यतीन्द्र मिश्र; फोटो साभार : Aaj Tak

गिरिजा, हमसफर, ड्योढ़ी पर आलाप, लता सुर-गाथा जैसी महत्वपूर्ण कृतियों की रचना करने वाले राष्ट्रीय पुरस्कार ‘स्वर्ण कमल’ से सम्मानित लेखक यतीन्द्र मिश्र से उनके लेखन के विविध पहलुओं तथा गीत-संगीत को लेकर युवा लेखक पीयूष द्विवेदी की बातचीत।

सवाल – नमस्कार यतीन्द्र जी, पुरवाई से बातचीत में आपका स्वागत है। आप साहित्य-जगत में कवि, संगीत अध्येता और संपादक तीनों भूमिकाओं में सक्रिय रहे हैं और तीनों ही भूमिकाओं में आपकी रचनाधर्मिता उल्लेखनीय है, परंतु, स्वयं की दृष्टि में आप किस भूमिका में सर्वाधिक रचनात्मक संतुष्टि अनुभव करते हैं और क्यों?
यतीन्द्र मिश्र – धन्यवाद पीयूष जी, पुरवाई ने मुझे बातचीत के लिए आमंत्रित किया। यह सही है कि मैं कविताएँ लिखने के साथ संगीत और सिनेमा के क्षेत्र में भी लेखन करता रहा हूँ। पिछले कुछ वर्षों में मैंने संगीत की पत्रिकाओं का सम्पादन करने के अलावा अयोध्या-फ़ैज़्ााबाद शहर, बेगम अख़्तर साहिबा और वरिष्ठ कवि कुँवर नारायण पर किताबें सम्पादित की हैं। मैं मूलतः स्वयं को एक कवि ही मानता हूँ और कवि-दृष्टि से ही कलाओं की दुनिया में यात्रा करता हूँ। रचनात्मक सन्तुष्टि का अनुभव जैसा पद विपुल अर्थों में ही ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि कभी संगीत में लिखते हुए, तो कभी कविताएँ करते हुए आनन्द की अनुभूति होती है। यह बहुत निश्चित नहीं है कि सिर्फ़ कविताएँ लिखते हुए ही सन्तुष्टि होती है।
एक लेखक को वैसे भी तमाम सारे विषयों और क्षेत्रों में दिलचस्पी लेनी चाहिए। साथ ही साहित्य के साथ बनने वाले परफाॅर्मिंग आर्ट के रिश्ते में एक समावेशी संसार की निर्मिति करते रहना चाहिए। मैं अगर थोड़ा सा प्रयास यह कर पाया हूँ, तो इसे अपने लिए महत्त्वपूर्ण मानता हूँ। आप अगर किसी दूसरे रचनाकार की कृति पढ़ते हुए उस पर टिप्पणी करते हैं और वह पुस्तक आपको सन्तुष्टि देती है, तो उसे भी ख़ुद के रचनात्मक दायरे में लाकर देखना चाहिए। आपके प्रश्न के जवाब में रचनात्मक सन्तुष्टि का अनुभव ख़ुद के लिखे से भी अधिक दूसरों की सर्वश्रेष्ठ कृतियों का आस्वाद लेते हुए महसूस होती है। मेरे लिए पढ़ना भी रचनात्मक कर्म का हिस्सा है।
सवाल – पाठकों में ‘लता सुर गाथा’ आपकी संभवतः सबसे अधिक लोकप्रिय और चर्चित कृति है। इस पर आपको राष्ट्रीय फ़िल्म सम्मान भी प्राप्त हुआ है। क्या आप भी इसे अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ लेखन मानते हैं?
