आधुनिक जीवन बाह्य , आंतरिक एवं व्यक्तिगत संबंधों में जितना जटिल है उतना ही विचारों से सक्रिय व आन्तरिक अनुभूतियों के परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण भी है। कविता की तुलना में कहानी या उपन्यास में यथार्थ का होना आवश्यक है। उपन्यास लेखन के संबंध में डॉ धर्मवीर भारती का मत है कि -” कविता और नाटक की अपेक्षा उपन्यास नवीनतर साहित्यिक रूप है। पिछले तीन– चार सौ वर्षों में इतने समस्त विश्व साहित्य में अपने को जिस प्रकार स्थापित किया है उससे आतंकित होकर यह आशंका अक्सर व्यक्त की जाती रही है कि इसके आच्छादन में कविता और नाटक का विकास अवरुद्ध हो जाएगा। यद्यपि इस प्रकार की अतिरंजित आशंकाएं बार–बार भ्रान्त सिद्ध होती रही है किंतु उनमें सत्य का इतना अंश अवश्य है कि कविता और नाटक दोनों की अपेक्षा मानव –जीवन के चित्रण के लिए उपन्यास का क्षेत्र कहीं अधिक विस्तृत है।“(1) उनका मत था कि उपन्यासकार को मनुष्य जीवन को पूरी गहराई से अंकित करने के लिए मनुष्य की सामर्थ्य , सीमाओं, जटिल परिवेश, जीवन प्रक्रिया , आत्मोपलब्धि को पूरी निष्ठा और यथार्थता के साथ अपने उपन्यास में लिपिबद्ध करना चाहिए तभी उसकी कृति पाठकों पर अपना प्रभाव अंकित करने में सफल होती है। उनके अनुसार-” मनुष्य को जब तक हम उसकी अन्तर्निहित सामर्थ्य, उसके जटिल परिवेश, उसकी जीवन प्रक्रिया के विविध आयामों के साथ हिंदी उपन्यास में प्रतिष्ठित नहीं करते उसके आत्मान्वेषण को पूर्ण प्रसार और उसकी आत्मोपलब्धि को पूरी गहराई तक उतरकर चित्रित नहीं करते तब तक हमारा उपन्यास प्रौढ़ नहीं हो सकता।“(2)
‘गुनाहों का देवता ‘ धर्मवीर भारती की 1949 में प्रकाशित पहली औपन्यासिक कृति है । ‘उपन्यास में -” नर –नारी के संबंधों में सनातन देह पवित्रता बोध की ऊंची , उदात्त और अभिजात उड़ान कृति के संपूर्ण अर्थ के स्तर पर पहुंचकर जिस प्रकार विरोधी अर्थ –चमत्कार में परिणत हो जाती है, वह उपन्यास कला के विशिष्ट प्रयोग का द्योतक है। वास्तव में उपन्यास का यह संपूर्ण अर्थ अथवा निष्कर्ष एक सूक्ष्म सृजनात्मक संश्लेषण पद्धति पर सिद्ध होता है और उसमें परंपरागत विवाह– संस्था की अर्थहीनता और उसके प्रति अनकहे समर्पित विद्रोह का गहरा स्वर होता है , उसका हल्का–फुल्का रोमानी रूप नहीं। यह नए मूल्य संघर्ष का गहन , गंभीर और कड़वा समाजिक कथा रूप है जिसके कारण बीतते समय के साथ उसकी लोकप्रियता सुरक्षित और स्थिर रहती है।” (3)
डॉ लक्ष्मण दत्त गौतम को कथा नायक चंदर और कथा कत्थक धर्मवीर भारती परस्पर अभिन्न प्रतीत होते हैं. वास्तव में चंदर देवता है गुनाहों से घिरा हुआ । अपनी जीवनानुभूत सत्य और सामयिक परिदृश्य में व्याप्त संत्रास मानसिक द्विविधा तथा जीवन मूल्यों में आते त्वरित परिवर्तनों, उनके कारण जीवन प्रणाली पर पड़ते प्रभाव का यथार्थ सटीक चित्रण करने में लेखक सफल रहे हैं । अनुभूति की प्रगाढ़ता के साथ ही कथाकथन की अभूतपूर्व पकड़ उनका अवलंब बनी है।
रूढ़िग्रस्तता , अंधविश्वास , नारी शिक्षा, बाल विवाह, विभिन्न सामाजिक धार्मिक मान्यताओं से जकड़े मध्यवर्गीय जीवन के माध्यम से लेखक ने पात्रों के चरित्रों को उनके विकास के साथ चित्रित किया है । कहानी अत्यंत छोटी है जिसे मात्र तीन चार पृष्ठों के कलेवर में सजाया जा सकता था किंतु उसे दो सौ सत्तावन पृष्ठों में फैलाया गया है । कथानक की तीव्रता धीरे– धीरे त्रासदी (ट्रेजेडी ) में परिवर्तित होती जाती है जो पात्रों के जीवनादर्श हैं।
