साहित्य के क्षेत्र में बाल-साहित्य का अपना महत्त्व है | बड़े-बड़े विद्वानों का मानना है कि साहित्य से मनुष्य की संवेदना का विकास होता है तो फिर बच्चों के लिए तो इसकी उपादेयता और भी अधिक हो जाती है | आज स्थिति यह है कि हिन्दी में लिखा जाने वाला बाल-सहित्य बच्चों में कम पढ़ा जा रहा है | यदि बात लोरियों की जाए तो उसकी स्थिति भी बहुत अच्छी इसलिए नहीं मानी जा सकती क्योंकि जैसे जैसे आधुनिकता और बाजारीकरण का प्रभाव जीवन पर बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे जीवन के कोमल और संवेदनशील तंतु नष्ट होते जा रहे हैं और शायद उसी का नतीजा है कि आज लोरियां कम सुनायी देती हैं | इस आध्य्याँ का हाइपोथिसिस इसी विचार की आधार पर है | लोरी अन्य बाल-कविताओं की तरह तरह तरह के छंदों और विषयों से परिपूर्ण न होकर एक सीधी-सादी और सरल रचना होती है जिसका मुख्य आधार सुमधुर संगीत और सरल लय की संकल्पना होती है और जिसमें माँ की ममता के भाव होते हैं | एक लोरी अपने उद्देश्य में तब तक सार्थक नहीं होती जब तक उसे माँ या माँ जैसे भाव वाले कंठ से गाया न जाये | यही लोरी की सही परिभाषा बनती है जिसे सम्पूर्ण संसार में स्वीकृति प्राप्त है क्योकि यही मनुष्य के सम्पूर्ण भावनात्मक और बौद्धिक विकास में सहायक होती है | इस शोध-कार्य को करने के लिए गुणात्मक शोध प्रविधि का प्रयोग हुआ है | इससे सम्बंधित पूर्वस्थापित कार्यों की ऑनलाइन सामग्री में हिंदी में बहुत कम मात्रा में सामग्री उपलब्ध हो पाई है | लॉकडाउन के कारण किसी पुस्तकालय जाना संभव नहीं है | मुख्यत: इसमें कुछ सन्दर्भ और अधिकतर मूल स्थापनाएं हैं |
मूल आलेख
हम सभी ने अपने अपने बचपन में या कभी न कभी किसी न किसी रूप में एक मधुर धीमी सी स्वरलहरियों के रूप में कुछ गीत अवश्य ही सुने होंगे जिससे मन को बहुत शांति मिलती है या थी | विशेष रूप से दादी – नानी या फिर माँ के मुंह से ऐसे गीत ज़रूर ही सुने होंगे जिनके कान में पढ़ते ही असीम शान्ति और आराम का अहसास होता है | ये कौन से गीत हैं जिनके शब्दों और स्वरों में ऎसी शक्ति होती है कि बच्चा या कभी कभी बड़े भी इतना सुकून महसूस करते हैं ? ये गीत पूरी दुनिया में बहुत पहले से प्रचलित हैं और इन्हें ‘लोरी’ और अंग्रेजी में ‘ललाबाई’ के नाम से जाना जाता है | इस शोध कार्य का विषय इन्ही लोरियों और उनकी विशेषताओं और महत्त्व पर आधारित है | जिन गीतों को महज बच्चों को सुलाने मात्र का साधन माना जाता रहा है ,जिसका प्रचलन आज के समय में न के बराबर रह गया है ,वे वास्तव में मनुष्य के सम्पूर्ण विकास में कितनी अहम् भूमिका निभाते हैं इस कार्य का हाईपोथेसिस इसी पर आधार्रित है | एक लोरी केवल एक गीत ही नहीं अपितु सुन्दर शब्दों और लय में निबद्ध ऎसी कवितायेँ होती हैं जो सुमधुर स्वर और ताल में गुंथी होती हैं | गौर तलब है है कि इन लोरियों में साहित्य की वे सभी विशेषताएं होती हैं जिनके माध्यम से कोमल भावनाओं को अभिव्यक्त भी किया जाता है ,गाने वालों के माध्यम से और सुनने वाले के माध्यम से विशेष रूप से मन के कोमल धरातल पर पर्याप्त प्रभाव भी डाला जाता है | तो ,एक लोरी में विशेष शब्दों और मधुर संगीत का सुन्दर समायोजन होता है |
लोरी एक ऐसा गीत होता है जो सामान्य तौर पर छोटे बच्चों को सुनाया जाता है | लोरी वास्तव में मध्यकालीन अंग्रेजी के शब्द ललाबाई का रूपांतरित रूप है जिसका व्युत्पत्तिजनक अर्थ होता है करीब होना | “The term ‘lullaby’ derives from the Middle English lullen (“to lull”) and by[e] (in the sense of “near”).” सबसे पहली लोरी कब और कहाँ गाई गयी इसके कई उल्लेख मिलते हैं | करीब 4000 वर्ष पहले बेबिलोनिया में इसकी उत्पत्ति मानी जाती है जब बच्चों को बुरी आत्माओं से बचाने के लिए इनका प्रचलन शुरू हुआ | ज्यूइश लोक