यतीन्द्र मिश्र – यह जानना मेरे लिए सुखद है, कि मेरी किताब ‘लता: सुर-गाथा’ को पाठकों की स्वीकृति और लोकप्रियता हासिल हुई। मैंने यह सोचकर सायास इस बात के लिए लेखन नहीं किया था कि यह इतनी चर्चित होने जा रही है। शुरु से ही लता मंगेशकर जी का बेहद प्रशंसक रहा हूँ और यह मानता था कि उन पर हिन्दी में कोई मुकम्मल किताब इस तरह नहीं है, जिसमें उनके तमाम पक्षों पर खुलकर बातचीत हुई हो।
ऐसे में ख़ुद मैंने यह काम करना पसन्द किया। अभी मेरा लेखन जारी ही है और जीवन में बहुत कुछ लिखना बाक़ी है। यह मैं दावा नहीं कर सकता कि यह मेरा अब तक का सर्वश्रेष्ठ लेखन है। बस इतना ही कह सकता हूँ कि आगे भी दूसरी किताबों में उतनी ही मेहनत और जिज्ञासु वृत्ति से कुछ सिरजने में लगा हूँ। यह तो जीवन बीत जाने के बाद और आपकी अन्तिम किताब आने के बाद समय तय करता है कि एक रचनाकार के बतौर आपका सर्वश्रेष्ठ लेखन कौन सा था।
सवाल – आपकी जो कुछ कविताएं मैंने पढ़ी हैं, उससे लगता है कि आप छंद-तुक से युक्त परंपरागत काव्य की अपेक्षा छंदमुक्त अतुकांत काव्य में ही लिखना पसंद करते हैं। छंद आदि पारंपरिक काव्य-विधानों को लेकर आपका क्या दृष्टिकोण है?
यतीन्द्र मिश्र – नयी कविता के ज़्यादातर कवि छन्दमुक्त कविता में ही अपनी अभिव्यक्ति करते रहे हैं। यह एक चलन भी रहा है और मैंने भी उसी परिपाटी में कविताएँ लिखी हैं। मगर इसका यह कतई अर्थ न लिया जाए कि मुझे छन्दों से प्यार नहीं है। छन्दबद्ध कविताएँ भी उतने ही सम्प्रेषण से अपनी बात रखती हैं, जितनी की छन्दमुक्त कविताएँ। हालाँकि एक बात ज़्ारूर कहूँगा कि बिना छन्द के भी एक लय होती है, जिसे पाठक भी बख़ूबी समझता है। पारम्परिक काव्य-विधानों को लेकर मेरा यह मानना है कि उनका अनुसरण करते हुए ज़्यादा से ज़्यादा लेखन होना चाहिए, परन्तु उसकी दृष्टि आधुनिक और युग-बोध समीचीन हों, तभी बात बनती है।
सवाल – अपने कविता-संग्रह ‘विभास’ में आपने कबीर की बानियों को नए सिरे से अभिव्यक्ति दी है। कबीर निर्गुण राम को मानते थे, आप सगुण राम की राजधानी में रहते हैं, तो प्रश्न यह उठता है कि आपके राम कौन हैं?
यतीन्द्र मिश्र – यह अच्छा प्रश्न है कि सगुण राम की राजधानी में रहते हुए मेरे राम कैसे हैं? मैं उन समन्वयवादी महानायक श्रीराम में विश्वास करता हूँ, जिन्होंने हर एक तबके के इंसान के जीवन में आस्था और विश्वास के बीज बोए। मेरे राम गाँधी जी के रघुपति राघव राजाराम है, तो कबीर के राम निरंजन न्यारा रे वाले, जिन्होंने अपने प्रेम का अंजन चारों ओर पसारा हुआ है।
भवभूति के करुणा सहोदर अयोध्या के अधिपति राम, तो मीराबाई के नाम रतन धन पाने वाले। इसी तरह मेरे राम, नानक, पीपा, दरिया, रज्जब और रैदास के वो राम हैं, जिन्होंने लोक-मंगल की स्थापना की। संगीत की दुनिया से अगर रूपक उधार लेकर कहूँ, तो चैती गायन में ‘हो रामा’ की टेक और पुकार वाले राम मेरे अंतस में विराजते हैं।
सवाल – यह अक्सर कहा जाता है कि हिन्दी फ़िल्मों में आजकल पहले जैसे गाने नहीं आ रहे। हम पुराने गानों के बारे में नॉस्टेलजिक हो कर बात करते हैं। आपकी इस विषय में क्या राय है?