उपन्यास का कथानक तीन खंडों और संक्षिप्त उपसंहार में सिमटा हुआ है। आदि , मध्य और अंत की अवस्थिति स्पष्ट है। प्रथम खंड विधुर अर्थशास्त्री डॉ शुक्ला तथा उनकी मातृहीना पुत्री सुधा के गांव में बुआ के संरक्षण में व्यतीत किए बाल्यकाल , उनके कुशाग्र मेधावी शिष्य चंद्रप्रकाश कपूर की शिक्षा– दीक्षा, शोध कार्य तथा डॉ शुक्ल के घर में सदस्य व पुत्रवत रहते हुए सुधा के साथ निश्छल लगाव , मध्यवर्गीय समाज में प्रसिद्ध बाल विवाह और नारी शिक्षा के प्रति संकुचित दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करता है।
जात –पात के कायल डॉ. शुक्ला सुधा का विवाह शाहजहांपुर के जमीदार परिवार के एम.ए पास युवक कैलाश से करते हैं । सुधा के विवाह और तज्जन्य चन्दर के मानसिक अंतर्द्वंद तक की कथा इस खंड में है। दूसरे खंड की कथा में विषयांतर मिलता है। शैशव से ही चन्दर के अनुशासन को मानते सुधा उसकी इतनी अभ्यस्त हो गई थी कि वह उसकी अनुमति के बिना कोई कार्य नहीं करती थी। उनकी परस्पर खींचातानी , रूठना मनाना, आत्मिक प्रेम का रूप लेता है। यद्यपि वे इसे अन्य किसी के सम्मुख स्वीकार नहीं करते और आदर्श की झोंक में अपनी भावनाओं को दबाते रहते हैं।
सुधा चन्दर के जोर देने पर विवाह ( जिसे वह वध स्थल मानती है ) के लिए भी अपनी स्वीकृति दे देती है। वह पत्नी धर्म का पालन तो करती है परन्तु मानसिक रूप से चन्दर से ही प्रेम करती है। इसके उपरांत से दोनों का जीवन बदल जाता है। डॉ. शुक्ला का भाषण टंकित कराने के लिए पमिला डिक्रूज के संपर्क में आया चन्दर उस मांसल प्रेम से परिचित होता है जिससे वह अभी तक अपरिचित था। उसका आध्यात्मिक प्रेम एक नए रूप में परिवर्तित होता है जिसमें मांसलता की उपस्थिति अनिवार्य होती है ।
चन्दर पम्मी की मित्रता के साथ ही उससे रागात्मक संबंध भी स्थापित कर लेता है । उसकी नारी देह की भूख दिनोंदिन प्रगाढ़ होती जाती है। कथा पम्मी, चन्दर और बर्टी के आवर्त में घूमने लगती है। इसी अंश में पम्मी के भाई बर्टी का प्रसंग है जो अपनी दिवंगत पत्नी और बेटी के वियोग में विक्षिप्त व्यवहार करता है। पम्मी अपने पूर्व पति से तलाक ले चुकी है और चन्दर के द्वारा उसकी रिक्तता को भरना चाहती है।चन्दर का आदर्शात्मक प्रेम पम्मी की वासनात्मक क्रियाओं से शारीरिक संपर्क की लालसा में बदल जाता है। उसे राखी के धागे से भी पवित्र सुधा की मनोवृति पर संशय होता है, विनती की निस्वार्थ सेवाओं का वह तिरस्कार करता है।
चन्दर पम्मी के प्रेम में भी बहुत समय तक आबद्ध नहीं रहता। यह खंड किंचित विस्तृत है क्योंकि इसमें कई प्रसंग नए जुड़े हैं यथा सुधा की बालसखी का अपने शौहर असगर से निकाह ना होकर छोटी बहन से होने पर नर्स का प्रशिक्षण लेकर जीवन को नई दिशा देना, पम्मी का अपने पूर्व पति के पास पुनः लौटना तथा बर्टी का मृत पत्नी को भूल जेनी से विवाह कर संभ्रांत जीवन प्रारंभ करना । इसका प्रभाव चन्दर के जीवन पर पड़ता है और वह एक बार पुनः सुधामय हो जाता है । इस खंड में भारती जी ‘प्रेम ‘और ‘पत्नीत्व ‘ की तुलना करते हैं। पम्मी के माध्यम से पत्नीत्व की श्रेष्ठता सिद्ध कर मानों उपन्यासकार ने अपने आदर्श की ही रक्षा की है। पति के पास वापस लौटकर पम्मी चन्दर को पत्र लिखती है -“प्यार से मेरा मन उठता जा रहा है, प्यार स्थायी नहीं होता। पत्नीत्व स्थायी होता है।“(4)
