नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा,
    मेरी आवाज़ ही पहचान है गर याद रहे…!”
सच है ! यह उनकी आवाज़ का ही जादू है कि उनके न रहने पर भी उसकी गूंज फिज़ाओं में हर कहीं फैली हुई सी लगती है l हमें रह-रहकर दस्तक दे रही है l किसी अलौकिक शक्ति के पास पहुँचने के बाद भी यह आवाज़ हमारे इर्द-गिर्द खनक रही है l संसार में ईश्वर कुछ ऐसी आत्माओं को भेजते हैं जिनका कार्य केवल आनंद और सुख प्रदान करना होता है l दुःख में भी सुख की प्राप्ति हो सके ऐसा ज़रिया बनाकर भेजते हैं l शायद ईश्वर को भी ऐसी दिव्य आत्माओं की आवश्यकता होगी ! कहते हैं कि संगीत भी ईश्वर प्राप्ति का एक माध्यम है…मृत्यु तो मनुष्य जीवन की नियति है…जोनमिलेई मोरिते होबे, के बा आर कोतो दिन एई भव संग्सारे…! 
हेमा हर्दिकर यानि स्वर साम्रागी लता मंगेशकर का जन्म 28 सितंबर सन् 1929 ई. (ब्रिटिश इण्डिया) में इंदौर में हुआ था l लता के पिता दीनानाथ मंगेशकर स्वयं एक शास्त्रीय गायक और अभिनेता थे l पैतृक गाँव मंगेशी (गोवा स्थित) से अत्यधिक लगाव होने के कारण उन्होंने अपना उपनाम हर्दिकर से बदलकर मंगेशकर रखना आरंभ किया l दीनानाथ हर्दिकर अब दीनानाथ मंगेशकर बन चुके थे l सन् 1942 में दीननाथ मंगेशकर ने इस भौतिक जगत को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया और इतने बड़े परिवार का सारा भार आ पड़ा मासूम सी बच्ची हेमा हर्दिकर पर l जब पिता की मृत्यु हुई हेमा महज 13 वर्ष की थी l इस अल्पायु में ही हेमा ने अपनी चार छोटी बहनों और एक भाई का दायित्व उठाने का ज़िम्मा ले लिया था l माता शेवंती मंगेशकर भी उन्हीं की ज़िम्मेदारी बन चुकी थीं पति की मृत्यु के पश्चात् l 
इतनी कम उम्र में संसार का भार उठाना कितना मुश्किलों भरा रहा होगा, इसका अनुमान सहज ही नहीं लगाया जा सकता है l लता ताई की पढ़ाई भी रुक गई महज़ इसलिए क्योंकि छोटी बहन आशा ताई को भी वह अपने साथ अपने स्कूल ले गईं थीं l अध्यापक महोदय ने इसकी आज्ञा नहीं दी l लता ने मात्र एक ही दिन विद्यालय का लुत्फ़ उठाया l कहते हैं इसके बाद लता ताई फ़िर कभी विद्यालय न गईं ! और इस तरह उनका विद्यालयी सफ़र यहीं ख़त्म हो गया l छोटी बहन आशा के लिए उन्होंने ताउम्र शिक्षा के मंदिर में पुनः प्रवेश नहीं किया l परंतु शास्त्रीय संगीत की शिक्षा उन्हें अपने पिता दीननाथ मंगेशकर और बाद में अमान अली खां एवं अमानत खां से विधिवत रूप से मिली l मात्र पाँच वर्ष की आयु से ही लता दी ने पिता के संगीत नाटकों में अभिनय और गायन करना आरंभ कर दिया था l
आगे चलकर यही छोटी सी हेमा पार्श्व गायिका लता ताई के नाम से मशहूर होने लगीं l परंतु मशहूर होने के पीछे का जो नेपथ्य था वह कितने अंधेरों और चुनौतियों से भरा हुआ था यह केवल ईश्वर और लता जी ही जानती होंगी l इस ख्याति के लिए उन्होंने अपने जीवन में कितने बड़े–बड़े त्याग किये होंगे इसका अनुमान वे लोग कभी नहीं लगा सकते जिन्होंने केवल उनका स्टारडम देखा, उनकी ख्याति देखी ! एक वक्त ऐसा भी था जब लता दी केवल एक कप चाय और दो बिस्किट या फिर कभी सिर्फ़ एक गिलास पानी से ही पूरा दिन गुज़ार दिया करती थी l रिकार्डिंग करते-करते कई बार उन्हें बहुत तेज़ भूख लगती परंतु खाने के लिए कुछ न होता और महज़ पानी या चाय पीकर ही अपना काम चलातीं l केवल इसलिए कि किसी तरह उन्हें कोई काम मिल जाए और वह अपने परिवार को संभाल सके, उसकी ज़िम्मेदारी उठा सके !
