(प्रवासी महिला उपन्यासकारों के परिप्रेक्ष्य में)
अपने देश की याद के स्वर आज अनावश्यक होकर चुप्पी साध रहे हैं। प्रवास को स्थायी आवास बनाने का जीवट और संधर्ष ही मुख्यत: उभरा है। भूले- बिसरे बचपन, किशोरावस्था की तरह अपना देश तो याद आ जाता है, लेकिन एक पुराने स्वप्न की तरह । उस दुनिया से लौटकर कोई भी आना नहीं चाहता। जब प्रवासन विस्थापन भी बन जाता है, तब अपने देश की याद कुछ तीव्रतर होने लगती है। यह प्रवासियों के दूसरे दौर की स्थिति थी। आज अपने देश की यादें न उन्हें भावुक करती हैं, न विचलित और न ही मुड़- मुड़ कर देखने का उनके पास अवकाश है। भारतीय अस्थायी रूप से जाकर प्रवास को स्थायी निवास का गंतव्य बना रहे हैं। अल्पकालिक प्रवास को दीर्घकालिक बना रहे हैं। यह स्वैच्छिक प्रवास है। क्यों ? इसे वैश्वीकरण की एक प्रक्रिया कह सकते हैं। अमीर देशों में प्रवास का आकर्षण भारतीयों को मोह रहा है। बेहतर रोजगार, पर्याप्त पारिश्रमिक, सुविधासम्पन्न जीवन, देशीय सामाजिक- नैतिक ढांचे से आज़ादी – क्या रखा है इस देश में। 
दैनिक भास्कर के अनुसार अमेरिका में हर सौ में से एक व्यक्ति भारतीय मूल का है। भारतीय वहाँ 1.35 के अनुपात में हैं। न्यू जर्सी में यह अनुपात 3.3 है । 2021 की जनगणना के आधार पर इंग्लैंड और वेल्ज़  में भारतीय मूल के लोगों की जनसंख्या 3.1 % है। 2017 में डेनमार्क में 0.3% भारतीय मूल के लोग थे। कैनेडा में 5.1% लोग भारतीय मूल के हैं। जिनमें से 55% ओटांरिओ के टोरेंटों, ओट्टावा, वाटेर्लू, ब्रमोटोन  में रहते हैं और 22% वैनक्यूवर, विक्टोरिया आदि में रहते हैं। अनेक देशों के लोग होने के कारण दक्षिण अफ्रीका को रेनबो नेशन कहा जाता है। यहाँ भारतीय 2.5% हैं। मारिशस में तो 60% भारतीय हैं।
कहते हैं- भटकन और भूलभुलैया का दरवाजा पता नहीं क्यों अतीत की गली में ही खुलता है। जहां सपने नीम बेहोशी में सोये रहते हैं। लेकिन यह पूरा सच नहीं, अर्द्ध सत्य है। अपने देश की याद के स्वर का एकाधिकार यहाँ मंद पड़ गया है। अनिल प्रभा कुमार का 2021 में प्रकाशित प्रथम उपन्यास‘सितारों में सूराख’ वर्षों पहले विवाहोपरांत अमेरिका में आकर बसी उस जसलीन/ जैस्सी की कहानी है जिसे सितारों के इस देश में भी ज़िदगी खोखली, शून्य, दिशाहीन तो लगती है, लेकिन इसका कदाचित यह तात्पर्य नहीं कि वह भारत को मिस कर रही है अथवा लौट आना चाहती है अथवा उसे स्वर्ग सा अपना देश हांट करता है। वह उसी देश में रहकर दिशाएँ खोजती है, जीवन को सारगर्भित बनाती है, उसे दिशा/ सौद्देश्यता देती है। अमेरिका की सड़कों पर बदहवास भाग रहे अप्रवासी भारतीय उस देश में भी अपनी मूल्यवत्ता को, मानवता के प्रति निष्ठा को लेकर आगे आ रहे हैं। उन्हों ने जान लिया है कि अमेरिका के सुख और दुख दोनों ही उनके अपने हैं। पच्चास सितारों वाले ध्वज के उस देश में कितने सूराख हैं, कितने ब्लैकहोल