झुँझला रहा इधर उधर भटक रहा हूँ
मैं पथिक हूँ, राह अपनी खो गया हूँ।
डराती कठिनाइयाँ है सर्प रूपा
चादर बिछा दी, सत्य की आभा छुपा
छलावे पाषाण बन अटके तनिक घबरा गया हूँ
मैं पथिक हूँ राह अपनी खो गया हूँ।
मिलेगी मंजिल मुझे आश्वस्त हूँ मैं
उपहास के गरल का अभ्यस्त हूँ मैं
अपमान के तीक्ष्ण काँटे, चुभन से सँवर गया हूँ
मैं पथिक हूँ, राह अपनी खो गया हूँ।
मार्ग में कुछ फूल भी, कंटक सभी ना
आस मेरी छोड़ झुंझलाओ कभी ना
बिकने न दो दिल के उजाले ले किरन आ गया हूँ
मैं पथिक हूँ, राह अपनी खो गया हूँ।
जल टपकता, शास्त्र का निचोड़ जितना
उमड़ घुमड़ते ज्वार में आनन्द कितना
शब्द छूंछे रह गये हैं, धार में मैं बह गया हूँ
मैं पथिक हूँ, राह अपनी खो गया हूँ।