उनका समय, संघर्ष और बलिदान किसी ने नहीं देखा l नहीं देखा वह ‘रिजेक्शन’ जहाँ उनकी गायिकी को महज़ इसलिए नकार दिए जाते थे, काट दिए जाते थे या फिल्मों के योग्य नहीं समझे जाते थे, क्योंकि निर्देशकों को इतनी पतली आवाज़ पसंद नहीं आते थे, कमज़ोर और पतली आवाज़ कहकर संगीत निर्देशक उन्हें प्रायः बाहर का रास्ता दिखा देते l सच ! ‘अजीब दास्ताँ है ये कहाँ शुरू कहाँ ख़तम, ये मंज़िले हैं कौन सी, न वो समझ सके न हम…!’
इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण भी था, वह ये कि लता दी जिस समय एक गायिका के रूप में संघर्ष कर रही थीं उस दौर में नूरजहाँ और शमशाद बेग़म की धूम थी l लोग उन गायिकाओं की मोटी आवाज़ के अधिक दीवाने थे l ऐसे में लता ताई को खुद को साबित करने के लिए कितनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा होगा यह एक संघर्षरत विद्यार्थी या फिर नौकरी के लिए धक्के खाता बेरोजगार ही समझ सकता है l ‘एक प्यार का नगमा है मौजों की रवानी है, ज़िन्दगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है…!’ यह और बात है कि लता जी ने आगे चलकर नूरजहाँ की नक़ल करने की भी कोशिश की, उनका अनुकरण किया, उनके कहे हुए को अपना आदर्श माना l वह नूरजहाँ ही थीं जिन्होंने लता दी से कहा था कि अभ्यास करो, देखना एक दिन तुम संगीत जगत पर राज करोगी…और लता ताई ने उनसे किये वादे को पूरा भी किया- ‘जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा’, रोके ज़माना चाहे रोके खुदाई…! किसे पता था कि जिस आवाज़ को पतली और बेजान कहकर दुत्कार दिया जा रहा है वही आवाज़ आगे चलकर सबके लिए इतना कर्णप्रिय हो जायेगा और जिसकी वैश्विक पहचान होगी l  
‘दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें’ – हमारे भारतीय समाज में विवाह इतना ज़रूरी माना जाता है कि अविवाहित रहनेवालों का जीना कठिन हो जाता है l किसी ने विवाह क्यों नहीं किया ? कब करेंगे ? किससे करेंगे ? उम्र हो गई हो और अविवाहित हो तो ज़रूर कोई अदृश्य प्रेम होगा वरना अकेले कोई कैसे रह सकता है? फलां…फलां…फलां…! सबसे अधिक दुखद यह है कि इन देवलोकी प्रश्नों से केवल आम मनुष्य ही दुखी नहीं है वरन् बड़े-बड़े महानुभव भी इस यक्ष प्रश्न से दुखी कर दिए गए हैं ? कुंठा की पराकाष्ठा पर तो तब पहुँच जाता है हमारा समाज जब किसी व्यक्ति के निजी जीवन के बारे में कुछ ठोस जान नहीं पाते और उनके विषय में तरह-तरह के कयास लगाने बैठ जाते हैं !