हैं- बंदूक संस्कृति का सूराख, राजनेताओं के आत्मकेंद्रण और वोट नीति का सूराख, रेड इंडियन्स की हत्याओं का सूराख, नसलवाद का सूराख, नारी उत्पीड़न का सूराख, सबवे में हत्याओं और लूटपाट का सूराख, सूचना प्रसारण में सिमटे बाजारवाद का सूराख, नौकरी में अस्थायीत्व का सूराख । लेकिन उसने जीना, चुनौतियाँ झेलना, विसंगतियों को संगति में बदलना सीख लिया है। उपन्यास में माँ जसलीन एंटी गन मूवमेंट में हिस्सेदारी निभाने के लिए कूद पड़ती हैं। वह इस अभियान के लिए दिन रात काम करती है। चर्च, सिनेगाग, स्कूल, इस्लामिक सेंटर, हैल्थ क्लब, मंदिर में जा लोगों को अपने साथ जोड़ती है। परिणामत: पति जय जैसे पुरुष भी उसके साथ जुड़ जाते हैं। यहाँ प्रवासी  पीड़ा से आत्मबल सँजो रहे हैं। उन्हें बार-बार ओंधे मुंह गिराया जाता है और वे हर बार जूझने की नई ऊर्जा ले उठ खड़े  होते हैं। 
सुधा ओम ढींगरा के उपन्यासों में हवाओं में समाई एक नेगेटिव अदृश्य शक्ति अजेय बनकर मानव जाति के पूरे अस्तित्व को निगल रही है। लेकिन उनकी वारियार स्त्रियाँ  वहीं रहकर संघर्ष करेंगी।‘दृश्य से अदृश्य का सफर की डॉली का जीवट बहुत सशक्त है। वह हॉकी की खिलाड़ी रही है, टायक्वोंदों जानती है, हॉस्पिटल में नर्स थी । जेठ देवरों का सामूहिक बलात्कार उसे अंदर बाहर से क्षत- विक्षत कर देता है, लेकिन वह पराये देश में, पराये लोगों के बीच होकर भी/ही अपने लिए लड़ती हैं। उसी ज़मीन पर जरूरी पढ़ाई कर अस्पताल में नर्स लगती है। गुरदीप हुड्डा से तलाक लेती है। पुनर्विवाह करती है। तीन बच्चों को जन्म देती है। सायरा पर राजनेता के पुत्र का प्रेम आमंत्रण अस्वीकारने पर भयंकर एसिड अटैक होता है। उसे मातापिता के साथ राजनैतिक शक्ति से इस देश में निष्कासित कर दिया जाता है। उपचार के साथ- साथ वह प्रवास की धरती पर ही फार्मेसियूटीकल कंपनी में वैज्ञानिक और फिर डॉक्टर बनती है। दक्षिण भारतीय, हैदराबाद की यह युवती, पुलिस, तेलगू भारतीय महिला और मनोविद डॉक्टर लता की मदद और पिता का विश्वास जीत धीरे धीरे अपने आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक अधिकार पाने और बच्चों का स्नेह- सम्मान जीतने में सफल हो जाती है। मध्यवर्गीय नर्स, उच्च मध्यवर्गीय सायरा और उच्चवर्गीय तेलगू  युवती- सभी एक सी भयंकर विसंगति से जूझ रही हैं। लेकिन उपन्यास स्वप्न भंग की कथा नहीं है। पलायन या पीछे मुड़- मुड़ कर देखना प्रवासी जानते ही नहीं। हर प्रवासी जीवन लक्ष्य के लिए संघर्षरत है। उन्होंने जान लिया है कि जो अपने लिए खड़ा नहीं हो सकता, उसकी मदद कोई नहीं कर सकता और अपने देश में पूरा जीवन लगाकर भी उतना नहीं पा सकते, जितना यहाँ निर्धारित समय में पा लिया जाता है।  
