राजस्थान रेत के टीलों, घने जंगलों, अरावली के मध्यम ऊंचे पर्वतों, झीलों की विविध आभा वाला रंगबिरंगा प्रदेश है  जहां एक ओर बहादुर राजपूती आन और शान के जोश भरे इतिहास गीत गूंजते हैं वहीं दूसरी ओर ढ़ोला मारू के प्रेमगीत और तीज त्यौहारों के घूमर नृत्य झनझन करते हैं. गणगौर का त्यौहार भी इसी भक्ति, उल्लास का एक प्रतीक है.
होली के सोलहवें दिन यहां की कुँआरी और शादी शुदा महिलाऐं ईसर और गौर की पूजा करती हैं और प्रसाद में गुने ( गुड़ और आटे या मैदान और चीनी से बने वृताकार सक्करपारे का भोग लगा कर अपने लिए ईसर जैसा वर या अपने भाई, बहिन,  मां, बाप और पति की सलामती की गणगौर माता से प्रार्थना करती हैं. यहां ईसर से मतलब शिव जी (ईश्वर) और गणगौर से मतलब पार्वती जी (गौरी) होता है. पूजन हेतु वे तालाब की चिकनी मिट्टी से गणगौर और ईसर की प्रतिमा बनाती हैं और जौ व तिनकों से उनके आंख हाथ आदि बनते हैं. फिर उन्हें रंगबिरंगी पोशाक धारण करवा कर लकड़ी के पट्टे पर विराजमान करके ताजी दूब व पुष्पों संग पूजा की जाती है.  इस मौके पर सभी महिलायें गीत गा कर आशीर्वाद मांगती हैं. इससे एक दिन पूर्व सिंधारा उत्सव होता है जिसमें पुत्रियों और बहिनों के ससुराल में गुने और घेवर भेजे जाते हैं. साथ में मेहंदी आदि भी तथा मनसने के लिये कुछ रूपये.
गणगौर उत्सव में संध्या काल में सभी महिलायें अपनी अपनी स्थापित प्रतिमाओं की आंख में काजल लगा कर उन्हें सिर पर बैठा कर  गीत गाते हुए सामूहिक रूप से किसी कुये पर जाती हैं और उन्हें  जल पिलाती हैं।  वापसी में रास्ते में किसी एक के घर रूक कर वहां कुछ देर के लिए ईसर गौर को एक साथ जमीन पर रख कर लोकनृत्य करती हैं. फिर रात्रि को एक साथ अपनी अपनी गणगौरों को  गांव/ शहर के तालाब या नदी में विसर्जित  किया जाता है।
कुॅंआरी लड़कियां होली के दूसरे दिन से ही पूरे सोलह दिन सुबह सुबह नहा कर गांव शहर के किसी बगीचे में जाकर वहां से ताजा दूब, पुष्प, पत्ते छोटी टोकरी में रख कर घर लाती हैं और ईसर गौर को चढ़ाती हैं. इससे उन्हें मनभावन पति यथा समय मिलता है. ऐसी मान्यता है.
रियासती काल में गणगौर राजसी शान शौकत से मनाया जाता था. इस दिन चांदी और लकड़ी से बनी गणगौर को कीमती स्वर्णाभूषण पहना कर रनिवास में रख  पूजन नृत्य किया जाता था और फिर उनकी सवारी को जुलुस के रूप में शहर में से निकाल कर एक स्थान पर रात्रि विश्राम करवाया जाता था जहां बड़ा भारी मेला लगता था. जयपुर उदयपुर, जोधपुर , बीकानेर  किशनगढ़ में तो आज भी यह परंपरा कायम है. कभी कभी एक राज्य दूसरे राज्य के जुलुस पर हमला करके गणगौर लुट कर अपने महल में विराजित भी कर लेता था. यह प्रतिष्ठा का विषय होता था।
जयपुर में गणगौर पर एक बड़ा भारी परंपरागत मेला लगता है। राजमहल से  गणगौर की सवारी  चंद्रमहल  से पालकी में चौगान स्थिति मेला स्थल तक जाती है। संग में हाथी घोड़े ऊंट का लवाजमा रहता है। लोक कलाकार नृत्य करते चलते हैं। इस दृश्य को देखने विदेशी पर्यटक भी भारी तादाद में आते हैं। उदयपुर और जोधपुर, बीकानेर में भी इसी तर्ज़ पर पुराने राजसी वैभव के साथ गणगौर की सवारी निकलती हैं।
गणगौर का पूजन बुंदेलखंड इलाके में भी वहां की महिलाएं पूर्ण भक्तिभाव से करती हैं। मध्यप्रदेश में और भी अनेक क्षेत्रों में यह गणगौरों पर्व मनाया जाता है।
गौर पूजा में गाये जाने वाला एक पारंपरिक गीत- पहली पंक्ति पारंपरिक है, बाद के शब्द मैंने अपने जोड़े  हैं.:-
गौर ए गणगौर माता खोल ए किवड़िया
बाहर मैं लिये खड़ी पूजा री कांवड़िया
ए मां मनै तू ईसर जैस्यौ सुहाग दिलादे
ऐ गौरी तू मेरा वीरा नै खुशियाँ दिलादे
गौर माता म्हारी मायी ने गहना सूं लदवादे
गणगौर म्हारा बाबुल नै महला मा बसवादे
ए गौरी म्हारी बहना नै मोतीया हार पहनादे
गौर ए गणगौर माता खोल ए किवड़िया
बाहर मैं लिये खड़ी  पूजा री कांवड़िया