कुछ लोग सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए लता दी जैसी महान हस्ती के दामन को दागदार करने से भी नहीं चूकते l शायद उन्हें मालूम नहीं कि वे आसमान पर थूकना चाहते हैं l जबकि लता ताई ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘शादी मेरे नसीब में नहीं थी…वह कहती हैं “मैं यह मानती हूँ कि मनुष्य के जीवन में तीन बातों पर उसका वश नहीं होता l एक उसका जन्म, दूसरी उसकी शादी और तीसरी उसकी मृत्यु l यह इंसान को मालूम नहीं होता है l यह जहाँ और जैसे होना होता है, वैसे ही हो जाता है l मैं यह भी कहती हूँ कि यह इतनी बड़ी बात नहीं है, जो समाज में पूछी जाती है l इंसान यदि विवाहित नहीं हुआ, तो यह मतलब नहीं हुआ कि वो एक सार्थक जीवन जी नहीं सकता l” (‘लता-सुर-गाथा’, यतीन्द्र मिश्र) l शायद ऐसे लोगों को ईश्वर सद्बुद्धि दे इसीलिए लता ने यह गीत गाया कि – ‘माई री…मैं का से कहूँ पीर अपने जीया की…’ सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफार्म बन चुका है जहाँ न केवल अच्छी बातें ही देखने और पढ़ने को मिल रही हैं बल्कि गलीज़ से गलीज़ बातें भी पढ़ने को मिलने लगी हैं l मसलन ‘लता मंगेशकर किसके नाम का सिंदूर लगाती थीं…?, विवाह क्यों नहीं किया? इत्यादि l नीचता की हद ही कहा जाना चाहिए इसे l जबकि लता ने स्वयं एक साक्षात्कार में इस बात का खंडन किया था कि पारिवारिक दायित्वों और परिस्थितियों ने उन्हें कभी खुद के बारे में सोचने का अवसर ही नहीं दिया l पूरे घर की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर होने के कारण उन्होंने कभी विवाह जैसे बंधन के बारे में सोचा ही नहीं, कभी सोचा भी तो वक्त हाथों से फिसलता गया; इस उधेड़बुन में कि पहले छोटी बहनों को उस लायक बना दें ताकि वे कल को किसी का बैसाखी न बने, उनकी शादी करा दे, फिर अपनी सोचूंगी l वाकई जीवन ने कभी उन्हें खुद के विषय में सोचने मौका ही नहीं दिया l “वक्त के सितम कम हंसी नहीं, आज है यहाँ कल कहीं नहीं…!” लता के जीवन में कभी यदि प्रेम का पुष्प अंकुरित होना भी चाहा होगा तो कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों ने उनके पैर रोक लिए होंगे, उनका आँचल समेट लिया होगा उस प्रेम रूपी पौधे की तरफ़ से मन को मार लाई होगी वह अपने छोटे भाई बहनों की आशावादी दृष्टि को याद करके ! उन मासूम चेहरों की चमकीली आँखों ने रोक लिया होगा उनका हाथ जिसे यदि लता ने कभी बढ़ाना भी चाहा होगा l लता जी के जीवन में यदि कभी प्रेम के बीज फूटे भी होंगे तो इसमें आश्चर्य क्यों और कैसा? प्रेम तो नैसर्गिक है जिसे पाने का या करने का हक़ प्रत्येक जीव को है l ऐसे में यदि लता के जीवन में कभी प्रेम का आगमन हुआ भी हो तो दुनिया इतनी हैरान क्यों है? ‘प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय l राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई…!’ (कबीर) l कहते हैं कि डूंगरपुर के एक बड़े राजघराने से ताल्लुक रखनेवाले राज सिंह से लता को प्रेम था l लता के छोटे भाई के वे अच्छे मित्र थे और इस नाते उनका घर में आना–जाना भी था l परंतु राज सिंह की माता को दिए वचन के कारण राज सिंह ने लता को अपनाने में अपनी असमर्थता जताई l राज सिंह की मां नहीं चाहती थीं कि कोई आम परिवार की लड़की उनके घर की बहू बने और उनका यह अविकसित प्रेम राज सिंह की मां की चाहत के आगे भेंट चढ़ गई l लता ने अपने प्रेम की लताएँ समेट लीं और राज ने इसे राज़ ही रहने दिया ! है न कितना उदात्त भरा यह प्रेम संबंध ! एक मौन से शुरू हुआ प्रेम, एक मौन पर जाकर ख़त्म हो गया l जिस अनकहे प्रेम संबंध का अंत इस उपेक्षा के साथ हो जाए कि जहाँ आप अयोग्य ठहरा दिए जाओ उस जीवन में आगे चलकर विवाह करने की संभावना कितनी बची रहती होगी… यह विचारनीय है l अधूरे प्रेम की यह टीस हम उनके कई गानों में देख सकते हैं जब वह गाती हैं – ‘दो दिल टूटे दो दिल हारे, दुनिया वालों सदके तुम्हारे, रहें न रहें हम महका करेंगे बनके कली, बनके सबा बाग़े वफ़ा में, दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें, बना के क्यों बिगाड़ा रे नसीबा ऊपरवाले, लो आ गई उनकी याद, वो नहीं आये…!’ लेकिन दोनों एक दूसरे के लिए कभी बाधा नहीं बने, कभी किसी ने किसी को बदले की भावना से नहीं देखा, हमेशा एक दूसरे के प्रति सहज रहे, दुआएं देने की मुद्रा में – ‘आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहें, दिल से क़दमों की आवाज़ आती रही, आहटों के अँधेरे चमकते रहे, रात आती रही रात जाती रही…!’  लता दी के ये गाने मानों रूह को छलनी कर जाती है, बिना किसी शोर के हमारे अंतःकरण को झकझोर कर रख देती हैं l ये गाने अनंतकाल तक इस भूलोक में गूंजती रहेंगी और लता अपनी मौजूदगी दर्ज कराती रहेंगी l यद्यपि इसीलिए यतीन्द्र मिश्र लिखते हैं कि “लता मंगेशकर को स्वर्गीय कहने का मन नहीं करता, उनकी आवाज़ इस नश्वर संसार में अमर है l अपने गीतों में वह हमेशा जीवित रहेंगी l” 
इतनी तपस्या, इतनी साधना, इतना रियाज़ जिस सुर साम्राज्ञी ने ताउम्र किया हो, जिनके जीवन का उद्देश्य ही चिर काल तक संगीत रहा हो, जिन्होंने अपने गीत के माध्यम से समाज के सभी तबकों की चिंता व्यक्त की हो, जिन्होंने गांधी दर्शन पर आधारित गीत ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाने रे’ की बात कही हो, ईश्वर और अल्लाह को एक ही सूत्र में पिरोने की बात कही हो, जिन्होंने निर्बलों को बल देने और बलवानों को ज्ञान देने की बात कही हो…ऐसी शांतिप्रिय, गंभीर आत्मा को आज जिस प्रकार लांछित किये जाने की चेष्टा की जा रही है वह न केवल शर्मनाक है बल्कि दुखद भी है l जो लोग उनकी मृत्यु को भी उत्सव बनाने की कोशिश में लगे हैं, संभ्रांतों की हितैषी और वंचितों का दुश्मन कहने लगे हैं, जो धर्म और जाति का कार्ड खेलने में लगे हैं, जो अपने-अपने अम्बेडकर करते हुए यह कहते फिरते हैं कि लता ने उनके लिए गाना नहीं गाया, खाना नहीं खाया इत्यादि इत्यादि l उन महानुभवों ने शायद वह वाकया नहीं सुना जब बी.डी.सावरकर के लिए गाने के कारण लता के ही छोटे भाई हृदयनाथ मंगेशकर को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ गया था l वर्तमान समय में जब भी आप किसी बात के लिए किसी के साथ तुलना करते हैं तो यह न भूलें कि जिनके साथ जिस बात की तुलन की जा रही है या जिस बात के लिए तुलना की जा रही है, वह बात क्या इस इक्कीसवीं सदी में फिट बैठती है ? क्या तब के कालखंड में और अभी के इस अत्याधुनिक कालखंड में कोई अंतर नहीं है? उनका समय कैसा था, उस समय की सामाजिक परिस्थितियां कैसी थीं? देश की धार्मिक और राजनीतिक परिस्थितियां कैसी थीं और वह जातीय सोच के प्रति कितने उदार थे? 