अर्चना पेन्यूली ने कैराली मसाज पार्लर में पूरे विश्व में फैली बेचैनी, परेशानी, असुरक्षा और अराजकता, त्रासदी और अवसाद से भरे समय के अनेक चित्र दिये हैं। यह चार महाद्वीपों तक फैला ग्लोबल उपन्यास है। एशिया- भारत के केरल की बाइस- तेईस वर्षीय नैन्सी 1985 में विवाहोपरान्त अपने पादरी किन्तु अधर्मी पति अब्राहम और गोदी के बच्चे के साथ पूर्वी अफ्रीकी देश केन्या के सागर तटीय नगर मोम्बासा पहुँचती है, जबकि उसका दूसरा पति लार्स हैनसन विश्व के समृद्ध महाद्वीप यूरोप के पच्चास देशों में से एक छोटे से रईस देश डेनमार्क से है। तीसरे फ्रांसीसी पति मार्को के साथ वह फ़्रांस, अमेरिका और बैंगलोर जाती है। अंतत: वह डेनमार्क में अपना मसाज पार्लर बनाती है और चौथे पति पॉल और बेटे आर्यर के साथ वहीं बस जाती है। हर बार पति बदलने के साथ नैन्सी को देश भी बदलना पड़ता है। हर प्रवासन उस पर विस्थापन बनकर ही टूटता है। हर बार उसे नई चुनौतियों से जूझना पड़ता है। लेकिन वह हार नहीं मानती। अपने देश वापिस नहीं लौटती। हर महाद्वीप की संस्कृति से सीखती है। प्रकृति से उसे विशेष जुड़ाव है, वह जलपरी है, कम्पयुटर विशेषज्ञ है, मसाज की बारीकियाँ जानती है। एलोवेरा उसमें जीवट भरता है। समुद्र के खारे पानी में तैरना उसे तनाव मुक्त करता है। वह वहीं पर युनि- सेक्स मसाज पार्लर खोल अपने जीवट का परिचय देती है। इन बहुसांस्कृतिक देशों ने उसके क्षितिज को विस्तार ही दिया। वह एक बार महसूसती है- यूरोप अफ्रीका नहीं है, जहां एशियन इमिग्रेन्त्स की कोई इज्जत नहीं उसकी संघर्ष भूमि, कर्मभूमि, स्वप्न भूमि वही है।         
हंसा दीप के उपन्यास केसरिया बालम की धानी स्वीट स्पॉट बेकरी को अपना गंतव्य बना काम शुरू करती है और अपनी मेहनत से बेकरी को इतना ऊँचा उठा देती है कि मालिक उसे मैनेजर बना देता है। धानी को नई पहचान ही नहीं मिलती, उसकी कमाई से घर चलने लगता है। पति बाली बड़े- बड़े जोखिम ले व्यवसाय में पैसा लगाने में जुट जाता है।“जब पैसा अपनी धरती से दूर ले जाता है, तब मन उसके और भी करीब हो जाता  हैकेसरिया बालम’ के बालेंदु प्रसाद/बाली ने अपने स्थानीय मित्र बुला- बुला कर मानों एडीसन में एक मिनी राजस्थान बसा दिया था। आत्मीय रिश्तों में भी समाई त्रासदी यह है कि न माँ बेटी की जचकी पर पहुँच सकी और न बेटी अस्वस्थ, मरणासन्न पिता के लिए कुछ कर सकी। माँसा और बाबासा के संस्कार के बाद सब कुछ दान कर अमेरिका लौटना ही गंतव्य है। उसने कभी भूले से भी सोचा नहीं कि उसे भारत आकर बसना है।  एडीसन सी उसका स्वदेश बन चुका है। 
भारतीय विदेश क्यों जा रहा है रोजी- रोटी के लिए, जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए, अर्थ के लिए।  ठीक है कभी देश की भूली- बिसरी याद आ जाए, पर उसकी आँख लक्ष्य पर, मछली की आँख पर टिकी है। दिव्या माथुर  के शाम भर बातें’ में- भारत से इम्पोर्ट की गई जीतो जैसी पत्नियों की दुर्दशा, सेक्स एजुकेशन और उसके दुष्प्रभाव, ब्रिटेन में बच्चों की स्थिति और बढ़ रहे अपराध, भारतीय विद्यार्थियों के साथ सौतेला व्यवहार, बैंक, टैक्स- एक ओर और वहाँ स्थायी रूप से रहने की आकांक्षा दूसरी ओर। सत्य संवेदना कुछ भी हो, उसकी आखिरी मंज़िल बाज़ार ही होता है।  प्रवासी के लिए भारत भूमि न संजीवनी है, न विटामिन, न आक्सीजन।  