तीसरा खंड चंदन और सुधा को पुनः मिलाता है किंतु सुधा बीमार वैरागी जीवन जीने वाले पति को समर्पित नारी है। सुधा चन्दर से बिनती से विवाह करने का आग्रह करती है। जब सुधा अपने पति कैलाश के साथ अपने मायके आती है तब कैलाश की अनुपस्थिति में चन्दर सुधा से रागात्मक संबंध स्थापित करने के लिए आतुर हो उठता है। आत्मग्लानि, धिक्कार, खिन्नता की स्थिति में वह सुधा से अपने संबंध खत्म कर लेता है। कालांतर में सुधा रुग्णावस्था में डॉ शुक्ला के घर आती है। गर्भपात के कारण अतिशय रक्तस्राव से सन्निपात की स्थिति में प्राण त्याग देती है ।
मृत्यु पूर्व सुधा की दयनीय अवस्था का अंकन भारती जी ने बहुत मार्मिक रुप से किया है। वह पिता की गोद में कुछ समय व्यतीत करती है और चन्दर की चरण रज माथे पर धारण करती है। उसके अंतिम संस्कारोंपरान्त चन्दर उसकी राख से बिनती की मांग भर उसके साथ समझौते का विवाह कर सुधा की अंतिम इच्छा को पूर्ण करता है ।
रामस्वरूप चतुर्वेदी विवेच्य कृति को ‘ दूसरे सप्तक ‘ और ‘ठंडा लोहा‘ के रोमांटिक कवि की मानसिकता मानते हैं। डॉ रणबीर रांग्रा के मतानुसार -” भारती ने इस उपन्यास में मानव मन की गहराईयों में उतर कर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को खोज निकाला है कि स्नेह और वासना, भावना और शरीर की प्यास एक ही सिक्के के दो पक्ष हैं , एक जीवन का आदर्श है तो दूसरा उसका यथार्थ । शरीर की प्यास भी उतनी ही स्वाभाविक है जितनी कि आत्मा की पुकार । दोनों में से एक को भी दबाने का अर्थ है अनिष्ट को बुलाना।” (5) लेखक ने प्रेम के भी विभिन्न रूपों का अंकन किया है। सुधा के प्रति चन्दर का प्रेम निजी व्यक्तिवादी प्रेम है जिसमें स्वामित्व की भावना प्रमुख है। उनका एक– दूसरे के प्रति अधिकार और आकर्षण शरद की पावनता या प्रातः के प्रकाश की भांति स्वभाविक था।
चन्दन सुधा अपनी प्रेम संबंधी आध्यात्मिक अवधारणा के कारण प्रेम को समाज के सामने उजागर करने का साहस नहीं जुटा पाते। प्रेम में देह का भी स्थान होता है इसका तो उन्हें भान तक नहीं था। सुधा चन्दर के लिए राखी से भी अधिक पवित्र थी। वह कहता है-” सोने की पहचान आग में होती है ना । लपटों में अगर उस में और निखार आए तभी वह सच्चा सोना है। सचमुच मैंने तुम्हारे व्यक्तित्व को बनाया है, या तुमने मेरे व्यक्तित्व को बनाया है, यह तो तभी मालूम होगा जबकि हम लोग कठिनाइयों से, वेदनाओं से, संघर्षों से खेलें…।“(6) आकाश में दीप्तिमान नक्षत्र उसे वियोग के भावावेश मे डुबाता है पर ऐसी भावुकता का जीवन में कोई स्थान नहीं होता। सुधा चन्दर से पम्मी की शादी निरपेक्ष अवधारणा जानकर उससे सहमति व्यक्त करती है । पम्मी के पूछने पर कि क्या वह चन्दर से प्रेम करती है? और विवाह करना चाहती है? वह अत्यंत दुःखी होती है । डॉ. प्रेम प्रकाश गौतम चन्दर के आदर्श व पवित्रता को उचित नहीं समझते।