इस संदर्भ में दिलीप मंडल का वह ट्वीट भी देखने योग्य है जहाँ उन्होंने लिखा कि – “कई लोग इस बात के लिए आदरणीय लता दीदी की आलोचना कर रहे हैं कि उन्होंने बाबा साहब के सम्मान में गाने से मना कर दिया l लेकिन ये  सोचिए कि उस दौर में अगर उन्होंने वह गीत (?) गाया होता तो बॉलीवुड उनका क्या हाल करता l देवदासी परिवार से होने के कारण लता जी वैसे भी संघर्ष कर रही थीं l” कुछ लोग हर खेमे में, हर क्षेत्र में जाति को लाना नहीं भूलते, व्यक्तिगत घात लगाने से नहीं चूकते l दिलीप मंडल के उक्त कथन पर पलटवार करते हुए देवेश त्रिपाठी लिखते हैं – “दिलीप मंडल जैसे जातिवादी शख्स जो अपनी पत्नी के निधन पर उसे भी ब्राह्मण कहकर साथ छोड़ जानेवाला घोषित कर दे, तो ऐसे कुंठित दिमाग़ के व्यक्ति के लिए क्या ही कहा जा सकता है l” जिस लता ताई ने अम्बेडकर की जयंती पर यह लिखा कि – “भारतीय संविधान के जनक महामानव भारतरत्न डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर जी की जयंती पर मैं उनको कोटि-कोटि वन्दन करती हूँ l मैं उनको प्रत्यक्ष रूप से मिल सकी ये मेरा सौभाग्य है l” उस लता जी के माथे पर मरणोपरांत जाति विरोधी का आरोप लगाना कहाँ तक उचित है, समझ नहीं आया l ये कैसा झगड़ा है भाई और क्यों है? एक धीर-गंभीर और शांत आत्मा इस लोक से सदा के लिए विदा हो गईं , पीछे छोड़ गईं अपनी साज़-ओ-संगीत का अनमोल खज़ाना जिसमें से एक-एक मोती रूपी गाने को निकालकर आप अपना जी बहला सकते हैं, दुखी मन को सुकूं दे सकते हैं, रोते को हंसा सकते हैं और हँसते को रुला भी सकते हैं, जीवन की सार्थकता खोज सकते हैं l वास्तव में आज हम उन्हें इस तरह की बातें करके रुला ही तो रहे हैं ! कलाकार कभी पक्षपाती नहीं हो सकते, विद्वेषी नहीं हो सकते, बायस्ड होकर नहीं गा सकते l एक कलाकार को राजनीतिक गतिविधियों से कोई लेना देना नहीं होता और लता के समय में तो यह और भी ज़रूरी नहीं था l उनके लिए कला ही सबकुछ होता है l वे समन्वय की भावना को लेकर कार्य करते हैं l तभी तो लता गाती हैं – “अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान्, ओ सारे जग के रखवाले, निर्बल को बल देनेवाले, बलवानों को दे दे ज्ञान…’  यदि लता केवल सवर्णों अथवा संभ्रांतों के लिए ही गाती होती तो यह गीत गाना वह कतई स्वीकार नहीं करतीं l
हम सब जानते हैं कि लता जी के जीवन में अनुशासन का क्या महत्त्व था और वह स्वयं भी कितनी अनुशासित थीं l उसूलों की पक्की, परिश्रमी और स्वाभिमानी भी l ऐसे में यदि उन्होंने बाबा साहब के लिए गाने में अपनी असमर्थता जताई भी होगी तो निश्चित ही उनकी अपनी कोई विवशता रही होगी, कोई असुविधा रही होगी, कोई दुश्चिंता या फ़िर बेरोज़गार कर दिए जाने का भय रहा होगा l कुछ भी हो सकता है l सावरकर के लिए गाने का परिणाम वह देख चुकी थीं, जिसके कारण भाई हृदयनाथ मंगेशकर को आल इंडिया रेडियो की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था l
आज हम वर्षों पुराने दबे उस मुर्दे को उखाड़कर क्या सिद्ध करने में लगे हुए हैं? सबसे मज़ेदार बात तो यह है कि सोशल मीडिया पर लोगों ने इस मुद्दे को उछाला तो बहुत और मैंने अमूमन सबको पढ़ा और सुना भी लेकिन इस बात का सटीक कारण और उत्तर कोई नहीं दे पाया कि आखिर वह कौन सी वजह रही जिसके कारण लता ने बाबा साहब के लिए गाना नहीं गाया ! यानी सिर्फ़ लफ्फाजी की l कोई तथ्य नहीं, कोई प्रमाण नहीं l बस किसी को गाली देनी है तो देनी है चाहे जैसे भी हो और जिस प्रकार से हो l