नीना पॉल ने कुछ गाँव गाँव, कुछ शहर शहर के गुजराती परिवार के माध्यम से भारतीयों के जीवट, श्रम क्षमता और कुशल व्यापार बुद्धि का वर्णन किया है कि ये ऐसे लोग हैं जो यूगांडा में रहें या ब्रिटेन में- उन देशों की उन्नति में अपने अमिट हस्ताक्षर जोड़ ही देते हैं। उपन्यास के पात्र पीढ़ियों से विदेश में हैं। आज वही उनका अपना देश है। अपने देश की याद के स्वर का स्थान गहन अंतर्द्वंद्व ने ले लिया है। नानी सरला की एक ही इच्छा है- एक बार नवसारी जरूर जाना है, जबकि वह इतना भी नहीं जानती कि वहाँ उसका अपना कोई होगा भी या नहीं, कोई पहचानेगा भी या नहीं। विडम्बना यह है कि भारत को अरसा पहले नानी ने छोड़ दिया था, माँ ने इस देश को कभी देखा ही नहीं, उनके पास इस देश की नागरिकता भी नहीं हैं। भारतवंशी यह ख़ानाबदोश भटकता परिवार किसे अपना देश कहे ? भारत को, अफ्रीका को या ब्रिटेन को? यही स्थिति अर्चना पेन्यूली के वेयर डू आई बिलांग में है। बहुत बार वे न इधर के रहते हैं, न उधर के। ‘वेयर डू आई बिलांग’ की वेदना उन्हें छोड़ती नहीं, जबकि वे भारत को हमेशा के लिए अलविदा कह डेनमार्क में बसने के उद्देश्य से और कालांतर में विदेशी नागरिकता अपना कर हमेशा के लिए इसी देश का नागरिक बनने का लक्ष्य ही लिए हैं । इन लोगों ने हर देश में मिनी भारत बना रखा है। यहाँ की आध्यात्मिक संस्थाएं भारतीय प्रभाव की हैं। रविशंकर का आर्ट्स ऑफ लिविंग, माँ आनंदमई का नाम, ब्रहमकुमारी संस्था, नारायण स्वामी आश्रम, इस्कान मंदिर, अष्टांग योगा सेंटर, राम चंद्र मिशन का सहज मार्ग, मेडिटेशन सेंटर- सब इन देशों में हैं ।‘वेयर डू आई बिलांग’ का  निर्मल यहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा चलता है। डेनमार्क में जन्मे- पले लोग भी संस्कृत के शुद्ध उच्चारण में इसकी प्रार्थना पढ़ते हैं। मंदिरों में व्रत त्योहार का आयोजन कराते हैं, लंगर खाते हैं, दीपावली- जन्माष्टमी मनाते हैं। भारत से भजन  मंडलियाँ बुलाते हैं। संघ, शाखा, मंदिर, डेनिश- इंडियन सोसायटी आदि भारतीय संस्कृति और अपने अस्तित्व को जीवित रखने के उपक्रम ही हैं।  भारतीय समुदाय के लिए यहाँ भारतीय स्टोर, भारतीय रेस्टोरेन्ट, धार्मिक, आध्यात्मिक स्थल सभी हैं।
उषा प्रियम्वदा का नदी विदेश में वनवास काटती एक सन्यासिन/ वैरागिन की व्यथा कथा नहीं है। एक स्त्री के जीवट और चुनाव की गाथा है। आकाश गंगा को जीवन में पति, प्रेमी, मित्र, संतान किसी का साथ नहीं मिला। वह बार-बार विस्थापित होती रही, नदी की तरह इधर-उधर भटकती रही। क्यों? क्योंकि उस देश ने उसे यह चुनाव करने का, जीने का अधिकार दिया है। अवैध बच्चे को जन्म देने की सुविधा दी है।  