परंपरा में लिलिथ नामक दानव ,जिसके लिए यह मान्यता थी कि वह रात में बच्चों की आत्माओं को चुरा कर ले जाता है और विभिन्न लोरियों का निर्माण और प्रयोग उसी से बच्चों को बचाने के लिए हुआ | इसी प्रकार पूरे संसार भर में लोरियों का प्रचलन है | अलग अलग संस्कृतियों में इसके अलग अलग स्वरुप और मान्यताएं हैं पर एक बात जो सभी में सामान है और वह कि यह माँ और बच्चे के बीच की घनिष्ठता को बढाता है | दुनिया भर की माएं लगभग एक ही शैली में और एक जैसे स्वर में ही लोरियां गाती रही हैं | संस्कृति में कुछ स्थानों पर इसे संस्कृति की पहचान के तौर पर गाया जाता है जिससे सांस्कृतिक भूमिकाएं और सम्बन्ध मजबूत होते हैं | इस पर हुए वैज्ञानिक प्रयोग यह भी बताते हैं कि इनके प्रयोग से समुचित सम्प्रेषण शक्ति का विकास होता है | बच्चों में भावनात्मक विकास के साथ लोरियाँ सुरक्षा की भावना भी मजबूत होती है | उनके व्यवहार में संतुलन आता है और सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों को सुलाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता रहा है | इसमें संगीत की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है | अल्बेनियन संस्कृति की खोज में यह पाया गया कि लोरियों के संगीत और लय को बच्चे के झूले की गति की लय के साथ पिरोते हुए सुन्दर गीतों की रचना की गयी | इनका संगीत ज़्यादातर दोहरावदार रहता था | आज भी यदि हम लोरियों के स्वरुप को देखे तो उनमे शब्दों और लय की आवृत्ति होती है जिसका असर बच्चों के मस्तिष्क पर प्रभावशाली ढंग से पड़ता है | लोरियों के संगीत पर आगे और विस्तार में बताया जाएगा |
हिंदी की लोरियां
भारत में भी लगभग सभी भाषाओं में लोरियों का प्रचलन है पर इस आलेख में केवल हिंदी की लोरियों की विशेषताओं को प्रस्तुत किया गया है | बाल साहित्य के सन्दर्भ में लोरी एक सम्पूर्ण रचना के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित होती है | चाहे हमारी दादी नानी या माँ और कभी कभी पिता या किस भी अभिभावक के मुख से यह कोमल कान्त स्वर युक्त रचना हम सभी ने सुनी है और सुनते हैं | यह की लोक परम्पराओं से लेकर सिनेमा के गीतों के रूप में ‘लोरी’ अपनी उपस्थिति से उपयुक्त वातावरण का निर्माण कर दर्शकों और सुनने वालो को भावविभोर करती रही है | बाल कविताओं में जहां कुछ अर्थ गुंथे हुए होते हैं वही लोरी की खासियत यह होती है कि उसमें भाव परिकल्पना की शक्ति अधिक होती है | भारत में भी यह माना जाता है कि लोरी सुनने से बच्चों के मस्तिष्क और मन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है जो उसके बौद्धिक और भावनात्मक विकास अच्चा होता है | उसे अच्छी अनुभूति होती है और वह निडर भी बनता है क्योकि उसे लगता है कि नींद में भी कोई उसके साथ है | यह तक कि उसके बोलने की शक्ति का विकास भी इससे बेहतर होता है | कई मनोवैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया है कि जब बच्चा गर्भ में होता है तब से ही वह अपनी माँ की आवाज़ और सभी आवाजों से परिचित होता है | विशेष रूप से उस पर गीत –संगीत का असर पड़ता है | इससे उसके मस्तिष्क का विकास तेज़ी से होता है | लोर्री का भी ऐसा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ता है | इन लोरियों में विभिन्न भाव व्यक्त किये जाते हैं | ये भाव निद्रावस्था में उन्ही अर्थों की कल्पना करने लगे हैं | इससे उनके सोचने समझने की क्षमता तेज़ी से बढ़ने लगती है | इस उदाहरण से हम इस तथ्य को समझ सकते है :-
“सो जा मेरी बिटिया रानी, सो जा राजदुलारी! सोया चंदा, सोए तारे, नील गगन के पंछी सारे, रंग-बिरंगी तितली सोई- फूलों की फुलवारी। सो जा राजदुलारी! नभ से उतरा उड़नखटोला नींद-परी ने घूंघट खोला, सपनों की शहज़ादी लाई- जादू-भरी पिटारी। सो जा राजदुलारी!”