ऐसे विष-वृक्ष वल्लरियों से समाज को बहुत ख़तरा है, जो आपको अँधेरे में रखते हों, पूरा सच नहीं बताते हों, अज्ञानता में घृणा का बीजारोपण करते फिरते हों l वैसे भी एक कलाकार को इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता l वह हर जाति, हर धर्म और हर संप्रदाय से ऊपर उठे हुए लोग होते हैं l उनकी शब्दावली में ‘मैं’ नहीं अधिकतर ‘हम’ का प्रयोग होता है l कौमी एकता का सन्देश होता है l 
जिस देश की फिज़ा को उन्होंने जीवनभर अपने सुरों से खुशगवार रखा, अपनी सुरीली आवाज़ की कोमलता से उनकी दुखती रगों को सहलाया, आज वही श्रोता, वही दर्शक उन्हें गिद्ध की तरह चारों तरफ़ से नोचने में लगे हैं l जीते जी जिन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ यश मिला हो, मरते ही अपयश की झड़ी लग गई l किसी ने अपनों की उन्नति में बाधक बताया तो किसी ने बहनों की शत्रु, किसी ने स्वार्थी बताया तो किसी ने पेशेवर l जबकि सच्चाई लता ताई खुद साबित कर चुकी हैं अपने दिए साक्षात्कारों के माध्यम से और अपनी बहनों के साथ अंत तक भी जुड़ी रहकर l एक साक्षात्कार में लता ने बताया है कि आखिर क्यों आशा के साथ उनके रिश्ते ख़राब हुए? क्यों वर्षों तक उनके बीच बातचीत बंद रहीं? इसके पीछे का कारण था आशा का चौदह वर्ष की उम्र में आर.डी.बर्मन से विवाह करना, बिना किसी को बताये घर से चले जाना, आर.डी.बर्मन द्वारा लता से और उनके पूरे परिवार से दूरी बनाये रखने की हिदायत देना, डुएट गाने के बाद लता से बात न करने की सलाह देना और भी बहुत कुछ l लता दी कहती हैं ‘लेकिन आशा चोरी-चुपके घर पर कभी-कभी फ़ोन करने लगी और इस तरह हम फिर से एक होने लगे l’ जो लोग परिवार की दुहाई देते हैं उनमें से अमूमन लोग ऐसे होंगे जिनके घरों के वृद्ध या तो वृद्धाश्रम में होंगे अथवा विधवा आश्रम में, जबकि भारतीय समाज में माता-पिता को भगवान् समझा जाता है l भाई–बहनों को तो छोड़ ही दीजिए l ऐसे में लता दीदी का हृदय कितना विशाल था कि पिता के अभाव में भी पूरे परिवार को साथ लेकर चलीं और अंत तक बांधे रखीं l     
जितनी उपलब्द्धियां लता के नाम रहीं शायद ही अन्य किसी पार्श्वगायिका के नाम रही होंगी l फिर भी वे विनम्र दिखीं हर मंच पर, हर विषय पर l जिन्होंने कभी विद्यालय का सुख नहीं भोगा उनको 6 डॉक्टरेट की मानद उपाधि से नवाज़ा जाना क्या आम बात थी l भारत रत्न लता मंगेशकर की मृत्यु से न केवल पूरा देश शोकाकुल हो उठा वरन् विश्वभर से भी उनके लिए अनेक शोक संदेश और संवेदनाएं प्रकट की जाने लगीं l चाहे वह ब्रिटेन हो या श्रीलंका, अमेरिका हो या बांग्लादेश, जर्मनी हो अथवा फ्रांस l बांग्लादेश की शरणार्थियों के लिए लता ताई ने गीत गाया था l “लता मंगेशकर 1971 में भारत–पाकिस्तान युद्ध मुक्ति संग्राम के दौरान बांग्लादेश के साथ खड़ी थीं l उन्होंने विभिन्न स्थानों पर गीत गाकर बंगाली शरणार्थियों के लिए धन जुटाया था l” इस तरह आपके या मेरे कह देने से भी उनकी छवि कहीं से धूमिल नहीं होनेवाली क्योंकि जो नाम और यश उन्होंने कमाए हैं और जैसा कर्म उन्होंने किया है उसके लिए हम, आप तो क्या पूरी दुनिया उन्हें युगों–युगों तक याद रखेगी l क्या बच्चे क्या बूढ़े, क्या देशी, क्या विदेशी, क्या नेता, क्या अभिनेता, क्या कांग्रेस, क्या बीजेपी सबने इस दिव्य आत्मा को अपनी नम आँखों से सच्ची श्रद्धांजलि दी l …तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे… ! सच ही तो है ! हम कहाँ भुला पा रहे हैं सुर की देवी सरस्वती को…! स्वयं में एक संस्था थीं लता मंगेशकर l 
