यकारों के साहित्य को पढ़ा और उस पर समीक्षात्मक लेखन भी किया। यह कोई विशेष बात नहीं है, विशेष बात यह है कि जिन्हें मैंने पढ़ा, उनमें प्रोफेसर नीलू गुप्ता, शैलजा सक्सेना, सुधा ओम ढींगरा, तेजेंद्र शर्मा, जय वर्मा, राकेश शंकर भारती आदि सभी में देश की बेचैनी, देश के प्रति राग-अगाध पाया। नई सोच और मृत्यु से जीवन में सिखलाने वाले कहानीकार तेजेंद्र शर्मा अनूठे कहानीकार हैं। उनकी कविताओं में नदी और गंगा का चित्रण अनूठा मिलता है। नारी संवेदना की चितेरी डॉक्टर शैलजा, जय वर्मा, नीलू गुप्ता, सुधा ओम ढींगरा की ही श्रेणी में योजना साह जैन का नाम आता है।
इनका कविता संग्रह बारह-तेरह साल की लड़की की संवेदना को जग जाहिर करते हुए एक परिपक्व नारी की संवेदना से भरा हुआ है। यह कहना गलत ना होगा कि कवयित्री ने अपनी पहली कविता से लेकर आज के समय परिवेश में देखी जानी पहचानी घटनाओं की यात्रा इस संग्रह में चित्रित कर डाली है। कवयित्री ने लिखा भी है- ‘चल पड़े हैं एक छोटे से कस्बे से निकली बड़े सपनों वाली कल्पनाशील और बेहद संवेदनशील 12–13 साल की मासूम लड़की से कैरियर वूमेन पत्नी और माँ बनने के मेरे दशकों के इस सफर में मेरे साथ। इतने वर्षों के एहसासों को, किरचनों को, दिल की पीर, समाज की परछाइयों को जितना जैसा समझ पाई कविता रूपी मोतियों में पिरोने की कोशिश की है। (काग़ज़ पे फुदकती गिलहरियाँ- पेज-7)
इस कविता संग्रह का नाम ‘काग़ज़ पे फुदकती गिलहरियाँ’ बहुत ही रोमांचकारी और आकर्षित करता हुआ सार्थक भी प्रतीत होता है। इस कविता संग्रह को पढ़ते समय महादेवी वर्मा का संस्मरण रेखाचित्र गिल्लू याद आया। उन्होंने एक मृत प्राय शिशु गिलहरी को पालकर गिल्लू व्यक्तिवाचक संज्ञा से अभिभूत किया। योजना साह जैन जी ने गिलहरी जैसी लघु जीव को उसकी चंचलता को, उसके अपने मन को, दाने खाती इधर से उधर भागती खुशी से, हैरानी से, शौक से, अपने भाव दिखाने वाली, अपनी संवेदना का नाम देकर गिलहरियाँ भाववाचक संवेदनाएँ बना डाली हैं। यह संवेदनाएँ जीवन की यात्रा सुख-दुख, हार-जीत, हर्ष-शोक सभी को निर्विकार रूप से व्यक्त करती हैं। लगभग 61–62 कविताओं का यह संग्रह ध्यान से पढ़ने पर आपको अपने बचपन की सैर भी कराता है। कवयित्री का यह गुण उसे विशिष्ट और पाठक को अपना बनाता है। कुछ कविताओं के माध्यम से समाज में फैली विसंगतियों को दर्शाया है और स्वयं को इन्कलाबी कवयित्री के रूप में चित्रित भी किया है।
बेहताशा शब्द उगलती मेरी कलम को कैसी मैं समेटूँ ? बहुत मुँह खुलता है इसका! जैसे खुलती है, दोनाली बंदूक, निकलते हैं तमंचे, और चीर कर रख देते हैं खिलाफत भरी चीत्कारों को! या लटका दिए जाते हैं, बुलंद आवाजों के सर, सरेआम चौराहों पे। मेरी कलम के शब्दों के मुँह में बारूद भर दो।
