डॉ धर्मवीर भारती एक प्रबुद्ध बहुमुखी प्रतिभा के धनी समर्थ रचनाकार थे । उन्होंने गद्य पद्य की विभिन्न विधाओं में सफलतापूर्वक रचनाएं सृजित की किंतु अपनी अनुभूतियों की सम्यक अभिव्यक्ति के लिए सर्वाधिक सशक्त ग्राह्य, प्रिय एवं उपयुक्त माध्यम उन्हें कविता प्रतीत हुआ । उन्होंने आज्ञेय द्वारा संस्थापित ‘ तार सप्तक’ के दूसरे शतक के साथ काव्य यात्रा प्रारंभ की । इसमें उनकी प्रणयासक्ति, सौन्दर्य एवं प्रकृति संबंधी रचनाएं प्रकाशित हुई जिनमें से 38 कविताएं बाद में उनके काव्य संकलन ‘ठंडा लोहा‘ में संकलित की गई। इन कविताओं के विषय में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया है -“मैं कविताएं बहुत कम लिख पाता हूं और अक्सर कुछ लिख लेने के बाद मौन का एक बहुत लंबा व्यवधान बीच में आ जाता है जिससे अगले क्रम की कविताओं और पिछले क्रम के कविताओं का तारतम्य टूटा– टूटा सा लगता है। इस संग्रह में दी गई कविताएं मेरे पिछले छः वर्षों में से चुनी गई है और चूंकि यह समय अधिक मानसिक उथल–पुथल का रहा, अतः इन कविताओं का स्तर , भावभूमि शिल्प और टोन की काफी विविधता मिलेगी। एक सूत्रता केवल इतनी है कि सभी मेरी कविताएं हैं । मेरे विकास और परिपक्वता के साथ उनके स्वर बदलते गए हैं , पर आप जरा ध्यान से देखेंगे तो सभी में मेरी आवाज़ पहचानी सी लगेगी । (1)
आर्थिक दुरावस्था, संपर्कागत व्यक्ति, सामयिक राजनीतिक सामाजिक प्रवृतियां और उनका स्वयं का मानसिक उद्वेलन उनकी कविताओं के प्रेरक तत्व रहे हैं। 1946 से 1952 की कालावधि में विभिन्न परिस्थितियों में रची कविताओं में उनका व्यक्तित्व भी स्पष्ट प्रतिबिंबित रहा है । इस संग्रह के गीत और छोटी कविताओं में उनकी प्रणयासक्ति, सौन्दर्याकर्षण ,प्रेम को उसकी संपूर्णता में प्राप्त करने और तन्मयता से डूब जाने की तीव्र आकांक्षा दिखाई देती है । प्रथम प्रणय, फिरोजी़ होंठ, तुम्हारे चरण, मुग्धा तुम, झील के किनारे आदि रचनाओं में कवि की तरुणोचित मस्ती, सहज प्रणयानुभूति,अल्हड़ता, आशा और विश्वास की कल्पना भरी सतरंगी चित्रावलियां हैं। उनकी प्रारंभिक रचनाओं में क ई स्थानों पर मांसलता की स्थिति दिखाई देती है । वे नारी के शील, सौंदर्य युक्त प्रेरक रुप की ही कल्पना करते हैं। ‘डोले का गीत ‘ में कवि स्वयं विछोह के दर्द को सहते हुए भी प्रिया को आश्वस्त करने का प्रयास करते है
“पूजा सा तुम्हारा रूप
जी सकूंगा सौ जनम अंधियारों में, यदि मुझे मिलती रहे
काले तमस की छांव में
ज्योति की यह एक अति पावन घड़ी।“(2)
‘बातचीत का एक टुकड़ा ‘ रचना में वे प्रिया वियोग जनित रिक्तता से पीड़ित है किंतु ‘कुछ कामकाज में हरदम खोया रहता हूं ‘तथा ‘सच मानो मुझे कहीं कोई कष्ट नहीं’ कहकर प्रेमिका को आश्वस्त करते हैं । वे जानते हैं कि उनके बिना वह भी उतनी ही दुखी होगीं। बातचीत का एक टुकड़ा ‘ कविता की अंतिम पंक्तियों में वे प्रेमिका से बातचीत करते दिखते हैं–
“पर यह क्या पागल।
मैं बेहतर हूं,सुख से हूं।
फिर इसमें ऐसी कौन बात है रोने की?
