मन के किसी गहरे कोष्ठ में
रची है एक निजी चित्रशाला।
नए-पुराने पोट्रेट टंगे हैं
दीवारों पर –
तैलरंगो से अंकित
कुछ कैनवस
कुछ जलरंगों में नहाये अपने,
और कुछ यूं ही
पेंसिल की नोक से खुदे
किन्ही खास बिछड़ों के
सुरमई रेखाचित्र।
यादों की पकड़ से
कहीं दूर जा खड़े
धूमिल हुए कुछ चेहरे
और कुछ
आईने में उभरे प्रतिबिंब से
ठहरे-ठिठके, टिकटिकी लगाए।
अकेले में कभी बरबस
उतर जाता हूँ
अपने मन की फिसलन भरी
संकरी सीढ़ियाँ
उनसे मिलने।
कदमों की आहट पे
धुँधलाई आँखों के छोर से
मानो घुसपैठिए का आभास पा
अपने मायावी अस्तित्व
को और समेट
मुंह फेर लेते हैं सब
शिकायत सी करते।
कभी बहुत अपने रहे उन सबसे
बारी-बारी मिलता हूँ
कुछ अपनी कहता;
कुछ उनकी सुनता।
रूठ-मनुहार की गांठें सुलझा
आगे बढ़ता हूँ
कोई आवाज़ देता है पीछे से
तो कोई अभी भी आँख चुरा
है छिपता।
जीवन के बिखरे पन्नों से
पश्चाताप के संधर्भ मिटा
मानो अपना इतिहास बदल,
सांकल लगा
अतीत और वर्तमान
के इस संसर्ग से प्रफुल्लित,
तोषण से भरा,
लौट आता हूँ फिर से
अपने इस एकल
अस्तित्व में।