यह आग ही साहित्यकार की प्राण शक्ति होती है, जो योजना साह के अंदर भरी है। यथार्थ को चित्रित कर समाज को जगाने का कार्य ही साहित्यकार का कर्म होता है। मौन और अभिव्यक्ति कविता में नारी जीवन के समग्र स्वरूप को उद्घाटित करती है। उसके संघर्ष की अथक कहानी बयाँ करती है-
मैंने सदियों से, मौन लिखा तो तुम मुझ पर चिल्लाते रहे! बड़े सुंदर सतरंगी पंख, कजरारी आँखें हैं मेरी! पर तुमने बस मेरे वक्ष पे निगाहें जमाई। बहुत कुछ है मेरे अंदर जो ‘मुझे‘ मेरे वजूद, मेरे चरित्र को बनाता है।
मैंने सदियों से मौन लिखा, तो तुम मुझ पर चिल्लाते रहे- अब ‘मैं‘ तोड़ रही हूँ ये ‘मौन‘ और लिख रही हूँ अभिव्यक्ति नई कलम से
‘संवेदनाएँ‘ कविता में कवयित्री ने संवेदनाओं को अमूल्य कहा है। संवेदनाएँ ही वास्तव में मनुष्य को इंसानियत से भर्ती है और सच्चा साहित्यकार बनाती है। जो किसी की संवेदना से संवेदनशील नहीं होता वह साहित्यकार तो क्या इंसान भी नहीं होता है।
सब कुछ बदल सकते हो, खरीद सकते हो, लेकिन मेरी संवेदनाएँ नहीं। मेरी संवेदनाएँ हमेशा सिसकती हैं हमेशा सिसकती हैं, जब कहीं अन्याय होता है। क्योंकि कोरी सोच का ना कोई जात ना धर्म होता है।
‘आह‘ और ‘आक्रोश‘ कविता को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करती है। जब तक मानव समुदाय में आक्रोश नहीं होगा तब तक कोई भी उसे जीने नहीं देगा-
आदमी की आह को आक्रोश बनने दो ज़रा सर्द हुई आत्माएँ, बर्फ गलने दो जरा।
कौओं की महफिल में जब हंस सूली चढ़ने लगे सरफिरों की लगाई आग में इंसानियत जलने लगे धूल हुआ इंसाफ जब और कफन माँगता है सबसे ऊँचा सिंहासन भी डोलता और काँपता है।
ये बात समझने और समझाने ही होगी जफ़र जयचंदों को फाँसी देने की रस्म निभानी ही होगी तोड़ने होंगे हमें ही हालात के ये उलझे तिलिस्म ये जिंदगी की बाजी है दोस्तों जो जीती जानी ही होगी।
मैं योजना हूँ कविता में कवयित्री का जिंदगी के प्रति बेबाक सकारात्मक दृष्टिकोण नजर आता है-
जिंदगी प्रश्न है यदि तू तू मैं उत्तर बन जाऊँगी! बार-बार तुझे यह बताऊँगी कि यदि तू है
तो मैं तेरी पूरक हूँ तू दिशा है तो मैं दिशा सूचक हूँ तू विचार है, तो मैं योजना हूँ तो मैं योजना हूँ
बुद्धिजीवी कविता में तथाकथित कहे जाने वाले बुद्धिजीवियों पर हरिशंकर परसाई जैसा नुकीला कटीला व्यंग्य देखने योग्य बनता है-
ना तुम सच के पैगम्बर ना मैं। हम सब प्रपंची हैं या आँख के अंधे हैं या शायद कलर ब्लाइंड हैं। अच्छा! याद आया… बुद्धिजीवी हैं हम! तुम और मैं। हर विषय के सर्वज्ञाता सबसे मासूम, निरपेक्ष और प्रखंड। हैं न ?