जाने दो
लो यह चाय पियो।“(3)
‘गुनाहों का गीत‘ में उन्होंने अपने जीवन को विरुप बनाने और उसे पीड़ा से भर देने का आरोप अपने ऊपर लिया है। अधिकांश रचनाओं में उनके उपन्यास ‘गुनाहों का देवता‘ की छाया प्रतिभाषित होती है । स्वच्छंद प्रेम के हिमायती होते हुए भी कवि सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करने का पक्ष नहीं लेते । ‘डोली का गीत ‘ में प्रेम में पीड़ित प्रेमिका को सांत्वना देते हुए कहते हैं –
“वे विदा अमराइयों से
चल पड़े डोला हुमचकर
है कसम तुमको, तुम्हारे कोंपलों से नैन में आंसू न आयें
राह में पाकड़ तले
सुनसान पाकर
प्रीत ही सब कुछ नहीं है, लोक की मरजाद है सबसे बड़ी।
वे चलो! जल्दी चलो!पी के नगर।“(4)
धर्मवीर भारती प्रकृति सौंदर्य और विशेष रूप से उसके मानवीय रूप का आभास देते पक्ष पर मुग्ध थे।यह उनपर छायावाद का प्रभाव माना जा सकता है। उनकी कुछ कविताओं के शीर्षक भी प्रकृति पर हैं यथा पावस गीत, बसंती दिन , फागुन की शाम, बादलों की पांत , कोहरे भरी सुबह , फूलों की मौत , झील के किनारे इत्यादि। नारी सौंदर्य को उसकी परिपूर्णता में व्यक्त करने के लिए उन्होंने प्रकृति से बिंब, प्रतीक, उपमानों का चयन किया है। ‘पावस गीत ‘ में प्रणयोन्मादी कवि को प्राकृतिक उपकरणों में नायिका के अंग प्रत्यंगों का सौंदर्य दिखाई देता है । कुछ कविताओं में प्रकृति का स्वतंत्र अंकन हुआ है यथा–
“बादलों में सूरज का कहीं
नहीं कतई कोई आभास
तितलियां ज्यों निज पांखे खोल
फूल छूने का करें प्रयास।“(5)
‘बोवाई का गीत ‘ ग्राम्य हरीतिमा के मध्य खेत जोतते कृषक के चित्र को अनावृत करता है । प्रश्नोत्तर के रूप में रचित यह गीत लोक रंग से मुग्ध पाठक को कवि के साथ खेत की मुंडेर पर ले जाकर खड़ा कर देता है।
“बोने वालों ! नयी फसल में बोओगे क्या चीज़?
बदरा पानी दे ।
मैं बोऊंगा बीर बहूटी, इंद्रधनुष्य सतरंग
नये सितारे नयी पीढ़ियां , नए धान का रंग ।“(6)
यहां कवि के प्रश्न से अधिक मस्ती भरा कृषक का उत्तर है। अपने परिप्रेक्ष्य के प्रति भारती जी पूर्ण सजग थे। मर्यादाहीन उच्श्रृंखल आधुनिकता उन्हें ग्राह्य नहीं थी । वे हार –जीत, सुख–दु:ख, अनुकूलता–प्रतिकूलताओं को धैर्य पूर्वक सहन करने का प्रयास करते हैं । यही नहीं प्रतिकूलताओं के झंझावात , संघर्षों के अनंत क्रम से थके कलाकार को भी युग नव निर्माण के कार्य को अधूरा ना छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ।
“ठहरो! ठहरो! ठहरो! ठहरो!हम आतें हैं
हम श्री चेतना के बढ़ते अविराम चरण।
हम मिट्टी की अपराजित गतिमय सन्तानें
हम अभिशापों से मुक्त करेंगे कवि का मन।“(7)
परिवर्तन जीवन की अनिवार्यता है। कवि की प्रारंभिक रचनाओं जैसी रूपासक्ति, सौन्दर्याकर्षण, उन्माद कालांतर में आयु के साथ आई परिपक्वता में परिवर्तित हो जाते हैं । वे गृहस्थी के दायित्वों को समझने लगते हैं।
“कड़वा नैराश्य विकलता,घुटती बेचैनी
धीरे धीरे दब जाती है,
परिवार, गृहस्थ,रोजी धन्धा, राजनीति
अखबार सुबह, सन्ध्या को पत्नी का आंचल
मन पर छाया कर लेते हैं।“(8)
