हम देख रहे हैं,
रोज किसी न किसी
अपने को सितारा बनते हुए,
हर रोज संख्या कम होती जा रही
धरती पर
मानव शरीरों की ..
आंकड़ों का उठाव गिराव
बस …हम देख रहें है
इस दुनियां से
उस दुनियां के सफर पर जाने वालों को
बस देख रहे हैं हम
बस देख रहे हम
असहाय
किंकर्तव्यविमूढ़
अच्छा नहीं लग रहा
अपनों का
बस यूँ चले जाना
जाना भी ऐसे,
जैसे वो कोई भी न हो
जाना तो प्रारब्ध है
पूर्वनियोजित है
पर
यूँ विदा हो जाना
अकेले, निसहाय सा
मर कर, विदा होने का भी
एक ढंग होता था
कुछ दिन पहले तक
कैसे यकायक
सब बदल गया…!
बहुत दर्द होता है
सचमुच
जब
जी, बुक्का फाड़ कर रोने को करे
और
हमें छिपना पड़े पीईपी किट में
हद है यार
आखरी सलाम का हक भी
छीन लिया इस प्रोटोकोल ने
डर के फंदे बुन गया है
गया वक्त
सांस लेना है तो
मानना पड़ेगा
स्पर्श है निषेध
मान भी लेते हैं
लेकिन
लगता यूँ है
किआदमी जैसे आदमी न हो …
बस कोई मच्छर हो,
पट से मर गया बस
2 – व्यवस्था
कौन किस फलसफे को मानता है कौन किस मिशन की बात करता है कौन किस वाद से जुड़ा है कौन किस धारा में है बह रहा क्या मायने कौन क्या क्या कह रहा..? आज़ादी,देश,,भाषा सब सिर्फ शब्द है व्यवस्था मानवीय संवेदना का एक प्रचलित मज़ाक है… व,अन्ततः,सभी बाज़ार हैं झुठ से पटे हुए ……..!
कविता में अनुभव एवम पीड़ा स्पष्ट है। विषय पर विजय कवित्व का स्वभाव है। साधुवाद।