ऐसे में सोशल मीडिया में ये जो विष वमन करके लोग उगल रहे हैं उससे हमें सावधान रहने की ज़रूरत है l इस रूप में यहाँ सोशल मीडिया एक वरदान नहीं वरन् एक अभिशाप भी  सिद्ध होता है, जहाँ कुछ भी अनर्गल बातें बड़ी आसानी से फैलाई और कही जा सकती हैं l              वैसे लता दी को यह विष पान पहले भी करना पड़ा था अंतर केवल इतना है कि वह द्रव्य रूपी था और आज यह विष शब्द रूपी है l सन् 1962 में लता जी को ‘धीमा ज़हर’ देने का मामला सामने आया था l तीन दिन तक वह ज़िंदगी और मौत से जूझती रहीं l दस दिनों के बाद उनकी सेहत में सुधार आया l इस घटना ने उन्हें तीन महीने के लिए बिस्तर पर धकेल दिया था l लता जी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि वह जानती थीं कि उन्हें यह ज़हर किसने दिया था परंतु कभी नाम नहीं लिया l इस घटना से लता ताई इतनी डर गईं कि आगे चलकर उन्होंने अपने स्वर ग्रंथि का बीमा तक करवा डाला l … “दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है, उम्र भर का गम हमें इनाम दिया है…”
पक्षपात का आरोप लगानेवालों के लिए लता दी के गाने ही काफ़ी हैं, जब वह अपनी मधुर स्वरलहरियों से यह गाती हैं कि ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा…’ लता जब यह गीत गाती हैं तो ज़ाहिर है कि अखंड भारत की भारतीय संस्कृति और एकता की बात कहती हैं, संपूर्ण भारतीय जनमानस की बात करती हैं, कौमी एकता की बात करती हैं, धर्मनिरपेक्षता की बात करती हैं l यहाँ न कोई ऊँचा है न नीचा, अमीर है न ग़रीब, संभ्रांत है न दरिद्र, दलित है न ब्राह्मण l जिस जातीय खाँचे में कुछ लोग उन्हें फिट करना चाहते हैं लता अपने इन गानों के माध्यम से ऐसे लोगों को अनुत्तरित देती हैं l 
लता जी को अपने जीवन में यदि कोई मलाल रहा होगा तो वह था के.एल. सहगल के साथ न गा पाने का l उनके घर में उन्हें केवल के.एल.सहगल के ही गाने सुनने की इज़ाज़त थी l शायद यही कारण रहा कि अभी हाल ही में तकनीकी सूत्रों को आपस में जोड़कर के.एल.सहगल के गाने के साथ लता जी की आवाज़ को डुएट में फिट किया गया और लता दी के इस अधूरे सपने को पूरा किया गया – “मैं क्या जानू क्या जादू है, जादू है, जादू है…!”  
36 भाषाओं में 30 हज़ार से भी अधिक गाना गानेवाली लता ताई आज इस भूलोक को सदा के लिए अलविदा कह गईं l इतनी बड़ी गायिका होने के बाद भी उन्हें इस बात का मलाल था कि वह बड़े ग़ुलाम अली खां की तरह शास्त्रीय संगीतकार नहीं बन सकीं l उनका यह सपना पूरा न हो पाने का दुःख शायद उन्हें ताउम्र रही होगी – “अगर मैं रियाज़ करती, तसल्ली से गाया होता, तो शायद मैं बेहतर शास्त्रीय गायिका बन सकती थी l काश मैं बड़े गुलाम अली खां की तरह गा पाती l” (लता-सुर-गाथा, यतीन्द्र मिश्र) l    
और उस अनंत लोक में जाती हुई लता जी गाती हैं…
“बिसरा दियो हे काहे, बिदेस भिजाय के 
हमका बुलाय ले बाबुल, डोलिया लिवाय के
भेजो जी डोली उठाये चारों कहार 
सुनियो जी अरज म्हारी, ओ बाबुला हमार 
सावन आयो घर जइहो, बाबुला हमार…!” 

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