लोरी में आई परियों की रानी, नींद की राजकुमारी, सपनों का उड़नखटोला और इंद्रधनुष का झूला आदि जहाँ एक ओर बच्चों को जल्दी सोने के लिए उकसाते हैं, वहीं दूसरी ओर उनके दिमाग की कल्पनाशीलता को तेज करते हैं। ऐसी ही कल्पनाशीलता आगे चलकर बड़े-बड़े आविष्कारों, कलाकृतियों और साहित्यिक रचनाओं की आधारशिला साबित होती है।
हिंदी फिल्मो की लोरियां
हिंदी सिनेमा अपने स्वरुप में बहुआयामी है जिसमें कथा-सूत्र, स्क्रीन–प्ले, गीत लेखन से लेकर संगीत और बेकग्राउंड स्कोर से लेकर सिनेमाटोग्राफी आदि तत्त्व होते हैं | बॉलीवुड सिनेमा की ख़ास विशेषता उसके गानों के कारण बनी हुई है | एक फिल्म में गीत न केवल कहानी को गतिशीलता प्रदान करते हैं अपितु किसी दृश्य या घटनानुक्रम में भी प्रभावोत्पादकता उत्पन करते हैं | इन्ही गीतों में लोरियां भी प्रयोग में लायी गयी हैं | वर्त्तमान समय में जब वास्तविक जीवन में ही लोरिया लुप्तप्राय: हो गयी हैं ऐसे में हिंदी फिल्मों में उन्हें देखना लगभग समाप्त हो गया है | परन्तु पुरानी फिल्मो में १९६० के आस पास का समय प्रभावशाली फिल्मों के रूप में जाना जाता है, तब इन फिल्मो में प्रत्येक दूसरी फिल्म में एक लोरी अवश्य होती थी | ये लोरियां अपनी सुन्दर संरचना के साथ दृश्य को सजीव तो बनाती ही हैं साथ ही साथ अपने उत्कृष्ट संगीत रचना से दर्शकों का मन मोह लेती हैं | ‘ज़िन्दगी’ फिल्म की लोरी ‘सो जा राजकुमारी’, ‘अलबेला’ की ‘धीरे से आना रे अखियाँ में’, ‘किस्मत’ की सुमधुर लोरी ‘धीरे धीरे आ रे बादल धीरे धीरे आ, मेरा बुलबुल सो रहा है, शोर गुल न मचा’, वही शांताराम का ‘में जागू तु सो जाये’, ‘ब्रह्मचारी’ का ‘मैं गाऊँ, तुम सो जाओ’ आदि लोरियां आज भी सुनने वाले के मन मस्तिष्क में अपना गहरा प्रभाव डालती हैं |
ये लोरियां सुनने वाले को सपनों की दुनिया में ले जाती हैं | सपनों की दुनिया दरअसल कल्पना शक्ति को बढाती है और सृजनात्मक तत्वों का विकास करती है | दृश्य के अनुसार इन फिल्मों की लोरियां भले ही किसी न किसी बच्चे के लिए गयी गयीं हैं लेकिन हर उम्र का व्यक्ति इनको सुनकर अभिभूत हुए बिना नही रह पाता | एक उदाहरण है :-
“धीरे-धीरे आ रे, बादल धीरे-धीरे आ
मेरा बुलबुल सो रहा है
शोर गुल न मचा ….