वे चन्दर द्वारा सामाजिक भीरुता के कारण अपना और सुधा का जीवन नष्ट करना उसकी अज्ञानता मानते हैं। डॉ. हरिवंश पांडे चन्दर– सुधा के प्रेम को केवल एक– दूसरे से प्रेम करने के लिए किया गया प्रेम स्वीकारते हैं। उनके शब्दों में-“वे एक –दूसरे के होठों पर उंगलियां रखते हैं ,वक्ष स्थल की गरमाई महसूस करते हैं , पलकें चूमते हैं ।साथ –साथ चारपाई पर लेट जाना तो आम बात है किंतु ‘वैवाहिक संबंध‘ को अपवित्र और वासना मय मानते हैं“(7) चन्दर का पुनीत ,आदर्श, ऐन्द्रियता , शारीरिकता और मांसलता के आग्रह से अछूता प्रेम उसे गौरवान्वित करने के साथ ही सुधा का भी देवता बना देता है। चन्दर का प्रेम अव्यवहारिक है जिसमें सुधा से विवाह करने की आकांक्षा ही नहीं है । वह जीवन में किसी भी प्रकार के संघर्ष और दायित्व का सामना नहीं करना चाहता। वह सुधा को उसी वधशाला में भेज देता है जिससे वह स्वयं को बलपूर्वक बचाए रखता है। पम्मी से शारीरिक तृप्ति पाकर उसकी भटकन और अंतर्द्वंद असीमित होते हैं । वह वासना का विरोध करता है पर उसमें वासना अंतर्निहित है । उसका प्रेम एक ढकोसला, स्वार्थ पूर्ण कृत और सोउद्देश्य लगता है । सुधा का प्रेम अव्यवहारिक नहीं है। वह समाज से डरती है जैसा अधिकांश लड़कियों की प्रवृत्ति होती है। विवाहोपरांत पति को शारीरिक उत्सर्ग भी करती है पर मन से चन्दर को ही समर्पित रहती है । उपन्यास में प्रेम की अवस्थिति भिन्न रूपों में हुई है तथा उनमें से प्रस्फुटित समस्याएं पात्रों की जीवन दिशा निर्देशित करती हैं यथा चन्दर,सुधा–पम्मी– बिनती तीनों से प्रेम करता है पर सबसे उसका आकर्षण भिन्न प्रकार का है। सुधा से उसका प्रेम उदात्त, पम्मी से मांसलतायुक्त और बिनती से समझौता है। सुधा का उदात्त प्रेम त्याग, कल्पना और आदर्श का समन्वित रूप है । चन्दर की स्वप्निल रोमांटिक अवधारणा के कारण सुधा के प्रति उसके प्रेम को आंतरिक अंतर्द्वंद, अंतहीन भटकन का रूप दे देती है। एक कुशाग्र, सफल व्याख्याता से वह ऐसे आत्मप्रवंचक का रुप उसे देती है जिसमें वह सुधा– पम्मी– बिनती सब को नकारते चलता है पर अंत में बिनती को अपनाने के लिए विवश होता है। चन्दर का पम्मी से शरीर निरपेक्ष प्रेम का दावा भी झूठा सिद्ध होता है जो उसे रिक्त और उदिग्न छोड़ता है । वह उसके अभिशप्त लोक का ऐसा स्वर्ग भ्रष्ट देवता है जिसे अंत में बिनती के निश्छल प्रेम में आश्रय और त्राण मिलता है।
लेखक का युगबोध भी मध्यवर्गीय जीवन के मूल्य संकटों,संत्रासों, पात्रों के अन्तर्द्वन्दों के रूप में व्यंजित है। भारती जी को अपनी माता से आर्य समाजी , गुरु धीरेंद्र वर्मा से निर्भीक चिंतन , आर्य समाज से निर्मम तर्क शीलता और मर्यादावादी जीवन दृष्टि प्राप्त हुई उससे उनमें बौद्धिक, वैचारिकता पनपी। भावक्षेत्र में ( रामकृष्ण ) सनातन धर्म , द्वितीय महायुद्ध तथा भारत छोड़ो आंदोलन ने युगबोध ; बंगाल के दुर्भिक्ष ने भावात्मक चेतना को जगाया जिससे झकझोरे जाकर उन्होंने कविताएं लिखीं। तदयुगीन साहित्य जगत में व्याप्त छायावाद से प्रभावित होकर उनकी लेखनी ने काम और प्रेम की रचनाओं का सृजन किया। अर्थ की दृष्टि से मार्क्सवाद उनकी प्रेरणा शक्ति बना। प्रसाद, शरद चंद्र .