यतीन्द्र मिश्र – फ़िल्मों के गाने हमेशा से समाज के मुखापेक्षी रहे हैं। यह सही है कि पिछली शताब्दी के पचास से सत्तर के दशक में बेहद सुरीले और अर्थवान गीतों की रचना हुई, जिसमें तमाम सारे बड़े गीतकार मसलन साहिर लुधियानवी, मज़रूह सुलतानपुरी, इन्दीवर, शैलेन्द्र, राजेन्द्र कृष्ण, पण्डित नरेन्द्र शर्मा, शकील बदायूँनी, राजा मेंहदी अली ख़ाँ, हसरत जयपुरी, नीरज, योगेश, कैफ़ी आज़्ामी और गुलज़्ाार जैसे बड़े गीतकारों ने समाज को जागरूक करने वाले गीत दिए। उसी तरह संगीतकारों की भी एक लम्बी परम्परा है, जिन्होंने उन गीतों को उसी स्तर पर कम्पोज़्ा किया। हमारी फ़िल्म-संगीत-परम्परा में नौशाद, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी, एस.डी. बर्मन, सी. रामचन्द्र, रोशन, हेमन्त कुमार, खय्याम, जयदेव, आर.डी. बर्मन, पण्डित रविशंकर और ढेरों शानदार संगीतकार हुए हैं।
हिन्दी फ़िल्म गीतों को लेकर मेरा मानना है कि बहुत सारे गीत ऐसे हैं, जिन्हें हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए। क्षमा चाहते हुए यह कहना चाहूँगा कि हिन्दी कविता में जिस स्तर की कविताएँ हुई हैं, उसी स्तर पर गीतकारों ने फ़िल्मों में भी गीत लिखे हैं। उदाहरण के तौर पर, पण्डित प्रदीप का ‘दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल’, ‘हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के’, साहिर लुधियानवी का ‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा’, साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जायेगा मिलकर बोझ उठाना’, शकील बदायूँनी का ‘दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा’ जैसे गीत क्या बच्चों को नहीं पढ़ाए जाने चाहिए?
सवाल – हिंदी साहित्य में एक समय के बाद से एक खास विचारधारा का वर्चस्व रहा है। आपके हिसाब से इस स्थिति ने साहित्य को किस तरह से प्रभावित किया – इससे लाभ हुआ या हानि?
यतीन्द्र मिश्र – यह सही है कि विचारधारा के दबाव में रचनाएँ अकसर अपने विचार को ही स्थापित करने में लगी रहती हैं। एक रचनाकार को अपनी विचारधारा का अनुसरण करते हुए, दूसरे की विचारधारा का भी सम्मान करना चाहिए। मेरे लिए वो रचनाएँ ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं, जो किसी भी विचारधारा और उसके वाद-विवाद से परे हटकर मनुष्यता की अवधारणा में भरोसा करती हैं।
सवाल – गुलज़ार फ़िल्मों में तो ख़ासे सफल गीतकार रहे हैं मगर हिन्दी साहित्य में उन्हें कुछ ख़ास महत्व नहीं मिला। वे जब साहित्यिक कार्यक्रमों में भी शामिल होते हैं तो उनका फ़िल्मी व्यक्तित्व साहित्यकार पर हावी रहता है। आप गुलज़ार के साहित्यिक रूप को कैसे देखते हैं?