मेरा बुलबुल सो रहा है बंद कर आँखें
नींद में डूबी हुई हैं शरबती आँखें
जा तुझे मेरी कसम ,मेरी कसम है जा, मेरा बुलबुल सो रहा है …”(‘किस्मत’ फिल्म,बॉम्बे टॉकीज़)
इस खूबसूरत लोरी में सीधे-सादे शब्दों का संयोजन, सरल अलंकारों का प्रयोग और उचित लय का प्रयोग बरबस ही श्रोता के अन्तर्मन को स्पर्श कर जाता है | लोरी में लय की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है | प्राय लोरी का लय पालने की झूलने की गति के आधार पर ही नियत होता है इसका विवरण संगीत वाले बिंदु में दिया जाएगा |
फिल्मी लोरियों में केवल बच्चों के लिए ही लोरिया प्रयुक्त हुई है बल्कि धीरे धीरे नए परिवर्तन को लिए हुए कुछ नयी फिल्मों में बड़ों के लिए भी लोरिया गई हैं | फिल्म ‘सदमा’ की लोरी ‘सुरमयी अंखियों में, नन्हा मुन्ना इक सपना दे जा री ..” जो फिल्म में कमल हसन को श्री देवी के लिए गाते हुए दिखाया गया है और फिल्म ‘सरबजीत’ की यह लोरी भी काफी प्रसिद्ध हुई |
“निंदीया ये लेगी तुझे थाम रे
सो जा दे दे आँखों को आराम रे
कि सारा दिन छलके है गुज़ारा
तू उलझनों का मारा
आब जाके आई है ये शाम रे”
लोरियों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव और संगीत की भूमिका
अब तक जितने भी वैज्ञानिक प्रयोग हुए हैं उनसे यह सिद्ध हो चुका है कि लोरियों का मानव मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है | कोई भी लोरी बिना गाये लोरी नहीं हो सकती, यानि जब तक लोरी को गाया न जाए तब तक लोरी को उसकी परिभाषा में नही ढाल सकते हैं | संगीत कला एक मानव व्यवहार है जो स्वर और लयबध्द तरीके से भावो को अभिव्यक्त करता है | इसकी द्वारा न केवल सूक्ष्म भावो की अभिव्यक्ति होती है बल्कि इसके द्वारा दूसरो के ह्रदय तक भी भाव पहुँच जाते हैं | इसलिए संगीत और मन का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है | जब भी किसी भी प्रकार का संगीत उत्पन्न होता है तो रस की उत्पत्ति होती है | इस रस का संचार मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर पड़ता है | मन से सम्बंधित कुछ जटिल क्रियाएं होती हैं जो संगीत कलाभिव्यक्ति और मनुष्य के व्यवहार दोनों के ही लिए महत्त्वपूर्ण होती हैं | संगीत का काम तनावग्रस्त मन को शांत करके ऎसी दिशा प्रदान करना है जिससे वह स्वस्थ और प्रसन्न जीवन व्यतीत कर सके | संगीत का मन मस्तिष्क पर क्या असर पड़ता है इसे विभिन्न मानवीय संवेगों के ज़रिये जाना जा सकता है जिसका विश्लेषण मनोविज्ञान भी करता है | संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, ध्यान, स्मृति, कल्पनाशक्ति आदि पर संगीत का गहरा सम्बन्ध है | मनुष्य अपनी कल्पनाशक्ति के द्वारा स्वर, तान, गीत, बंदिश और लय को समझता है जिससे वह अधिक चैतन्य हो जाता है | इसका असर उसके अन्य क्रिया-कलाप पर भी पड़ता है | इस प्रकार मनुष्य जन्म से ही संगीत से प्रभावित होता है | उसकी पाँचों इन्द्रियाँ उसके अनुभव को ग्रहण करने में सहायक होती हैं | मनोविज्ञान के सन्दर्भ में संवेदना इन्द्रियजन्य और कला के सम्बन्ध में अनुभूति जन्य होती है | “Behavior of human organism, as a whole in response to music, is what brings in the psychology of the music.” (भैरवी संगीत शोध पत्रिका, 2010,पृ.19)