भाषा को भावों की अनुदामिनी मानने वाले भारती जी का काव्य संसार सतरंगी भाषा से सजा है । अपनी अनुभूतियों को अभीप्सित अभिव्यक्ति देने में सक्षम थे । भावानुरूप तत्सम , तद्भव , उर्दू तथा लोकप्रचलित शब्दों का प्रयोग किया है। उन्होंने स्वनिर्मित शब्दों का भी यथा स्थान प्रयोग किया है जैसे रतनारी,छतनार, हुमचकर। उनके द्वारा किया गया पद निर्माण और वाक्य नियोजन विशिष्ट और अपूर्व माधुरी से युक्त है यथा शबनमी नज़र, सुरमई आभा, मदभरी चांदनी। इसी प्रकार किरण को किरन, निमंत्रण को निमन्त्रन करके उन्होंने श्रुति माधुर्य उत्पन्न किया है । मध्यवर्गीय जीवन की अस्तव्यस्तता एवं आपाधापी को उसके यथार्थ में व्यक्त करने के लिए धर्मवीर भारती जी ने दैनंदिन की भाषा ही उपयोग की है यथा अंबवा, बीरबहूटी , चंपई । उर्दू के शब्द जो सामान्य बोलचाल की भाषा में रचबस गए हैं उनका भी उन्होंने नि:संकोच प्रयोग किया है जैसे कफ़न, हैवानियत। अंग्रेजी के बहु प्रयुक्त शब्दों –ट्रेन, पासपोर्ट, स्टेशन ,फाइल, चेकबुक के साथ ही उन्होंने ब्रज की बोली का भी भावानुरूप प्रयोग किया है। उन्होंने विविध छंदों का प्रयोग कर अपनी रचनाओं को अलग पहचान दी है । उर्दू की रुबाई, लोकगीतों और मुक्त छंद का प्रयोग उन्होंने भावानुसार परिवर्तित रूप में किया है । कहीं परम्परा का निर्वाह करते हुए प्रत्येक छंद में चार चरण की 16 मात्राओं के छंद है यथा ‘तुम‘ कविता अन्यत्र अठाईस मात्रा वाले छंदों का अवलंब लिया है जैसे ‘सुभाष की मृत्यु पर‘ कविता । धर्मवीर भारती ने रुबाई का अनुसरण करते हुए मुक्तकों की रचना की है–
“आज माथे पर, नजर में बादलों को साध कर
रख दिए तुमने सरल संगीत से निर्मित अधर
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छांह में
बांसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर ।“(9)
उन्होंने सामान्य मानव जीवन , इतिहास, पुराण से उपमानों का चयन कर मन, जीवन,आत्मा जैसे गूढ़ विषयों को समझने का प्रयास किया है। यथा ठंडा लोहे को ‘यम के तीखे नेजे सा‘, अंधकार को ‘महाकाल के जबड़े सा‘,रुप को ‘पूजा सा‘। धर्मवीर भारती ने उपमा के साथ रूपक, उत्प्रेक्षा ,अन्योक्ति, मानवीकरण आदि अलंकारों का भी यथा स्थान प्रयोग किया है। ‘ ठंडा लोहा‘ काव्य संग्रह की भाषा छायावादी भाषा से नितांत भिन्न है। उन्होंने प्रतीकों का प्रयोग करके सूक्ष्म भावनाओं को अंकित किया है । संक्षेप में कह सकते हैं कि इस संग्रह की रचनाएं कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
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ठंडा लोहा ,भूमिका, धर्मवीर भारती
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ठंडा लोहा, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 5
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ठंडा लोहा, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 75
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ठंडा लोहा , धर्मवीर भारती पृष्ठ 11
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पृष्ठ 31
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ठंडा लोहा, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 34
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पृष्ठ 56
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पृष्ठ 72
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पृष्ठ संख्या 33
बहुत बहुत शुभकामनाएं आदरणीया