काग़ज़ पे फुदकती गिलहरियाँ संवेदनाओं को कभी भी ना मरने देने की बेहतरीन मिसाल है। साथ ही गिलहरी से संवेदनाओं की तुलना शोभनीय है-
कुछ फुदकती गिलहरियाँ रख छोड़ी हैं काग़ज़ पे- गर हाथ आए तो पकड़ लेना पुचकार लेना, सहला देना- दाना दे कर बहला देना-
पर देखो बंद नहीं करना ज़ब्त नहीं करना पिंजरे में मत रखना मर जायेंगी ये वरना- रहने देना आजाद
क्योंकि यह आज़ाद ही फुदकती हैं- ये आजाद ही ठुमकती हैं बड़े जतन से मनाकर, रिझाकर दुनिया की उलझनों से छुपाकर काली परछाइयों से बचाकर लाई हूँ इन्हें यहाँ फुसलाकर इन्हें निहार लेना दूर से डोर से पर नहीं बाँधना पकड़ पाओ अगर- तो पकड़ लो- कुछ फुदकती गिलहरियाँ रख छोड़ी हैं काग़ज़ पे
वास्तव में यह संवेदना ही गिलहरी की तरह शब्दों के रूप में भागती, ठुमकती, फुदकती सी हैं। इनके साथ तादात्म्य में जब बन पाता है, जब पाठक इनको ध्यान से पढ़ता है। पाठक सहृदय होता है। कवयित्री ने अपने जीवन के सुख-दुख, राग-द्वेष, आह-आक्रोश सब को देखा है। अपने जीवन के अनुभवों और दूसरों के अनुभवों से तरह-तरह के इंद्रधनुषी रंगों की चमक को व्यक्त करने का प्रयास किया है। अर्जुन-कृष्ण संवाद कविता में पौराणिक कथा के माध्यम से आज के समय की परिस्थितियों को बहुत ही सुंदर तरीके से व्यक्त किया है। आज का मानव भी शिथिल, शक्तिहीन और अपने मोह-माया के कारण सच्चाई का सामना करने से डरता है। मुझे क्या मिलेगा? मैं क्यों करूँ? इस भावना ने हमारी आँखों पर पट्टी बाँध दी है। आह से आक्रोश ना बनने का कारण हमारी कायरता, स्वार्थमयता ही है। इसलिए कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
मृत्यु एक सागर है जिसमें हर प्राणी को है मिल जाना कर्मों का फल मोक्ष प्राप्ति का साधन इसे है सबको पाना नाश पथ के हर राही को मंजिल अपनी पानी है तो तू क्यों डरता है? ये तेरा कर्म व उनकी जीवन कहानी है
तूऐसे खुश मैं वैसे खुश कविता में कवयित्री हर संबंध को अपने अनुसार जीने मैं खुशी ढूँढती है। रिश्तो में बंधन नीरसता ला देता है-
बहता दरिया रुकता कहाँ है बाँधना चाहो बँधता कहाँ है मत बाँधो, मत रोको साथी संग दो मुझे, लाल गुलाबी हरा, नीला, सतरंगी रंग दो मुझे माना तू है एकदम फीका कोरा पर मैं तो हूँ रंगी चटक तू ऐसे खुश, मैं वैसे खुश
निश्चित रूप से, मेरी चुप्पी, शोषण या समर्पण, कब तक आग लगाओगे, लम्हा, कवि के शब्द, खुद की खोज, जिंदगी, ख्वाबों के पर आदि अन्य कविताएँ भी दिल को छू लेने वाली हैं। यह कवयित्री का पहला कविता संग्रह है। जिसमें इन्होंने अलग-अलग रिश्तों को, जीवन को बाल्यकाल से रचा है। इनका यह प्रयोग सार्थक और प्रेरणादायक है। इनकी कविताओं में भाषा की सहजता, भाषा की ताजगी अनायास रूप से मन को गुदगुदाती है। भाषा में बिम्ब और प्रतीक बहुत ही सुंदर हैं। भाषा को चित्रमयी कहना अनुचित ना होगा। भारतीय ज्ञानपीठ से 2019 में प्रकाशित यह कविता संग्रह योजना साह जैन के लिए महत्वपूर्ण है। इसके साथ-साथ कविता प्रेमियों के लिए भी रसास्वादन की स्वस्थ प्रक्रिया है। कविताएँ अगर कहीं छोटी हैं तो भी वे अपने कथ्य को सटीक तरीके से अभिव्यक्त करती हैं। यह कहना अनुचित ना होगा कि कवयित्री का काव्य जगत अपने विराट अनुभव की देन है। इन्होंने विविध विषयों पर लेखनी चलाई है। इनकी सहजता, सरलता, इनके व्यक्तित्व की पहचान तो है ही, साथ ही साथ यही सहजता इनकी कविताओं की भाषा में भी है। कहीं-कहीं उर्दू के शब्दों और नुक्तों का प्रयोग इनके भाषाई बोध को दर्शाता भी है। क्रियाओं के द्वारा किए गए प्रयोग, भाषा को नाद सौंदर्य से भरते हैं। जैसे- फुदकना, ठुमकना, बहला देना, पुचकार लेना आदि। इनकी कविताएँ सभी वर्ग के पाठकों के लिए हैं, पाठक चाव से इन्हें पढ़कर अपने जीवन की यात्रा का आनंद लेते हैं।