जब संगीत का असर बड़ो पर इतने प्रभावशाली ढंग से पड़ता है तो छोटे बच्चों पर तो यह प्रभाव और भी गहरा पड़ता है | परन्तु बच्चों के मन-मस्तिष्क की संरचना कोमल होती है इसलिए उसे एक विशेष प्रकार गीत और संगीत से पसंद आते हैं | लोरी उनमें से एक है | लोरी के ऊपर पूरी दुनिया भर में विविध अध्ययनों से कुछ बातें समान हैं | चाहे उनका विषय हो या संगीत रिसर्च के दौरान यह बात इन सभी स्थानों की लोरियों का स्वरुप ऐसे संगीत को लिए हुए होता है जो सरल स्वरलहरियों में निबद्ध होता है | इनकी स्वरमानों की बाहरी रूपरेखा ज़्यादातर लम्बी होती है, अर्थात एक स्वर को लंबा खीच कर गाया जाता है | इस प्रकार गाने से भावों को उच्चतर धरातल पर ले जाया जा सकता है और यह प्यार और स्नेह जैसे भावों को और भी स्पष्ट और गहरे में संप्रेषित कर पाने में सफल रहतीं हैं | इन भावों के नैरन्तर्य को बनाए रखने के लिए समरूपता होनी बहुत आवश्यक है और इसलिए लोरी में शब्दों का विधान भी इसी बात को ध्यान में रख कर किया जाता है | उदाहरण :-
“लल्ला लल्ला लोरी, दूध की कटोरी
दूध में बताशा, मुन्नी करे तमाशा
छोटी-छोटी प्यारी परियों जैसी है
किसी की नज़र न लगे मेरी मुनिया ऎसी है ”(विकिपीडिया)
इस लोरी में शब्दों का बार-बार प्रयोग और ऐसे शब्द जिनका कोई भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अर्थ नहीं है, लोरी के स्वरुप के अनुसार उनका प्रयोग हुआ है |
स्वर गायन में किसी प्रकार की असंगति आने से शिशु पर उसका अनुकूल प्रभाव नही पड़ता है | उसके एकाग्रता को बनाए रखने के लिए यह ज़रुरी है कि स्वरों में ठहराव के साथ समरूपता भी बनी रहे | यदि रुकावट हो भी तो वह भी एक सुनिश्चित समय सीमा में ही हो | यदि किसी गीत में लगातार ऐसे स्वरसमूहों का प्रयोग हो रहा हो जिसमें बहुत अधिक वैविध्य हो तो बच्चे की रूचि नहीं बनती और फिर यह बहुत मुश्किल हो जाता है कि उसे दुबारा उसी मानसिक अवस्था में ले जाया जाए | इसलिए ज़्यादातर लोरियों में स्वरों के बीच में सुनिश्चित अंतराल होते हैं | ज़्यादातर लोरियों का टोन या ध्वनि सामान्य होती हैं और इनमें सरल व्यंजनों का प्रयोग होता है | उदाहरण:-
“ धीरे से आ जा रे अँखियन में, निंदिया आ जा री आ जा
चुपके से नैनं की बगियन में, निंदिया आ जा री आ जा, धीरे से आ जा …. “(विकीपीडीआ)
इस प्रकार लोरियों की विशेषताओं में यह बात प्रमुख है कि इनमें स्वरमानों, स्वर समूहों,लय और शब्द आदि का दोहराव बहुत अधिक होता है और इसमें लगातार कुछ शब्द आदि सुनायी पड़ते रहते हैं | दो खण्डों के बीच में थोड़ी देर का ठहराव या लम्बा ठहराव संगीत के प्रभाव को कम कर देता है |
इसी प्रकार यदि लोरी के लय के सन्दर्भ में बात की जाए तो यहाँ भी ताल-लय के सरल स्वरुप को देखा जा सकता है | लोरी में प्रयुक्त लय कविता के लय की मात्राओं के सामान नहीं होती बल्कि वह या तो पालने के झूलने की लय या जब शिशु माँ के गर्भ में होता है उस लय की मिलती जुलती होती है | संगीत औत ताल के सैद्धांतिक आधार पर यह लय या तो 6/8 की या 3/3 की होती है | इसी लय के आधार पर लोरी के गीत और फिर स्वर में निबद्ध किया जाता ही | लय की खासियत यह होती है कि इससे शिशु गर्भ में अपने क्रियाकलाप और पूरे शरीर में उसके साथ एक नैसर्गिक तारतम्य पाता है जो उसे विश्राम और शान्ति प्रदान करता है | लोरियां अधिकतर अपने स्वरुप में छोटी होती हैं और इनमें कथन या उद्गार भी कम से कम ही रखे जाते हैं | उदहारण:-