यतीन्द्र मिश्र – साहित्य से जुड़े लोग अपने को इतने दर्प से क्यों देखते हैं कि वे दूसरे माध्यमों में काम करने वाले बड़े कलाकारों की रचनाधर्मिता को नकार के प्रसन्न होते हैं। एक गुलज़्ाार के उदाहरण से आपने सवाल किया है, तो मैं उन्हीं के हवाले से यह कहना चाहूँगा कि उनके लिखे ढेरों बेहतरीन हिन्दी फ़िल्मगीत और उनकी लिखी पटकथाएँ उनके बेहतर लेखक होने का प्रमाण देती हैं। उनकी निर्देशित फ़िल्में और पार्टीशन व दंगों पर कहानियाँ भी उतनी ही उत्कृष्ट हैं और साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण।
आप यदि उनकी ‘रावी पार’, ‘हिल्सा’, ‘दुम्बे’, ‘ओवर’, ‘एल.ओ.सी.’, ‘रेप मार्केट’, ‘गागी और सुपरमैन’, ‘सतरंगा’ जैसी कहानियाँ पढ़ें, तो ख़ुद जान जायेंगे कि गुलज़्ाार का लेखकीय मेयार कितना बड़ा है। बाक़ी इस बात से क्या फ़र्क पड़ता है कि कौन किस तरह उनको देखता है? सबके अपने विचार और अवधारणाएँ हैं। हर एक को कोई भी रचनाकार, गायक, फ़िल्म निर्देशक, संगीतकार, चित्रकार सन्तुष्ट नहीं कर सकता।
सवाल – फ़िल्मी गीतों और साहित्यिक गीतों में आप क्या अन्तर पाते हैं ? क्या फ़िल्मी गीतों में भी साहित्य देख पाते हैं ?
यतीन्द्र मिश्र – मैंने अभी आपके सिनेमा गीतों के प्रश्न के जवाब में यह कहा है कि कुछ फ़िल्मी गीत इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उन्हें पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए। आप पण्डित नरेन्द्र शर्मा के गीत ‘ज्योति कलश छलके/हुए सुनहरे लाल रूपहले रंग दल बादल के’ को साहित्य से अलग किस ज़मीन पर मूल्यांकित करेंगे? नीरज का लिखा ‘देखती ही रहो आज दर्पण न तुम’ और साहिर का ‘मन रे तू काहे न धीर धरे’ साहित्यिक नहीं है, तो क्या हैं? ये एक बेकार का विमर्श है कि साहित्य से जुड़ी हर चीज़ बेहतर है और फ़िल्मों से जुड़ी हर चीज़ औसत। मुझे लगता है कि बिना वजन और अभिप्राय के, कला की कैसी भी अभिव्यक्ति लोकप्रिय नहीं हो सकती।
सवाल – आजकल क्या कुछ लिख-पढ़ रहे हैं?
यतीन्द्र मिश्र – आजकल गीतकार और फ़िल्म निर्देशक गुलज़्ाार की जीवनी पर काम कर रहा हूँ, यह काम 2003 में शुरु हुआ था। पन्द्रह साल से ज़्यादा का वक्त बीता है। उसे ही पूरा करने में लगा हूँ। इसके अलावा कथक के महान नर्तक पण्डित बिरजू महाराज से एक लम्बी बातचीत रेकाॅर्ड कर रहा हूँ। सम्भवतः आगे के वर्षों में कथक की परम्परा, इतिहास और कला-नवाचार पर एक बड़ी पुस्तक लिखने की योजना है। कविताएँ तो प्राण-वायु सरीखी हैं, जिन्हें जब-तब लिखता रहता हूँ।
उत्तर प्रदेश के देवरिया जिला स्थित ग्राम सजांव में जन्मे पीयूष कुमार दुबे हिंदी के युवा लेखक एवं समीक्षक हैं। दैनिक जागरण, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, पाञ्चजन्य, योजना, नया ज्ञानोदय आदि देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में समसामयिक व साहित्यिक विषयों पर इनके पांच सौ से अधिक आलेख और पचास से अधिक पुस्तक समीक्षाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। पुरवाई ई-पत्रिका से संपादक मंडल सदस्य के रूप में जुड़े हुए हैं। सम्मान : हिंदी की अग्रणी वेबसाइट प्रवक्ता डॉट कॉम द्वारा 'अटल पत्रकारिता सम्मान' तथा भारतीय राष्ट्रीय साहित्य उत्थान समिति द्वारा श्रेष्ठ लेखन के लिए 'शंखनाद सम्मान' से सम्मानित। संप्रति - शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल एवं मोबाइल - sardarpiyush24@gmail.com एवं 8750960603

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