अरविंद ‘कुमारसंभव’
संपर्क – kumarsambhav59@gmail.com

4 टिप्पणी

  1. आपको कुमारसंभव पढ़कर महाकवि कालिदास जी की कुमारसंभवम् की यादें ताजा हो गईं। क्या यह आपका उपनाम है?
    कल अमावस्या है। परसों से नवरात्रि शुरू हो रही है चैत्र की। इसके तीसरे दिन तीज को गणगौर आती है।
    अपने विस्तार से इस पूजन का वर्णन किया है यह सही है कि राजस्थान का त्यौहार है किंतु मध्य प्रदेश में भी मनाया जाता है ।अग्रवाल और माहेश्वरी समाज में इसका ज्यादा जोर है। बोलोगी ईमानदारी से 16 दिन पूजा करते हैं। हमारे यहाँ भी पूजन होती है गणगौर की। हमारे यहाँ तो शादी के बाद ही इस पूजा को नई बहू को दिलवाया जाता है। राजस्थान में कुंवारी लड़कियां भी करती हैं जिस तरह से छत्तीसगढ़ इत्यादि में कुंवारी लड़कियाँ तीजा का उपवास करना शुरू कर देती हैं। यह कठिन व्रत है। हर पूजा के मूल में शंकर पार्वती हैं। जहां वह नहीं है वहाँ वह व्रत या पूजन उनके द्वारा बताया गया है। यहाँ तक की रामचरितमानस भी शंकर भगवान पार्वती जी को सुना रहे हैं।
    गीत कुछ इस तरह है-
    *गोर ए गणगौर माता खोल किवाड़ी !*
    *बाहर ऊबी थारी पूजन वाली !*
    *पूजो रे पुजाओ बाइसा काँई काँई माँगा।*
    इसके बाद सभी के लिए जो जो मांगा है उसकी लंबी लिस्ट है हमें इतना ही आता है। वैसे यह यूट्यूब पर पूरा है जिसको भी सुनना हो वहाँ सुन सकता है या फिर उस वीडियो को मंगलवार के बाद यहांँ डाला जा सकता है।
    बहुत अर्थपूर्ण है।
    शुक्रिया अरविंद जी अपनी संस्कृति की याद ताजा करते हुए खुशी महसूस हुई।
    शुक्रिया आपका पढ़वाने के लिए।

    • नीलिमा जी, मैंने अपने लेख में लिखा है कि बुंदेलखंड और मध्यप्रदेश में भी गणगौर त्यौहार मनाया जाता है। वहां यह त्यौहार प्रवासी मारवाड़ी लोगों के माध्यम से पहुंचा। अग्रवाल, महेश्वरी मूलतः राजस्थान और हरियाणा से ही बाकी जगह गये हैं। आपने शौक से इसे पढ़ा इस हेतु आभार। कुमारसंभव मेरा उपनाम है।

  2. जी यह गीत वाली बात को मैंने भी पढ़ा था इस लेख में, गणगौर का त्योहार तो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा,और गुजरात सभी जगह धूमधाम से मनाया जाता है , आगरा शहर में तो इसका बहुत ही मजेदार मेला भरता है और वहां भी राजस्थान की ही तरह मनाया जाता है बस थोड़ी सी गीतों की भाषा में उत्तर प्रदेश की कुछ छबि झलक जाती है। कहा जाता है कि गणगौर से ही हिन्दू धर्म के त्योहारों की शुरुआत होती है , यानि वर्ष (नवसंवत्सर)का पहला त्योहार यही होता है।

  3. जी आभार। कुमारसंभव मेरा उपनाम है। मैंने अपने लेख में मध्यप्रदेश एवं बुंदेलखंड का जिक्र किया है।

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