शैली तथा आस्कर वाईल्ड के साहित्य ने उन्हें संस्कारित किया। वे उत्तर छायावादी काल के गद्य लेखन से भी प्रभावित हुए। भारती जी ने प्रगतिवाद के वैयक्तिक, वैज्ञानिक पक्ष को अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। ‘गुनाहों के देवता‘ उपन्यास में डा. शुक्ला व्यक्तिगत जीवन में पूजा–पाठ , जात –पात ,खान–पान के समर्थक हैं किंतु सामाजिक जीवन में मुसलमानों– ईसाइयों के साथ खाते– पीते हैं , साधु– सन्यासियों को काम पर लगाने और मंदिरों की जायदाद ज़ब्त करने के लिए आवाज उठाते हैं । वे अपने शिष्यों में किसी प्रकार का जाति भेद नहीं करते । नारी शिक्षा के समर्थक हैं तथा उनके प्रति होने वाले अत्याचारों का विरोध करते हैं । विवाहोपरांत सुधा की रुग्णावस्था उन्हें विचलित करती है तथा उनके सामाजिक आदर्श बदल जाते हैं। अपनी भांजी बिनती को उच्च शिक्षा दिलाने के साथ वे उसका पुनर्विवाह दूसरी जाति बिरादरी में करने की इच्छा व्यक्त करते हैं।वे बाल विवाह के विरोधी हैं किंतु लेखक ने बिनती की मां (बुआ जी) के माध्यम से विरोधी विचार भी अभिव्यक्त किए हैं । कथा नायक चन्दर विमाता से लड़कर प्रयाग में आता है। वह मेधावी ,कुशाग्र बुद्धि, परिश्रमी छात्र है। सर्वोत्तम स्थान प्राप्त कर अर्थशास्त्र में डॉ.शुक्ला के निर्देशन में शोध कार्य करता है किंतु अर्थशास्त्र संबंधी उसके विरोधाभासी विचारों से स्पष्ट होता है कि उपन्यास में आर्थिक चेतना का तत्व उपेक्षित रहा है । वैयक्तिक स्वरों की प्रखरता से निर्धनों के प्रति अपेक्षित सहानुभूति दब गई है । प्रगतिवाद से उपजे प्रयोगवाद में नया यथार्थ बोध मिलता है। उपन्यास में चन्दर सुधा के दुलार और पम्मी की वासना को एक ही सिक्के के दो पहलू मानता है जो संबंधों के द्वैत को गलत रूप में उपस्थित करता है। लेखक ने भावुक व किशोर वय के युवक के तरल रोमांस , पीड़ा के आदर्शवादी वायवी दर्शन और आत्मा की द्विविधा में भटकते, स्वप्नदर्शी प्रणय का चित्रण अत्यंत सजीवता से किया है। निराशा की चरम स्थिति मानवतावाद और अस्तित्व वाद को एवं वैष्णव दर्शन ने दुःख के क्षणों में उपजी अनास्था को परस्पर जोड़ा है। डॉ हरिवंश पांडेय के अनुसार -” ‘गुनाहों का देवता ‘ में सेक्स का स्वीकार और अस्वीकार दोनों रूप है किंतु दोनों ही रूपों में अस्वाभाविक है। चन्दर कल्पनामयी आदर्शवादिता के फलस्वरूप सुधा के साथ अस्वीकृत हो जाता है और गैर जिम्मेदार होने के कारण पम्मी के साथ स्वीकृत होकर भी अस्वीकृत होकर विकृत हो जाता है क्योंकि दोनों के ही साथ वह जीवन को स्वीकार नहीं करता। सुधा की मृत्यु के उपरांत उसका विवाह मंडप से अस्वीकृत बिनती को स्वीकारना चाहे उसकी महानता कही जाए परंतु सुधा के प्रति दायित्व हीनता से उत्पन्न जड़ता तो उसे भोगी ही सिद्ध करती है। सेक्स या प्रेम का यह स्वरूप मानवतावादी नहीं कहा जा सकता।” (8)