“नन्ही कली सोने चली, हवा धीरे आना
नींद भरे पंख लिए, झूला झुला जाना
चाँद किरण से गुडिया नाज़ों की है पली
आज अगर चंदनिया आना मेरी गली
गुन-गुन-गुन गीत कोई, हौले हौले गाना
नींद भरे पंख लिए झूला झुला जाना”
यह लोरी ताल-लय के 3/3 की मात्राओं में संयोजित हुई है | हालांकि लिखित रूप में संगीत की इन विशेषताओं को समझाना थोडा कठिन कार्य है फिरभी जिन्होंने इस प्रसिद्ध लोरी को सुना है, यदि वे थोड़ा सा ध्यान दे तो पाएंगे कि प्रत्येक तीन मात्राओं के बाद हल्का सा ठहराव और फिर से उसी क्रम की आवृत्ति हो रही है | जैसे, नन्ही कली, सोने चली, हवा धीरे, आ ना ssss | नींद भरे, पंख लिए, झूला झुला, जा ना ssss |
इसी प्रकार नीचे दी गयी लोरी में 6/8 मात्राओं के अनुक्रम का विधान है | जैसे, धीरे, धीरे s, आs रेsबादल, धीरे-धीरे, आsss, मेरा बुलबुल, सो रहा है, शोर गुलना, मचा sss |
“धीरे-धीरे आ रे बादल धीर-धीरे आ
मेरा बुलबुल सो रहा है, मेरा बुलबुल सो रहा है
शोर गुल न मचा …..”
इस प्रकार लोरियां अपने शान्तिदायक और आरामदायक स्वरुप के कारण अक्सर बच्चों के लिए प्रयोग में लायी जाती हैं परन्तु इसका बहुत अच्छा प्रभाव बड़ों पर भी पड़ता है | आज पश्चिमी देशों में इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव को समझने के लिए बहुत प्रयोग हो रहे हैं | कई बड़े संगीतज्ञों ने लोरी की बड़ी अच्छी धुनों का का निर्माण भी किया है | कई प्रशिक्षित लोग इसके लिए शिक्षण भी प्रदान करते हैं जिनमें संगीत और मनोविज्ञान के आधार पर लोरियों के महत्त्व को समझाया जाता हैं | यह मान लिया गया ही कि संगीत की तमाम विधाओं में लोरी ही ऎसी विधा सिद्ध हुई है जो मानसिक तनाव दूर करने और व्यक्ति के सम्पूर्ण मनोवैज्ञानिक विकास कराने में सबसे अधिक सफल है | इनका प्रभाव केवल स्थान विशेष से नहीं जुड़ा हुआ है अपितु ये अपनी संरचना में सार्वभौमिकता का तत्व लिए हुए हैं | ऐसा तत्व जो मनुष्य मात्र के मन-मस्तिष्क की आधार भूत संरचना का निर्माण करता है | जब मनुष्य का जन्म होता है तो उसका मन कोरे कागज़ के सामान होता है और धीरे-धीरे उस सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव पड़ते हैं | इसलिए बचपन में सुनी गयी इन स्वरलहरियों की शैली अन्तश्चेतना में विद्यमान होती है और इसलिए इन लोरियों को किसी भी स्थान का व्यक्ति सुन कर बता सकता है कि ये संगीत की विधा लोरी है, ज़रूरी नहीं कि वह उसके सांस्कृतिक सन्दर्भों से परिचित हो | इस अत्यंत आवश्यक विधा पर अभी भारत में शोध कम हुए हैं | आज जब कि यह लगभग समाप्त हो गयी है और जीवन में निराशा और अवसाद की मात्रा तेज़ी से बढ़ रही है, तब इसकी ज़रूरत बच्चे के जन्म से लेकर उसके पालन-पोषण में इसकी अनिवार्य भूमिका और भी बढ़ जाती है | साथ ही बाल-साहित्य में इसे महत्वपूर्ण विधा के रूप में इस पर और भी अध्ययन और सृजन होना चाहिए |