सुषम बेदी के पानी केरा बुदबुदा की नायिका पिया कश्मीर से दिल्ली और फिर पति दामोदर के साथ दिल्ली से विदेश पहुँचती है। वहाँ की मूल्यवत्ता उसे इतनी स्पेस देती है कि वह पति दामोदर के अत्याचारों से विद्रोह कर स्वतंत्र जीवन का चयन करती है। अपने अकेलेपन, अपनी आज़ादी का पूरा सुख लेती है। यह कड़वा- कसैला दाम्पत्य उसे बताता और महसूस करवाता है कि विवाह जीवन का अंत नहीं है। पिया स्वयं अपनी नियति की नियामक बनती है। भारत में होती तो इस विषैले दाम्पत्य को लेकर जीवन भर तड़पती- बिलखती रहती, विदेश की धरती उसे अत्याचारों से विद्रोह के लिए स्पेस देती है। अमेरिका पहुँचकर वह महसूसती है कि त्याग, क्षमा, उत्तरदायित्व सिर्फ स्त्री के हिस्से की चीज़ नहीं है। सोचती है- अगर पुरुष का अपना अहं है और वह औरत से अपने अहं के सम्मान की अपेक्षा करता है तो औरत के अहं के प्रति वह संवेदनशील क्यों नहीं होता दामोदर से मुक्त होते ही वह नए जीवन, जीवन साथी की खोज में दिखाई देती है। वह उस राजकुमार की तलाश में भटक रही है, जो उसे प्रेम भी करे, प्रतिबद्ध भी हो और अपने को पिया के अनुरूप ढाल भी ले। अनुराग का सान्निध्य और साहचर्य उसे मादकता, सरूर और सुकून देते हैं, जबकि निशांत अपनी बेमुरव्वती, बेशर्मी, बेहयाई, विरूपता की हद तक की स्पष्टवादिता के बावजूद उसे बांधता है। एकाधिक पुरुषों से सम्बन्ध की इजाजत भारत में तो मिलने से रही।   
माना जाता है कि पहली दुनिया में जीने का अर्थ सातवें आसमान को छूना है। मानते हैं कि जीवन का हर सुख प्रवासी की मुट्ठी है। सुख और संपदा दोनों अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं। संपदा से सभी सुख खरीदे जा सकते हैं। मंदिर, गुरुद्वारे, भारतीय भोजनालय- सब वहाँ उपलब्ध है। हर देश में बना मिनी भारत उनकी बहुत सी आकांक्षाओं की पूर्ति का सामान लिए है। इस भौतिकता वादी संसार का चयन प्रवासी ने स्वयं किया है और वह जानता है कि यहाँ सबको अपना रास्ता स्वयं बनाना पड़ता है। अब उसे विदेश की नई संस्कृति, नई भाषा, नई  सामाजिक मान्यताएं- सब स्वीकार हैं। उसे न स्वदेश के नौकरों वाले घर की सुविधाएं कोंचती हैं, न जाने- पहचाने रास्ते हांट करते हैं, न परिचितों- अपनों की आत्मीयता खींचती है, न संबधी, मित्र, पड़ोसी याद आते हैं। हर देश में बसे मिनी भारत के अर्द्ध सत्य को ही उसने शाश्वत सच्चाई मान लिया है। प्रवास उसकी मजबूरी नहीं स्वैच्छिक चयन है। उसे अपनी आज़ाद पंछी सी उड़ान, बदले जीवन मूल्य, बंधनों से मुक्ति, विद्रोह के लिए मनमानी के लिए स्पेस बहुत-बहुत भा रही है।

डॉ. मधु संधु, पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, 
हिन्दी विभाग,गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर, पंजाब।

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