धर्मवीर भारती जी ने अपने विषयानुरूप पात्रों की परिकल्पना की है। पात्र परिस्थितियों के दास हैं। प्रतिशोध की शक्ति का अभाव उन्हें तोड़ता है । पात्रों के चयन के लिए लेखक ने प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी प्रविधियों का प्रयोग किया है। पात्रों के बाह्य सौंदर्य का अंकन लेखक ने स्वयं रेखाचित्र शैली में किया है। उसके विद्यार्थी जीवन, डॉ. शुक्ला से संबंध का विवरण भी धर्मवीर भारती ने स्वयं प्रस्तुत किया है । उनकी नायिका नन्ही, दुबली– पतली रंगीन चंद्रकिरण सी सुधा, पिता का उसके प्रति दुलार और चन्दर के अनुशासन की अनुगामिनी , उसकी चंचलता आदि का विवरण उपन्यासकार ने स्वयं किया है ।आत्मीय संबंधों की घनिष्ठता, उदासीनता, आत्मग्लानि, परिस्थिति सापेक्ष परिवर्तन इत्यादि सभी मूल्यों का भी उल्लेख किया है किंतु अपनी प्रकृति के अनुरूप सर्वत्र जीवन के प्रति जीवंतता व गतिशीलता में आस्था अभिव्यक्त की है । हर पात्र अपने व्यक्तित्व की पूर्णता में उद्घाटित है।
भारती जी मूलतः कवि थे। उनकी भाषा में छायावादी मृदुलता और नयी कविता की प्रांजलता मिलती है। सुंदर, संतुलित, गतिशील चातुर्य से समन्वित भाषा में गद्यकाव्य सी सरलता ,सरसता और भावुकता है। तत्सम (सद्यस्नाता , महाभिनिष्क्रमण , निर्निमेष, अभिसिंचित, मोहाविष्ट ) शब्दों से भाषा में गरिमा की सृष्टि हुई है । तद्भव शब्दों (कसाव, खुलाव, बहलावा , उजियारा )के साथ ही देशज शब्दों ( डोरा,कोह, एत्ती, बखानी) के मिश्रित प्रयोग ने भाषा को आत्मीयता और गतिशीलता प्रदान की है। महराजिन और बुआ की भाषा ग्रामीण सुवास से युक्त है। बुआ के चरित्र की कर्कशता उनकी भाषा से अभिव्यक्त हो जाती है। यथा -” हमैं मालूम होता कि ई मुंह झांसी हमको ऐसी नाचे नचइहै तौ हम पैदा होतै गला घोंट देइत।हरे राम!अक्काश सिर पर उठाते है।कै घंटे से नरियात नरियात गटई फट गरी।ई बोलतै शाहीन जैसे सांप सूंघ गवा होय।“(9) ईसाई पात्रों पम्मी और बर्टी तथा मुसलमान पात्रों–गेसू , हसरत की भाषा उनकी संस्कृति के अनुरूप है । गेसू की भाषा में उर्दू के शब्दों का आधिक्य है । वह शेरो– शायरी करती है –
“कौन ये ले रहा है अंगड़ाई
आसमानों को नींद आती है।“(10)
उर्दू और अंग्रेजी शब्दों और पदों के उन्मुक्त प्रयोग ने भाषा को सर्जनात्मक बनाया है। उर्दू के ( सरजर्, फरिश्ते, दास्तां) तथा अंग्रेजी ( साइकोलॉजी, ब्यूरो ,सोसाइटी , स्टडी )के अतिरिक्त पूरे– पूरे अंग्रेजी के वाक्य भी कृति में मिलते हैं तथापि वे देवनागरी लिपि में लिखे जाने के कारण हिंदी का ही एक अंश प्रतीत होते हैं । गेसू और सुधा की टीचर मिस उमालकर के पूछने पर कि गांधीजी आलू खाते हैं या नहीं ,क्रोधित होकर कहती हैं -“व्हाइ टॉक ऑव गांधी?आई वाण्ट नो पोलिटिकल डिस्क्शन इन क्लास।“(11) कथा–कथन के साथ –साथ प्रेम , वासना , सेक्स , विश्वास , अविश्वास जैसे विषयों पर विचार व्यक्त करते हुए धर्मवीर भारती जी ने सुंदर अर्थगर्भित सूक्तिवाक्यों का प्रयोग किया है जो उनकी चिंतन वैचारिक शक्ति और विश्लेषण सामर्थ्य की परिचायक हैं । मुहावरे भाषा की अर्थ क्षमता में वृद्धि करने के साथ उसमें सरसता और रोचकता की सृष्टि करते हैं । पानी –पानी होना , सिर चढ़ी होना , गुड़ खाना गुलगुले से परहेज करना मुहावरों ने धर्मवीर भारती जी की भाषा को जीवंत बनाया है । धर्मवीर भारती जी अपनी अभिव्यक्ति को जीवन्त, सशक्त बनाने के लिए वर्णनात्मक, भावात्मक, काव्यात्मक, संवादात्मक शैलियों का प्रयोग किया है। स्थान– समय का चित्र वर्णानात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है तो पात्रों का रेखाचित्रात्मक शैली में अंकन है इससे पाठकों की घनिष्ठा कृति के पात्रों से बढ़ी है । पात्रों के परस्पर संवादों से भी उनके चरित्र और मानसिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है । उल्लेखनीय है कि चन्दर और सुधा के संवादों में परस्पर संबोधन पुरातन शिल्प का स्मरण कराते हैं । सुधा का हर वक्त का बचपना खटकता है । सुधा और चन्दर के पत्रों के अतिरिक्त पम्मी के चन्दर के नाम लिखे पत्रों , सुधा का गेसू के पास पत्र और कैलाश के चन्दर को लिखे पत्र भी कहीं मूलत: उद्धृत हैं तो अन्यत्र केवल उल्लिखित हुए हैं किंतु उनसे कथा का विकास होने के साथ पात्रों की मानसिकता पर भी प्रकाश पड़ा है । परिवेश और देशकाल के विवरण में लेखक ने प्रयाग को ही चित्रित किया है । जिसकी क्रमहीन बुनावट, स्वच्छंद व उन्मुक्तता,मलयजी सुबह, अंगारा दुपहरी और रेशमी उदास शामें उनके आकर्षण का विशेष केंद्र रहे हैं और उनके कथा नायक को विशेष प्रिय हैं । उपन्यास के प्रारंभ के डेढ़ पृष्ठों मैं कार्तिक बसंत के बाद तथा होली के बीच के मौसम और प्राकृतिक सौंदर्य का मनोहारी वर्णन किया है। उपन्यास का शीर्षकसार्थक है । वस्तुत: चन्दर ही गुनाहों का देवता है जो अपनी समस्त दुर्बलता के बाद भी अन्य सभी पात्रों की दृष्टि में उच्चादर्शों से युक्त है । उपन्यास का अंत गहरे अवसाद में डूबा हुआ है । उपसंहार का प्रारंभ सुधा की मृत्यु के उपरांत पसरे अवसाद के चित्रण से होता है । विकल्प हीन इस स्थिति में वृद्ध पिता डॉ. शुक्ला, आध्यात्मिक प्रेम का आदर्श चन्दर और बिनती खामोश पीड़ा और अवशेष स्मृति को छाती से लगाए, अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए संकल्पित होते हैं।
संदर्भ सूची
1.धर्मवीर भारती की साहित्य साधना, सम्पादक पुष्पा भारती, पृष्ठ 686
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धर्मवीर भारती की साहित्य साधना, सम्पादक पुष्पा भारती, पृष्ठ 693
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धर्मवीर भारती , संपादक डॉ प्रभा शंकर श्रोत्रिय पृष्ठ 127
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गुनाहों का देवता, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 202
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समकालीन हिंदी साहित्य ,संपादक –हरिवंश राय बच्चन, भारत भूषण अग्रवाल, पृष्ठ 187
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गुनाहों का देवता, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 106
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धर्मवीर भारती: सृजन के विविध रंग ,डॉ हरिवंश पांडे, पृष्ठ 96
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धर्मवीर भारती: चिंतन और अभिव्यक्ति, डॉ हरिवंश पांडेय, पृष्ठ 145
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गुनाहों का देवता, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 68
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गुनाहों का देवता, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 37
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गुनाहों का देवता, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 33